कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, December 31, 2010

मैं बेचारा, महंगाई का मारा

मैं हूं आम आदमी... सरकार का मारा...मेरी आवाज़ सुनो... दर्द का राज सुनो... फ़रियाद सुनो। मनमोहन सिंह जी, आप तो सुनो... कुछ जवाब दो। जी हां, मैं इसी मुल्क का बाशिंदा हूं, जहां मुकेश और अनिल अंबानी रहते हैं। पहले मुकेश ने तारों से बातें करने वाला दुनिया का सबसे महंगा घर ' एंटिला' 4500 करोड़ खर्च करके बनाया और अब अनिल बड़े भाई से बड़ा घर बनवा रहे हैं। मेरा नाम तो आपको पता नहीं है, हां, वो घर जब बनकर तैयार होगा, तो उसका नाम ज़रूर जानेंगे। और क्या पूछा आपने, मैं कहां रहता हूं? अरे साहब, छोटे-छोटे कमरों में, कहीं झुग्गियों में, तो कभी पाइप लाइन में...क्यों? क्योंकि मैं आम आदमी हूं। अनिल अंबानी का घर 150 मीटर ऊंचा होगा और मेरा...? सच कहूं—मैंने बड़े ख्वाब देखने छोड़ दिए हैं। घर का ख्वाब बड़े सपनों में ही शामिल है। सुना है, एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों ने फिर से ब्याज दर बढ़ा दी है। एक ने 0.75 फीसदी का इजाफा किया, तो दूसरे बैंक ने 0.50 प्रतिशत दर बढ़ा दी। यही वज़ह है कि होम लोन महंगा हो गया है। अब जिन लोगों ने फ्लोटिंग रेट पर होम लोन लिया होगा, उनकी हालत पूछिए...। पसीना छूट रहा है। यही वज़ह है कि मैं अपना घर जैसी सोच को सपनों में भी नहीं आने देता।
घर की तो दूर, सुबह चाय पीने की सोचना भी भारी लगता है। आप तो जानते ही होंगे— मदर डेयरी का दूध फिर महंगा हो गया है। तैंतीस रुपए खर्च करके कौन दूध खरीदेगा चाय पीने के लिए? मेरी तो हिम्मत नहीं पड़ती। कहीं फिर से वही दिन तो नहीं लौटने वाले, जब मां आटे में पानी घोलकर रखेगी और कहेगी—बेटे, पी लो, दूध है। दूध उत्पादक कहते हैं—लागत बढ़ी है। पशुपालकों का शिकवा है—खर्चे बढ़े हैं। हम क्या कहें, किससे कहें, कोई हमें बता दे।
कल की ही बात  है, बच्चे ज़िद कर रहे थे कि गाड़ी से चलेंगे। वो भी यहां-वहां नहीं, डायरेक्ट शिमला। अब इन्हें कौन समझाए—टैक्सियों में सफर करना इतना महंगा हो चुका है कि साल भर की बचत कर लो, तो अपनी गाड़ी, कम से कम नैनो का तो ख्वाब देख ही सकते हैं।
पेट्रोल के दाम तीन रुपए बढ़े, ऐसे में टैक्सी यूनियनें भी किराया बढ़ाने की मांग कर रही हैं। उन्हें ही गैरवाज़िब कैसे ठहराएं? सोल्यूशन क्या है—जो मिले खाएं और मुंह ढककर सो जाएं। किसी शायर ने भी तो कहा है—आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए।
वैसे, कार भी कुछ दिन में ख्वाबों में शामिल करने वाली चीज ही होने वाली है। नैनो ने भले थोड़ी राहत दी थी, लेकिन नई खबर पता है आपको? वो यह है—मारुति सुजुकी इंडिया और हुंडई कारों के दाम बढ़ा रही हैं। बोले तो, बैलगाड़ी ज़िंदाबाद।
दिल्ली की बसों में जेब कट जाती है, तो पंजाब  में बस से चलने की सोच ही नहीं सकते। हाल में ही सुखबीर साहब की सरकार ने पंजाबी जूती से वैट घटा दिया है और बसों का किराया महंगा कर दिया है, यानी 10 पैसे प्रति किलोमीटर के हिसाब से।
खैर, मैं एक कन्फेशन कर लूं। भटक गया था, कॉमन मैन हूं ना। गाड़ियों, बसों की बात करने लगा था। यहां तो दिक्कत दो जून रोटी की है ज़नाब। खबर आई है कि एलपीजी भी सौ रुपए तक महंगी हो सकती है। तेल मंत्रालय के आकाओं से गुहार लगानी पड़ेगी। उनके आंकड़े भी अजब-गजब हैं। पूर्वी एशिया में एलपीजी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हम ही करते हैं और इसके लिए हर साल 30 लाख टन कुकिंग गैस आयात की जाती है।
सो... हम आंकड़े नहीं समझते मंत्रीजी। रहम करें, ताकि अगस्त के बाद से कुकिंग गैस की कीमतों में हर सिलिंडर पर पचास से सौ रुपए का इजाफा ना हो। माना कि एक साल में अंतरराष्ट्रीय कीमतों में दो तिहाई की तेजी आ चुकी है। अमीर मुल्क तो झेल लेंगे साहब, हमारा क्या होगा। सुन रहे हैं ना मनमोहन जी?
बहुत डर लगता है ये सुनकर भी कि 2011 में वैश्विक खाद्य संकट हो सकता है। एफएओ ने चेतावनी दी है कि 2011 में दुनिया वैश्विक खाद्य संकट से जूझ रही होगी। हमारी भूख का हल क्या होगा पीएम साहब?
भूखे पेट बच्चे भी भला कैसे स्कूल जाएंगे, उस पर भी पता चला है कि स्कूलों की फ़ीस बढ़ने वाली है! प्राइवेट स्कूल बसों की फीस में इजाफा हो रहा है। एमपी के निजी स्कूल दस से पंद्रह फीसदी तक फीस बढ़ाने वाले हैं। विडंबना भी जान लीजिए, फीस बढ़ाने वालों में ज्यादातर सीबीएसई से एफिलेटेड हैं। और एमपी ही क्यों, दिल्ली में भी ऐसा होने वाला है... पर स्कूल वाले इसे मज़बूरी में लिया गया फ़ैसला बता रहे हैं। वो कहते हैं—तीन साल में डीजल 43 रुपए प्रति लीटर तक बढ़ चुका है। स्कूल बसों का खर्च भी तो बढ़ रहा है, ऐसे में इसकी पूर्ति कैसे की जाएगी? सच कह रहे हैं प्रिंसिपल साहब, पर आम आदमी क्या करे? आप ही कुछ सुझाइए पीएम साहब।
हम लोग कौन  हैं...छोटी-मोटी फैक्टरियों में काम करते हैं, दफ्तरों में वर्कर हैं या फिर दुकानें चलाते हैं। कहां से लाएं पैसे, कैसे करें महंगाई का मुकाबला?
खबरें खूब हैं, सब की सब डराती हैं। एक खबर ये भी है कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति सख्त हो सकती है। ऐसा हुआ, तब तो छोटे और मझोले उद्योगों की हालत और खस्ता हो जाएगी। विदेश से सप्लाई के लिए मांग कम हो गई थी। अब वो सुधरी है, तो डॉलर कमज़ोर हो रहा है। एक तो नीम, दूसरे करैला चढ़ा। बैंक भी ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। कर्ज महंगा हो जाएगा, बाजार में रकम कम हो रही है, ऐसे में छोटे-मोटे उद्योग क्या करेंगे?
पंजाब नेशनल बैंक पहले नए ग्राहकों के लिए अपनी आधार दर आधा फीसदी बढ़ाकर नौ फीसदी कर चुका है। उसके ज़रिए मिलने वाले सभी कर्ज महंगे हो गए हैं। पेट्रोल भी लगातार महंगा होता जा रहा है।
केंद्र सरकार पेट्रोल की कीमतों से नियंत्रण हटा चुकी है। कारोबारी मनमानी कर रहे हैं। कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। पिछले साल जून में नियंत्रण हटाया गया था। तब से पेट्रोल 17-18 फीसदी महंगा हो चुका है। तेल कंपनियां कच्चे तेल की कीमतों और उत्पादक लागत को आधार बनाकर इसकी कीमत तय करने के लिए आज़ाद हो गई हैं। ऐसे में लगातार कीमतें बढ़ती जाएंगी। सुन रहे हैं मंत्री जी? क्या इसीलिए, आपने नियंत्रण हटाया था, ताकि मनमानापन शुरू हो जाए?
माना कि पेट्रोल के कारोबारी घाटे को कम करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, लेकिन आप तो पेट्रोल पर लगाए जाने वाले टैक्स में कमी ला सकते हैं। सुना है, डीजल भी महंगा करने की तैयारी हो रही है। खैर, पेट्रोल की बात ही क्या करें। जयपुर में तो कर्नाटक मॉडल पर पानी के रेट बढ़ाने की तैयारी हो रही है।
तो... सब्जियां महंगी, दूध महंगा, टमाटर महंगा, प्याज महंगा, लहसुन महंगा, अब इस महंगाई की मार से घर का, ज़िंदगी का कौन-सा कोना अछूता बचा है? सरकार को कोई सुध नहीं है। आम आदमी चाहे हड़ताल करे या आंदोलन। मैं बेचारा सचमुच हूं... सरकार का मारा।
और महंगे हो सकते हैं
* पेट्रोल-डीजल, दूध, बिजली, परिवहन, सब्जियां, दालें।
* डीजल की कीमतों में दो रुपए प्रति लीटर की वृद्धि का प्रस्ताव विचाराधीन।
लेखक चंडीदत्‍त शुक्‍ल स्‍वाभिमान टाइम्‍स के समाचार संपादक हैं. इनकी साहित्‍य में भी रूच‍ि है



Monday, December 20, 2010

ना गोली चलेगी, ना बहेगा खून, फिर भी लड़ेगी दुनिया

- चण्डीदत्त शुक्ल
अब नाम तो याद नहीं है, शायद शंकर दादा था उस पुरानी फ़िल्म का नाम। इसमें एक गाना है—इशारों को अगर समझो, राज़ को राज़ रहने दो, लेकिन पर्दाफ़ाश करने वालों के हाथ कहीं राज़ की पोटली लग जाए, तो उनके पेट में अजब-सी गुदगुदी होने लगती है। यूं तो, ऐसे लोग अक्सर अमानत में खयानत की तर्ज पर ढके-छुपे राज़ की धज्जियां उड़ाते हुए उन्हें सार्वजनिक करते आपके लिए मुश्किलें ही खड़ी करते हैं, हैक्टिविस्ट (हैकर + एक्टिविस्ट) जूलियन असांजे ने भी कमोबेश अमेरिका के लिए वही किया। बावज़ूद इसके असांजे ऐसे शख्स नहीं, जिन्हें अहसान फ़रामोश कहा जाए। बेशक, ये कहने के पीछे धारणा है कि उन्होंने सच की लड़ाई लड़ी है।
असांजे ने अमेरिकी दूतावासों से जुड़े ढाई लाख गोपनीय संदेश विकिलीक्स वेबसाइट पर लीक कर दिए। खुफिया जानकारियों के सबसे बड़े खुलासे ने गोपनीयता और तकनीक को लेकर नए सिरे से बहसों का स्थान पैदा किया। यही नहीं, कूटनीतिक मोर्चे पर दुनिया के दादा कहलाने वाले अमेरिका की सोच कितनी ख़राब, भटकी हुई है—ये बात भी विश्व के सामने आई।
असांजे अमेरिका के लिए काफी पुराना सिरदर्द हैं। उन्होंने इराक युद्ध के सिलसिले में चार लाख दस्तावेज़ पहले भी जारी किए थे। असांजे के जेल जाने और ज़मानत मिलने की कहानी से तो सब वाकिफ़ हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि जूलियन को गिरफ्तार किए जाने से आहत लोगों की फौज साइबर वार छेड़ चुकी है। 
साइबर वार, यानी इंटरनेट के सहारे लड़ा जाने वाला वैश्विक युद्ध। ये लड़ाई अमेरिका के ख़िलाफ़ लड़ी जा रही है। देखते ही देखते विकिलीक्स की डुप्लीकेट 507 साइट इंटरनेट पर आ गईं और हज़ारों लोग अमेरिका के विरुद्ध साइबर वार में सक्रिय हो गए। आज से एक दिन पहले, यानी 18 दिसंबर को नेट यूजर्स ने अंसाजे के समर्थन में 'ऑपरेशन ब्लैकफेस'  चलाया, वहीं हैकर्स ने 'ऑपरेशन लीकस्पिन'  लॉन्च किया। इसके तहत अब तक जो केबल्स जारी नहीं की गई हैं, उन्हें भी लीक किया जाएगा। सबसे मज़ेदार रहा—ऑपरेशन ब्लैकफेस। इसके तहत नेट यूजर्स ने इंटरनेट पर प्रोफाइल पिक्चर की जगह ब्लैक रखी। प्रोफाइल चाहे फेसबुक पर थी या फिर आरकुट पर। शुरुआती दौर में आकलन है कि इस मुहिम में पचास हज़ार से ज्यादा नेट यूजर शामिल हुए।
असांजे समर्थकों के इस ज़ोरदार हमले से अमेरिका बुरी तरह परेशान है। ये लोग सच्चाई की लड़ाई में असांजे के साथ हैं और अमेरिका के कारोबार, कंपनियों, सुरक्षा व्यवस्था से लेकर प्रशासन तक साइबर संसार की सरहदों में सेंध लगाने में जुटे हैं। यही वज़ह है कि काफी कम अरसे में अमेरिकी बैंकिंग,  बीमा और शेयर बाजार पर इन हमलों का असर पड़ने लगा है।
सौदे या कारोबार की किस्म चाहे जैसी हो, उसमें ई-बैंकिंग, ऑनलाइन मनी ट्रांसफ़र सरीखे तरीक़े ज़रूर अपनाए जाते हैं। अब ये प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। असांजे समर्थकों ने कारोबार की इसी धड़कन को थामने की तैयारी कर ली है। उन्होंने मनी ट्रांसफ़र और आंकड़ों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है, ऐसे में अमेरिका की पेशानी पर बल पड़ने स्वाभाविक हैं। असांजे के हमदर्द हैकरों ने क्रेडिट कार्ड कंपनी वीज़ा की वेबसाइट को भी निशाना बना दिया। वज़ह—एक दिन पहले वीज़ा ने विकिलीक्स को मिलने वाली सहयोग राशि प्रोसेस करने से मना कर दिया था।
हम बात कर रहे थे साइबर युद्ध की, तो इसे समझना काफी रोचक कवायद होगी। सच तो ये है कि अब युद्ध परंपरागत हथियारों से नहीं जीते जाते। देशों के बीच युद्ध की रूप-रंगत भी बदलती जा रही है। प्रत्यक्ष तौर पर इसमें खून नहीं बहता, जानं  नहीं जातीं (कम से कम शुरुआती समय में), लेकिन दुश्मन मुल्क की पूरी व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने के उपक्रम लगातार किए जाते हैं। विरोधी देश की कंप्यूटर आधारित प्रणाली ध्वस्त कर सूचनाएं चुराने और उनका दुरुपयोग करने का यही काम साइबर वार कहलाता है।
ज्यादा समय नहीं बीता, जब कनाडा के शोधकर्ताओं ने साइबर वार पर विस्तृत रिपोर्ट जारी कर बताया कि चीन के गुप्त साइबर नेटवर्क ने भारतीय खुफिया तंत्र में सेंध लगाने की कोशिश की। यूं, चीन ने कभी इसकी आधिकारिक हामी नहीं भरी, लेकिन ये अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल नहीं है कि ऐसी किसी कोशिश को निजी तौर पर अंजाम नहीं दिया जा सकता। चीन के हैकर्स ने ये कोशिश महज इसलिए की, ताकि शांतिकाल में ज़रूरी जानकारियां इकट्ठी कर लें और लड़ाई के समय में भारत की रणनीति के विरुद्ध काम आने वाली योजना बना पाएं। 
साइबर के मैदान में लड़ी जाने वाली ये लड़ाई बहुत पेचीदा है। चीन इस मामले में कुछ ज्यादा ही ख़तरनाक ढंग से सक्रिय भी है। उसके सर्विलांस सिस्टम घोस्टनेट के ज़रिए दूसरे देशों के कंप्यूटर नेटवर्क से छेड़छाड़ और डाटा ट्रांसफ़र का काम धड़ल्ले से हो रहा है।
सेंसरशिप के मोर्चे पर भी चीन की चालाकी देखने लायक है। उसने गूगल की कई सेवाएं अपने यहां बैन कर रखी हैं। इसी तरह अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क ने भी चीन पर आरोप लगाया है कि उसकी ओर से सूचनाओं में सेंध लगाने की कोशिश की गई। फिलहाल, कोई भी देश सामने आकर साइबर वार नहीं छेड रहा है, लेकिन ढके-छिपे तौर पर, पीछे रहकर तकरीबन सब साइबर युद्ध की भूमिकाएं बना रहे हैं, ताकि समय आने पर दुश्मन देश को चित्त कर सकें।
सच तो ये है कि साइबर युद्ध का चेहरा इतना भर नहीं कि मनी ट्रांसफर अवरुद्ध कर दिया जाए, या फिर उसे किसी और एकाउंट में ट्रांसफ़र करने की प्रक्रिया अपनाई जाए। विकिलीक्स के मामले में भी सबसे बड़ी चेतावनी यही है कि कुछ और जानकारियां लीक कर दी जाएंगी। ज्यादा दिन नहीं गुज़रे, जब असांजे के वकील मार्क स्टीफन ने बीबीसी को बताया था कि उनके मुवक्किल ने कुछ सामग्री रोक रखी है। यदि उसे गिरफ्तार किया गया तो ये सामग्री सार्वजनिक कर दी जाएगी। ये कथित विस्फोटक जानकारी अब तक लीक नहीं हुई है, लेकिन मार्क स्टीफन का ये कथन—रोकी गई सामग्री हाइड्रोजन बम की तरह है, अमेरिका की चिंता में इज़ाफा ज़रूर कर रहा है।
असांजे की मुहिम तो सकारात्मक थी, लेकिन ऐसा काम कोई नेगेटिव सोच के साथ करे, तो सोचिए, हालात कितने ख़राब हो सकते हैं?
असांजे की गिरफ्तारी के बाद अमेरिका के खिलाफ़ बढ़े साइबर युद्ध ने इस दिशा में भारत को भी बहुत कुछ सोचने को मज़बूर कर दिया है। दरअसल, इस लड़ाई का हिस्सा बनने से भारत भी बच नहीं सका है। पाकिस्तान ने ‘नकली विकिलीक्स’ को आधार बनाकर हमारे मुल्क को बदनाम करने की कोशिश भी की, लेकिन ये पाखंड ज्यादा देर नहीं टिका। इसके बाद इंडियन साइबर आर्मी ने मुंबई हमले की दूसरी बरसी पर पाकिस्तान की करीब 30 सरकारी साइटों पर हमला कर 26/11 के शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी। इंडियन साइबर आर्मी ने पाकिस्तान सरकार, विदेश मंत्रालय, ऑडिटर जनरल ऑफ पाकिस्तान, विज्ञान और तकनीक मंत्रालय और पाकिस्तानी नौसेना की साइट्स हैक कर ली थीं। जवाब में पाकिस्तानी साइबर आर्मी ने सीबीआई की वेबसाइट पर कब्ज़ा जमा लिया...तो ज़ाहिर तौर पर ख़तरा बड़ा है और सिर पर हाज़िर भी है।
कंप्यूटर नहीं, हेलीकॉप्टर पर निशाना
सूचना युग में हर समय दुनिया में किसी ना किसी कंप्यूटर पर हमारी सूचनाएं दर्ज होती हैं। हैकर्स इन्हीं सूचनाओं के सहारे किसी भी सिस्टम को हैक कर लेते हैं, लेकिन इन साइबर क्रिमिनल्स, यानी हैकर से निपटना कभी आसान नहीं रहा। अब वो हाइजैकर भी बनते जा रहे हैं। वो बंदूक की जगह कंप्यूटर का इस्तेमाल करने लगे हैं। बाइनरी सिस्टम के ज़रिए काम करने वाले कंप्यूटर को हैकरों ने साध लिया है। ये ख़तरा आतंकी संगठनों के ई-मेल भेजने तक नहीं सिमटता। कुछ अरसा पहले तक हम हैकरों की क़रतूत से कभी-कभार ही रूबरू होते थे, जब पता चलता था कि फलां वेबसाइट को किसी ने हैक कर लिया है या फिर ऑनलाइन धोखाधड़ी की है, लेकिन महज पंद्रह दिन पुरानी ख़बर याद कीजिए, आप चौंक जाएंगे। पाकिस्तान साइबर आर्मी ने सीबीआई की वेबसाइट हैक की तो दावा ये भी किया कि एनआईसी के सिस्टम को बाधित किया जा चुका है।
इग्लैंड के अख़बार डेली मेल की एक ख़बर और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून की नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटजी रिपोर्ट से भी पता चलता है कि कई आतंकी संगठनों ने उस तकनीक का विकास कर लिया है, जिसकी मदद से एयरोप्लेन के ऑनबोर्ड कंप्यूटर सिस्टम को नियंत्रित किया जा सकता है। ये ख़तरनाक संकेत है, क्योंकि इस तरह तो कोई भी आतंकी हैकर हवाई जहाज में बैठे बिना किसी भी प्लेन को ध्वस्त कर सकते हैं। ऐसे में ये समझना मुश्किल नहीं है कि हैकरों का शिकंजा सबकी गर्दन पर कसता जा रहा है।
इनसे बचना आसान नहीं है। हमारी सरकार को खास आईटी स्पेशलिस्ट्स की टीम तैयार करनी होगी। यही नहीं, आईटी कानूनों में भी बदलाव करने होंगे। यूं तो, भारत में हैकिंग के दोषी को तीन साल तक की कैद होती है या फिर दो लाख रुपये तक जुर्माना भरना होता है, लेकिन इस सबको तभी लागू किया जा सकता है, जब पता चल पाए कि हैकर आखिर था कौन? सवाल चिंता बढ़ाते हैं, लेकिन इनके जवाब तो तलाशने ही होंगे। भारत को अमेरिका की तैयारियों से भी सबक लेना होगा। हाल में ही अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने माइक्रोसॉफ्ट के सुरक्षा प्रमुख रह चुके हॉवर्ड श्मी को साइबर सुरक्षा प्रमुख तैनात किया, ताकि रूस और चीन की तरफ से आने वाले ख़तरे का मुकाबला किया जा सके, तो भारत क्या सोच रहा है?
(लेखक चर्चित युवा पत्रकार हैं)

Tuesday, December 7, 2010

एक सुरीली आपा, जो दीवाना बना देती है...


दर्द तो दर्द है, क्या तेरा-क्या मेरा। इसकी तासीर इक जैसी है, तड़प का रंग भी है इक जैसा, तभी तो जब आबिदा परवीन की तबियत नासाज़ हुई, तब हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हर जगह मौसिकी के दीवानों ने दिल थाम लिए, दुआएं करने लगे। आबिदा के चाहने वाले इस पार और उस पार, बेशुमार हैं और आपा के नाम से मशहूर सूफी-सिंगर-संत आबिदा भी इस रिश्ते को अच्छी तरह पहचानती हैं, मान देती हैं। आबिदा की सरगम से रिश्तेदारी और भारत-पाकिस्तान में उनकी मशहूरियत रेखांकित करते हुए इस लाज़वाब सिंगर के सफ़र पर एक मुख्तसर-सी नज़र...
`आपा...आप अपना ख़याल रखना। सुन रही हैं ना। क्या पूछा—हम आपके हैं कौन? अजी, हम आपके मुरीद हैं और जो हैं, तो कोई अहसान नहीं कर रहे...आप हैं ही इतनी अच्छी।‘
अहसासों से नम कोई ख़त अगर हिंदुस्तान से पाकिस्तान की ओर रवाना हो और उसमें ऐसे अलफाज़ हों, तो आप क्या सोचेंगे? किसी ने अपनी किसी रिश्तेदार को लिखी होगी चिट्ठी। हां, सच है। रिश्ता तो है। खत लिखने और पाने वाले के बीच। ये रिश्तेदारी खून की नहीं, जज़्बात और अहसास की है।
हिंदुस्तान के लाखों लोग तब से हैरान-परेशान और उदास हैं, जब से सुना कि प्यारी आपा की तबियत नासाज़ है। वो आपा, जो पाकिस्तान की लता मंगेशकर कहलाती हैं, वो—जिनके दर्द भरे नगमे सुनकर सारा मुल्क आंसू बहाता रहा है। अब इस मुल्क का कोई एक नाम नहीं है। ये है पूरा का पूरा मुकम्मल हिंदुस्तान। वही हिंदोस्तां, जिसके ज़िगर का एक टुकड़ा पाकिस्तान कहलाया, तो दूसरे को अंग्रेज़ों ने इंडिया नाम दे डाला। दीवारें खिंच गईं, कांटों की बाड़ लग गई और एक देश के दो हिस्से हो गए पर दिल तो दोनों तरफ एक-सा ही है, दर्द की रंगत एक जैसी है।
यही वज़ह है कि जब रंग बातें करें और बातों से खुशबू आए / दर्द फूलों की तरह महके अगर तू आए / भीग जाती है किस उम्मीद पे आंखें हर शाम / शायद से रात हो महताब लबेजू आए जैसी रचना आपा, यानी आबिदा गुनगुनाती हैं, तो उनकी आवाज़ पर भारत और पाक, दोनों के बाशिंदों के होंठों से मोहब्बत के तराने फूट पड़ते हैं। अंगुलियां मेज़ का कोना भी खटखटाने लगती हैं, जैसे—सामने कोई साज़ रखा हो।
ऐसा हो भी क्यों ना...आबिदा की गायकी में वो अमृत है, जो सुनने वालों की रूह में रच-बस जाता है। अपना हर दर्द हम आबिदा की आवाज़ के साथ सांझा करते हैं। आपा की गायकी ऐसे सुकून देती है, जैसे सांझ के वक्त, तनहाई में किसी ने सिर सहलाकर पूछा हो—तुम इतने अकेले क्यों हो?
सच मानिए, आपा की आवाज़ में क़तरा-दर-क़तरा सारे जहान के लिए मोहब्बत बसती है और उन्हें सुनने वाले मोहब्बत की इस चाशनी से ज़िंदगी की मिठास पुरअसर तरीके से महसूस भी तो करते हैं।
किसी ने ग़लत नहीं कहा है कि कोई सरहद सरगम को नहीं बांध पाती। जिस तरह परिंदे हर दीवार को उसकी हैसियत बताते हुए आसमान की सैर करते एक देश से दूसरे देश सैलानी बने चले आते हैं, वैसे ही तो आबिदा की आवाज़ की नूराई हिंदुस्तान चली आई है। मुल्क के कोने-कोने में आबिदा के प्रशंसक मौज़ूद हैं और शायद ही कोई म्यूज़िक स्टोर हो, जहां आपा की सीडीज़ और कैसेस्ट्स ना मिल जाएं। आपा पॉप और रॉक के दौर में भी सूफ़ियाना अलमस्ती की पैरोकारी करती हैं। यूं तो, उम्र के बहुतेरे पड़ाव पार कर चुकी हैं, लेकिन उनके सुरों में झरने के पानी जैसा बहाव और सुबह की ओस सरीखी ताज़गी बनी-बची हुई है।
वैसे, आबिदा का सफ़र भी कम दिलचस्प नहीं है। बात साठ के दशक की है। तब फ़रीदा ख़ानम और इकबाल खान की ग़ज़लें पाकिस्तान से लेकर हिंदुस्तान तक संगीत के दीवनों की ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा बन चुकी थीं। उसी दौर में सिंध की दरगाहों पर एक लोकगायक भी हाज़िरी लगाया करता था। ये थे—हैदर शाह। हैदर के संग आठ बरस की एक बच्ची भी अक्सर नज़र आती—वही, जो अब अपनी आपा है, यानी आबिदा। जब भी हैदर तान छेड़ते, आलाप के साथ-साथ सुनने वालों के दिल और हथेलियां दोनों मचल पड़ते। एक तरफ तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती और दूसरी तरफ आबिदा के होंठों की मुस्कराहट और, और भी खिलती चली जाती। नन्ही आबिदा की आंखों में खुशी की चमक भर जाती। वो सोचती—अब्बू हों तो ऐसे, देखो—क्या कमाल गाते हैं, लोग वाह-वाह करने को मज़बूर हो जाते हैं।
यूं ही नहीं कहते कि बचपन में कोरी स्लेट से दिमाग पे जो भी इबारत छप जाती है, ता-ज़िंदगी नहीं धुलती, सो गुड्डे-गुड़ियों से खेलने के वक्त में आबिदा ने जो सरगम की तहरीर पढ़ी, फिर तो अब तक दोहराती ही जा रही हैं।
एक दिन रेडियो स्टेशन जाने का मौक़ा मिला। धड़कते दिल और मचलते अरमानों, विरासत में मिली अलमस्ती का एक टुकड़ा और ढेर सारी लाज और हिचक के साथ आबिदा गुनगुनाने लगीं और फिर क्या था, सारी महफ़िल लूट ली उन्होंने। यूं, वहां सुनने वालों की भीड़ ना थी, चंद पारखी ज़रूर थे, जिन्होंने जान लिया—यही है आने वाले वक्त की आवाज़। आबिदा रेडियो के ऑडिशन में चुन ली गईं और फिर क्या था...एक घिसे-पिटे मुहावरे की मदद लेता हूं—उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। देखतीं भी कैसे, वक्त ही ठहरकर सुरों की इस मलिका को निहारने लगा।
बात हैदराबाद स्टेशन की है। यहीं पे शेख़ ग़ुलाम हुसैन म्यूज़िक प्रोड्यूसर थे। वो नौकरी महज इसलिए नहीं करते थे कि पैसे मिलें और घर चले। शेख को ज़ुनून था—कुछ नया करने का और उस पर जो आबिदा की आवाज़ का साथ मिला, फिर तो सारा ज़माना ही मज़बूर हो गया—क़माल की है ये जोड़ी...कहने को। व्यावसायिक साथ जल्द ही जन्म-जन्म तक साथ निभाने के वादे में तब्दील हो गया। आबिदा और शेख मियां-बीवी भी बन बैठे। आपा छोटी थीं, दुनियादारी उन्हें नहीं आती थी, लेकिन मौसिकी की हर बारीकी समझती थीं। बड़ी बारीक़ नज़र रखती थीं हर सुर पर, हर अंदाज़ पर।
शेख और आबिदा ने ग़ज़लगोई के तरीके तक बदल डाले। पहले स्टेज़ पर सिंगर यूं बैठते थे, ज्यूं इबादत के समय बैठा करते हैं। एकदम दरबारी शैली में पर आपा ने दरगाह वाली गायकी की शैली अपनाई। ऐसे, जैसे ध्यान लगाकर कोई सूफी संत बैठता हो। अब, जब खुद से बेख़बर होकर कोई नस-नस में संगीत महसूस करे, गाए, सिर हिलाए और दीवाना हो जाए, तो आप क्यूंकर मतवाले ना होंगे?
आपा की यही शैली तो जादू कर गई। वो गुनगुनातीं ‘चिर कड़ा साइयां दा, तेरी कत्तन वाली जीवे’ और ‘इक नुक्ते विच गल मकदी ए’, तो सन्नाटा-सा छा जाता, बस तान गूंजती और लोगों की तालियां।
दो-चार साल, दस-पंद्रह साल की बात होती, तो गिनीं भी जातीं मज़लिसें, अवार्डों की लिस्ट बनाते, रिसालों और ख़बरों के हवाले देते पर अब चालीस बरस से भी ज्यादा का वक्त गुज़र गया, आबिदा की मशहूरियत का क्या तज़िकरा करें? आबिदा अब भी ज़ोश से भरपूर हैं। वो ‘जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है, संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रखा है’ जैसे कलाम सुनाकर दीवाना बना देने में कामयाब हैं।
हफ़्ता भर पहले आपा दिल्ली में थीं। एक मुख़्तसर-सी गुफ़्तगू के दौरान वो जब बोलीं तो बेधड़क बोलीं—मेरी समझ में तो शरीयत से भी पहले सुर आते हैं। और हैरत भरी नज़र से तकते पाया, तो बताने भी लगीं—मियां, मुझे लगता है कि किसी इंसान ने ये सुर नहीं बनाए। इनमें सारी कायनात की आवाज़ ही शामिल है। देखो, शरीयत में भी तो कहा गया है कि अजान सुरीले तरीके से पढ़ें।
बात हिंदुस्तान-पाकिस्तान के रिश्तों की रटी-रटाई डोर की ओर बढ़ी, तो सदाबहार मुस्कान के साथ कहने लगीं—अल्लाह कभी मोहब्बत की मुखालफत नहीं करता और इबादत दरअसल मोहब्बत ही है। जिसे हम आलाप कहते हैं, वो और क्या है... दरअसल अल्लाह...आप ही तो है।

आबिदा यक़ीनन रश्क करने लायक पर्सनेलिटी हैं। अलमस्त भी और कामयाब भी। मासूम ऐसी हैं, ज्यूं कोई ताज़ा जन्मा बच्चा। किशोरी अमोनकर, परवीन सुल्ताना, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उस्ताद अमजद अली खान जैसों को सुनती हैं, तो घंटों रोते हुए बिताती हैं। कोई देखे, तो क्या सोचे—इतनी बड़ी सेलिब्रिटी और ऐसा दीवानापन. लेकिन कौन बताए—जो प्योर ना होगा, वो मिलावटी ही तो गाएगा-सुनेगा।
आबिदा के लिए हिंदुस्तान-पाकिस्तान दो मुल्क नहीं हैं। वो तो बस इस पार से उस पार, उस पार से इस पार आती-जाती रहती हैं, नफ़रत की जंज़ीरें तोड़कर नेह का प्रसाद बांटने। आपा अक्सर हंसती हैं, जब नहीं हंस रही होती हैं, तो खूब मुस्कराती हैं। खुशी किसी क़दर बिखरने ना पाए, इसका ज़बर्दस्त ख़याल उन्हें है और पॉज़िटिव स्पिरिट—उसके तो कहन  क्या। किसी ने एक बार पूछा—हिमेश रेशमिया कैसा गाते हैं, तो आपा झट बोल पड़ीं—उसकी आवाज़ में दर्द है। इसे कहेंगे विनम्रता, सकारात्मकता और बड़े गायक की कद्रदानी। नुसरत फ़तह अली ख़ान के अलावा, आबिदा की सीडीज़ सारी दुनिया में खरीदी-मंगाई जाती हैं। यूं, जहां नहीं मिलतीं, वहां के लोग भारत-पाकिस्तान आने वालों से कहते हैं, सुनो मियां—जा रहे हो तो मिरे लिए आपा की फलां सीडी लेते आना। बहुत छुटपन में हरिद्वार या इलाहाबाद जाते वक्त लोगों को गंगाजल लाने की बात कहते सुना था। गंगाजल मुक्ति दिलाता है, तो आबिदा की आवाज़ भी ऐसी ही है—हर दर्द से मुक्ति दिला देने वाली, सो इस मांग पर हैरत की बात कहां!