कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, November 23, 2010

अतीत के एलबम से यादों के पन्ने

स्मृतियों का आवेग किसी हैंगओवर से कम नहीं होता, जिससे उबारता है जिम्मेदारी का नींबू पानी। ऎसे ही पहले प्यार की कसक जिंदगी भर साथ रहती है। कितने ही शायरों ने हजारों कलाम टूटे हुए दिल में बसे महबूब के अक्स की तारीफ में लिख डाले, लेकिन अलविदा कहकर चले गए आशिक के साथ बिताए लम्हे भी कौन, कब तक संभालकर रख सका है? फैज अहमद फैज भी ऎसा ही बयान करते हैं- दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया, तुझ से भी दिल फरेब हैं गम रोजगार के।

बीते लम्हों के अक्स जब भी आंखों में उभरते हैं, दिल का कतरा-कतरा जख्मी हो जाता है पर ऎसा नहीं कि हर बार यादें चोट पहुंचाती हों, अक्सर ये भर देती हैं ऎसी कसक से, जिसका कोई अंत नहीं होता। बारहा आंखों में उभरता है बारिश में छप-छप करती नन्ही-नन्ही हथेलियों का क्लोजअप। याद आता है-दौड़के बेर तोड़ना, भागकर साथी को पकड़ना, दादी की गोद में सिर रखकर आधी रात तक कहानियां सुनना। बचपन-जो हर पल साथ रहता है, कभी नहीं छोड़ता। आपको याद आई जगजीत सिंह की आवाज और सुदर्शन फाकिर की गजल-

कड़ी धूप में अपने घर से निकलना/ वो चिडिया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना/ वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी/ वो ख्वाबों-खिलौनों की जागीर अपनी/ न दुनिया का डर था, न रिश्तों के बंधन/ बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी...वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी...।

...बचपन ही क्यों, यादों की एलबम के पन्ने ज्यूं-ज्यूं पलटते हैं, जिंदगी का हर लम्हा जवान होता है। परेशान करता है, अपने आंचल में समेट लेने को जैसे घेर लेता है। आखिर कौन है, जो अतीत से मुक्त हो सका है। वर्तमान और भूत के बीच ये जद्दोजहद अक्सर चलती है। यूं, जिम्मेदारियों की रस्सी बहुत मजबूती से बांधे रहती है, फिर भी हम अतीत की संदूक खोलकर उसमें झांक लेते हैं। ये क्या है, अतीत मोह, नास्टेल्जिया या फिर कुछ और। बिना भूत के किसी का कोई अस्तित्व नहीं। कहते हैं- किसी देश को खत्म करना हो, तो उसका इतिहास नष्ट कर दो। ऎसे ही तो बिना अतीत, बिना इतिहास के हम नहीं, लेकिन किस हद तक। किस कीमत पर। ये सवाल भी मौजू हैं और उतने ही जरूरी, ताकि इन पर जमकर बहस की जाए। समाधान निकाले जाएं। 

यादें क्या हैं और कैसी होनी चाहिए, उनमें किस कदर पड़ा जाए, उनकी कितनी छानबीन हो, ये भी सवाल उठता है पर कहां किसी के हाथ में है स्मृतियों के उलझाव में नाप-तौलकर पड़ना। जिंदगी अपने आप में इम्तिहान है, सो गुजरी और गुजरती जा रही उम्र का हर पड़ाव किसी क्वेश्चन पेपर से कम नहीं। बशीर बद्र तो बाजादि बयान करते हैं-उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।

यकीनन, अलग-अलग लोगों के लिए जिंदगी के मायने भी अलग हैं। किसी के लिए जहर है, तो इसे पीना मजबूरी है, सो किसी और के लिए सेलिब्रेशन। सुदर्शन फाकिर कहते हैं-जिंदगी को भी सिला कहते हैं कहने वाले/ जीने वाले तो गुनाहों की सजा कहते हैं। वहीं आजकल लाइफ स्पिरिट से भरपूर है, मस्ती और आशा से लबालब है। वो अतीत में डूबना किसी उलझाव की तरह समझते हैं। पर ऎसे भी लोग हैं, जिनकी निगाहों में हर पल यादों का नशा छलकता है। यादें अक्सर उदास करती हैं। सुदर्शन फाकिर के शेर गवाही देते है-

गम बढ़े आते हैं कातिल की निगाहों की तरह / तुम छुपा लो मुझे ऎ दोस्त गुनाहों की तरह/ अपनी नजरों में गुनहगार न होते क्यों कर / दिल ही दुश्मन था मुखालिफ के गवाहों की तरह / हर तरफ जीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त / बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह।

जीवन ही क्यों, इसका आईना यानी साहित्य ही अतीत-मोह से कहां बच पाया है। ललित निबंध जैसी विधा और संस्मरण भी नास्टेल्जिया के सबसे बड़े उदाहरण हैं। चर्चित आलोचक अष्टभुजा शुक्ल, हरिशंकर परसाई के ललित निबंधों के बारे में बताते हैं--उनमें व्यक्ति और आत्म का जो स्पर्श है, वह निरंतर गहरी सामाजिकता में रचा-बसा है। दरअसल, चेतना, स्मृति और वर्तमान का अंतर्द्वद्व ही जीवन की सच्चाई है। राजेन्द्र यादव भी कह चुके हैं कि हिंदी में ललित निबंध की मूल चेतना नास्टेल्जिया है।

रामदरश मिश्र जैसे साहित्यकार हों या प्रेमचंद सरीखे अमर कलमकार, सबका साहित्य स्मृति-अंशों से फला-फूला है। हां, हमारे फिल्मी गानों और दृश्यों की अटकाऊ, उलजाई याद-रसायन से इतर वहां आत्ममुग्धता की जगह अतीत की सटीक और निष्पक्ष समीक्षा है। दिक्कत तब होती है, जब वर्तमान को धिक्कार भाव से देखने की सोच अतीत को अधिक रूमानी बना देती है। ये बिंदु जोरदार तरीके से बहस के दायरे में लाने की जरूरत है। वास्तविकता ये कि अतिरिक्त मोह खतरनाक होता है, चाहे वो जीवन के किसी खास चरण के लिए हो या फिर देश, प्रदेश-जिले-मोहल्ले का हो, कोई शख्स दिल की धड़कन पर कुंडली मारकर बैठा हो या फिर विचार का अतिRमण कर रहा हो, नास्टेल्जिया पर मुग्ध होने के साथ ये बात भी भुलाई नहीं जा सकती। 

यूं, जयशंकर प्रसाद इससे अलग बात अपने एक पात्र मधुआ के हवाले से कहते हैं, मौज-मस्ती की एक घड़ी भी ज्यादा सार्थक होती है एक लंबी निरर्थक जिंदगी से। ऎसे में अतीत-मोह से निकल पाने का हल क्या है। क्या बीती हुई यादों मुझे इतना ना रूलाओ, अब चैन से रहने दो, मेरे पास ना आओ, कहने भर से स्मृतियों से पीछा छुड़ाया जा सकता है? नहीं...यकीनन नहीं।

प्रभाष जोशी ने तो बड़ी कड़ी टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था--यथार्थवादी वर्तमानवादी होते हैं। वर्तमान में सिर्फ पशु ही जीते हैं, क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होता...आदमी-आदमी हुआ तो इसलिए कि उसके स्मृति मिली और वह भविष्य के सपने देखने लगा। वर्तमान यथार्थ हो सकता है, परन्तु यथार्थ सत्य नहीं हो सकता। इसी सिलसिले में एग्स विल्सन की बात याद आती है--भारत एक भौगोलिक वास्तविकता से कहीं अधिक परंपरा और एक बौद्धिक आध्यात्मिक ढांचा है। लूट, गुलामी, विध्वंस, बगावत और पुन:निर्माण से जूझते भारत देश में स्मृतियों का पुन: पुन: जागरण एक कुदरती प्रçRया भी तो है। यहीं पर रामदरश मिश्र कहते हैं--बहुत-से लोग गांव से आकर शहर में खो जाते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं कहीं बचा हुआ हूं। 

इसका श्रेय गांव को है, मेरे पैतृक संस्कार को है। वो बताते हैं कि लेखक अपनी जमीन, अपने गांव से जुड़कर उसके बदलाव को रेखांकित करता हुआ भी उसके मूल्यों को भीतर से तलाशता है और ये मूल्य कहीं हैं? उस सही जगह को देखने की कोशिश करता है। यहां अतीत से जुड़ाव कितना सकारात्मक सिद्ध हुआ है। है कि नहीं? पर यही तब बड़ी फांस बन जाता है, जब वर्तमान की उपेक्षा होने लगती है। और अंत में फिर रामदरश जी की बात--वास्तव में नास्टेल्जिया खराब अर्थ में तभी होता है जब आप अपने समय की पहचान छोड़कर 25 साल, 30 साल के समय में दुबक जाते हैं।

सवाल वही-यादों में उलझकर वर्तमान की खिन्नता के साथ उपेक्षा करें या फिर जिम्मेदारियों का बोझ संभालते हुए कुछ- कुछ देर को आंखें भी मूंदते रहें, ताकि बचपन की छुपन-छुपैया खेलने और बारिश में कागज की कश्ती तैराने के दृश्य उभर सकें? जवाब आप ही तलाशें।


Daily News


डेली न्यूज, जयपुर के हमलोग सप्लिमेंट में प्रकाशित (
http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/21112010/Humlog-Special-article/22666.html) कवर स्टोरी

Friday, November 19, 2010

ज़िंदगी की धुन पर मौत का नाच

सारी दुनिया बंधी है कालबेलिया के जादू में पर इसके फ़नकार अब भी तलाश रहे अपनी पहचान

धीरे-धीरे रात गहरा रही है। दिन भर खेल-कूदकर बच्चे थक गए हैं पर निंदिया रानी पलकों से दूर हैं। बच्चे जब सोते नहीं, बार-बार शरारतें करते हैं, तब दादी शुरू करती हैं—एक राजकुमारी की कहानी। राजकुमारी, जिससे प्यार करता है राजकुमार। सफेद घोड़े पे आता है, उसे अपने साथ ले जाता है। बच्चे जब तक सपनों में डूब नहीं जाते, `हां...’, `और क्या हुआ...’, `आगे...’ बुदबुदाते हुए, आंखें खोले, टकटकी लगाए सुनते रहते हैं। कमाल है कि दादी की किस्सों वाली पोटली कभी खाली नहीं होती। उसमें से निकलते जाते हैं एक के बाद एक अनूठे, मज़ेदार, अनोखे किस्से। राजकुमारी के बाद जादूगर, जिसकी जान चिड़िया के दिल में कैद है और फिर नाग-नागिन की बातें। हां...डर रहे हैं बच्चे, सिमट रहे हैं खुद में, सट रहे हैं एक-दूसरे से और सुनते ही जा रहे हैं नाग-नागिन के जोड़े के बारे में। उनसे जुड़ी कितनी ही कहानियां...। मन मोह लेती हैं नाग-नागिन की रहस्यमयी कथाएं। इच्छाधारी नागिन का प्रेमी नाग से मिलना, फिर नाग की हत्या, नागिन का बदला और भी पता नहीं क्या-क्या।
जितनी पुरानी दुनिया है, कुदरत है, उतनी ही तो पुरानी हैं नाग-नागिन की कहानियां। उनके किस्से, अफ़साने और हां, उसी तरह प्राचीन हैं सपेरे और उनका संसार।
बीन बजाता संपेरा याद है? उसकी वो पोटली, जिसमें से पूंछ पकड़कर, कभी गर्दन से थामकर संपेरा सांप निकालता है। ओह...ये क्या, कैसा डरावना सांप है, पर संपेरे नहीं डरते। खेलते हैं ज़हरीले सांपों से। वही क्यों...उनके छोटे-छोटे बच्चे तक, जो बोल तक नहीं पाते, फिर भी नाग का मुंह खोलकर उसके दांत गिनने की कोशिश जो करते हैं।
ये हैं संपेरे, जो मौत के सौदागर सांपों को थामकर, उनका नाच दिखाकर रोजी-रोटी की लड़ाई लड़ते हैं। दिन भर सांपों की तलाश करने या फिर घर-घर उनकी नुमाइश कर शाम तक जुटाते हैं दो रोटी लायक थोड़ा-सा पैसा।
ये हालत यूपी-बिहार के ही संपेरों की नहीं, पूरे देश में संपेरे खुद का अस्तित्व बचाने की जद्दोज़हद कर रहे हैं, लेकिन वो हुनर ही क्या, जो गरीबी के अंधेरे में गुम हो जाए। यही वज़ह है कि संपेरों के फ़न की चमक कहीं कम नहीं हुई है।
इसी सिलसिले में एक सवाल पूछ लें आपसे? राजस्थान की घुमक्कड़ जनजाति कालबेलिया का नाम सुना है? वही कालबेलिया, जिसके नृत्य की धमक से सारी दुनिया गुलज़ार हो रही है। काले कपड़े पहनकर जब कालबेलिया समुदाय की लड़कियां तेज़-तेज़ कदमों के साथ लयात्मक नृत्य करती हैं, तो जैसे कुदरत की हर हरकत ठहर जाती है। सासें थमकर सुनती हैं—जादुई धुन, आंखें देखती हैं अनूठे लोकनृत्य की धूम।
रेतीले रेगिस्तान के बीच बसे गांवों में हर दिन गर्मी से झुलसाता है और रातें ठिठुरन से भर जाती हैं। ऐसे में, कहीं, किसी मौके पर सजती है महफ़िल। महफ़िलें जवान होने के लिए किन्हीं खास मौकों का इंतज़ार कहां करती हैं...ऐसे ही धीरे-धीरे सुलगती लकड़ियां चटखती हैं और फिर धीरे-धीरे शोले परवान चढ़ते हैं। फिर उनके सामने आ जाती हैं दो महिलाएं। ये किसी भी उम्र की हो सकती हैं, यूं, ज्यादातर ये युवा ही होती हैं। 
कालबेलिया जनजाति की युवतियां थिरकना शुरू करती हैं और उनके साथ-साथ ढोरों से होती हुई कसक भरी आवाज़ गूंजती है।
सपेरों का ये नाच ग़ज़ब है। कालबेलिया युवतियों की लोच से भरपूर देह बल खाती है और उन्हें देखने वाले सांसें रोककर जिस्म की हर हरकत देखते हैं...सुध-बुध भुलाकर देखते हैं ग़ज़ब का कालबेलिया नाच।
कसीदाकारी की कलाकारी से भरपूर घेरदार काले घाघरे पर लगे कांच में लपटों की झलक दिखती है। इकहरी-पतली लचकदार देह पे सजा होता है खूब घेरदार घाघरा...घेरदार परतों के बीच लाल, नीली, पीली और रूपहले रिबन से सजी गोट और गोल-गोल शीशे।
जिस्म लहराता है, साथ ही हाथ ज़मीन पर टिक जाते हैं। नर्तकी पीछे को झुकती हुई घूम जाती है। जैसे बदन हाड़-मांस से नहीं बना, रबड़ से तैयार किया गया हो। पैर और गर्दन एक लय पर घूमते हैं। मुस्कराती हैं आंखें और होंठ भी साथ-साथ। नैनों की कटार खाकर हर कोई एकसाथ कह उठता है—`आह और वाह’!

'म्हारो अस्सी कली को घाघरो' की तान छेड़ती नर्तकियां क्या हैं। हर चक्कर के साथ जैसे केंचुल छोड़कर जन्म लेती हुई सांप की बेटी, ताज़ा-ताज़ा पैदा हुई नागिन-सी। मोहक, रहस्यमय, धारदार और उल्लास से भरा यौवन। कौन सोचेगा...अभावों में निखरा हुआ सौंदर्य है ये।
रात गुज़रती जाती है पर कालबेलिया की थिरकन कम नहीं होती। ओढ़नी ओढ़े कालबेलिया युवतियां गोल-गोल घेरे में नाचती हैं, फिरकनी की तरह। उनकी रफ्तार में तब-तब बदलाव आता है, जैसे-जैसे राजस्थानी लोकगीतों की सुरलहरियों में उतार-चढ़ाव शामिल होता है। संगीत भी मादक होता है। एक तरफ बीन की मदमाती धुन, दूसरी ओर ढपली का जादू...। लड़कियां नृत्य करती हैं और साज़ पर तैनात होते हैं सपेरे, यानी पुरुष। ये महिला सशक्तीकरण की मिसाल है, जहां पुरुष सहयोगी की मुद्रा में है। वो नेता नहीं, साथी है, सरदार नहीं, सिपाही है।
पुरुष सहयोगी के हाथ बाज़ों पर तड़पते हैं और बिजली कड़कने जैसी ताल के साथ कालबेलिया लड़कियां नाचती जाती हैं। कहीं कोई पास में ही बैठा तान देता है। ये कोई भी हो सकता है, कोई पुरुष या फिर स्त्री। 
कालबेलिया मनोरंजन के लिए किया जाने वाला कोई आम नृत्य नहीं है। थिरकन के इस जादू में छिपा है जीवन का गहरा संदेश...मृत्यु सत्य है। वो आनी ही है। उसका सामना करो।
जैसे, शिव ने संसार की रक्षा के लिए विष पिया। ज़हर को गले में रोकने के लिए नीलकंठ हो गए, वैसे ही तो संपेरन लड़कियां कालबेलिया नृत्य करती हैं। यही बताती हुई—मृत्यु का सामना करना जानो। उनकी मुद्रा बताती है—हम अभाव में जीते हैं, फिर भी ज़िंदगी को ज़हर नहीं समझते।
कालबेलिया घुमक्कड़ जाति है। नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे सांप पकड़ने, उनका प्रदर्शन करने के अलावा, और कोई हुनर उनके पास नहीं है। हां, कुछ कालबेलिया आटा पीसने की चक्की और खरल-बट्टा भी बनाते रहे हैं। बीते कुछ साल में ज़रूर उनमें ठहराव आया है, लेकिन रोजमर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए अब भी जद्दोज़हद करनी पड़ती है।
राजस्थान की तमाम घुमंतू जातियां पुख्ता पहचान के लिए जूझ रही हैं। ये मूलभूत सुविधाओं के लिए सरकार का मुंह देखते हैं और बस बिसूरते रहने को मज़बूर हैं।
बंजारा, कालबेलिया और खौरूआ जाति के लोगों के पास राशन कार्ड और फोटो पहचान पत्र तक नहीं होते, ऐसे में उन्हें नरेगा जैसी योजनाओं का फायदा नहीं मिल पाता। राजस्व रिकॉर्ड में कालबेलिया के नाम के साथ नाथ या जोगी लिखा जाता है। वो गरीबी रेखा से नीचे के वर्ग में भी शामिल नहीं किए जाते। ऐसी हालत में संपेरे अपने सुनहरे दिनों के आने का कभी ना खत्म होने वाला इंतज़ार ही करते जा रहे हैं।
ये दीगर बात है कि कालबेलिया नृत्य ज़रूर संपेरों के ख्वाबों, ज़िंदगी की यात्रा और सोच को ऊंचाई तक ले जा रहा है। ऐसी ऊंचाई, जिस तक पहुंचने का ख्वाब दुनिया के बड़े-बड़े कलाकार देखते हैं।
इन्हीं संपेरों के बीच की एक लड़की है धनवंती। धनतेरस के दिन जन्मी थी, इसलिए नाम पड़ा धनवंती। बचपन और जवानी दोनों मुफलिसी में गुज़री पर आज के दिन वो धन और शान, दोनों का पर्याय बन गई है। 1985 में हरियाणा की एक पत्रिका ने उसे पहली बार गुलाबो नाम दिया और फिर तो यही नाम कालबेलिया का पर्याय बन गया।
153 देशों में प्रस्तुतियां दे चुकीं गुलाबो को 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वो लंदन के अलबर्ट हॉल में परफॉर्म कर चुकी हैं, ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ तक से सराहना पा चुकी हैं, लेकिन 90 के दशक से पहले वो ख़तरनाक सांपों की खिलाड़न भर थीं। सांप नचाकर लोगों का मनोरंजन करती गुलाबो आज राजस्थानी लोकनृत्य कालबेलिया की पहचान बन गई हैं। देश की सरहदों से पार, परदेस में जगह-जगह कालबेलिया पेश कर वाहवाही हासिल कर चुकी गुलाबो का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। राजस्थान के लोग अपनी संपेरन-जादूगरनी-कलाकार गुलाबो का ज़िक्र बड़ी इज़्ज़त के साथ करते हैं। वो चाहती हैं, इस नृत्य का सम्मान और बढ़े। अपने पिता को याद करते हुए गुलाबो कहती हैं—बापू मुझे समझाते थे, कुछ भी करना पर चोरी की राह पर ना चलना। मेरे लिए जीवन का यही मूलमंत्र है।
गुलाबो और उन जैसी दीवानी नृत्यांगनाओं के ज़रिए कालबेलिया की धमक कहां नहीं पहुंची। मौजूदा साल में भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी की। खेलों के उद्घाटन समारोह की शान भी कालबेलिया नृत्य ने ही बढ़ाई। गुलाबो के दल का हिस्सा पुष्कर की पांच कालबेलिया नर्तकियां बनीं। उन्होंने सारी दुनिया को एक बार फिर कालबेलिया के सम्मोहन से जकड़ दिया। ये लड़कियां हैं—कुसुमी, मीरा, सुनहरी, रेखा और उनके साथ गुलाबो भी। ये अजमेर के गनाहेड़ा रोड पर न्यू कॉलोनी और देवनगर के बीच के इलाके में झोपड़ों में रहती हैं। 
इन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन के मौके पर नृत्य का जादू दिखाया। एक तरफ ढपली, झांझरी, रावणहत्था और अलगोजा की धुन थी और दूसरी तरफ कालबेलिया की थिरकन। लोग वाह-वाह कर उठे।
यूं तो राजस्थान का कालबेलिया ने बड़ा नाम किया है, लेकिन इसके कलाकारों की फ़िक्र किसी ने भी नहीं की। साल 2007-08 के बजट में कालबेलिया स्कूल ऑफ डांस की शुरुआत करने की घोषणा की गई थी। इसके लिए एक करोड़ रुपये आवंटित भी किए गए थे पर कई साल गुज़र जाने के बाद भी इस स्कूल की शुरुआत तक नहीं हो सकी है।
संस्थान बनाने के लिए जयपुर के हाथीगांव के पास जयपुर विकास प्राधिकरण ने 1.25 हेक्टेयर ज़मीन का आवंटन किया। चारदीवारी भी बनवाई गई पर अब ये ज़मीन बेकार पड़ी है। 7 करोड़ रुपये के इस प्रोजेक्ट में बाद में कोई राशि जारी नहीं की गई। प्रशासन एक बार फिर सुस्त पड़ा है। किसी को कालबेलिया के उत्थान की फ़िक्र नहीं है। अफ़सोस, जो नृत्य राजस्थानी लोकसंगीत की पहचान है, उसके फ़नकारों की ही कोई पहचान नहीं। कम से कम सरकारी फाइलों में तो वो अब भी अपना वज़ूद तलाश रहे हैं।
कहने की बात नहीं कि कालबेलिया नृत्य का संस्थान बन जाता, तो सरकार की आमदनी बढ़ती और इस फ़न से जुड़े फ़नकारों का नाम भी होता। यही नहीं, इस नृत्य को संरक्षित रखा जा सकता, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच यही है कि कालबेलिया की नृत्यशैली और इसके कलाकार अब तक अपना संरक्षक ढूंढ़ रहे हैं, जो सत्ता और सियासत के बीच कहीं खो सा गया है। कबीलाई संस्कृति से निकलकर कालबेलिया नृत्य की चमक बिखेरने वाले युवक-युवतियां चाहते हैं—उनके जीवन में भी थोड़ी-सी रोशनी भर जाए। क्या ऐसा होगा?


दैनिक स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित आलेख

Monday, November 15, 2010

बदलती दुनिया की `आभासी’ खिड़कियां

एक अंकुर जब ज़मीन से उभरता है, तो अनगिनत परतें तय करके दरख़्त बनता है, यूं ही ज़िंदगी की पहली सांस से जवानी और फिर फ़ना होने तक कितने ही क़दम आगे बढ़ाने होते हैं। जीवन के इस सफ़र में बहुतेरे रिश्ते साथ जुड़ते हैं, अहसास बुलंद होते हैं और तब कहीं कोई मुकम्मल होता है। जीवन यात्रा के कई पड़ाव हैं। कहीं हम ठहरते हैं, कहीं तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ जाते हैं...लेकिन दोस्तों का, संबंधों का तानाबाना हरदम साथ रहता है। दोस्त, सिर्फ वही नहीं, जो आंखों के सामने, चाय की प्याली के साथ, चिट्ठियों और फ़ोन पर संग-संग होते हैं, कई बार उनसे भी ग़ज़ब की अटूट रिश्तेदारी होती है, जो सिर्फ अहसास में होते हैं, आभास में मिलते हैं। ऐसी ही दोस्तियां बुनी जाती हैं आभासी दुनिया, यानी  virtual world में।
जैसे ज़िंदगी गतिशील है, ठीक वैसे ही दुनिया भी लगातार बदल रही है। हम लगातार प्रगति की बातें करते हैं, उसके लिए कोशिशें करते हैं और सजग रहते हैं। कई बार हमें अपने हमख़यालों के बारे में पता चलता है, तो ज्यादातर बार इसी फ़िक्र में दिन बीतता है—हमारे जैसी सोच सबकी क्यों नहीं होती? लेकिन ऐसा नहीं है। दुनिया को बेहतर बदलाव देने की कोशिश में बहुत-से लोग जुटे हैं। आभासी दुनिया में ऐसे ही कई ठिकाने हैं, जहां झांककर हम जान सकते हैं कि संसार कितना गतिशील है। तो आइए, सबसे पहले चलें दुधवा जंगल की ओर। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के पास है दुधवा अभयारण्य। 
महात्मा गांधी ने कहा था, `किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है।‘ पेशे से शिक्षक कृष्ण कुमार मिश्र ने ये बात गंभीरता से समझी और जनवरी, 2010 से शुरू कर दिया एक अनूठा पोर्टल—http://www.dudhwalive.com/

हालांकि कृष्ण कुमार का ये पोर्टल सिर्फ दुधवा जंगल की बातें नहीं करता। मिश्र बताते हैं, `दुधवा लाइव के सृजन का पहला मकसद है, हमारे आस-पास के वन्य-जीवों व पर्यावरण के बारे में दुनिया को बताना।‘ वो अपने मकसद में कामयाब भी रहे हैं। मिश्र की मानें, तो उनके पोर्टल पर आवाज़ उठाने के बाद पक्षी सरंक्षण की मुहिम शुरू हुई। उनका इरादा है कि दुधवा लाइव पर संरक्षित वनों और वन्य जीवों के अलावा गांव-जंवार के पशु-पक्षियों और खेत-खलिहानों की बातें भी की जाएं।
...लेकिन जंगल का मतलब जानवर ही तो नहीं हैं? वनों की एक दुनिया ऐसी भी है, जिसके बारे में बातें करते समय हम सिहर उठते हैं और जंगल को नाम देते हैं—बीहड़। दस्यु गिरोहों की कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनकी अपनी ज़िंदगी-जद्दोज़हद कैसी है, इसकी दिलचस्प कहानी बयां करता है एक ब्लॉग—बीहड़ (http://beehad.blogspot.com/) । औरैया, उप्र के रहने वाले योगेश जादौन ने कई अख़बारों समेत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी काम किया, लेकिन मन में हमेशा ये इच्छा हिलोर मारती रही कि बीहड़ संसार से सबको परिचित कराया जाए, तो ये ब्लॉग बना डाला।
हरे-भरे जंगलों के साथ पानी की चिंता करने वाले पोर्टल और ब्लॉग भी बहुतेरे हैं। इनमें अहम नाम है—http://hindi.indiawaterportal.org/। कृष्ण कुमार की तरह इस पोर्टल के संचालकों को भी महात्मा गांधी का एक कथन बहुत प्रभावित करता है—‘यदि हम कार्य करने में केवल यह सोचकर सकुचाते हैं कि हमारे सारे सपने पूरे नहीं हो सकते अथवा इसलिए कि कोई हमारा साथ नहीं दे रहा, तो इससे केवल हमारी कोशिशों में बाधा ही पड़ती है।‘ 
यकीनन, हिंदी में मौलिक वैचारिक काम करना काफी कठिन है, क्योंकि ज्यादातर संदर्भ अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध हैं, लेकिन 2005 से लेकर अब तक अंग्रेज़ी में लंबे समय तक वाटर पोर्टल चलाने के साथ राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने एनजीओ अर्घ्यम् के साथ हिंदी में पानी पर पोर्टल शुरू किया। कहने की बात नहीं कि इस पोर्टल की मदद से आम लोग भी जल संरक्षण से लेकर पानी के महत्व की हर बात अपनी भाषा में समझ पाने में सक्षम हुए हैं। हिंदी पोर्टल का कामधाम मुख्यतौर पर वाटर कम्युनिटी इंडिया की चेयर पर्सन श्रीमती मीनाक्षी अरोड़ा और सिराज केसर ही संभालते हैं। पानी को लेकर जागरूकता फैलाने वाली कुछ और वेबसाइट्स में http://www.waterresourcesgroup.com/irm/content/home.html, www waterresourcesgroup com, http://www.carewater.org/, http://www.himalayanwater.org/ का नाम शामिल है।
पानी, जंगल, ज़मीन, खेताबीड़ी को लेकर अलग-अलग भाषाओं में चलाए जा रहे पोर्टल और ब्लॉग अच्छा काम कर रहे हैं। इनमें http://www.waterandfood.org/, http://savemaaganga.blogspot.com/, http://www.waterkeeper.org/, http://www.prakriti-india.org/Home, http://www.bhartiyapaksha.com/, http://www.blueplanetproject.net/, खास हैं।
वैसे, एक बात बताइए? क्या आप जानते हैं कि देश के 12 करोड़ किसान परिवारों में से 60 फीसदी के पास बैंक खाते तक नहीं हैं, जबकि आयात के नाम पर विदेशी किसानों को मालामाल किया जा रहा है? जानकारी चौंकाने वाली है...और ऐसी ही बहुतेरी सूचनाएं देता है वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग-- http://khet-khalihan.blogspot.com/।
अब बात करें एक रोचक अभियान छेड़ने वाले पोर्टल की। ये है www.fluoridealert.org। यूं तो, अमेरिका में चूहे मारने के लिए फ्लोराइड का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन उसका परिणाम ये हुआ कि देश का सत्तर फीसदी भूजल फ्लोराइड की वज़ह से दूषित हो चुका है। फ़्लोराइड एक्शन नेटवर्क ने फ्लोराइड प्रदूषण से बचाव के लिए बहुतेरे कार्यक्रम शुरू किए और साथ ही इससे संबंधित पोर्टल भी शुरू किया। इस आभासी मंच पर फ्लोराइड प्रदूषण,  ज़हरीले असर को लेकर बहुत-सी सूचनाएं, आंकड़े और तथ्य मुहैया कराए गए हैं। 
एक तरफ फ्लोराइड का ज़हर और दूसरी ओर विस्थापन की तक़लीफ़...दर्द कैसा भी हो, एक जैसी ही तड़प पैदा करता है। http://matujan.blogspot.com/ ऐसी ही तक़लीफ़ का बयान है। ये ब्लॉग उत्तराखण्ड समेत अन्य हिमालयी राज्यों के लोगों की समस्याएं बयां करने के लिए बनाया गया है। टिहरी पर बांध बनाने को लेकर नाराज़ सिरांई गांव के नौजवानों ने नवंबर, 2001 में संगठन बनाया और ज़ाहिर तौर पर अपनी आवाज़ सारी दुनिया तक पहुंचाने के लिए ब्लॉग भी तैयार कर लिया। वैसे, अब इस ब्लॉग स्वर टिहरी के अलावा, भागीरथी, अलकनंदा व गंगा घाटी के अन्य बांधों को लेकर भी जनचेतना जगा रहा है...।
कुछ और ब्लॉग व पोर्टल हैं, जो नदियों की खुशी और पीर की कथा बयां करते हैं, इनमें http://www.savegangamovement.org/, http://gangajal.org.in/, http://www.neerexnora.com/index.asp, www.holyganga.org, www.navdanya.org प्रमुख हैं।
वैसे, विकास की ख़बरों तक पहुंचने के लिए http://www.im4change.org/hindi/ भी बेहतर मंच है। यहां खेतिहर संकट, गांवों के आंकड़े, बेरोजगारी, घटती आमदनी, माइग्रेशन, भोजन का अधिकार, नरेगा, सूचना और शिक्षा का अधिकार जैसे विषयों पर सार्थक बहस के साथ मिड डे मील, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, कर्ज- आत्महत्या, नीतिगत पहल, पर्यावरण से संबंधित आंकड़े और दिलचस्प चर्चा भी पढ़ने को मिल जाती है।
आंदोलनों और चिंताओं के बीच हमें अक्सर याद आती है बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ की। 1974 में पाठक ने बिहार में सुलभ इण्टरनेशनल शुरू किया। फ्लश शौचालयों को लोकप्रिय बनाने की उनकी ये मुहिम सफाईकर्मियों के लिए वरदान साबित हुई। इस पूरी यात्रा की झलकियां http://www.sulabhinternational.org,  www.sulabhtoiletmuseum.org, www.sulabhenvis.in जैसे लिंक्स के ज़रिए देखी जा सकती है।
कहते हैं, कुदरत के रंग हज़ार हैं, तो आभासी दुनिया कम रंग-बिरंगी कैसे हो सकती है? इसी की गवाही देता है बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण का ब्लॉग-- http://kudaratnama.blogspot.com/। बालू नाम से मशहूर लक्ष्मीनारायण केरल के हैं, अहमदाबाद में रहते हैं और हिंदी में खूब रोचक जानकारियां मुहैया कराते हैं, मसलन—आंध्र प्रदेश के बपाटला कस्बे के बांदा आदिवासी गिद्ध जैसे शवभोजी पक्षी भी खा लेते हैं और ये भी कि असम के एक छोटे-से पहाड़ी गांव जटिंगा में हर साल अगस्त से अक्टूबर के बीच रोशनी जलाते ही दर्जनों पक्षी खिंचे चले आते हैं...। तो पतंगों को रोशनी पर मर मिटते देखा था आपने, लेकिन ऐसी किसी घटना के बारे में सुना था कभी? बेहतरी के लिए बदलाव की रोशनी जलाए हुए आगे बढ़ रहे इन पोर्टलों, ब्लॉगों (जिन्हें हिंदी में चिट्ठा कहा जाता है) के बारे में फ़िलहाल इतना ही...।
समाज, परिवेश, कुदरत और जीवन के बदलाव से जुड़े कुछ और ब्लॉग / पोर्टल
delhigreens com, paryavaran-digest blogspot, jalsangrah.org, matrisadan.wordpress com, nregawatch.blogspot.com, pragyaabhiyan.info, http://www.carewater.org/, narmadanchal.in, http://www.savegangamovement.org/, http://gangajal.org.in/


छोटी-सी बातचीत-1
कृष्ण कुमार मिश्र, मॉडरेटर, http://www.dudhwalive.com/

जंगल पर पोर्टल शुरू करने का इरादा कैसे बनाया?
- इन्टरनेट एक ऐसा माध्यम है, जो हमारी आवाज को इस ग्रह के तमाम हिस्सों में पहुंचाने की क्षमता रखता है। जंगल और जंगली जीवों पर मानवता के कथित विकास के दुष्परिणामों और उनके निवारण की वह बातें जो हाशिए के आदमी की नज़र से होती हैं, कहने की कोशिश ही है ये पोर्टल।
ये प्रयोग कितना सफल रहा है?
दुधवा लाइव का मुख्य मकसद था, अपनी जैव-विविधिता का अध्ययन, सरंक्षण व संवर्धन, जिसमें हमें काफी सफ़लता मिली है।  हमने एक और प्रयोग किया कि वर्चुवल दुनिया से "गौरैया बचाओ अभियान" जैसी गतिविधियां शुरू करें और इसमें चमत्कारिक सहयोग मिला है।
योजनाएं क्या हैं?
फ़िलहाल, दुधवा लाइव को अंग्रेज़ी भाषा में भी पेश कर दिया गया है। आगे भी बदलावों का सिलसिला जारी रहेगा।

छोटी-सी बातचीत-2
मीनाक्षी अरोड़ा, प्रमुख, वाटर कम्युनिटी इंडिया और संचालक, hindi.indiawaterportal.org

पानी पर पोर्टल की शुरुआत के पीछे क्या इरादा था?
पानी पर हिंदी में पोर्टल शुरू करने का इकलौता उद्देश्य ये था कि देश के विभिन्न भागों में पानी के विभिन्न पहलुओं पर हो रही गतिविधियों की जानकारी लोगों तक पहुंचाई जा सके। इसमें हमने "प्रश्न पूछें" जैसी सेवा शुरू की है।
कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
हिंदी पोर्टल की शुरुआत के समय बहुत-सी चुनौतियां हमारे सामने आईं। इनमें आर्थिक, तकनीकी और भाषाई ज्ञान की समस्या प्रमुख थी। आर्थिक रूप से तो रोहिणी निलेकणी ने अर्घ्यम् की ओर से इसे संबल दिया, लेकिन तकनीक को साधने में थोड़ी दिक्कत हुई। यूनिकोड के बारे में पता चलने के बाद हमारी समस्या का समाधान हो गया। पानी-पर्यावरण पर अब तक अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है जिसके कारण हमें अनुवाद का सहारा ज्यादा लेना पड़ता है, लेकिन हम अनुवाद करने के बाद भी उसको कई बार पढ़कर मौलिक हिंदी आलेख बनाने का प्रयास करते हैं।



और अब यहां सोपान स्टेप (जहां मूल रूप में ये लेख छपा) के पेजेज़ की प्रत्यक्ष झांकी