कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, July 27, 2013

करोड़पति बेस्टसेलर लेखक - अमीश त्रिपाठी से चण्डीदत्त शुक्ल की बातचीत



यह साक्षात्कार अहा! ज़िंदगी के साहित्य महाविशेषांक में छपा है, तब मैं अहा! का फीचर संपादक हुआ करता था :) पिछले दिनों इंटरनेट के पन्ने पलटते हुए मैंने देखा कि रचनाकार पर यह साक्षात्कार अपलोड किया गया है। वहीं से चौराहा के पाठकों के लिए पुनःप्रस्तुत कर रहा हूं। नीचे दी गई टिप्पणी रचनाकार के मॉडरेटर की है। यह अविकल साक्षात्कार नहीं है। कुछ अंश संभवतः वेबसाइट संचालक ने छोड़ दिए हैं। उन्हें पढ़ने के लिए अहा! ज़िंदगी का साहित्य महाविशेषांक खरीदकर पढ़ सकते हैं...
- चण्डीदत्त शुक्ल



रचनाकार की टिप्पणी

(अमीश त्रिपाठी को उनके नए, अनाम उपन्यास, जिनके लिए उन्होंने अभी विषय भी नहीं सोचा है, पांच करोड़ रुपए का एडवांस प्रकाशक की ओर से मिला है. किसी भी लेखक के लिए इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है भला! इन्हीं अमीश त्रिपाठी से अहा! जिंदगी के फ़ीचर संपादक चण्डीदत्त शुक्ल ने लंबी बातचीत की और उसे अहा! जिंदगी के साहित्य महाविशेषांक {जी हाँ, अब विशेषांकों का जमाना खत्म हो गया, महा-विशेषांक आने लगे  हैं और शायद जल्द ही अति-महा-विषेशांक भी देखने को मिलें!} में छापा है. रचनाकार के पाठकों के लिए उनकी यह विचारोत्तेजक, मनोरंजक बातचीत साभार प्रस्तुत है.लगे हाथों बता दें कि अहा! जिंदगी का 100 रुपए कीमत का यह साहित्य महाविषेशांक पूरा पैसा वसूल है - 10 हंस+वागर्थ+वर्तमान साहित्य इत्यादि पत्रिकाओं से भी वजन में ज्यादा. मंटो पर भी कुछ बेहतरीन पन्ने हैं, तो विश्व स्त्री साहित्य पर विशेष खंड. साथ ही विदेशी कविताएं भी खूब हैं, जिनसे देसी कवियों को विषय-वस्तु-ज्ञान मिल सकता है.)



पांच करोड़ रुपए का एडवांस - वह भी ऐसी किताब के लिए जिसका विषय तक नहीं सोचा.. खुश तो बहुत होंगे आप?
खुश हूं पर करोड़ों का एडवांस पाने की वजह से नहीं, बल्कि अपने विश्वास की पुष्टि होने पर! मैं हमेशा सोचता था कि अच्छे मन से कुछ किया जाए तो ईश्वर साथ देते हैं और अब वह यकीन और ज्यादा मजबूत हो गया है। जहां तक उपलब्धियों की बात है तो यह बेहद अस्थायी वस्तु है। कभी भी आपके हाथ से फिसलकर गिर सकती है। आज कामयाब हूं तो प्रकाशक पीठ थपथपा रहे हैं। कल को असफल हो गया तो कोई मुड़कर भी नहीं देखेगा, इसलिए व्यर्थ का अहंकार या प्रसन्नता का भाव मन में नहीं पालना चाहिए।

. ... पर प्रसिद्ध तो हो गए हैं आप!
मैं ऐसा नहीं सोचता। रास्ते से निकलता हूं तो भीड़ इकट्ठी नहीं होती। खं, कुछ लोग पहचान लेते हैं, लेकिन किताबों की वजह से ।

अब, आप विनम्र हो रहे हैं..
मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर रहा हूं! असल प्रसिद्धि पुस्तकों को मिली है। मुझसे वह दूर ही है। सच को जितनी जल्दी समझ लिया जाए बेहतर होता है और मैंने यह हकीकत समझ ली है।

खैर, बड़ी कंपनी में ऊंची तनख्वाह की नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक लेखक बनने का फैसला करना छोटी-मोटी बात नहीं होती!
लंबे संघर्ष के बाद ऐसा हुआ है। वैसे भी, आप जानते हैं कि मैं मैनेजमेंट की फील्ड से हूं (हंसते हैं) । पहली दो किताबें जॉब में रहते हुए लिखी हैं जब देखा कि रायल्टी के चेक की रकम तनख्वाह से ज्यादा हो रही है तब नौकरी छोड़ी। आखिरकार, मेरा एक परिवार है। उसका भविष्य सुरक्षित किए बिना जॉब कैसे छोड़ सकता था? बाबा कहते थे - दो तरह की भाषा होती है एक - पेट की भाषा और दूसरी दिल की । पहले पेट की जबान सुनी और अब दिल के रास्ते पर चलने लगा हूं।

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?
हर स्तर पर संघर्ष। पल्ले तो यही कि लिखना कैसे है। जब वह हुनर आ गया तो प्रकाशन का। पस्ती किताब - 'द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' बहुत-से प्रकाशकों ने रिजेक्ट कर दी थी, लेकिन आप संख्या न पूछिएगा, क्योंकि बीस प्रकाशकों की ओर से मना किए जाने के बाद मैंने गिनती करनी बंद कर दी थी। बाद में खुद ही चुनौती मोल ली और पाठकों ने इसे पसंद किया।

क्या ऐसा फैसला करने के लिए नैतिक साहस देने वाला, सही समय आ चुका था?
यकीनन, बदलती आर्थिक परिस्थितियों में सबकी हिम्मत बढ़ी है। लोग जोखिम ले सकते हैं। मैं मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं जहां पढ़ाई-लिखाई का पूरा जोर करिअँर बनाने पर होता है। मेरे सामने इंजीनियरिंग, बैंकिंग, एमबीए जैसे विकल्प ही थे, इसलिए इतिहासकार बनने की इच्छा कहीं दबा दी थी । यह वह समय था, जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी । अब, हालात बदले हैं और अवसर बढ़े हैं।

एक व्यक्ति के रूप में, दबाव से बाहर आकर, बेहतर प्रदर्शन कर सकता हूं जब यह लगा तो लेखन करने की ठान ली।
यूं भी, इन दिनों बैंकिंग, फाइनेंस के क्षेत्र से कई लेखक बाहर आ रहे हैं..बात महज इन तकनीकी क्षेत्रों की नहीं है। बदलाव हर जगह आया है। आम भारतीय में आत्मविश्वास बढ़ा है और यकीनन, जब खुद पर भरोसा बढ़ेगा तो वह रचनात्मक तरीके से बाहर आएगा।

आत्मविश्वास में, इजाफा क्या नई बात है? भारत तो सोने की चिड़िया था ही...
हम सैकड़ों साल गुलामी से जूझते रहे हैं। गुलामी भी तरह-तरह की। आर्थिक, वैचारिक... सब। इसकी वजह से इतने पीछे आ गए थे कि सोने की चिड़िया वाली बात महज इतिहास में ही दर्ज होकर रह गई। हमारे महान अतीत का रहस्य यही है कि समाज नई चीजों को स्वीकार करता था। बाद में हम खुले तो थोड़े और, लेकिन पश्चिम के प्रभाव में अपनी मौलिकता खो बैठे।

वैसे, आधुनिक जमाने में, ज्यादातर अंग्रेजी पाठक युवा हैं ऐसे में मिथकों पर लिखना कितना चुनौतीपूर्ण था?
यह सोचना गलत है कि युवा पाठकों की मिथक, धर्म या अध्यात्म में रुचि नहीं है। धारणा हमने बना ली है, वह भी मजेदार बात बिना आधार के। नौजवान अपनी जड़ों के बारे में जानना चाहते हैं। हां, उन्हें उबाऊ तरीके से सब कुछ बताया जाता है, इसलिए उनकी रुचि नहीं बन पाती। युवा तार्किक तौर पर चीजें परखना चाहते हैं। हम जहां पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाते, वह वहीं पर सवालिया निशान लगा देता है। इसके अलावा, जातिवाद और महिलाओं के लिए अपमानजनक प्रसंगों को भी वे पसंद नहीं करते । खैर, मैं जितने नौजवानों को जानता हूं वे सब अपनी संस्कृति से जुड़े हैं। कुछ जरूर बेहद वेस्टर्न हैं, खुद को इलीट समझते हैं - वे जानकर भी धार्मिकता और संस्कृति की बात नहीं करना चाहते।

फिर भी, पॉपुलर लिटरेचर में मिथक..!
इतनी हैरत की जरूरत नहीं है। भारत में मिथक-आधारित कथा लेखन नया नहीं है। बुजुर्गों से हमने बार-बार कथाएं सुनी हैं और उनमें हो रहा बदलाव देखा है। अलग-अलग इलाकों में एक ही कथा के परिवर्तित रूप सुनने को मिलते हैं। वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसी का रामचरित मानस बदलाव साफ नजर आता है। उत्तर भारत के श्रीराम अलग हैं और आदिवासियों के समाज के राम अलग । दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र की रामकथाएं हों और उत्तर प्रदेश व बिहार की रामगाथा, कबा रामायण, गोंड कथा आप विभिन्नता महसूस कर सकेंगे। जैसा समाज, जिस तरह का सामाजिक-आर्थिक स्तर, कथाओं में वैसा ही अंतर! कहानी सुनाना और सुनना हमारे डीएनए का हिस्सा रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मिथक कथा की परंपरा है। नरेंद्र कोहली ने अपने तरीके से श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया। अंग्रेजी में अशोक बैंकर ने। दीपक चोपड़ा ने कामिक्स का माध्यम अपनाया। अमर चित्रकथा आदि ने तो महापुरुषों से परिचित कराया ही। अंग्रेजी भाषा में इसे मैंने आगे बढ़ाने की कोशिश की है लेकिन नया कम नहीं कर रहा हूं। खाली जगह बन गई थी, जिसे भरने में जुटा हूं। एक और तथ्य स्पष्ट कर दूं - लिखने से पहले मैंने इस बात को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की थी कि किसे पसंद आएगा और किसे नहीं ।

आप प्रभु को ही सब श्रेय देते हैं। ऐसा श्रद्धा के कारण है या तार्किक ढंग से मानते हैं?
मेरा स्वभाव बेहद चंचल था, शायद खेलकूद से प्रेम करने की वजह से। ईश-कृपा न होती तो संयत और स्थिर होकर लिख ही नहीं सकता था।

हमेशा इतने ही आस्तिक थे?
बचपन में तो था, पर बाद में भक्ति का भाव कुछ डगमगा गया था। खैर, पहले बचपन की बात करूं। उस समय घर में भक्ति-भाव की बयार बहती थी। पूरा समय मंत्रपाठ होता रहता। पूजा-आरती, घटियों की ध्वनि शंख का नाद - दादा और पिताजी के पास देवी-देवताओं से जुडे किस्से-कहानियों का भंडार था। हालांकि थोड़ा-सा बड़ा होने पर मुझे कर्मकांड और इससे जुड़ी सांप्रदायिक सोच से काफी उलझन हो गई थी । मुंबई में आए दिन दंगे होते, आतंकी हमलों की खबर भी सुनाई देती। पर पिताजी ने मन में आस्तिकता की ली बुझने नहीं दी। उन्होंने गीता का ही उपदेश सुनाया कि सब प्रभु इच्छा से होता है। हम अपना कर्म न भुलाएं ये आवश्यक है। लगातार अंतर्द्वंद्व में रहा पर पहली किताब लिखने से पहले फिर से पूर्ण आस्तिक हो चुका था।

पिता ने धार्मिकता की ओर लौटाया और पत्नी ने? मान्यता है कि एक सफल व्यक्ति के पीछे पत्नी का बड़ा हाथ होता है। आपकी क्या राय है?
प्रीति से मेरी मुलाकात 1990 में हुई थी। उनसे मिलने से पहले मैं एकदम उबाऊ इंसान था। लोगों को अब जितना विनम्र दिखता हूँ उसकी तुलना में बेहद चीखने-चिल्लाने वाला आदमी था। जरा-सी बात में धैर्य खो देता था। प्रीति ने जीवन को जीना और इसका आनंद उठाना सिखाया है। पेश उपलब्धियों के पीछे इनका जो हाथ है, वह मैँ शब्दों में व्याख्यायित नहीं कर सकता। मुश्किल समय में वे अचूक और सटीक सलाह देती हैं। उनके जैसी मार्केटिंग मुझे भी नहीं आती। हम दोनों साथ में खुश हैं। हां, कई बार वे चुटकी लेते हुए कहती हैं कि एक सक्सेस फुल राइटर से शादी करके ज़िंदगी का चैन गायब हो गया है। जिस वक्त उन्हें टेलीविजन पर एक्शन शो देखना होता है, वे मेरे लिए रिसर्च कर रही होती हैं या फिर मार्केटिगं की योजनाओं में व्यस्त होती हैं।

पत्नी धर्म की बात तो हुई, लेकिन अब बात करते हैं भारत में धर्म और समाज के अंतर्संबंध की। यह तो अब भी मजबूत है पर हम पाते हैं कि साहित्य और समाज के बीच दूरी बढ़ गई है..
थोड़ी दूरी जरूर आ गई थी, लेकिन कुछ अरसे में ये खाई पटी है। आर्थिक परिस्थितियां सब कुछ बदल देती हैं रिश्तों और समाज पर भी असर डालती हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है, भविष्य में सबंध निश्चित तौर पर और मजबूत होंगे - आपसी रिश्तों और साहित्य के साथ समाज के भी।

आम आरोप है कि साहित्य में जो कुछ बयान हो रहा है हकीकत में वह कहीं रहता ही नहीं, यानी लिटरेचर से 'सच' गायब हो चुका है..
कुछ मायनों में यह बात सही हो सकती है पर धीरे-धीरे लोग यथार्थ की मांग जोर-शोर से करने लगे हैं। पढ़ना-लिखना केवल अपने सुख के लिए नहीं रह गया है। नए दौर के लेखक स्वांत: सुखाय या कुछ महान कर रहे हैं - के भाव में नहीं लिखते रह सकते। बुक पब्लिशिंग बड़ा व्यवसाय है। पहले प्रकाशक दस-बीस हजार प्रतियों की बिक्री को बड़ा आंकड़ा मानते थे, लेकिन वे भी जोर देकर कहने लगे हैं कि एक लाख से अधिक प्रतियां जिस किताब की बिकेंगी, वही बेस्टसेलर होगी। लेखकों को तय करना पड़ रहा है कि वे पाठकों की रुचि के मुताबिक रचे। प्रकाशक ऐसी ही कृतियां प्रकाशित करें। पाठक समझते हैं कि उन्हें क्या पढ़ना चाहिए। सही मायने में इलीट राइटिंग का कॉन्सेप्ट खत्म हो रहा है। सबके लिए लिखना ही होगा । ऐसी हजारों किताबें हैं, जिन्हें बेस्टसेलर होना चाहिए था, लेकिन उनका किसी ने नाम तक नहीं सुना। सुनेंगे ही नहीं तो खरीदेंगे कैसे? अब वक्त आ गया है जब लेखक बाजार को समझें और खुद में सिमटे रहने की अंधेरी दुनिया से बाहर आएं।

अच्छा! लिटरेचर फेस्टिवल्स की बढ़ती संख्या से भी साहित्य को कुछ लाभ पहुंचेगा?यकीनन। जितने लोग लिखने-पढ़ने की बातें करेंगे, उनमें से कुछ तो किताबों तक पहुंचेंगे ही। हमारी सोच में परिवर्तन लाना लाजिमी हो गया है। हम बुक और लिटरेचर फेस्टिवल्स को संदेह की निगाह से देखते हैं, जबकि बाजार कोई बुरी चीज कभी थी ही नहीं। अतीत में झांककर देखिए - पुराने जमाने में भी हाट-बाज़ार के बिना जीवन एक कदम भी आगे नहीं खिसकता था।

लोग यह भी कहते हैं - अपनी किताबें बेचने के लिए अमीश कोई भी दांव आजमाने से नहीं चूकते।बुरा क्या है? आप कुछ भी लिखें, अगर वह किसी तक पहुँचे नहीं तो उसका क्या लाभ होगा। मैं सोशल कम्यूनिटीज के जरिए युवाओं से जुड़ा हूं। जरूरत के हिसाब से प्रमोशन करता हूं और इसमें कुछ भी खराब है ऐसा नहीं समझता।

वैसे, यह विचार कैसे जन्मा कि धर्म-अध्यात्म-संस्कृति से जुड़े किसी विषय पर उपन्यास लिखा जाए?विचार बस लिखने का था... वह उपन्यास होगा या शोध, तब तक पता भी नहीं था। यूं लेखन का इरादा भी एक घटना से जुझ है। एक दिन शाम के वक्त हम सब घर पर खाना खाते हुए टीवी देख रहे थे। तभी ईरानी संस्कृति से संबंधित एक कार्यक्रम आने लगा और फिर उस पर चर्चा शुरू हो गई। जोरदार बहस। सही कौन और गलत कौन? बात फिर भारतीय संस्कृति तक पहुंची। सारे यहां सबके देवता अलग-अलग हैं। कोई आपको प्रिय होगा, पर दूसरे को नापसंद हो सकता है। स्वाभाविक तौर पर सवाल खड़ा हुआ कि उचित कौन है? शायद दोनों पक्ष? कुछ अच्छ या बुरा है ही नहीं। प्रश्न महज सोच का है। देवता और दानव, खराब और सही - यह नज़रिए का सवाल है लेकिन सब तो यह बात नहीं समझते। चर्चा इतनी आगे तक गई कि मैंने सोच लिया इस विषय पर कुछ लिखूंगा। ऐसा, जिससे अच्छे बुरे, देवता-दानव की कुछ परिभाषा स्पष्ट हो सके।

चलिए, इरादा बना... इसके बाद?भाई-बहन को बताया कि मैं अच्छाई और बुराई के कोण पर कुछ लिखना चाहता हूं तो उन्होंने सुझाव दिया कि जो कुछ लिखे, वह दार्शनिकता से इतना न भर जाए कि उबाऊ लगने लगे। आप अपने विचार व्यक्त कीजिए लेकिन कहानी की शैली में। ऐसा होने पर ही पाठकों के साथ बेहतर संवाद स्थापित हो सकेगा। मैंने उनके सुझावों पर गौर किया और लिखना शुरू कर दिया, लेकिन कहानी की भाषा में विचार और शोध करना आसान नहीं था।

किस तरह की मुश्किलें सामने आई?मैंने पहले कुछ भी नहीं लिखा था । स्कूल में भी छोटी-सी कहानी तक नहीं । विस्तार से पढ़ने जैसा काम नहीं किया था। अपने प्रोफेशन से संबंधित ई-मेल्स लिखने के अलावा! हां, जब सोच लिया कि अच्छाई-बुराई के बारे में एक विचार परक पुस्तक लिखनी है तब 'सेल्फ हेल्प' जैसी कुछ किताबें जरूर खरीदीं। लंबी-चौड़ी तैयारी के साथ, लिखना शुरू किया। ठीक वैसे ही, जैसे कोई एमबीए पर्सन प्रोजेक्ट तैयार करे, लेकिन पता नहीं कितनी बार, लिखा और फाड़कर फेंक दिया। कुछ रुचता ही नहीं था। आखिरकार, पत्नी ने मार्के की सलाह दी - तुम इसलिए अच्छ नहीं लिख पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे मन में 'क्रिएटर' होने का दंभ पल रहा है। उसे त्याग दो। खुद को गवाह मानो और सोचो - भगवान विचारों की गंगा को तुम्हारे मन की धरती के लिए मुक्त कर रहे हैं। उस प्रवाह को रोको नहीं, पन्नों पर बिखर जाने दो। मैंने ऐसा ही किया और फिर देखते ही देखते किताब पूरी हो गई।

आपकी रचनाओं में प्रमुख तत्व क्या है - शोध, विचार या कहानी?एक ही शब्द में कहूंगा - आशीर्वाद। ये किताबें वरदान हैं। वैसे भी, यदि कोई लेखक यह सोचता है कि वह अपने मन से कुछ कर सकेगा तो यह संभव नहीं है। कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं । खुद को निर्माता मान लेना अहंकार है। जहां तक आपका प्रश्न है, मेरी प्राथमिकताओं में विचार और कहानी एक-दूसरे के पूरक हैं। बाकी लिखते समय बहुत-सी चीजें बिना कोशिश के होती हैं और उनकी खूबसूरती का कोई सानी नहीं होता। आपके विचार एक संदेश के रूप में सामने आते हैँ और कहानी उस प्रवाह को बनाए रखने में मदद करती है।

इतिहास की पुनर्व्याख्या में बहुत-से खतरे होते हैं। वह भी तब, जब इतिहास धर्म से जुड़ा हो। इसके मद्देनज़र अपनी पहली किताब के लिए आपने कितना शोध किया?मैं स्पष्ट कर दूं कि हिंदू धर्मावलंबी, बल्कि ज्यादातर भारतीय, बहुत सहिष्णु हैं। धर्म की बात होने पर या उसकी किसी भी तरह की आलोचना सुनते ही संयम खो देने वाले और लोग होंगे कम से कम भारत में ऐसा नहीं है। शोध की बात पर जवाब दोहराना चाहूंगा - सोच-समझकर, योजना बनाकर कभी पढ़ाई नहीं की । ऐसा नहीं है कि मैं किताब लिखने के लिए महादेव से संबंधित जगहों की यात्रा पर गया हूं। हां, पूरे देश का भ्रमण और बहुत-सी चीजों को समझने का 25 साल से जारी है। पर वह पढ़ना-समझना और घूमना बेइरादा था। परिवार में पठन-पाठन और धार्मिकता का माहौल शुरू से था । मेरे दादा वाराणसी के हैं। वे पूजा-पाठ में खासी रुचि लेते थे । हमेशा धार्मिक प्रतीकों, कथाओं की बातें करते । तो वह एक बीज था, जो मन में पड़ गया था । धार्मिकता का यह अंकुर ही बाद में विचार यात्रा में परिणत हुआ, जिसके कुछ अंश आप ‘द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' जैसी किताबों में देख सकते हैं।

दादाजी के बारे में कुछ और बताइए..वे धर्म की जीती-जागती किताब थे । धार्मिकता से भरपूर, पांडित्यपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक भी रहे। मेरे माता-पिता ने भी धर्म में विश्वास के गुण उनसे ही प्राप्त किए हैं। उनसे मैंने प्रचुर मात्रा में पौराणिक कथाएं सुनीं । धार्मिकता का भाव समझा । हालांकि उनके व्यक्तित्व की एक और खासियत थी उदार होना । घर में सभी आस्तिक हैं, लेकिन उतने ही लोकतांत्रिक भी । वे दूसरों के विचारों का भरपूर सम्मान करते हैं। हम अक्सर दिलचस्प बहसें करते । अलग-अलग मुद्दों पर विचार-विमर्श करते रहते। यही कारण है कि मैं अलग-अलग धर्मों और मान्यताओं के बारे में तार्किकता से समझ सका । वह भी तब, जबकि पस्ती किताब लिखने से पहले मैं खुद नास्तिक था।

क्या?यह तो मानता था कि संपूर्ण प्रकृति के संचालन की एक व्यवस्था है, लेकिन ईश्वरीय सत्ता या अस्तित्व को लेकर जिस तरह के विचार थे, उनके हिसाब से मैं नास्तिक ही कहलाऊंगा ।

बदलाव कैसे आया?यह भी ईश्वरीय आशीष है। उन्होंने मन में आस्था पैदा की, फिर इतनी दृढ़ कर दी कि शिव के अतिरिक्त किसी और बात का विचार ही मन में नहीं ला सकता । एक बार आस्तिक बनने के बाद मैंने अन्य धर्मों में भी विश्वास रखना शुरू कर दिया । सभी धर्म समान रूप से सुंदर हैं।

अच्छाई और बुराई के संधान को कथारूप देते हुए प्रमुख पात्र के रूप में शिव को ही क्यों चुना? किसी और ईश्वरीय स्वरूप पर विचार न करने की वजह क्या थी?देखिए बुराई के संहार की जब बात होती है तो निगाह के सामने एक ही देवता का चेहरा घूमने लगता है, वे हैं - शिव । मैं बुराई के सिद्धांतों की व्याख्या करने में लगा था और तब मुझे शिव से बेहतरीन किरदार दूसरा कोई भी नहीं दिखा। इसके अलावा, जब आप मिथक में 'हीरो' तलाशते हैं तो वे एक आदर्श चरित्र हैं। शिव 'माचो' हैं, औघड़ है और उतने ही रहस्यमयी भी हैं। पूरे संसार में वे अनगिनत रूपों और तरीके से पूजे जाते हैं। वे आज़ाद और अकेले हैं। कांवड़ से लेकर पॉप तक पूरी तरह 'फिट' हो जाते हैं। तानाशाह ईश्वर की तरह नहीं दिखते । उनकी सहजता प्रभावित करती है।

अगला कदम क्या था?लिखना शुरू हो पाना ही मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी। एक-एक कदम चलते हुए मंजिल तक पहुंच तो गया, लेकिन पहले शुरुआत और फिर प्रवाह का बने रहना और अंततः शिव के पात्र के साथ न्याय कर पाना सबसे बड़ी चुनौती थी। एक घटना याद आती है सुबह के समय मैं स्नान कर रहा था। कथा-सूत्र कुछ अटक-सा गया था। यकायक, मन में विचार कौंधे। मैं खुशी से कांप उठा। बाहर निकलकर रोना शुरू कर दिया। जोर-जोर से रुदन। वह एक ऐसी भावुक स्थिति थी, अकल्पनीय और अवर्णनीय, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। यूं भी शिव सबमें हैं। उनकी अनुश्रुति न होने तक ही सब संकट मौजूद हैं। जैसे ही शिवत्व को आपने पहचान लिया, उसके बाद एक ही नाद नस-नस में गूंजता है हर हर महादेव, हर एक में महादेव, हम सब महादेव हैं!

कभी ऐसा नहीं लगा कि तीन अलग-अलग किताबों में कथानक बिखेर देने की वजह से पाठकों को असुविधा होगी?मुझे ऐसा नहीं लगता है बल्कि तीन खंडों की वजह से पाठकों को कुछ सोचने-समझने और विराम लेने का अवसर मिला है। दूसरे - प्रकाशक के लाभ, मार्केटिंग की संभावना और लेखक को भी कुछ चिंतन का मौका मिलने का ध्यान रखना होता है।

एक सफल रचनाकार, इतिहासकार या धार्मिक व्यक्ति - खुद को क्या कहलाना पसंद करेंगे?एक शिवभक्त और पारिवारिक व्यक्ति, उसके बाद बाकी सब कुछ। परिवार मेरी ताकत है और शिव कृपालु। इनके बिना मेरी कोई गति नहीं है।

'शिव-त्रयी' के बाद अगली श्रृंखला के लिए कोई विषय सोचा?फिलहाल, प्राचीन ग्रीक और मिस्र संस्कृतियों पर अध्ययन कर रहा हूं। मनु और अकबर पर चिंतन कर रहा हूं। रामायण और महाभारत के अलग-अलग संस्करणों और व्याख्याओं पर भी लिख सकता हूं। बहुत-से विचार हैं। देखते हैं। भविष्य में कौन-सी सोच ज्यादा मजबूत होकर किताब बन सकेगी। बैंकर साहब और देवदत्त पटनायक ने मिथकों पर अच्छ शोध किया है और दिलचस्प किताबें लिखी हैं। आजकल उनके भी पन्ने पलट रहा हूं।

(विस्तार से पढ़ें - अहा! ज़िंदगी के साहित्य महाविशेषांक में)

Wednesday, April 17, 2013

हर साल बस इंतज़ार






- चण्डीदत्त शुक्ल

धुंधली होती गई धीरे-धीरे गुलाबी जनवरी.
कोहरे की चुन्नी में बंधी रही,
जाती हुई फरवरी के चांद की हंसी.
मार्च की अलगनी पर टंगी रह गई,
तुम्हारी किलकन की चिंदी-चिंदी रुमाल।
अप्रैल, मई और जून पकते हैं मेरे दिमाग में,
सड़े आम की तरह,
बस अतीत की दुर्गंध के माफिक,
पूरी जुलाई बरसती है आंख
और कब बीत जाते हैं,
अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर
कांपते हुए,
जान भी नहीं पाता।
तुम्हारे बिना मिला सर्द अकेलापन मौसमों पर भारी है.
नवम्बर के दूसरे हफ्ते की एक बोझिल शाम में याद करता हूं,
चार साल पहले के दिसम्बर की वो रात,
जब तुमने हौले-से
चीख जैसा घोल दिया था,
कान में,
तीखा-लाल मिर्च सरीखा स्वाद,
कहकर –
अब के बाद हर साल बस इंतज़ार करोगे!

Wednesday, February 27, 2013

यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं

- चण्डीदत्त शुक्ल

मेरे शहर का नाम गोंडा है। धुंध, धूल, हंसी, उदासी, ठंड नारेबाज़ी और सरोकार – हर मौसम, हर एहसास, अपनी पूरी बुलंदी पर। सुना है – एक-दो मॉल खुल गए हैं – देखा नहीं। सोचता हूं – दिल्ली-बंबई की तरह वहां कार्ड से पेमेंट होता होगा, बैरे को टिप दी जाती होगी या फिर पुराने वक्त के हिसाब से बारगेनिंग, यानी `थोड़ा और कम करो' की कवायद जारी होगी? खैर, बयान यहां गोंडा का करना नहीं था, ये सब बताने की गरज बस इतनी थी कि मेरा शहर कुछ-कुछ कस्बाई है, जो जितना बिल्डिंगों में बना और सड़कों पर बढ़ा है, कदरन उतना ही दिलों में भी बसा है। बात उन दिनों की करनी थी, जब मैं किशोर से ज्यादा और नौजवान से कुछ कम था, बीए फर्स्ट ईयर के दौर की या उससे भी पहले की बात होगी।
जगन्नाथ त्रिपाठी जी, भाषाविद् और साहित्यकार

कहते हैं – जवानी की डगर पर पहले-पहले कुछ क़दम रखते वक्त मोहल्ले की सब लड़कियां हसीन लगती हैं और जगजीत सिंह की ग़ज़लें मीठी – ऐसे समय में डायरी लिखने की आदत पड़ जाती है, सो ग़म-ए-रोजगार इश्क था, कुछ-कुछ रोजगार की तलाश थी पर डायरी में कवितानुमा पता नहीं क्या लिखने का चस्का लग चुका था। शहर तब भी ऐसा ही था, जैसा कम-ओ-बेश अब है... साहित्य को लेकर सनक, उन्माद, जुनून इसी तरह का था, ज्यूं इस दिन तक है, जब आप ये यादनामा पढ़ रहे हैं। परंपरागत कविताई, यानी छंद, तुक से तुक मिलाने की होड़, ऐसी कविताएं – जो सांस्कृतिक पहचान हैं – मंचों पर  वीर रस का वमन, या चुटकुलेबाजी तब भी थे, लेकिन कुल-मिलाकर बात बस इतनी कि हवा में परंपरा की खुशबू ज्यादा थी। मुझे मुगालता था अपनी उम्र से आगे का होने का, सो तुक से अलग, बेतुकी बोले तो फ्री-वर्स कविताएं गढ़ने लगा था।

उन्हीं दिनों मिले थे डीएफओ साहब।
सेवानिवृत्त हो चुके थे। पर हम सबके लिए डीएफओ साहब ही थे... जगन्नाथ त्रिपाठी जी। दिखने में बेहद बुलंद, सेहतमंद, सुंदर। मेरी मसें भीग रही थीं, मूंछ हल्की-हल्की ही आई थी और वे भरे-पूरे बुजुर्ग थे। बोलते और मुंह से मिसरी फूटती – ये उपमा ग़लत नहीं है, एकदम सटीक और सही है। वे उन दिनों `पलाश' शीर्षक से एक प्रतिनिधि संकलन या कि कहें पत्रिका प्रकाशित करने की जद्दोज़हद में थे। प्रकाशन कितना दुष्कर और तकरीबन `थैंकलेस’ होता है - इसका पहले-पहला एहसास तभी हुआ था। एक गोष्ठी में मिले या फिर किसी कवि परिचित के साथ उनके घर गया था – ठीक-ठीक याद नहीं आता – पर मिलना हो गया था। बेहद आत्मीयता के साथ हाथ मिलाया था। पूछते हुए, कुछ-कुछ चुटकी लेते हुए, हंसकर - कविता लिखते हैं आप...? तो फिर सुनाइए। मुक्तछंद कविताएं याद तो रहती नहीं हैं, सो एक तुक वाली ही सुना दी थी – ज़िगर जिगर में बसे इस तरह, जिगर से उनकी याद न जाती। वो हंसे नहीं थे, पर स्मित हास्य होंठों पर था।

कविता से अलग, कविता की सारी बातें बता दी थीं उन्होंने उस शाम। कौन-सा शब्द कहां हो, क्यों हो, कितना हो, उसके भाव क्या हैं, अर्थ क्या हैं, जरूरत क्या है, परंपरा क्या है, इतिहास क्या है... पहली बार सुनी थी इतनी अंतरंगता से कही गई, बयां हुई भाषा की बात।

लिखने-पढ़ने वाली, मेरी उम्र की पीढ़ी त्रिपाठी जी को भाषाविद् के रूप में ज्यादा पहचानती है पर मैं उन्हें देखकर सोचता रह गया - इस उम्र में भी स्टूडेंट की तरह हैं ये तो! हर शब्द को लेकर उनकी उत्सुकता, इच्छा, कौतूहल, उसके आदि से अब तक के परिवर्तनों पर निगाह – इतनी सुरुचि, ऐसी तल्लीनता बिरले ही दिखती है। कृष्णनंदन तिवारी नंदन बेहद सौम्य-सरल और उतने ही मधुर कवि हैं। त्रिपाठी जी और वे देर तक चर्चा करते। इस बीच शिवाकांत मिश्र विद्रोही, झंझट जी आदि विभिन्न कवियों का जमावड़ा उनके जेल रोड के पास वाले घर में होता रहता।

मैं भी अक्सर पहुंचता। कुछ दिन बाद अघोषित तौर पर मैं `पलाश’ का सहयोगी हो गया था। नेह-दुलार और अच्छा-सा चाय-नाश्ता, जो उन दिनों बड़े आकर्षण का केंद्र था – गटकते हुए कविताओं से सजी-सुलझी शाम गुजरती जाती। ये दौर बहुत लंबा नहीं था। बाद के दिनों में मेरी पढ़ाई-लिखाई लुढ़कती-बढ़ती रही और फिर रिज़क कमाने के वास्ते शहर ही छूट गया। डीएफओ साहब ने `पलाश’ प्रकाशित कर दिया। बहुत-से लोगों ने तारीफ की। उनने भी, जो पहले इस काम में निंदा-रस के चटखारे लेते रहते थे। सुना कि त्रिपाठी जी पलाश को नियमित करने में जुटे थे। बाद में ख़बर नहीं मिली कि क्या हुआ!

वे दोस्त नहीं थे। रिश्तेदार भी नहीं। कम-अज-कम मैंने ब्राह्मणों वाली परंपरा में घुसकर किसी रक्त-संबंध की टोह-बीन नहीं की। त्रिपाठी जी हम उम्र भी नहीं थे, पर इतने अजीज लगे थे कि उन शामों का स्वाद अरसे बाद भी नहीं भूल सका हूं। आज के दौर में, जब लिखना-पढ़ना कारोबार हुआ जाता है, उदास रात के साए में खुशग़वार बना वो घर बहुत याद आता है। वहां सचमुच शब्द अर्थवान थे। त्रिपाठी जी कितने अच्छे कवि, लेखक थे – इस बारे में टिप्पणी समय देगा, पर वे एक बेहद सुंदर, सजग, कई बार अडिग भाषाप्रेमी और साहित्य के आशिक जरूर थे... और उससे भी आगे एक मुकम्मल इंसान भी। कभी, किसी वक्त, जब भाषा को लेकर बहसें करता हूं, तो वे याद आते हैं – कहते हुए, शब्द सीमित हैं। इन्हें सोच-समझ कर काम में लाइए। परंपरा है कि कोई न रहे तो उसकी इज्जत की जाती है, डीएफओ साहब के बारे में ऐसा सोच पाना भी मेरे लिए मुमकिन नहीं है। मैं उन्हें कोई श्रद्धांजलि दे ही नहीं पाऊंगा। लगता है, कुछ समस्या हुई, कोई बात-कोई शब्द-कोई एहसास समझ न आएगा तो उनके पास जाऊंगा, वे हंसते हुए अर्थों की झड़ी लगा देंगे। पर उससे भी पहले पूछेंगे – कुछ खाएंगे? चाय पी लेते है, फिर साहित्य चर्चा करेंगे। वे कहीं गए नहीं, इसीलिए यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं...।