कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, August 16, 2012

मन की मौज में न भूलें आजादी के मायने

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

चण्डीदत्त शुक्ल | Aug 15, 2012, 00:10AM IST
  गांव के एक काका की याद आ रही है। रिश्तेदारी का ख्याल नहीं। शायद पुरखों की पट्टीदारी का कोई छोर जुड़ता होगा उनसे, पर हम सब उन्हें काका, यानी बड़े चाचा के बतौर ही जानते-पहचानते और मान देते। काका का असल नाम भी याद नहीं पड़ता। बच्चे-बड़े सब उन्हें मनमौजी कहते। मनमौजी का मतलब मस्त-मौला होने से नहीं था।

काका निर्द्वद्व, नियंत्रण के बिना, इधर-उधर घूमने वाले, दिन भर ऊंघने और शाम को चौपाल में बैठकर नई पीढ़ी को गालियां देने वाले सनकी बुजुर्ग थे। यानी मौज की खातिर जीने वाले। कोई कहता- काका! कुछ काम-धाम करो। तो वह टोकने वाले पर ही पिल पड़ते, 'तुम्हारी तरह थोड़े हैं कि घर में खाने को ठीक नहीं है। बाप-दादा कमाकर रख गए हैं। हम तो मौज उड़ाएंगे। घर में काकी भी ऐसी मिल गईं, जो कुछ कहती-सुनती नहीं थीं। उम्र के आखिरी दिनों में जरूर काका को सद्गति प्राप्त होने से ऐन पहले सद्ज्ञान मिल गया था। बहुत बीमार थे। अक्सर समझाते - बेटवा, पढ़-लिख लो। ये जो आजाद घूमते रहते हो, यह सब काम नहीं आएगा। विद्या और संस्कार ही आगे तक साथ देते हैं।

अब मनमौजी काका तो रहे नहीं। वे कोई बड़े सूरमा-खलीफा या सेलिब्रिटी भी नहीं कि उनकी चर्चा की जाए, सो आप सोचेंगे कि इतनी जगह उनके बयान में बर्बाद क्यों की गई। बहरहाल, इसकी भी वजह है। मनमौजी दरअसल, एक आदमी का नाम भर नहीं है। यह स्थिति अपनी जिम्मेदारी भुलाकर सिर्फ मस्त रहने, अपने मन का करने की प्रवृत्ति भी हो जाती है और तभी इसके खतरे सामने आते हैं। आज आजादी का दिन है। स्वाधीनता दिवस को हम एक और छुट्टी मान बैठते हैं, तो क्या हम भी मनमौजी काका ही नहीं बनते जा रहे? शायद हम भूल गए हैं कि आजादी का एक पर्याय स्वतंत्रता भी है, यानी अपने लिए, अपना तंत्र। एक अनुशासन, जो बताता है कि अगर हमें कुछ अधिकार मिले हैं तो उनके बरक्स कुछ जिम्मेदारियां भी हैं।

बचपन में जश्न-ए-आजादी मनाने के लिए हम सब बच्चे गांवभर में घूम-घूमकर चंदा इकट्ठा करते। छोटे-छोटे डंडों पर झंडे लगाकर भारत माता की जय के नारे लगाते। यह अहसास अंदर से होता था कि देश आजाद है और उसका उत्सव महज रस्म-अदायगी नहीं है। होली-दिवाली की तरह जरूरी है। पर अब क्या? एक अदद छुट्टी, स्कूलों में लड्डू और सभागारों में कुछ और नारे.. बस!

तीन रोज पहले की बात है। भोपाल में आयोजित एक मीडिया चौपाल में शामिल होने पहुंचा था। इसमें आजादी को अधिकार मान लेने और कोई तंत्र न विकसित करने की बात यकायक शुरू हो गई। बात छोटी-सी है, पर उसके मायने बड़े हैं। एक साथी ने कहा 'सोशल कम्युनिटीज पर जिसका, जो मन करता है, वह लिख देता है।' कुछ ब्लॉगर चिढ़ भी गए, पर बात तो सही है। अगर आपको एक प्लेटफॉर्म मिला है तो उसका इस्तेमाल करते समय दूसरों के हितों, भावनाओं और अपनी बात की गरिमा की चिंता करनी ही चाहिए।

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। पहलू हजार हैं और सबके सब विचारणीय। देश बदलने की बात तो बड़ी है, लेकिन गौर कीजिए, क्या हम सब अपने आपमें मनमौजी बनते नहीं जा रहे हैं? बहुत पुराना शेर है- हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। हम इस बात को समझें कि आजादी हमें बैठे-बिठाए नहीं मिल गई। हमारे पास अपना तंत्र तो है, लेकिन क्या उसके लिए जरूरी सम्मान और हां, आवश्यक प्रयास हमारे अंदर हैं? क्या हम देश की अस्मिता बढ़ाने के लिए कुछ करते हैं? बात थोड़ी कड़वी है, लेकिन बेहद जरूरी है, समझने वाली है।