कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, July 26, 2009

मुझे कुछ कहना है....

दैनिक जागरण में छह साल बिताए...उस दौरान वहां बहुत कुछ लिखा पढ़ा--कुछ रोजी की ज़रूरत, कुछ मन की मजबूरी......लिखा, तो उसमें में ज़रा सा संजोया भी....बहुत कुछ तो पता नहीं कहां चला गया....हां, jagran.com पर कुछ सामग्री छप गई थी, उसमें दो-चार हिस्से आ गई. वो सबकुछ मेरे पुराने ब्लॉग पर सेव थी. आज वही सामग्री चौराहा www.chauraha1.blogspot.com पर सेव की है....संदर्भ, आंकड़े सबकुछ पुराने हैं....पर ये मसाला मेरे एक खास स्तंभ बेबाक बातचीत और सखी पत्रिका के कुछ स्तंभों में शामिल किया गया था. चौराहे पर इस तरह की सामग्री शायद आपको चौंकाए भी....देखिए ना...महापुरुषों से लेकर कंज्यूमर फ़ोरम तक और चैटिंग से चीटिंग के मामले से भोजपुरी गीतों की चर्चा तक है यहां....जो बचा-खुचा बचा रह गया, उसे यहां संजो रहा हूं....रोजी जो ना कराए वो थोड़ा है....क्या लिखने के बारे में सोचा था ज़िंदगी में और क्या-क्या लिख डाला....ख़ैर...कुछ कमेंटियाइए....कुछ कहिए, या धिक्कारिए भी....चलेगा...सबकुछ चलेगा....

देह की आज़ादी नहीं दिलाती हर पीड़ा से मुक्ति---नासिरा शर्मा


अफगानिस्तान की मजलूम औरतों के आंसुओं से लबरेज चेहरों पर उभरी दर्द की लकीरों और उनसे टपकते दुख को जब एक स्त्री ने ही अखबार के पन्नों पर रंगना शुरू किया तो पूरी दुनिया के नारीवादी एकबारगी सिहर उठे, इतना शोषण, ऐसा अत्याचार, अब तक सुना नहीं-देखना तो दूर की बात है। उन्हीं दिनों अफगानिस्तान से एक कल्चरल अटैची जेएनयू पहुंचा और कुछ लोगों से पूछने लगा, कौन है ये नासिरा, जिसने बादशाहों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की। और जब उसने देखा, नासिरा महज 27 साल की एक साधारण युवती है तो एकबारगी चौंक गया। उसके दिमाग में तस्वीर थी, कद्दावर शख्सियत की मालिक किसी बुजुर्ग महिला की। वही नासिरा अब वय और अनुभव से पकी हुई चर्चित साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। स्त्री विमर्श के नाम पर अश्लीलता भरे बयानों की दुकानदारी करने वाले साहित्यकारों के खिलाफ कुछ खुलकर वह बोलती नहीं, लेकिन कहती हैं, कीचड़ कहां-कहां है, दुनिया जानती है, मैं क्योंकर कहूं? इन्हीं नासिरा से बेबाक बातचीत की चण्डीदत्त शुक्ल ने।

स्त्री विमर्श के नाम पर देह की जिस स्वच्छंदता की बात मौजूदा दौर की कुछ नारी साहित्यकार कर रही हैं, आप उससे कितना इत्तफाक रखती हैं?

औरत को उसकी पूरी आजादी मिलनी चाहिए। वह चाहे अपना जीवनसाथी चुनने की हो या प्रेमी के रूप में किसी के चयन की आजादी हो। हां, प्राथमिक तौर पर यह गलत है क्योंकि इससे कई घर बिखरते हैं। अपनी देह किसी को दे दें, यह कोई आजादी नहीं है। देह को लेकर तरह-तरह के बंधनों से मुक्ति ही सभी पीड़ाओं का जवाब होती तो यूरोपीय समाज, अमेरिका और लंदन की स्त्रियों की आंखों में आंसू न होते।

लेकिन साहित्य में तो इस स्वच्छंदता की खूब हिमायत हो रही है?


कुछ लोग करते हैं-सिर्फ सनसनी के लिए लेकिन उनका उत्कर्ष बहुत कम देर का होता है। बाद में कोई पूछता भी नहीं। स्त्री विमर्श से हटकर अब संपूर्ण साहित्य की बात करें। मठाधीशी, खेमेबंदी और सियासत, ये सब साहित्य का अंग तो कभी न थे। अब क्योंकर हो गए? जलन और हसरत हर एक के मन में होती है। जब कुछ अच्छा कोई लिखता है, तो एकबारगी होता ही है, काश! मैं इतना अच्छा रच पाता? जलन के भाव में कहते हैं, यह मैं क्यों नहीं कर पाया? उसने कैसे कर लिया? अब यह भाव सकारात्मक हो तब तो रचनात्मकता विकसित होती है। कुछ बेहतर सर्जन हो पाता है। एकदम अलग धरती पर जाकर सोता फूटता है। नकारात्मक चिंतन होने पर चीजें बिगड़ने लगती हैं और यहीं से साहित्य में सियासत का उद्गम होता है। दूसरे, एक बात और है, विज्ञापन युग और लेखन, बाजार व साहित्यकार-दोनों अलग-अलग चीजें हैं। इन्हें जब भी गड्डमड्ड किया जाता है तो तरह-तरह की सियासत जन्म लेने लगती है। मतलब साहित्य में सियासत बाजार के प्रभाव से ही संचालित होती है? बेशक! कई प्रकाशक कुछ बार अपनी जिम्मेदारियां निभाने से चूक जाते हैं। वे लेखक से कहते हैं, अपनी स्थिति का लाभ उठाइए, गोष्ठी कराइए, किताब हाईलाइट होगी। आदि-इत्यादि। यहीं पर सर्जन से इतर सियासत शुरू हो जाती है। किंतु कुछ जगह तो परस्पर निंदा-प्रशंसा का बहुत जोर है? अब जो लोग अपनी प्राइवेट पत्रिकाएं निकाल रहे हैं, उन्हें भी तो पैसा चाहिए? अब वे कुछ पैसा लेकर दो-चार चीजें किसी की छाप दें। इस पर कुछ विवाद खड़ा हो जाए तो यह सामान्य ही है?


किसका नाम लेंगी?

किसी का नहीं। आज का दौर हर तरह की अति के विरुद्ध है। वह चाहे किसी को प्रतिष्ठित करने के लिए की गई अति हो या किसी और तरह की? अब मैं क्योंकर किसी का नाम लूं? सच बोलने का जोखिम तो साहित्यकारों को ही उठाना है? सच किसी से छिपा है क्या? वैसे भी कीचड़ में घुसकर कमल रोपने की कोशिश मैं नहीं करना चाहती। पाठकों को सबकुछ पता है। आप यह तो नहीं कहना चाहतीं कि जो लोग साहित्य में विवाद खड़े करने की कोशिशें कर रहे हैं, वे मीडियाकर्स हैं? मुझसे किसी सनसनी की उम्मीद न कीजिए। कौन औसत प्रतिभा का है और कौन योग्य, इसका मूल्यांकन पाठक ही करेंगे। आपका काम जितना चर्चित है, उसके बरक्स आप वाद-विवाद के केंद्र में क्यों नहीं घिरतीं मैं चाहती हूं कि मेरी कलम को लोग जानें, सराहें और उससे भी ज्यादा समझें। यही वजह है कि मैं साहित्यिक सम्मेलनों में भी कम ही जाती हूं। विवादों से प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं होता।


दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरे स्तंभ--बेबाक बातचीत---की एक कड़ी

बड़े भ्रम में होते हैं विवाद खड़ा करने वाले - प्रयाग शुक्ल




(इस साक्षात्कार के साथ प्रकाशित चित्र श्री तनवीर फारूक़ी जी का खींचा हुआ है....इस पर उनका कॉपीराइट है...उनके ब्लॉग से ही ये चित्र साभार लिया गया है...)

रोज बदल रही दुनिया में मैं एकांतवासी की भूमिका में हूं.. कहकर सहसा गंभीर हो गए उस शख्स को आप पलायनवादी न समझें। शीरीं जुबान से आप कैसे हैं? पूछ अपनी मृदुता से मुग्ध कर देने वाले प्रयाग शुक्ल चर्चा में रहने के लिए अपनाए जा रहे हथकंडों से दूर बैठकर भी संतुष्ट हो चुके शख्स हैं..तकरीबन छल-छद्म की दुनिया से अलग-थलग अपने निज के संसार में प्रसन्न सर्जक। दिनमान और नवभारत टाइम्स में महत्वपूर्ण पदों पर कई साल नौकरी कर चुके प्रयाग से रविवार के अलावा हफ्ते भर मंडी हाउस स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में निदेशक के कमरे के ठीक बगल रंग-प्रसंग के दफ्तर में बेझिझक मिला जा सकता है। प्रयाग इन दिनों रानावि की पत्रिका रंग प्रसंग के संपादक हैं और संवेदनशील कवि के रूप में उनकी पहचान तो जग-जाहिर है ही। प्रयाग से हमने जाना साहित्य की दुनिया में हो रही सियासत, युवाओं के मोहभंग और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के बारे में : क्या यह क्रूर सत्य नहीं कि साहित्य समाज के लिए की परिभाषा 21वीं सदी की दहलीज तक आते-आते औंधे मुंह गिर गई है? साहित्य तो बराबर समाज के लिए ही लिखा जाता रहा है। कुछ दिक्कतें जरूर हो सकती हैं। हिंदी में हालात कुछ ऐसे हुए हैं कि लेखक का समाज नहीं बचा है। 20 साल पहले तक शहर से बाहर कहीं जाने पर या फिर अपने आस-पास पाठक समाज के दर्शन हो जाते थे। आज वह कहीं नजर नहीं आता। पाठकों के लिहाज से हम दरिद्र कहां हैं? हिंदी अखबार तो करोड़ से भी ज्यादा पाठकों को संजो रहे हैं? यह एक विचित्र बात है कि एक करोड़ से भी ज्यादा हिंदी अखबार बिक रहे हैं लेकिन किताबें उसी रफ्तार से घटती जा रही हैं। अखबारों को सूचना के लिहाज से तो बढ़त मिल गई है लेकिन मुद्रित साहित्य लुप्त होने की स्थिति तक पहुंच रहा है। आपकी मूल चिंता क्या है? किताबों के प्रति मोहभंग या फिर कुछ और..? हम अपनी विरासत को ही भूलते जा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो क्या है कि लोग प्रेमचंद, सुभद्राकुमारी चौहान, भगवती चरण वर्मा को भी भूल बैठे हैं। जो पीढ़ी अपनी जड़ें भुला देगी, वह खुद कैसे पनपेगी? अखबारों ने तो साहित्य के संरक्षण के लिए काम किया है? अखबारों को साहित्यिक बनाने की जरूरत बिल्कुल नहीं है। कुछ जगह साहित्य के पृष्ठ भी निकाले जा रहे हैं लेकिन अव्यवस्थित ढंग से। इससे बेहतर तो यह है कि धरोहर पर केंद्रित करके बिसरे जा रहे साहित्यकारों की रचनाओं, विचारों को प्रकाशित किया जाए। अब साहित्यिक पृष्ठ तो निकल रहे हैं लेकिन कई अवांछित विज्ञापन साहित्य के उसी पन्ने को जबरिया घेर लेते हैं। इस बात का कभी दुख नहीं होता कि लोग मुझे बहुत बार नहीं पहचान पाते। न पहचानें, लेकिन साहित्य के अमर लोगों को क्योंकर भुला दिया जाता है? लिखने के लिए पहचाने जाने वाले साहित्यकार आज स्कैंडलों के लिए ज्यादा मशहूर क्यों हैं? कुछ साहित्यकार आश्वस्त नहीं हैं कि समाज उनके साथ है, शायद इसीलिए ऐसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। आम तौर पर हिंदी का लेखक समझ नहीं पा रहा है कि समाज बदल रहा है। शहर में शोर मचाकर खुद को छपवाने में लगे लेखक लोगों के बीच जाकर उनकी दिक्कतें समझें, फिर लिखें तो स्वीकार्यता जरूर मिलेगी। एक खास बात यह भी है कि विवादों से कुछ नहीं होने-जाने वाला। ऐसा करने वाले लोग बहुत बड़े भ्रम में हैं। वे इतनी छोटी दुनिया में रह रहे हैं, जहां से बाहर का नजारा उन्हें नजर नहीं आता। औसत प्रतिभा का संक्रमण सचेत साहित्य संसार को दूषित तो नहीं कर रहा? मैं चीजों को किसी एक औसत परिभाषा में बांधने के विरुद्ध हूं। प्रतिभा भी औसत नहीं हो सकती। प्रतिभा की कहीं कमी नहीं है लेकिन उसका उपयोग सही तरीके से नहीं हो रहा है। साहित्य की दुनिया में त्रुटियां यह हुई हैं कि हम युवाओं की नब्ज नहीं पकड़ सके हैं इसीलिए उन्हें हम अपनी ओर नहीं खींच पा रहे हैं। साहित्यिक कार्यक्रम इतने फीके क्यों पड़ गए हैं? फिल्मों, चित्र प्रदर्शनियों, नाटकों, नृत्य के कार्यक्रमों व संगीत जगत के प्रति तो युवा आकर्षित हो रहे हैं लेकिन साहित्यिक गोष्ठियों में अब भी युवा पीढ़ी की भागीदारी के नाम पर सन्नाटा ही नजर आता है। आज का युवा बौद्धिक तौर पर सजग और संभला हुआ है। असल गड़बड़ कई साहित्यिक संस्थाओं की तरफ से हुई है। उनकी नीतियां अस्पष्ट और भ्रामक हैं। युवाओं के लिए वह ऐसा कुछ नहीं दे पा रही हैं, जो नौजवान पीढ़ी चाहती है। समाज बदला है, पीढ़ी बदली है, उनकी आकांक्षाएं बदली हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पा रहे हैं। पहले तो मुद्रित शब्दों के प्रति लोग आस्थावान थे, अब वह प्रतिबद्धता क्यों नहीं रही? पहले समाज में दूसरी कलाएं इतने प्रभावकारी ढंग से उपस्थित नहीं थीं। अब साहित्य के लिए अन्य कलाओं को औजार बनाकर इस्तेमाल करना होगा। कला को औजार की तरह इस्तेमाल करने के संदर्भ में आपकी पहल तो काफी प्रासंगिक बन सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का मंच तो आपके साथ है ही। श्रुति कार्यक्रम इस कोशिश की गवाही है। कहानी-कविता के मंचन के जरिए ऐसा प्रयास हमने किया है। कई अनचीन्हे साहित्यधर्मियों को मंच देने का उपक्रम भी हुआ है। आगे भी हम ऐसा करते रहेंगे। विष्णु खरे ने कहीं कहा है कि आपकी कविताएं उन्हें कविता जैसी नहीं लगतीं? यह उनकी राय है और वे ऐसी सोच रखने के लिए स्वतंत्र हैं। इस पर मैं क्या कहूं और क्यों कहूं? क्या रंग-प्रसंग बहुत बौद्धिक नहीं होता जा रहा है? सूचना-तकनीक की समृद्धता वाले युग में कार्यक्रमों की सूचनाएं छापना बासी थाली परोसने जैसा है। विचारों की पुष्टता सर्वाधिक आवश्यक है। इन दिनों क्या कर रहे हैं? रवींद्रनाथ ठाकुर की 12 कहानियों का अनुवाद मैंने पूरा कर लिया है। स्कॉलॉस्टिक प्रकाशन इस भावानुवाद को प्रकाशित कर रहा है। वैसे, शोर मचाने वालों की दुनिया में मैं एकांतवासी की भूमिका में हूं। मुझे तत्काल लाभ की चिंता के बगैर काम करना अधिक सुख देता है। भविष्य की नींव ऐसे ही खड़ी होती है।

इंटरनेट पर सवार भोजपुरी




कुछ दिन पहले तक यह सोचना भी मुश्किल था कि लिट्टी-चोखा का जायका इंटरनेट के जरिए फिजी तक पहुंच सकेगा या फिर मॉरिशस में रहने वाले, 71 वर्षीय सौरव परमानंद वेबसाइट पर भोजपुरी का लेख पढ़ सकेंगे। हालांकि अब माहौल बदल चुका है। गंवई भाषा कही जाने वाली भोजपुरी एबीसीडी, यानी आरा, बलिया, छपरा, देवरिया की सीमा से बाहर निकलकर सिंगापुर, सूरीनाम, वेस्टइंडीज, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, चीन और जापान समेत 49 देशों तक पहुंच रही है। दरअसल, इन दिनों इंटरनेट पर भोजपुरी से संबंधित वेबसाइट्स की भरमार है। यहां न सिर्फ देशी व्यंजन बनाने की विधि उपलब्ध है, बल्कि ऑर्डर देकर सतुआ, पंचांग, चीनिया केला, गमछा और जर्दा भी मंगाया जा सकता है। गौरतलब है कि 23 नवंबर, 2005 को 43 देशों के 11 हजार, 56 लोगों ने बिहार के विधानसभा चुनाव परिणामों की जानकारी हासिल करने के लिए इन साइट्स की मदद ली। कई लोग भोजपुरिया शादी विकल्प से मनपसंद साथी ढूंढने की कोशिश भी कर रहे हैं। गीत-संगीत की बात करें, तो http://madhu90210।tripod।com/id23।html पर लॉग ऑन कर मनोज तिवारी मृदुल के बगलवाली जान मारली और शहर के तितली घूमे होके मोपेड पे सवार का आनंद लिया जा सकता है, जबकि गुड्डू रंगीला के हमरा हऊ चाहीं व ऐ चिंटुआ के दीदी तनी प्यार करै दे गीत भी साइट पर उपलब्ध हैं। en।wikipedia।org/wiki/Bhojpuri_language पर विजिट कर जाना जा सकता है कि इंडो-ईरानियन लैंग्वेज श्रेणी के तहत भोजपुरी किस स्थान पर है। भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका की वेबसाइट की शुरुआत का हो, का हाल बा! के अपनत्व भरे संबोधन के साथ होती है, वहीं http://222।bhojpuri2orld।org/क्लिक करने पर राउर स्वागत बा जैसी इबारत पढ़ने को मिलती है। यहां लागी नाहीं छूटे रामा, गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबौ, बलम परदेसिया और गंगा किनारे मोरा गांव जैसी चर्चित फिल्मों के गीत भी सुने जा सकते हैं। वैसे, पिछले दिनों डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन द्वारा मुंबईवासी शशि सिंह और सुधीर कुमार की भोजपुरिया।कॉम वेबसाइट को ई कल्चर श्रेणी में पहला पुरस्कार मिलने के साथ यह बात प्रमाणित हो गई है कि साइबर की दुनिया में भोजपुरी धीरे-धीरे ही सही, धाक जमा रही है।

स्टील को बनाया सोना


विश्व की नंबर दो यूरोपीय इस्पात कंपनी आर्सेलर के रूस की नंबर-एक कंपनी सेवरस्ताल के साथ विलय की घोषणा के बावजूद स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल अपनी परियोजना को ताकतवर बताने में जुटे हैं। नाम और संपदा, दोनों के लिहाज से लक्ष्मी निवास बने मित्तल न केवल विश्व के तीसरे रिचेस्ट व्यक्ति (फो‌र्ब्स के अनुसार) और पहले नंबर पर कायम धनी भारतीय हैं, बल्कि वे 2006 में 14.8 बिलियन डॉलर की संपदा के साथ ब्रिटेन के सर्वाधिक धनी एशियन की कुर्सी पर कब्जा भी जमाए हुए हैं। भविष्य को राह दिखाने वाली उनकी सोच और शक्ति का लोहा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मानते हैं, तभी तो उन्होंने कुछ अरसा पहले मित्तल से अपील की थी, आप अपने होमलैंड लौट आएं और भारतीय स्टील उद्योग के निर्माण में मदद करें..। हालांकि उपलब्धियों और प्रशंसा से दूर लक्ष्मी मित्तल के कदम थमते नहीं। लक्ष्मी केवल व्यापारी नहीं हैं, वे भारत को प्रोफे लक्ष्मी निवास मित्तल ने स्टील उद्योग को भी सोने की खदान बना दिया। इसके पीछे दूरदृष्टि और कड़ा परिश्रम ही प्रमुख कारक हैं ..
ेशनलिज्म से लैस भी करना चाहते हैं। 360 मिलियन की लागत से राजस्थान सरकार के साथ मिलकर एलएनएम फाउंडेशन के आईटी इंस्टीटयूट की जयपुर में स्थापना से तो यही लगता है। कोलकाता में जन्मे लक्ष्मी रहते भले ही लंदन में हों, लेकिन उनकी जड़ें भारत में गहरे तक हैं। झारखंड में स्टील प्रोडक्शन ग्रीनफील्ड यूनिट की शुरुआत का फैसला इसी बात को साबित करता है। 2002 तक 8.7 बिलियन डॉलर टर्न ओवर का व्यापार करने वाला मित्तल समूह देखते ही देखते यदि कई गुना प्राफिट हासिल करने लगा, तो यह कोई चमत्कार नहीं था। दरअसल, बिना रिस्क के गेम नहीं होता। लक्ष्मी मित्तल जब 26 साल के थे, तभी उन्हें व्यापार संभालने की जिम्मेदारी दे दी गई थी।
इंडोनेशिया में स्टील कंपनी स्थापित कर लक्ष्मी विश्व के स्टील किंग बने, तो इसके पीछे साफ दृष्टि व कठोर श्रम का ही हाथ है। इस्पात इंटरनेशनल एनवी, इस्पात कारमेट व इंडो इस्पात जैसी 12 कंपनियों के मालिक लक्ष्मी व्यापार में भी सक्रिय हैं। उन्हें एक जुनून भी है-बीमार पड़ी स्टील कंपनियों को खरीदना और चमकते सोने में बदल देना।
कनाडा से त्रिनिदाद व टोबैगो से कजाकिस्तान व इंडोनेशिया तक व्यापार कर रहे मित्तल यह बताने में सफल रहे हैं कि जुनून हो, तो स्टील भी बन सकता है सोना!

योग्यता से पाई ऊंचाई



तेज-तर्रार, लेकिन नम्र हैं। खासे पढ़े-लिखे और नई पीढ़ी को बढ़ावा देने वाले, यानी महिंद्रा एंड महिंद्रा के मैनेजिंग डायरेक्टर आनंद महिंद्रा। हार्वर्ड सरीखे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से उन्होंने बिजनेस मैनेजमेंट और आ‌र्ट्स की डिग्री भी हासिल की है।
1981 में आनंद भारत लौटे। सबसे पहले उन्होंने महिंद्रा युगिन स्टील कंपनी लिमिटेड के साथ बतौर एक्जिक्यूटिव असिस्टेंट काम शुरू किया। बाद में वे कंपनी के फाइनेंस डायरेक्टर बने और 1989 में उन्हें प्रेसिडेंट व डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर की जिम्मेदारी सौंपी गई। 4 अप्रैल, 1991 को आनंद महिंद्रा एंड महिंद्रा के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे। कुछ ही साल में कंपनी के शीर्ष पद पर पहुंचे आनंद की शुरुआत को पहले गंभीरता से नहीं लिया गया। आनंद की कोशिशों को ज्यादातर लोगों ने एक व्यावसायिक परिवार के लाडले की शुरुआत का नाम दिया।
हालांकि म बेशक आनंद महिंद्रा सफल उद्योगपति हैं, लेकिन इससे अलग उनकी चर्चा युवा प्रतिभाओं को अवसर प्रदान करने वाले काबिल और संवेदनशील इंसान के रूप में भी होती है..
मुंबई के महिंद्रा टॉवर में तैयार की गई योजनाओं को सफलता के साथ लागू कर आनंद ने साबित कर दिया कि उनकी नियुक्ति महज पारिवारिक उपहार नहीं है, बल्कि वे बिजनेस के जानकार व उपयुक्त व्यक्ति हैं। 1994 में आनंद के अंकल केशब के कंपनी के कामकाज से किनारा कर लेने के बाद आनंद पर दोहरी जिम्मेदारी आ गई-योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने के साथ-साथ सफलता के साथ कामकाज चलाने की। उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया है, पहले हम जीप और ट्रैक्टर की बिक्री भर करते थे, लेकिन 1994 के बाद हमने योजना बनाई कि कारोबार को और विस्तार देना होगा।
2002 में आनंद ने देश की अत्याधुनिक स्पो‌र्ट्स वेहिकल स्कॉर्पियो लॉन्च की और उसे लोगों के बीच प्रिय बनाने का काम भी किया।
इसके अलावा कोटक महिंद्रा फाइनेंस व हार्वर्ड बिजनेस स्कूल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्थापना समेत आनंद ने कई ऐसे काम किए, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को और मजबूत बना दिया। गौर करने वाली बात यह है कि आर्थिक विषयों पर आनंद लगातार लिखते-पढ़ते भी रहते हैं। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के निदेशक के रूप में उनकी सक्रियता भी लोगों को अब तक याद है। वे कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) के प्रेसिडेंट बने और एग्रिकल्चर काउंसिल के कामकाज पर खास ध्यान देकर खेतीबाड़ी की दुनिया को स्टैब्लिश करने का अभियान छेड़ दिया। इसी तरह केसी महिंद्रा एजुकेशनल ट्रस्ट के ट्रस्टी और महिंद्रा युनाइटेड व‌र्ल्ड कॉलेज ऑफ इंडिया के गवर्नर के रूप में आनंद कुछ रिपो‌र्ट्स पढ़कर ही संतुष्ट नहीं हो जाते, बल्कि नई प्रतिभाओं को उचित मंच देने की कोशिश में लगातार जुटे रहते हैं। खुशी की बात यह है कि आनंद अब भी न थके हैं, न रुके हैं, बल्कि चेन्नई में एक रिअॅल इस्टेट प्रोजेक्ट को अंतिम रूप देने में जुटे हैं। पिछले दिनों एक मीडिया प्रतिनिधि से बातचीत में उन्होंने माना कि टीवी कैमरे उनकी गर्दन के पास रहते हैं और उनसे बचने के लिए वे किसी स्टंटमैन की तरह इधर-उधर भागते रहते हैं, लेकिन यह कोशिश मीडिया से अरुचि के कारण नहीं है। सच तो यह है कि स्टार बनने से ज्यादा जरूरी उनके लिए समय पर अपना काम पूरा करना है।
रिअॅल इस्टेट, हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट, ट्रैक्टर-जीप निर्माण, फाइनेंस, समाजसेवा..जाने कितने ही अलग-अलग क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित करने वाले आनंद ने बहुत कम समय में साबित कर दिया है कि उनकी कामयाबी कोई घरेलू उपहार नहीं है, बल्कि यह सफलता उन्होंने काबिलियत के दम पर हासिल की है।


दैनिक जागरण के जोश सप्लिमेंट में प्रकाशित

शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम


हमहि तुम्हहि सरिबरि कस नाथा / कहहु न कहां चरन कहं माथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसु सहित बड़ नाम तोहारा..। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जिनका सादर नमन करते हों, उन शस्त्रधारी और शास्त्रज्ञ भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में संभव नहीं। वे योग, वेद और नीति में निष्णात थे, तंत्रकर्म तथा ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे, यानी जीवन और अध्यात्म की हर विधा के महारथी।
विष्णु के छठे अवतार परशुराम पशुपति का तप कर 'परशु' धारी बने और उन्होंने शस्त्र का प्रयोग कुप्रवृत्तियों का दमन करने के लिए किया। कुछ लोग कहते हैं, परशुराम ने जाति विशेष का सदैव विरोध किया, लेकिन यह तार्किक सत्य नहीं। तथ्य तो यह है कि संहार और निर्माण, दोनों में कुशल परशुराम जाति नहीं, अपितु अवगुण विरोधी थे। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में 'जो खल दंड करहुं नहिं तोरा/भ्रष्ट होय श्रुति मारग मोरा' की परंपरा का ही उन्होंने भलीभांति पालन किया। परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की पुनस्र्थापना के लिए शस्त्र उठाए। उनका उद्देश्य जाति विशेष का विनाश करना नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे केवल हैहय वंश को समूल नष्ट न करते। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु का अभिनंदन किया, तो कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन करने में भी परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्र किसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते हैं, वरन् असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कौशल्या पुत्र राम और देवकीनंदन कृष्ण से अगाध स्नेह रखने वाले परशुराम ने गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) को न सिर्फ युद्धकला में प्रशिक्षित किया, बल्कि यह कहकर आशीष भी दी कि संसार में किसी गुरु को ऐसा शिष्य पुन: कभी प्राप्त न होगा!
पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को ही त्रेता युग का प्रारंभ हुआ था। इसी दिन, यानी वैशाख शुक्ल तृतीया को सरस्वती नदी के तट पर निवास करने वाले ऋषि जमदग्नि तथा माता रेणुका के घर प्रदोषकाल में जन्मे थे परशुराम।
परशुराम के क्रोध की चर्चा बार-बार होती है, लेकिन आक्रोश के कारणों की खोज बहुत कम हुई है। परशुराम ने प्रतिकार स्वरूप हैहयवंश के कार्तवीर्य अर्जुन की वंश-बेल का 21 बार विनाश किया था, क्योंकि कामधेनु गाय का हरण करने के लिए अर्जुनपुत्रों ने ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी थी। भगवान दत्तात्रेय की कृपा से हजार भुजाएं प्राप्त करने वाला कार्तवीर्य अर्जुन दंभ से लबालब भरा था। उसके लिए विप्रवध जैसे खेल था, जिसका दंड परशुराम ने उसे दिया। ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि सहस्त्रबाहु ने परशुराम के कुल का 21 बार अपमान किया था। परशुराम के लिए पिता की हत्या का समाचार प्रलयातीत था। उनके लिए ऋषि जमदग्नि केवल पिता ही नहीं, ईश्वर भी थे। इतिहास प्रमाण है कि परशुराम ने गंधर्वो के राजा चित्ररथ पर आकर्षित हुई मां रेणुका का पिता का आदेश मिलने पर वध कर दिया था। जमदग्नि ने पितृ आज्ञा का विरोध कर रहे पुत्रों रुक्मवान, सुखेण, वसु तथा विश्वानस को जड़ होने का श्राप दिया, लेकिन बाद में परशुराम के अनुरोध पर उन्होंने दयावश पत्नी और पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया।
पशुपति भक्त परशुराम ने श्रीराम पर भी क्रोध इसलिए व्यक्त किया, क्योंकि अयोध्या नरेश ने शिव धनुष तोड़ दिया था। वाल्मीकि रामायण के बालकांड में संदर्भ है कि भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष पर शर-संधान करने के लिए श्रीराम को कहा। जब वे इसमें सफल हुए, तब परशुराम ने भी समझ लिया कि विष्णु ने श्रीरामस्वरूप धारण किया है।
परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पड़ा था। मंगलमूर्ति ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए।
अश्वत्थामा, हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूप परशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरजीवी हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है, 'अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:/कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:'।
ऐसे समय में, जब शास्त्र की महिमा को पुन: मान्यता दिलाने की आवश्यकता है और शस्त्र का निरर्थक प्रयोग बढ़ चला है, भगवान परशुराम से प्रेरणा लेकर संतुलन बनाने की आवश्यकता है, ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके और मानवता त्राहि-त्राहि न करे।


दैनिक जागरण में प्रकाशित

गैरेज से शिखर तक


15देश, 100 से ज्यादा कार्यालय, 30 हजार से ज्यादा कर्मचारी-अधिकारी और दुनिया भर के कंप्यूटर व्यवसायियों, उपभोक्ताओं का विश्वास..शिव नाडार अगर सबकी अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं, तो इसके केंद्र में उनकी मेहनत, योजना और सूझबूझ ही है।
अगस्त 1976 में एक गैरेज में उन्होंने एचसीएल इंटरप्राइजेज की स्थापना की, तो 1991 में वे एचसीएल टेक्नोलॉजी के साथ बाजार में एक नए रूप में हाजिर हुए। पिछले तीन दशक में भारत में तकनीकी कंपनियों की बाढ़-सी आ गई है, लेकिन एचसीएल को उत्कर्ष तक ले जाने के पीछे शिव नाडार का नेतृत्व ही प्रमुख है। नाडार की कंपनी में बड़े पद तक पहुंचना भी आसान नहीं होता। शिव ने एक बार कहा था, मैं नेतृत्व के अवसर नहीं देता, बल्कि उन लोगों पर निगाह रखता हूं, जो कमान संभाल सकते हैं। एचसीएल में उन्होंने इसका व्यावहारिक परीक्षण भी किया है। उनके कई कर्मचारी एक के बाद एक जिम्मेदारियां सं 60 साल का होने के बावजूद वे युवाओं से भी तेज गति के साथ काम करते हैं। आइए मिलते हैं 16 हजार, 625 करोड़ की कंपनी हिंदुस्तान कंप्यूटर्स लिमिटेड (एचसीएल) के सीईओ और चिर युवा शिव नाडार से..
ंभालते हुए जब सफल साबित हुए, तो शिव ने उन्हें बड़े पद देने में कभी हिचक नहीं दिखाई। एचसीएल की विभिन्न शाखाओं, मसलन-इन्फोसिस्टम्स, फ्रंटलाइन सॉल्यूशंस, कॉमेट और एचसीएल अमेरिका के लिए उच्चाधिकारी चुनने में नाडार ने इसी रणनीति का इस्तेमाल किया है। कुछ साल पहले फो‌र्ब्स की सूची में शामिल धनी भारतीयों में से एक, नाडार 1968 तक तमिलनाडु की डीसीएम कंपनी में काम करते थे। उन्होंने अपने साथ के छह लोगों को प्रेरणा दी, क्यों न एक कंपनी खोली जाए, जो ऑफिस इक्विपमेंट्स बनाए। फलत: 1976 में एचसीएल की नींव पड़ी। 1982 में जब आईबीएम ने एचसीएल को कंप्यूटर मुहैया कराना बंद कर दिया, तब नाडार और उनके साथियों ने पहला कंप्यूटर भी बना लिया। फिलहाल, हालत यह है कि एचसीएल की 80 फीसदी आमदनी कंप्यूटर और ऑफिस इक्विपमेंट्स से ही होती है। फरवरी 1987 में चर्चित पत्रिका टाइम ने लिखा था, पूरी दुनिया नाडार की सोच और भविष्य के लिए तैयार किए गए नेटवर्क को देखकर आश्चर्यचकित और मुग्ध है। दरअसल, नाडार का साम्राज्य अर्थशास्त्र और शासन को नई परिभाषा देने वाला है। वैसे, तकरीबन तीन दशक पहले जब नाडार ने कंपनी स्थापित की थी, तो यह एक दांव की तरह ही था। तमिलनाडु में पहले नौकरी छोड़ना और बाद में दिल्ली में क्लॉथ मिल की जमी-जमाई जॉब को भी ठोकर मार देना..ऐसा साहस नाडार ही कर सकते थे, लेकिन वे न सिर्फ कामयाब हुए, बल्कि उन्होंने साथियों और निवेशकों का भरोसा भी जीता। मधुरभाषी नाडार बताते हैं, पिछले तीन-चार दशक में मैंने देखा है कि आईटी इंडस्ट्री का काफी विकास हुआ है। खासकर, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, सर्विसेज, सॉल्यूशंस, नेटवर्किग, कम्युनिकेशन, इंटरनेट और आईटी इन्फ्रॉस्ट्रक्चर की दिशा में काफी संभावनाएं बढ़ी हैं। मैंने समय रहते अवसर पहचान लिया और इसीलिए कामयाब भी हुआ।
उनकी सोच का लोहा माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भी मानते हैं, तभी तो 1996 में जब वे भारत आए, तब उन्होंने कंप्यूटर की दुनिया से जुड़े लोगों में सबसे पहले शिव नाडार से मुलाकात की। नाडार के जीवन में एक और बात राहत देने वाली है..वे कारोबार में कितने ही व्यस्त क्यों न हों, पत्नी किरण और बेटी रोशनी के लिए वक्त निकालना कभी नहीं भूलते।
इन दिनों यूएस बेस्ड एनआरआई बन चुके नाडार ने बेहतर योजना, अनुशासन और टीमवर्क की बदौलत जो सफलता हासिल की है, वह चौंकाती तो है, उस राह पर बढ़ने की प्रेरणा भी देती है।


दैनिक जागरण के जोश सप्लिमेंट में प्रकाशित

झुकना नहीं है आदत में


हर दिन पंद्रह घंटे कड़ी मेहनत करने वाले रतन टाटा देश के सबसे बड़े संगठनकर्ता हैं, जिन्होंने कुटीर उद्योगों की भारतीय संस्कृति को आधुनिक तकनीक से लैस विशाल कारखानों के संजाल में संजोया और लाखों लोगों को सुखमय व संपूर्ण जीवन जीने का रास्ता दिखाया।
यूं तो 1868 में ही जमशेद जी नुसेरखान जी टाटा द्वारा स्थापित हाउस ऑफ टाटा ने बाद में टाटा समूह के रूप में स्वदेशी उद्योगों को सम्मान और स्थापना दिला दी थी, लेकिन 1991 में जब इसकी बागडोर रतन टाटा के हाथ में आई, तब तक स्थितियां बदल चुकी थीं। तेज प्रतिस्पद्र्धा और उदारीकरण के दौर में 10.627 करोड़ रुपए टर्नओवर के टाटा समूह की कमान संभालने के बाद रतन टाटा को बाजार की होड़ से तो जूझना ही था। कमान संभालने के बाद उन्होंने ग्रुप कंपनियों के प्रबंध निदेशकों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष तय कर दी।
आत्मविश्वास, निर्भीकता और कड़ा परिश्रम..इन्
्हीं के दम पर रतन टाटा ने 1991 में तकरीबन 11 हजार करोड़ रुपए के टर्नओवर को 2005 तक 61 हजार करोड़ रुपए के सालाना कारोबार तक पहुंचा दिया। दरअसल, 1983 में ही रतन ने आंक लिया था कि टाटा समूह में लचीलापन बढ़ रहा है और जब 54 वर्ष की उम्र में उन्हें नेतृत्व का जिम्मा मिला, तो उन्होंने निढाल हो रहे ग्रुप की तस्वीर बदल दी।
1937 में जन्मे रतन ने शुरुआती पढ़ाई केलवियन स्कूल, मुंबई से की और बाद में यूएसए की कोरनेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर में ग्रेजुएशन किया। अमेरिका में जॉन्स एंड इमोंस कंपनी में उन्होंने इंटर्नशिप भी की। 1962 में रतन भारत लौटे और 1971 में 40 लाख रुपए घाटे वाली कंपनी नेल्को की कमान संभाली। कुछ दिन बाद कंपनी में तालाबंदी भी हो गई, लेकिन रतन की आदत में झुकना कहां था? ताले खुले और नेल्को में तीन गुना उत्पादन होने लगा। उनकी सजगता का अहसास एक नव वर्ष संदेश से लगाया जा सकता है, हमें ज्यादा आक्रामक होना होगा। उत्पादों की क्वालिटी और सेवा का स्तर अधिक बेहतर बनाना होगा।
स्पष्ट है—कुछ नया, कुछ खास करने का जुनून रतन टाटा पर हमेशा छाया रहता है। ऐसा न होता, तो ट्रक बनाने वाली टाटा मोटर्स खूबसूरत इंडिका कैसे तैयार कर पाती? इस सबके पीछे बेशक है एक ही शख्सियत—रतन टाटा। यूं ही कहा भी नहीं जाता, टाटा आधुनिक भारत का कोहिनूर है और टाटा के रतन हैं—रतन टाटा।


दैनिक जागरण के जोश सप्लिमेंट में प्रकाशित

अपना हक पहचानें

लता शर्मा ने पिछले दिनों एक नामी रिटेल स्टोर से कुछ शॉपिंग की। स्टोर से उन्हें एक ईनामी कूपन दिया गया। सेल्सगर्ल ने बताया, 'हम लकी ड्रॉ का आयोजन करेंगे और ईनाम आपके नाम निकल सकता है।' लता ने कूपन रख लिया। कुछ दिन बाद वह फिर उसी स्टोर में खरीदारी करने पहुंचीं। उन्होंने सेल्सगर्ल से कूपन के बारे में पूछा, 'ड्रॉ निकल गया?' जवाब मिला, 'हमने वह स्कीम वापस ले ली थी।' लता को संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। वैसे, कूपन पर भी कोई विवरण अंकित नहीं था। क्या लता के साथ ठगी हुई? हां, उसके साथ ठगी ही हुई। उपभोक्ता कानून में इसे 'अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस' कहा गया है। खैर, यह तो एक लुभावना वादा भर था। उपभोक्ता कदम-कदम पर ठगी का शिकार हो जाते हैं, लेकिन ऐसे में घबराने की जरूरत नहीं। जरूरत है थोड़ी-सी समझदारी की।
सच तो यह है कि आप कोई वस्तु खरीदती हैं या किसी सेवा का सशुल्क लाभ हासिल करती हैं, तो आप उपभोक्ता हैं और वस्तु अथवा सेवा के संबंध में पूरी गुणवत्ता प्राप्त करने की हकदार भी। ऐसे में अगर आपको सेवा या वस्तु की क्वालिटी में कोई कमी नजर आए, तो हिचकिचाएं नहीं। आपके हितों की सुनवाई के लिए सरकार की ओर से उपभोक्ता फोरम का गठन किया गया है। वस्तु की गुणवत्ता अथवा सेवा में कमी होने पर आप उपभोक्ता फोरम के पास शिकायत दर्ज करा सकती हैं। शिकायत की वजह कुछ भी हो सकती है। चाहे आपको एमआरपी से अधिक कीमत पर कोई वस्तु बेची गई हो, या गारंटी अवधि में शिकायत होने पर एक्शन न लिया गया हो। इस संबंध में उपभोक्ता फोरम में आप अपना दावा दायर कर सकती हैं। हालांकि इसके लिए ज्यूरिसडिक्शन निर्धारित किए गए हैं। मसलन 20 लाख तक रुपये तक की शिकायत हो, तो आपको जिला / क्षेत्रीय स्तर पर उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम में शिकायत दर्ज करानी होगी। आवेदन पत्र में आपको अपना परिचय, सेवादाता / विक्रेता / संबंधित कंपनी का परिचय, संक्षिप्त शिकायत, संबंधित दस्तावेज, शिकायत के निवारण के लिए स्वयं द्वारा किए गए प्रयासों की सूची और क्या हल चाहती हैं, इसका ब्योरा देना होगा।
क्षेत्रीय स्तर पर निर्णय होने के बाद शिकायतकर्ता अथवा द्वितीय पक्ष स्टेट फोरम में अपील कर सकते हैं। 20 लाख से ज्यादा का दावा होने पर स्टेट फोरम में ही सुनवाई होती है। यदि एक करोड़ रुपये का दावा है, तो आपको राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम के पास शिकायत दर्ज करानी होगी। यही नहीं, स्टेट ़फोरम के निर्णय के संबंध में भी राष्ट्रीय फोरम में अपील दर्ज करा सकती हैं। फोरम के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए आपको एक सादे कागज पर आवेदन लिखना होगा। इसके लिए कोई स्टांप भी नहीं लगाना होता। यही नहीं, उपभोक्ता मामले की सुनवाई के लिए अधिवक्ता की सेवाएं लेना भी अनिवार्य नहीं है। आवेदन के साथ एक शपथपत्र संलग्न करना होगा, जिससे आपकी शिकायत की सत्यता सिद्ध हो। किन्हीं कारणों से फोरम के आदेश पर संबंधित पक्ष की ओर से अमल न हो, तो आपको पुन: उसी फोरम में आवेदन करना चाहिए, जिसके समक्ष आपने शिकायत की थी। किसी भी विवाद की स्थिति में आप दो साल के अंदर फोरम की सहायता ले सकती हैं, जबकि अपील करने के लिए केवल 30 दिन का समय ही मिलता है। हालांकि उपभोक्ता मामलों में शिकायत पर सुनवाई तभी संभव हो पाती है, जब आपके पास पर्याप्त साक्ष्य और दस्तावेज हों। अक्सर लोग खरीदारी करते समय रसीद आदि लेना भूल जाते हैं। मूल्य, छूट और गारंटी के बारे में संतुष्ट होने के बाद ही खरीदारी करें और रसीद जरूर लें।
आभूषणों की खरीद में विवाद का कारण भी यही होता है। कई बार 20 कैरेट बताकर 16 कैरेट के स्वर्ण आभूषणों की बिक्री कर दी जाती है। चूंकि कुछ आभूषणों पर बैच नंबर तथा गुणवत्ता संबंधी चिन्ह अंकित नहीं होते व उनका रसीद में भी हवाला नहीं दिया जाता, इसलिए ग्राहक की शिकायत बेमानी हो जाती है। इसलिए सभी दस्तावेज संभाल कर रखें।
(दिल्ली हाईकोर्ट के अधिवक्ता तथा समाजसेवी संस्था 'नीपा' के महासचिव बीएमडी अग्रवाल से बातचीत पर आधारित)
दैनिक जागरण की पत्रिका सखी में प्रकाशित

गली-गली में विट्ठल की गूंज---संत तुकाराम


गली-गली में, घर-घर तक विट्ठल नाम की गूंज पहुंचाते लोकगायक और संतकवि तुकाराम का नाम आते ही आंखों के सामने यही चित्र उभरता है। कवि, जिनके होंठों पर है विट्ठल-विट्ठल की गूंज, संत, जो प्रभु के अलावा और कुछ नहीं सोचते।
तुकाराम ऐसे ही हैं, सरल और निश्छल। ईश की राह पर चलना ही था उनका जीवन। तुकाराम, यानी भक्ति का राग छेड़ते, प्रभु की बात करते साधु, लेकिन वे कबीर सरीखे क्रांतिकारी भी हैं। कबीर ने हरदम पाखंड का, जड़ता का, थोथे कर्मकांड का विरोध किया। तुका ने भी यही राह पकड़ी। दोनों का जीवन अंधविश्वास से जूझते हुए बीता।
बहुत-से पुरोहितों ने संत तुका का प्रतिरोध किया, क्योंकि वे अभंग रचनाओं में पाखंड और कर्मकांड का उपहास उड़ाते थे। कुछ ने तुका के अभंग रचनाओं की पोथी नदी में फेंक दी और धमकी दी, तुम्हें जान से मार देंगे। पुरोहितों ने व्यंग्य करते हुए कहा, यदि तुम प्रभु के वास्तविक भक्त हो, तो अभंग की पांडुलिपि नदी से बाहर आ जाएंगी। आहत तुका भूख हड़ताल पर बैठ गए और अनशन के 13वें दिन नदी की धारा के साथ पांडुलिपि तट पर आ गई। आश्चर्य यह कि कोई पृष्ठ गीला भी नहीं था, नष्ट होना तो दूर की बात!
संतकवि तुकाराम पुणे के देहू कस्बे के छोटे-से काराबोरी परिवार में 17वीं सदी में जन्मे थे। उन्होंने ही महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली। उनके जन्मवर्ष के बारे में कई धारणाएं हैं, लेकिन चार विकल्प खासतौर पर प्रचलित हैं-1568, 1577, 1598 और 1608। संत का देहावसान 1650 में हुआ।
तुकाराम ने दो विवाह किए। पहली पत्नी थीं रखुमाबाई। अभावों से जूझते हुए वे पहले रोगग्रस्त हुई, फिर उनका स्वर्गवास हो गया। दूसरी पत्नी थीं जीजाबाई। लोग उन्हें अवली भी कहते। जीजाबाई हरदम उलाहना देतीं, कुछ कमाओगे भी या ईश भजन ही करते रहोगे। तुका की तीन संतानें हुई, संतू (महादेव), विठोबा और नारायण। सबसे छोटे विठोबा भी पिता की तरह भक्त ही थे।
जीवन में दुविधाएं तुकाराम की लगन पर विराम न लगा पाई। भगवत भजन उनके कंठ से अविराम बहते। वे कृष्ण के सम्मान में निशदिन गीत गाते और झूमते। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति भी सुधार ली और अंतत: महाजन बने।
तुका ने एक रात स्वप्न में 13वीं सदी के चर्चित संत नामदेव और स्वयं विट्ठल के दर्शन किए। संत ने तुका को निर्देश दिया, तुम अभंग रचो और लोगों में ईश्वर भक्ति का प्रसार करो।
तुका कई बार अवसाद से भी घिरे। एक क्षण ऐसा आया, जब उन्होंने प्राणोत्सर्ग की ठानी, लेकिन इसी पल उनका ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। वह दिन था और फिर सारा जीवन..तुका कभी नहीं डिगे। उनका दर्शन स्पष्ट था, चुपचाप बैठो और नाम सुमिरन करो। वह अकेला ही तुम्हारे सहारे के लिए काफी है।
ग्रंथ पाठ और कर्मकांड से कहीं दूर तुका प्रेम के जरिए आध्यात्मिकता की खोज को महत्व देते। उन्होंने अनगिनत अभंग लिखे। कविताओं के अंत में लिखा होता, तुका माने, यानी तुका ने कहा..। उनकी राह पर चलकर वर्करी संप्रदाय बना, जिसका लक्ष्य था समाजसेवा और हरिसंकीर्तन मंडल। इसके अनुयायी सदैव प्रभु सुमिरन करते।
तुका का ईश्वर से निरंतर संवाद होता था। देह त्यागने से पहले ही उन्होंने पत्नी को बता दिया था, अब मैं बैकुंठ जाऊंगा। पत्नी को लगा कि एकदम अच्छे-भले तुका ऐसे ही कुछ कह रहे होंगे, लेकिन धीरे-धीरे देहू में यह खबर फैल गई। लोगों ने देखा कि आकाश में ढेरों विमान हैं और तुका उनमें से एक पर चढ़कर सदेह वैकुंठ गमन कर रहे हैं।
तुका ने कितने अभंग लिखे, इनका प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन मराठी भाषा में हजारों अभंग तो लोगों की जुबान पर ही हैं। पहला प्रकाशित रूप 1873 में सामने आया। इस संकलन में 4607 अभंग संकलित किए गए थे। सदेह तुका भले संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके अभंग जन-जन के कंठ में बसे हैं और यह संदेश भी, प्रभु को अपने जीवन का केंद्र बनाओ। प्यार की राह पर चलो। दीनों की सेवा करो और देखोगे कि ईश्वर सब में है।

दैनिक जागरण में प्रकाशित

प्रेम के प्रचारक: चैतन्य महाप्रभु


18फरवरी, 1486, माघ माह की रात, पूरा खिला चांद यकायक ग्रहण का शिकार हो गया। हर ओर अंधकार छा गया, लेकिन तभी धरा एक और प्रकाश से नहा उठी। यह उजास थी गौरांग की, उनके स्वरूप की-कांति की।
पश्चिम बंगाल में कोलकाता से लगभग 75 मील दूर नादिया जिले के नबद्वीप कस्बे के निवासी जगन्नाथ मिश्र तथा सची देवी के घर जन्मे थे चैतन्य महाप्रभु। माता-पिता ने नाम दिया विश्वंभर। चैतन्य के जन्म से पहले आठ पुत्रियों का जन्म हो चुका था और उनका अवसान भी, इसलिए सशंकित मां ने शिशु चैतन्य को नीम वृक्ष को अर्पित कर दिया। गौरवर्ण देखकर पड़ोसियों-परिजनों ने पुकारना शुरू किया-गौरांग। गौरांग रुदन भी करते, तो हरि-हरि की ध्वनि उठती, इसीलिए सबने उन्हें गौरहरि भी कहा।
वासुदेव सर्वभूमा के विद्यालय में नीति का अध्ययन करने जाते थे, कुशाग्र बुद्धि के स्वामी चैतन्य। यहीं उनकी भेंट न्याय विषय के विद्वान लेखक रघुनाथ से हुई, जिन्होंने दिधीति नामक पुस्तक की रचना की थी। इसी बीच चैतन्य ने न्याय पर एक मीमांसा पुस्तक लिखी। उनकी विद्वत्ता का प्रभाव ही था कि रघुनाथ को लगा, न्याय विषय का उच्च लेखक बनने की उनकी इच्छा अधूरी रह जाएगी, लेकिन सरल हृदय चैतन्य को जब यह पता लगा, तो उन्होंने अपनी पांडुलिपि नष्ट कर दी। चैतन्य बोले, न्याय तो नीरस दर्शन है। मुझे इससे अधिक लाभ न होगा। सच है, जिसका मन जन्म से ही प्रभु चरणों में लग गया, उसे और कुछ कैसे भाएगा। चैतन्य भी ऐसे ही हैं। कान्हा के लिए राधारानी सरीखी भक्ति उनके मन में हमेशा मौजूद रहती है। व्याकरण, तर्क, साहित्य, दर्शन जैसी विधाओं में पारंगत होने के बाद भी चैतन्य ने प्रभु से लगन लगाई। वैसे, भक्ति का पूर्ण संचार गुरु से मिलने के बाद ही हो पाता है, क्योंकि यह विशिष्ट चेतना है। चैतन्य को भी यह गति थोड़े विलंब से मिली। चिंगारी तो उनके व्यक्तित्व में थी, लेकिन विस्फोट होना अभी बाकी था।
चैतन्य पढ़ ही रहे थे, तभी 14-15 साल की आयु में उनका विवाह वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से हुआ। वे समर्थकों और विद्वानों के साथ भ्रमण पर निकले। उद्देश्य था-अपने पांडित्य से बांग्ला समाज को प्रभावित करना और धनोपार्जन करना। चैतन्य ने लक्ष्य में सफलता भी प्राप्त की। घर आने पर पता चला कि पत्नी लक्ष्मी की सांप के काटने से मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद चैतन्य ने विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया।
संभवत: 1509 की बात होगी। 17 साल के गौरांग पिता का श्राद्ध करने के लिए गया गए, वहां गुरु के रूप में संन्यासी ईश्वर पुरी मिले। चैतन्य ने देखा कि गुरु हंसते, रोते, उछलते, नाचते और दोहराते, कृष्णा, कृष्णा! हरि बोल हरि बोल! चैतन्य को भी उन्होंने यही मंत्र जपने की सीख दी। भावुक चैतन्य ने कहा, आदरणीय गुरु! आपकी मुझ पर दया हुई। आपने मुझे संसार से विरक्त किया। मुझे कान्हा के लिए राधा के प्यार से परिचित कराया। मुझे भगवान कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम की ओर आगे बढ़ाइए। मैं कृष्ण प्रेम रस का पान करना चाहता हूं।
गुरु ने कहा, गौरांग, विद्वत्ता का प्रचार छोड़ो, प्रेम का प्रसार करो और चैतन्य इसी राह पर चल देते हैं। जड़ता छूटी, फिर घर भी छूट गया। चैतन्य हर पल यही गुहार लगाते, भगवान कृष्ण, मेरे पिता, तुम कहां हो, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। तुम्ही मेरे सच्चे पिता हो, मां, मित्र, संबंधी और गुरु हो। भावुक गौरांग ने कहा, मैं वृंदावन जाऊंगा, लेकिन साथ के लोग उन्हें नबद्वीप लौैटा ले गए। अंतत: 24 साल की उम्र में केशव भारती ने उन्हें संन्यास का चोला पहनाया, फिर तो चैतन्य की यात्रा कान्हा नाम का प्रसार करने में ही बीती। नित्यानंद, सनातन, रूप, स्वरूप दामोदर, अद्वैताचार्य, श्रीबस, हरिदास, मुरारी, गदाधर सरीखे समर्थकों ने चैतन्य का समर्थन किया और उनके संग-संग देश भर में कान्हा नाम का प्रचार करते रहे।
चैतन्य ने जीवन के अंतिम 24 वर्ष उड़ीसा की पुरी में गुजारे। पुरी, जहां जगन्नाथ का मंदिर है, साधक चैतन्य के लिए इससे बेहतर आसरा और क्या होता? चैतन्य के आगे सबने सिर झुकाया। उन्होंने भी सबको सीने से लगाया। उड़ीसा नरेश प्रतापरुद्र भी चैतन्य की संकीर्तन टोली के संग झूमते। ये वे दिन थे, जब चैतन्य समाधि के विभिन्न रूपों में समा जाते। भक्ति की इससे उच्च स्थिति और कोई नहीं! संसार में रहकर भी संसार से दूरी।
वैसे, ऐसा नहीं कि चैतन्य का विरोध नहीं हुआ। उन्होंने पग-पग पर दुष्टाचरण का सामना किया, लेकिन हरदम उबरे-उभरे, क्योंकि उन्हें किसी से द्वेष न था और सहारा था प्रभु का। क्रूरता का जवाब वे प्रेम से देते और दुष्ट लज्जित होकर उनकी राह से हट जाते। गांव के धोबी समेत संपूर्ण ग्रामवासियों को हरिबोल की ताल पर नृत्य के लिए प्रेरित कर देना हो, छू लेने भर से कुष्ठ रोगी की पीड़ा दूर करना या फिर सिर के हल्के-से दबाव से जगन्नाथ रथ को गतिमान कर देना, चैतन्य का यह चमत्कार भक्ति की शक्ति से ही जन्मता है। वैसे, चैतन्य होना तभी संभव है, जब व्यक्ति समुद्र को भी प्रभु का के लिए स्वयं को डुबा देने को आतुर हो जाए। चैतन्य इसीलिए प्रभुरूप हुए। वे कहते हैं, प्रभुनाम सुमिरन से ही कलियुग में शांति और प्रेम का आगमन होगा। 14 जून, 1533 को चैतन्य ने देह भले छोड़ दी हो, लेकिन उनकी धुन पर भक्तों के मन हरदम झूमते और प्रभु से गुहार लगाते रहेंगे, नंद गोपाल हम तुम्हारे सेवक हैं। हम जन्म और मृत्यु के अंधसमुद्र में पड़ गए हैं। कृपया हमें उठाएं और अपने चरणकमलों में स्थान दें।

साहित्य को नहीं मिला उचित सम्मान - माधव भान

-रोशनी एक किताब /जो अंधेरे में ही पढ़ी जा सकती है / अंधेरा / एक रास्ता / जो सूरज के घर की तरफ खुलता है..तकरीबन 32 साल पहले, 12वीं के छात्र, 18 वर्षीय माधव भान ने लिखी थी यह कविता। एक पत्रिका में कविता छपी, पारिश्रमिक के रूप में 7 रुपए का मनीऑर्डर मिला और गाजियाबादवासी माधव की खुशी का ठिकाना न रहा। इस तरह हुई साहित्य से पहली मुलाकात, जो बाद में बरस-दर-बरस गहराती गई। कभी मीरा, सूर, कबीर की भक्ति से प्रभावित हुए, तो कभी रहस्यवाद की गुत्थियां सुलझाने में लगे। फिलहाल, 50 के हो चुके हैं माधव। जिंदगी की इस यात्रा में उन्होंने तमाम रंग देखे, जो धीरे-धीरे उनकी शख्सियत का हिस्सा भी बन गए। कभी मन कहता, कैमरा उठाओ और चल दो रेगिस्तान की खाक छानने, तो कुछ दिन बाद उठती ललक, अब नई प्रतिभाओं को मंच देना है! यह जुनून भी तब, जबकि छोटी उम्र में ही वे आयरलैंड चले गए थे। कुदरत की छांव में बैठने और ट्रैवलिंग का शौक उन्हें बार-बार देश की ओर खींच लाता। आयरलैंड में रेस्टोरेंट व्यवसाय का सफल संचालन करते हुए माधव बार-बार भारत आए। बीच में फिल्म निर्माण की योजना भी बनाई और श्याम बेनेगल से मिले। श्याम बोले, पहले अच्छी-सी स्क्रिप्ट चुनिए, तो विभिन्न साहित्यकारों से मिलने चल दिए। यही मौका था, जब माधव को अहसास हुआ कि साहित्य में भी जमकर मार्केटिंग की जाती है। जितने साहित्यकार, उतने प्रस्ताव, मेरी यह कहानी अनूठी है, इस पर फिल्म बनाइए! माधव हतप्रभ रह गए, इसी बीच मिले भावुकता से भरपूर स्वप्नदर्शी निर्मल। उन्होंने भी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने के लिए कहा, लेकिन यह सिफारिश अपनी रचना के लिए नहीं थी। इसके बाद चेक कविताओं का अनुवाद करते समय संकलन प्राग् वर्ष के आवरण के लिए निर्मल ने माधव का एक फोटोचित्र इस्तेमाल किया। फिर तो यह जुड़ाव माधव को साहित्य की दुनिया में फिर-से खींचने लगा, लेकिन पूरी वापसी की वजह बनी एक खास घटना। हुआ यूं कि निर्मल अस्वस्थ थे। उनका हालचाल जानने माधव एम्स पहुंचे। बातचीत के दौरान निर्मल ने बताया, मेरी 37 किताबें प्रकाशकों के पास हैं, लेकिन मुझे नाममात्र रॉयल्टी मिल रही है। यह बात माधव को आहत कर गई। बाद में उन्होंने चर्चित व्यवसायी अतुल गर्ग को यह वाकया सुनाया। उन्होंने कहा, जब निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकार को ऐसी उपेक्षा सहनी पड़ रही है, तब युवा रचनाकारों के साथ क्या होता होगा? उन्होंने ही माधव को सुझाया, क्यों न ऐसे प्रकाशन की शुरुआत की जाए, जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हिंदी साहित्य का प्रकाशन करे और साहित्यकारों का शोषण समाप्त हो सके! इस तरह पड़ी एक अनूठे प्रकाशन रे माधव की नींव।
अतुल जी के पुत्र, लंदन से एमबीए की पढ़ाई कर लौटे गौरव गर्ग व राघव गर्ग तथा ज्ञानपीठ में वर्षो तक सक्रिय रहे साहित्यकार-कलाकार अशोक भौमिक ने कामकाज संभाला। इरादा नेक था, इसलिए पहल भी हुई खास। रे माधव ने औरों की तरह कहानी संकलन तो छापे, लेकिन अंदाज अलग था। माधव और साथियों ने संकलन के लिए बतौर संपादक उन्हें चुना, जो साहित्यिक पत्रिकाओं का वर्षो तक संपादन कर चुके थे, यानी पहल के संपादक ज्ञानरंजन, सारिका के एक दशक तक प्रमुख रहे अवध नारायण मुद्गल और रवींद्र कालिया।
रे माधव ने भवदेव पांडेय संकलित हिंदी कहानी का पहला दशक : शुरुआती दौर की कहानियां और मुनि क्षमासागर की कविताओं को मुक्ति शीर्षक से प्रकाशित किया, वहीं अब योजना है—स्वर्णाक्षर श्रृंखला के तहत प्रसाद, प्रेमचंद, रवींद्रनाथ, शरत, बंकिम, कुशवाहा कांत, जोगेंदर पाल और उपेंद्र नाथ अश्क का साहित्य प्रकाशित करने की। माधव बताते हैं, यह संकलन अंतरराष्ट्रीय पैकेजिंग के साथ पेश किया जाएगा। आखिरकार, हिंदी जैसा साहित्य और कहां है?
वे साफ कहते हैं, वैभवशाली हिंदी को उचित सम्मान नहीं मिला। माधव को उम्मीद है कि हिंदी प्रेमी उनकी इच्छा पूरी करेंगे और उन्हें सिर्फ सरकारी खरीद पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा। रे माधव की ओर से अंग्रेजी समेत कई भाषाओं में साहित्य प्रकाशन किया जाएगा। किशोर, बाल साहित्य के अंतर्गत दद्दू की कहानियां, बुधि का लौटना, मेडल और रंकनी देवी की तलवार जैसी कहानियां लेकर माधव आ रहे हैं, तो यह उनकी देशी सोच का ही प्रमाण है। वे फिल्मकार डेविड के साथ लोकेशन देखने राजस्थान जाते जरूर हैं, लेकिन मौका मिलते ही सुप्रकाश सरीखे युवा चित्रकारों के साथ बैठकर कला-चर्चा करना नहीं भूलते। परिणाम—प्रतिभाओं को मौका देने के लिए माधव ने ग्राफिक डिजाइन स्टूडियो की शुरुआत भी की! फिलहाल, योजना है कि हर माह कम से कम 10 किताबें प्रकाशित की जाएं और जितना कागज खर्च करें, उतने ही पेड़ लगाए जाएं। प्रस्ताव है कि लाभांश को गरीब बच्चियों की पढ़ाई पर खर्च किया जाए और वर्ष के सर्वोत्कृष्ट पुस्तक आवरण, बेहतरीन लघु पत्रिका को पुरस्कृत भी किया जाए। नहीं, बात यहीं खत्म नहीं होती..निर्मल जी की तरह शेष साहित्यकार शोषण का शिकार न हों, इसके लिए रे माधव प्रकाशन ने 75 वर्ष आयु के साहित्यकारों को एडवांस रॉयल्टी देने का मन बनाया है!


दैनिक जागरण के जागरण सिटी दिल्ली सप्लिमेंट में प्रकाशित

अध्यात्म के वैज्ञानिक व्याख्याकार-स्वामी विवेकानंद


राष्ट्र को अनूठी धार्मिक चेतना प्रदान करने वाले स्वामी विवेकानंद का स्मरण केवल इस उद्धरण के साथ करना पर्याप्त नहीं कि उन्होंने शिकागो में अपने ओजस्वी भाषण से संपूर्ण विश्व को चमत्कृत कर दिया था। सत्य तो यह है कि शेष संतों की तरह उन्होंने भी मानवमात्र को अस्तित्वबोध कराया और प्रभु से जुड़ाव बनाने का परामर्श दिया। फिर कौन-सा तथ्य उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है? व्यक्तिगत विकास की सलाह के साथ आस्था और अध्यात्म की वैज्ञानिक व्याख्या, यही बिंदु है, जो नरेंद्र जैसे साधारण पुरुष का विवेकानंद के रूप में कायांतरण करता है और उन्हें स्थापित करता है, अमिट स्मृति वाले महापुरुष के रूप में। रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु के सान्निध्य ने विवेकानंद को ज्ञान के उत्कर्ष तक पहुंचाया था, लेकिन इसमें उनकी ग्राह्यता को भी साधुवाद देना चाहिए। विवेकानंद ने प्राणिमात्र को महत्वपूर्ण बताने पर सदैव बल दिया हर व्यक्ति की एक जैसी सत्ता है, एक-सी शुद्धता और संपूर्णता भी! संसार स्वतंत्रता, आश्रय और दासत्व का सम्मिश्रण है, लेकिन जीवन का प्रकाश है, स्व-बोध से सृजित। प्रकाश, जो अनश्वर, शुद्ध, निर्दोष और पवित्र है। वह स्वाधीन और अमिट है। उनकी मान्यता का आधार थी, यह बात कि तमाम छुद्रताओं और कमियों के बावजूद मनुष्य में स्व-सुधार का गुण है और जिसने समझने के बाद खुद को परिवर्तित कर लिया, उससे बड़ा, उससे बढि़या और कौन हो सकता है? विवेकानंद ने परमसत्ता की प्राप्ति के लिए भक्ति की राह चलने की सीख दी। वे भक्ति का महान लाभ बताते हैं, यह सरलतम है और प्राकृतिक रास्ता है, उस ईश्वरीय सत्ता तक पहुंचने का, जहां तक हमारी निगाह नहीं जा पाती। हां, बड़ी हानि यह है कि इसके निम्न स्तर पर हम अक्सर डरावने धार्मिक हठ की ओर भटक जाते हैं। यह कोई सतही व्याख्या नहीं है। विभिन्न धर्मो और संप्रदायों के समर्थकों, श्रद्धालुओं से बातचीत कर विवेकानंद ने यह निष्कर्ष निकाला था। वे कहते हैं, ज्यादातर जगह भक्ति के नाम पर आडंबर और सामान्य पूजा पद्धति का चलन है, जो धार्मिक हठ का विस्तार मात्र है। विवेकानंद मानते थे कि हर व्यक्ति की आवश्यकताएं और प्राथमिकताएं उसकी अपनी अनूठी मांग से तय होती हैं, इसे समझने की जरूरत है। वे मनुष्य की संकुचित होती सोच को सही नहीं मानते थे, जिसमें खाने, पीने, जन्म लेने, पुनर्जन्म की आकांक्षा, मृत्यु के अनवरत क्रम का महत्वपूर्ण स्थान होता है। बावजूद इसके उन्होंने व्यक्ति की परिस्थिति और परिवेशजन्य जरूरतों और मांग को समझा और बताया कि इनके अलावा, कुछ और खास बातें हैं, जो आत्मा से जुड़ी हैं। उन्हें समझने की आवश्यकता है, ताकि इस निस्सार जीवन को दिशा मिल सके और प्रभु की संतान होने की महानता हम महसूस कर सकें। विवेकानंद को बुद्ध बहुत प्रिय थे, क्योंकि उन्होंने सामाजिक हित में स्व-हित को कभी स्थान नहीं दिया। गौतम अपना जीवन सामान्य जन के लिए सदैव अर्पित करने को तैयार रहे। स्वयं की नश्वरता को नष्ट कर हम संसार को तनिक भी आधार दे सकें, तो इससे महती कुछ और नहीं, यही था बुद्ध का दर्शन, जिसने विवेकानंद को न केवल प्रभावित किया, उनकी दृष्टि का विकास भी किया। विवेकानंद कहते हैं, बुद्ध अपने भले के लिए राज्य छोड़ जंगल नहीं गए। उन्होंने देखा कि संसार जल रहा है और इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है कि संसार में इतना दुख क्यों है? बुद्ध ने इसी का उत्तर तलाशने में जीवन का निवेश कर दिया। विवेकानंद के लिए बुद्ध प्रिय हैं, क्योंकि वे संपूर्णता की प्राप्ति के लिए जीवन को भी महत्वपूर्ण नहीं मानते। इसलिए भी, क्योंकि वे नश्वरता की सीमितता पहचानते हैं। विवेकानंद ने इस तथ्य को समझा और आस्था की वैज्ञानिक व्याख्या पेश की। आज जरूरत है कि हम गौतम और विवेक की सीख समझें और उसी राह पर चलें, जिस पर न पाखंड है, न अंध जड़ता, है तो परमसत्ता से साक्षात्कार का आनंद!

दैनिक जागरण में प्रकाशित

चैटिंग में चीटिंग!


गाजियाबाद निवासी शबनम मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है। पिछले कुछ दिनों से वह खासी परेशान थी। उसने बताया, 'मेरे साथ बड़ा धोखा हुआ है। दरअसल मैं अकसर किसी न किसी चैटरूम में दोस्तों की तलाश में लगी रहती हूं। एक दिन जयपुर के एक तथाकथित 25 वर्षीय युवक महेंद्र ने मुझे संदेश भेजा, 'मुझसे दोस्ती करोगी?' इसके बाद हमारे बीच संदेशों के आदान-प्रदान का सिलसिला शुरू हो गया। आखिरकार उस महेंद्र का जो अंतिम मैसेज आया, वह चौंकाने वाला था, 'मैं दरअसल 67 साल का बुजुर्ग हूं। मेरे घर में पत्नी, बेटे-बहू और पोते सब हैं। मैं तो समय गुजारने के लिए तुमसे बातें करता था।'
यह एकदम सही है कि ज्ञान का भंडार कहे जाने वाले इंटरनेट का इस्तेमाल न सिर्फकठिन है, बल्कि कई बार 'यूजर' को धोखाधड़ी का सामना भी करना पड़ता है। चैटिंग में तो ऐसा अकसर होता है। पिछले दिनों 'ऑरकुट' तथा ऐसी ही कुछ अन्य सोशल नेटवर्किग वेबसाइट्स को लेकर खासा हंगामा मचा था, जिनके अंतर्गत देह व्यापार में कुछ युवतियों के नाम डिस्प्ले किए गए थे। आप धोखा न खाएं, इसके लिए इन बातों का खयाल रखें :
1. चैटिंग करते समय कभी भी पर्सनल या ऑफिशियल आईडी का उपयोग न करें।
2. चैट रूम में व्यक्तिगत जानकारियां देने से बचें। पता व फोन नंबर भूलकर भी न दें।
3. किसी से भी आपत्तिजनक बातचीत न करें।
4. रेडिफ, एमएसएन और याहू के अलावा, फ्रेंड तथा सोशल नेटवर्क व प्रोफाइल के जरिए भी कई लोग संपर्क साधते हैं, उनसे बातचीत न करें। चूंकि चैटरूम पासवर्ड प्रोटेक्टेड होते हैं, इसलिए चीटिंग करने वाले बेफिक्र होते हैं कि कोई उनके बारे में नहीं जान पाएगा। इसी तरह साइबर अपराधों के मामले में कानूनी व्याख्या तो हो गई है, लेकिन इनसे आम लोग परिचित नहीं हैं। ऐसे में सतर्कता ही आपका बचाव है। यदि आपके पास धोखाधड़ी करने वाले व्यक्ति के बारे में पूरी जानकारी हो, तो पुलिस को सूचित करें।
चैटरूम में ऑनलाइन पार्टनर या ट्रेडिंग के विकल्प न तलाशें। यहां आपके साथ कभी भी धोखाधड़ी हो सकती है। कोई आपका अकाउंट या क्रेडिट कार्ड नंबर जानकर उसका दुरुपयोग कर सकता है। नाइजीरिया की कुछ कंपनियां अकसर लोगों को लुभावने ई-मेल भेजती हैं। इनमें कुछ उत्पादों की बिक्री करने तथा उनके बदले में भुगतान का प्रस्ताव होता है। यही नहीं, कुछ दिन में आपके पास अग्रिम पेमेंट के रूप में चेक भी आ जाता है। चेक क्लियर होने में तो बीस दिन से तीन माह तक का समय लगता है और बाद में 100 फीसदी मामलों में चेक या तो बाउंस हो जाता है, या फिर नकली निकलता है। लेन-देन के समय दूसरी पार्टी की पहचान सुनिश्चित कर लें। वेबसाइट से ़खरीदारी करते समय आपके क्रेडिट कार्ड का नंबर तथा पता व ई-मेल एड्रेस में सतर्कता रखें। ऐसी हालत में 'प्राइवेसी पॉलिसी' पढ़ लें, ताकि आपकी जानकारियां और लोगों तक न भेज दी जाएं। उसी वेबसाइट पर कारोबार करें, जिनमें 'लॉक आइकन' बना हो, क्योंकि ये साइट जाली नहीं होतीं, न ही इन्हें 'हैक' किया जा सकता है। इंटरनेट पर की गई खरीदारी का लिखित ब्योरा भी जरूर रखें, ताकि आपके पास प्रमाण रहें। क्रेडिट कार्ड से भुगतान करते समय 'वेरीसाइन' सरीखे अधिकृत पेमेंट गेटवे का ही चयन करें। इस तरह आपके कार्ड की गोपनीयता और रकम, दोनों सुरक्षित रहेंगी।
और अंत में सबसे जरूरी बात, जब भी चैटिंग करें या इंटरनेट पर कोई साइट खोलें, तो उसे ठीक ढंग से लॉगआउट कर दें, ताकि बाद में उस कंप्यूटर पर बैठने वाला यूजर आपके अकॉउंट को एक्सेस न कर पाए।
(सिलिकॉन कंप्यूवेयर सोल्यूशंस के सीईओ और आईटी सिक्योरिटी विशेषज्ञ सुभांशु प्रधान से बातचीत पर आधारित)


दैनिक जागरण की पत्रिका सखी में प्रकाशित

हिंसा है गीतों में अश्लीलता--शारदा सिन्हा


सरसों के खेतों की खुशबू से लहकी पुरवाई, कूकती कोयल, परदेसी पति को याद कर बिदेसिया गाती पनिहारिनें और मेड़ किनारे गमछा बिछाए कलेवा करते किसानों की परछाइयां, इस परिवेश का ही असर था जो होश संभाला तो पता चला कि कदम खुद ही कला की राह पर चल चुके थे। पांच-छह साल की उम्र रही होगी। मैं अकसर एकांत में कोई न कोई गीत गुनगुनाती, गीत पर अभिनय करती और झूमती रहती। एक दिन पिता श्री शुकदेव ठाकुर ने ऐसे नृत्य करते देख लिया। बोले, 'नृत्य सीखना चाहती हो?' मैंने सिर हिला दिया और शुरू हो गया यह सफर।
हंगामा हो गया
उन दिनों गांवों में दुर्गापूजा का भव्य आयोजन होता था। इसी आयोजन में मैंने एक बार भजन पेश किए। उसी बीच पिता ने पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में दाखिला करा दिया था। गांव की लड़की गायन या नृत्य सीखे, यह बात किसी के गले नहीं उतरी थी। मेरी मां भी इसके पक्ष में नहीं थीं, लेकिन पिताजी के आगे किसी की नहीं चली। भारतीय नृत्य कला मंदिर में मैंने मणिपुरी नृत्य सीखा। तब हरी उप्पल उसके निदेशक थे। वे हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते। उन्हीं दिनों तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन आए। मैंने उनके सामने मणिपुरी की एक शैली कृष्णविसार प्रस्तुत की। दूसरी पेशकश थी राधाविसार की। उसी समय मेरे दाएं हाथ में फ्रैक्चर हो गया था। गुरु अंतरेंबा दास भी वहां मौजूद थे। नृत्य करने से मना करने का प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन संकट यह था कि कृष्णविसार और राधाविसार की प्रस्तुतियों में तेज गति से दौड़ते हुए मंच पर आना था और मुद्राओं की पेशकश के लिए हाथ सही होना जरूरी था। फिर भी मैंने नृत्य किया और मुद्राओं की सही अभिव्यक्ति भी। बाद में गुरु जी को पता चला तो उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'शारदा, तुम जरूर नाम करोगी।'
इस बीच शादी हो गई। पति बृजकिशोर सिन्हा उन दिनों साइंस कॉलेज, समस्तीपुर में राजनीति शास्त्र के लेक्चरर थे। वे हमेशा प्रोत्साहित करते। शादी के बाद भी मैंने दो नृत्य प्रस्तुतियों में हिस्सा लिया। एक बार तब जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ था। मैंने शांति सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए नृत्य कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। दूसरी बार बांकीपुर में एक नृत्य कार्यक्रम दिया।
मिला जीवनसाथी का साथ
पिता की तरह ही पति का भी सहारा अगर न मिला होता तो शायद मैं इस मुकाम पर न पहुंच पाती। मुझे याद है, पहली बार जब मैं ससुराल गई, तो सास ने स्पष्ट कहा, 'गाना है, तो भजन गाओ। वह भी घर की दहलीज में या फिर घर छोड़ दो।' उस मुश्किल में किसी ने साथ दिया, तो वह ससुर जी थे। पति ने भी सासू मां से कहा, 'शारदा मेरे लिए किसी वरदान की तरह है। उसकी प्रतिभा का सम्मान कीजिए।' जब सास ने देखा कि सब साथ दे रहे हैं, तो वे भी शांत हो गई।
जीवन में सबको एक मौका जरूर मिलता है, जब वह खुद को साबित कर सकता है। मुझे भी मिला। 1971 में एचएमवी ने एक टैलेंट सर्च किया था। लखनऊ में ऑडिशन होना था। ट्रेन देर से पहुंची, इसलिए आराम भी न कर पाई और जाते ही ऑडिशन में बैठना पड़ा। तरह-तरह के लोग इकट्ठा हुए थे। कुछ तवायफें भी पहुंची थीं और भी कई तरह के गवैए। उस समय एचएमवी की ओर से रेकॉर्डिग मैनेजर जहीर अहमद, संगीतकार मुरली मनोहर स्वरूप वगैरह मौजूद थे। भीड़-भड़क्का देखकर जहीर अहमद घबरा ही गए। उन्होंने सबको एक सिरे से अयोग्य घोषित कर दिया। मैं तो बहुत घबराई लेकिन पति ने दिलासा दिया। वे जहीर अहमद से मिले। खैर, किसी तरह दोबारा रिकार्डिग हुई। मैंने गाया, 'द्वार के छेकाई नेग पहिले चुकइयौ, यौ दुलरुआ भइया।' यह भी संयोग ही है कि एचएमवी के वीके दुबे उसी समय पहुंचे। मेरी आवाज सुनी तो लगभग चिल्लाते हुए बोले, 'रेकॉर्ड दिस आर्टिस्ट!' उस समय एक डिस्क में दो ही गाने होते थे। संस्कार गीतों की डिस्क एचएमवी ने रेकार्ड की। 'सीता के सकल देखी..' गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। फिर जो कदम चल पड़े तो रुके नहीं। अब तो जैसे जमाना बीत गया है, गाते हुए।
कहे तोसे सजना
मेरा सबसे प्रसिद्ध फिल्मी गीत है, 'कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनियां..।' संस्कार गीतों का स्पर्श यहां भी साफ है। विद्यापति के गीतों पर आधारित एक सेमी क्लासिकल सीडी, 'ए ट्रिब्यूट टु मैथिल कोकिल विद्यापति' को मैंने स्वर दिया था। पंडित नरेंद्र शर्मा ने उसमें कमेंट्री की थी। राजश्री प्रोडक्शंस के ताराचंद बड़जात्या ने वह एलबम सुना और मुझे पत्र लिखा। उन दिनों 'माई' फिल्म की रिकार्डिग चल रही थी। मैं बड़जात्या जी से मिली। उन्होंने कहा, 'मैं एक फिल्म बना रहा हूं, 'मैंने प्यार किया'। उसमें लोकधुन पर आधारित एक गीत है। आप वह गीत गा दें।' गीत की रिहर्सल होने लगी। इस गीत की धुन तैयार करते वक्त संगीत निर्देशक रामलक्ष्मण ने टी सीरीज द्वारा रिलीज मेरे ही एक एलबम 'खइलीं बड़ा धोखा..' के गीत 'कइनीं का कसूर तनी अतनै बता दा..' के संगीत का इस्तेमाल किया। फिल्म की थीम को प्रोजेक्ट करते हुए गीत को लोगों ने बहुत पसंद भी किया।
इसी तरह 'हम आपके हैं कौन' फिल्म का गीत 'बाबुल जो तुमने सिखाया..जो तुझसे पाया, सजन घर ले चली..' भी मेरे ही एक गीत की ट्यून पर आधारित था। ये दोनों गीत मेरे लिए अथाह लोकप्रियता लेकर आए और यह विश्वास भी दिलाया कि सारे देश को अपनी मिट्टी की छुअन अपनी ओर अब भी खींचती है।
इस हवा में खुशबू कहां
इस खुशी के बावजूद दुख इस बात का है कि भोजपुरी गीतों की हवा अब जहरीली होती जा रही है। जिस तरह लोग शब्दों की हिंसा कर रहे हैं, भाव-भंगिमाओं से लेकर गायन के अंदाज तक अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे निराशा तो होती ही है। यह अश्लीलता संगीत के साथ हिंसा ही है, लेकिन एक बात साफ है। अच्छी चीज ही टिकती है। मुझको याद है, पहले भी अश्लीलता फैलाई जाती थी, लेकिन वह टिकी नहीं। इसलिए मुझे उम्मीद है कि यह अश्लीलता भी टिक नहीं पाएगी। अपने देश की परंपरा बहुत समृद्ध है, उसका आनंद लेने के लिए अश्लीलता की छौंक लगाने की जरूरत नहीं है। ऐसा करके हम भविष्य के सामने कुछ खराब उदाहरण ही रखेंगे।
हर ओर व्यावसायिकता
एक बात पर और दुख होता है कि लोग व्यावसायिक बहुत हो गए हैं। महानगरों में धुनें बनती हैं। ऐसे लोग उन्हें कंपोज करते हैं, जो कभी बिहार, बनारस गए तक नहीं। अब तो डर लगता है, कोई आपकी चीज लेकर खुद की न बता दे और उसमें अपनी मनमानी बात भी न डाल दे। आजकल के बच्चे तो जन्म लेते ही गायक-गायिका बन जाना चाहते हैं। अब तालीम है नहीं और सफल भी होना चाहते हैं, तो करेंगे क्या? कुछ इधर-उधर से जोड़-जाड़कर गा-बजा लेते हैं। नतीजा सामने है। पहले के गीतों में मधुरता होती थी, जीवन के एहसास होते थे। अब के गानों की जिंदगी तो 15 दिन और एक महीने की होकर रह गई है। हर तरफ शोर ही शोर है। यह और भी ज्यादा दुखद है, क्योंकि अब तो सुविधाएं बढ़ी हैं, उस लिहाज से गुणवत्ता भी बढ़नी चाहिए, लेकिन वह तो रसातल में जा रही है। इन दिनों मैं चैतन्य श्री के निर्देशन में भिखारी ठाकुर पर बन रही फिल्म, 'चल तमाशा देखें' के सभी गीत गा रही हूं। संजय उपाध्याय ने बहुत बढि़या संगीत दिया है और मुझे भी इस फिल्म में बारहमासा और बिदेसिया गाकर बहुत अच्छा लगा। ऐसे गीत गाकर लगता है कि हमने अपनी जमीन को कुछ दिया है। आजकल तो सूरत ही बदल गई है। संगीत निर्देशक कलाकारों पर हावी होने लगे हैं। अब हर कलाकार विरोध नहीं कर पाता, लेकिन ऐसा होना चाहिए।
सम्मान की तलाश में स्त्री
जहां तक स्त्री को सम्मान मिलने की बात है, उसके लिए संघर्ष अब भी जारी है। खुशी की बात है कि स्त्री अपनी शक्ति को समझ रही है। जहां तक मेरी अपनी बात है, मुझे बचपन से लेकर आज तक बहुत संघर्ष झेलना पड़ा है, लेकिन इससे हताश होकर भी काम नहीं चलता। यही वजह है कि मैं कभी नहीं झुकी। अब स्थितियां बदली हैं। आज की स्त्री को ऐसी साधारण समस्याओं का सामना उतनी तीव्रता में नहीं करना पड़ रहा, लेकिन प्रतिष्ठा और स्थापना की समस्या अब भी है ही। कई बार आपको अपनी मौलिकता बचाए रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। पिछले 10 साल से मैं खुद अपने गीतों का दुरुपयोग रोकने के लिए संघर्ष कर रही हूं। इतने यत्न से हम गीत तैयार करते हैं, पता चलता है कि रिकार्ड रिलीज होने के अगले ही दिन किसी अनजाने से गायक का रिकार्ड बाजार में आ जाता है, लेकिन इससे हताश होकर चुप बैठ जाने से धोखाधड़ी के मामले और बढ़ेंगे। जहां तक प्रतिष्ठा पाने की बात है, तो उसे हासिल किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए दो बातें जरूरी हैं। एक तो हमारा लक्ष्य पक्का हो, दूसरे हम किसी की अनुचित बात न मानें और डटे रहें। अगर ऐसा हम कर पाए, तो एक न एक दिन मंजिल जरूर मिलेगी।

दैनिक जागरण की पत्रिका सखी में प्रकाशित साक्षात्कार

प्यार बांटते साई



प्राणिमात्र की पीड़ा हरने वाले साई हरदम कहते, 'मैं मानवता की सेवा के लिए ही पैदा हुआ हूं। मेरा उद्देश्य शिरडी को ऐसा स्थल बनाना है, जहां न कोई गरीब होगा, न अमीर, न धनी और न ही निर्धन..।' कोई खाई, कैसी भी दीवार..बाबा की कृपा पाने में बाधा नहीं बनती। बाबा कहते, 'मैं शिरडी में रहता हूं, लेकिन हर श्रद्धालु के दिल में मुझे ढूंढ सकते हो। एक के और सबके। जो श्रद्धा रखता है, वह मुझे अपने पास पाता है।'
साई ने कोई भारी-भरकम बात नहीं कही। वे भी वही बोले, जो हर संत ने कहा है, 'सबको प्यार करो, क्योंकि मैं सब में हूं। अगर तुम पशुओं और सभी मनुष्यों को प्रेम करोगे, तो मुझे पाने में कभी असफल नहीं होगे।' यहां 'मैं' का मतलब साई की स्थूल उपस्थिति से नहीं है। साई तो प्रभु के ही अवतार थे और गुरु भी, जो अंधकार से मुक्ति प्रदान करता है। ईश के प्रति भक्ति और साई गुरु के चरणों में श्रद्धा..यहीं से तो बनता है, इष्ट से सामीप्य का संयोग।

दैन्यता का नाश करने वाले साई ने स्पष्ट कहा था, 'एक बार शिरडी की धरती छू लो, हर कष्ट छूट जाएगा।' बाबा के चमत्कारों की चर्चा बहुत होती है, लेकिन स्वयं साई नश्वर संसार और देह को महत्व नहीं देते थे। भक्तों को उन्होंने सांत्वना दी थी, 'पार्थिव देह न होगी, तब भी तुम मुझे अपने पास पाओगे।'

अहंकार से मुक्ति और संपूर्ण समर्पण के बिना साई नहीं मिलते। कृपापुंज बाबा कहते हैं, 'पहले मेरे पास आओ, खुद को समर्पित करो, फिर देखो..।' वैसे भी, जब तक 'मैं' का व्यर्थ भाव नष्ट नहीं होता, प्रभु की कृपा कहां प्राप्त होती है। साई ने भी चेतावनी दी थी, 'एक बार मेरी ओर देखो, निश्चित-मैं तुम्हारी तरफ देखूंगा।' 1854 में बाबा शिरडी आए और 1918 में देह त्याग दी। चंद दशक में वे सांस्कृतिक-धार्मिक मूल्यों को नई पहचान दे गए। मुस्लिम शासकों के पतन और बर्तानिया हुकूमत की शुरुआत का यह समय सभ्यता के विचलन की वजह बन सकता था, लेकिन साई सांस्कृतिक दूत बनकर सामने आए। जन-जन की पीड़ा हरी और उन्हें जगाया, प्रेरित किया युद्ध के लिए। युद्ध किसी शासन से नहीं, कुरीतियों से, अंधकार से और हर तरह की गुलामी से भी! यह सब कुछ मानवमात्र में असीमित साहस का संचार करने के उपक्रम की तरह था। हिंदू, पारसी, मुस्लिम, ईसाई और सिख..हर धर्म और पंथ के लोगों ने साई को आदर्श बनाया और बेशक-उनकी राह पर चले।

दरअसल, साई प्रकाश पुंज थे, जिन्होंने धर्म व जाति की खाई में गिरने से लोगों को बचाया और एक छत तले इकट्ठा किया। घोर रूढि़वादी समय में अलग-अलग जातियों और वर्गो को सामूहिक प्रार्थना करने और साथ बैठकर 'चिलम' पीने के लिए प्रेरित कर साई ने सामाजिक जागरूकता का भी काम किया। वे दक्षिणा में नकद धनराशि मांगते, ताकि भक्त लोभमुक्त हो सकें। उन्हें चमत्कृत करते, जिससे लोगों की प्रभु के प्रति आस्था दृढ़ हो। आज साई की नश्वर देह भले न हो, लेकिन प्यार बांटने का उनका संदेश असंख्य भक्तों की शिराओं में अब तक दौड़ रहा है।


दैनिक जागरण में प्रकाशित

Wednesday, July 8, 2009

चंद लम्हे, कुछ अहसास और ढेर सारा प्यार


क्या करूं? कुछ ठोस. देर तक असर करने वाला लिखा ही नहीं जा रहा बहुत दिन से...उश्च्छृंखलता स्वभाव और सृजन पर कितना गहरा असर डाल रही है...कहना मुश्किल है...ख़ैर...इस बीच कुछ-कुछ दो-चार पंक्तियों से ज्यादा नहीं लिख पाया...तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा...की तर्ज पर वही सबकुछ आपके लिए...



ये मुझे है पसंद

बचा इक इरादा है तो बस ये...तुम्हारी राह में हम फूल बनके बिछ जाएं.../ ये इंसान की सूरत भला लेके करेंगे क्या, भला हो काजल बनें और तुम्हारी आंख में रच जाएं...


एक और पसंदीदा पंक्ति
इक बात मेरी तीर सी उतर जाती है ज़िगर में... जान-ए-जां कभी प्यार का मुकम्मल फ़लसफ़ा भी याद करो / सुलगती रात के बाद सुबहा में उलझे गेसू याद करो / करो जो याद तो मेरी इरादा-ए-वफ़ा याद करो / राह-ए-मोहब्बत में कांटों की उलझनें भुला दो साथी / अब मौक़ा है जो हमारे प्यार की ज़ुबां याद करो


कभी गुजरते हुए उम्र के बागबां से....

कभी गुज़रते हुए उम्र के बागबां से, जो यादों का कोई दरख़्त टकरा जाए बांह से, तू रुकना, कुछ हंसना फिर छू लेना उसकी पत्तियां....तुझे कहां है पता, वो तो मैं ही हूं, जो उगा हूं तेरी राह में....यकीं रख, लम्हा भर की उस छुअन के लिए, मैं जीना चाहूंगा हज़ार सदियां...लेना चाहूंगा सौ-सौ जनम...आना...मेरे सुगना...आना.


नगमा और सपना

नींद भर सो लेने के बाद, जाग जाने से पहले मैंने देखा है कई बार सपना... तू गुनगुनाती रही, मैं सुनता रहा, देखते-देखते बन गया नगमा अपना....ज़िंदगी भर क्यों हम बेज़ार होते रहें, आ बढ़ें, संग चलें, देखते-देखते दुश्मन भी हो जाएगा...हां, अपना.


चेहरे-कपड़े-मुखौटे
तुम्हें चेहरे से क्या मतलब / तुम्हें कपड़ों से क्या मतलब / हमें मालूम है तुम्हारे लिए हैं ये सब बहाने भर.../ भला कहते रहो तुम औरतों को मूरख / हमें भी नज़र आता है तुम्हारी नज़र का मतलब....

सांस, दूध और पानी
पानी की बूंदों में घुला दूध का स्वाद, सांसों से फूटी इलायची जैसी ख़ुशबू...तू मिला साथी, गर्म हो गई अहसास की चाय..



इश्क..मर्ज...दवा

इश्क हो मर्ज, तो लब हैं दवा / ग़मों की क्या बिसात, न हो जाएं वो हवा!


तुम्हीं कहो....
कभी कहते हो हमारी ज़िंदगी से रुखसत हो जाओ, कभी इकरार करते हो फर्ज-ए-मोहब्बत का...तुम्हीं में अक्स देखा है हमने सांसों की बुलंदी का, भला अख्तियार क्यों करते हो ये रास्ता अदावत का


बांकपन...
ये माना कि ख़फ़ा है तू, बिना मेरे तेरी रहगुज़र भी तो नहीं....ये ना सोचो कि ग़ुरूर में हूं मैं, मेरी जां तेरे साथ के बिन मेरा भी बसर तो नहीं...


जाम और नाम
हर सांस में तेरा नाम था, धड़कनों में सलाम था.../ जिस डगर पे तेरे पग चले, उसी राह पे पयाम था / हमें मयनशी की आदत कहां, तेरी आंख में ही जाम था / अब तू कहां और हम कहां पर इतनी तो है ज़िद बाकी बची / जब तक जिए, हम संग रहे, प्यार ही अपना काम था


अवधी में प्यार
वही ठइयां ठाड़े रहिबै बालम, जहवां तू हमइं छोड़ि गयेव है....मनवां मां उठत हइ हूक बहुत अब, सोचेव भी नाईं तू हमइं कहां छो़ड़ि गयेव है...देहियां के पीरा कइ नाहीं कउनउ इलाज भवा, करेजवा मां अगिया तू झोंकि गयेव है...अबहिंव तू फिकिर करौ, हमसे तू धाइ मिलव...अंखिया ना मूंदब, खाइब ना पीयब, नाहीं हम जीबै, नाहिन मरबै, वहीं ठइयां ठाड़े रहिबै बालम, जहवां तू हमइं छोड़ि गयेव है...


एक और अवधी रचना...ब-स्टाइल-लोकगीत
हमरे मन की चिरइया उड़ी जाय रे...फगुआ ना गावै, कजरी ना गावै, बहियां से छूटै हमैं तरसावै...यही ठइयां दगाबाज़ी किहां जाय रे...गोदिया बैठाइके भुइयां मां पटकै, मुहंवा लगाइके नैना झटके...नाहीं देखइ की जियरा झरसाइ रे...हमरे मन की चिरइया उड़ी जाय रे...

प्यार बुरा है?
माना ये संसार बुरा है...हम सबका व्यवहार बुरा है...धीरज धर के इतना सोचो...कहां हमारा प्यार बुरा है..


तुझे है वास्ता
तुझे हमसे प्यार का है वास्ता...न खुद से खुद की रक़ीब बन, जो खुद से मोहब्बत ना होगी आपको, तो कहां मिलेगा हमें भी रास्ता


जो अश्क कर पाते...
अश्क बयां कर पाते हाल-ए-दिल, तो चेहरे पे मिरे तेरी तस्वीर बनी होती / यूं न बह-बह के सूख जाने पर मज़बूर रहते, हाथों में मिलन की लकीर बनी होती


गुमां छोड़कर...
उजले जिस्म का ग़ुमां छोड़कर, स्याह आंख का अश्क बनना बेहतर....जो ज़ुदा हों, तो जाएं जान से...राह-ए-गलतफहमी पे भटकने से पेश्तर


ये भी है...अभी बाकी....

मुख़्तसर से तो मिले थे तुम, फौलाद-से जु़ड़ गए / चले थे मंदिर को जानम, क़दम तेरे दर को मुड़ गए


शेर---1
रहमत-ए-इश्क की बारिश जो कर जाओ तुम / यकीं मानों हमें हीरे भी खैरात लगने लगेंगे / और ये कहना ही क्या कि हम इश्क के ग़ुलाम हैं / तमाम सल्तनतों के ताज़ भी हमें आग लगने लगेंगे


शेर---2
सुलगती रही धूप, दिल से धुआं उठने लगा / दूरी ने यूं गाफ़िल किया-रस्ता ज़ुदा लगने लगा / यूं जाया न करो दूर तुम / हमारा आज देखो कल लगने लगा


शेर---3
बारिश हुई, नहाए रास्ते, ओस के संग मैं हूं... / बहुत झुलसा कई दिन तक, आज नशे में हूं.../ रफ़्ता-रफ़्ता दिल पे काबिज़ हुईं थी तनहाइयां / तुम मिलीं, खुशबू खिली और मैं मज़े में हूं..


शेर-4
तुम्हारी याद के नाते...तुम्हारे साथ के किस्से, न होते जो ये, तो हम भी कहां होते...


शेर-5
कहां से आते हैं उदासियों के हवाले, पता हमको नहीं सनम... इतना भर जान लो तुम, जो बिछड़े तो बाकी बचेगा ग़म

शेर-6
सोचते थे ज़ुदा होके भी जी लेंगे हम, आलम ये है कि सांसों में इक क़तरा हवा तक ना बची / जो बिछड़े दो घड़ी के लिए बस यूं ही बेसबब, ज़िंदगी के लिए देखो कोई आरज़ू ही ना बची


शेर-7
हम इतनी मुद्दत बाद मिले...फिर भी क्यों बने मन में गिले...हंसी की खनक से भर जाते सारे जख़्म...पर तू तो साथी अब तक होंठ सिले...


शेर-8
तुझे खुद से ज्यादा ही चाहा है हरदम...कैसे उपजे फिर भी बोलो मन में भरम


शेर-9
खूबसूरत हो तुम, तुम हो नादां बहुत / उड़ती रहो पर संभलकर उड़ो/ ज़िंदगी है कहां आसां बहुत




फ़िलहाल इतना भर....थैंक्स फेसबुक का...जो ये कह-कहकर `क्या है आपके मन' में पूछ-पूछकर कुछ ना कुछ लिखवा ही लेता है...