कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, December 31, 2011

कभी तनहाइयों में ‘मुबारक’ याद आएंगी?

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित एक लेख...



-    चण्डीदत्त शुक्ल
 chandiduttshukla@gmail.com

महबूब के लबों ने चूमीं अंगुलियां। पलकें मीचीं, आंखों से छलके आंसू और थरथराने लगे होंठ... यही तो है मोहब्बत। फिर एक पल ऐसा भी आया, जब जिसे चाहा, वही ज़ुदा हो गया। ऐसी हालत में दूर कहीं से किसी बिरहन की तान आकर कानों में समाई। ये सुर लहरी है मुबारक बेगम की, जिसे सुनकर पिछले साठ साल से आशिकी में गिरफ्तार दिल आंसू बहाते रहे हैं, पर अफसोस,  `कभी तनहाइयों में भी हमारी याद आएगी’ जैसे नग्मे को मौसिकी का पैरहन देने वाली मुबारक बेगम का पुरसाहाल कोई नहीं है।

क्या आप मिलना चाहेंगे मुबारक बेगम से? मुंबई के एक भीड़भाड़ भरे इलाके—जोगेश्वरी के ग्रांट रोड में कबूतरखाने जैसे छोटे-से घर में सुरों की ये मलिका ज़िंदगी के बचे-खुचे दिन काटने को मज़बूर है। कभी रेड कारपेट पर कदम रखने वाली मुबारक को कहीं जाना होता है तो अपने कमजोर पांव घसीटती हुई सड़क तक जाती हैं और भीड़ का एक गुमनाम हिस्सा बनकर चुपचाप किसी वाहन के गुजरने का इंतज़ार करने लगती हैं। उनकी आंखों में बुढ़ापे की धुंध नहीं, शिकायत भरी पुकार है। मुबारक ज्यादा नहीं बोलतीं, लेकिन उनकी रग-रग चीख-चीखकर कहती है – आप मानें या न मानें, मेरे कातिल आप हैं!

एक-एक गीत की शूटिंग, म्यूजिक कंपोजिशन और रिकॉर्डिंग पर करोड़ों खर्च करने और `कोलावेरी डी’ के शोर में डूबी फिल्म इंडस्ट्री ने बेगम को भुला दिया है। `मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही...’ और `कुछ अजनबी से आप हैं...’ जैसे गीत जीवंत करने वाली मुबारक बेगम को महाराष्ट्र सरकार की ओर से डेढ़ हज़ार रुपए की पेंशन मिलती है। कई बार बिजली का बिल भरने के पैसे तक पास में नहीं होते। महाराष्ट्र सरकार ने एक लाख रुपए की सहायता राशि देने की बात कही थी, लेकिन दो महीने बाद भी इस घोषणा पर कोई अमल नहीं हुआ है।

मुबारक ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उनकी दोस्ती अक्षरों से नहीं हो सकी, पर इल्म से नाता ऐसा जुड़ा कि दरकती सांसों के बीच भी बरकरार है। दादा अहमदाबाद में चाय की दुकान करते थे। अब्बा फलों की ठेली लगाते थे, लेकिन उस्ताद थिरकवा खान साहब के शागिर्द भी बन गए थे। कुछ दिन बाद वे मुंबई आ गईं। किराना घराने के उस्ताद रियाजुद्दीन खान और उस्ताद समद खान साहब ने उन्हें विधिवत शिक्षा दी। फिल्म `आइए’ के लिए मुबारक ने पहला गीत `मोहे आने लगी अंगड़ाई...’ रिकॉर्ड कराया और फिर पारंपरिक तरीके से कहें तो – पीछे मुड़कर नहीं देखा।

मुबारक ने फिल्म `फूलों के हार’, `मेरा भोला बलम’ (फिल्म-कुंदन),  `देवता तुम मेरा सहारा’ (दायरा), `जल जल के मरूं’ (शीशा),  `हम हाले दिल सुनाएंगे’ (मधुमती),  `क्या खबर थी यूं तमन्ना’ (रिश्ता) जैसे कई गीत गाए, जिनकी तान के साथ हिंदुस्तानी मन उफान भरता रहा है, तड़पता-सिसकता, लरजता और खुशगवार होता रहा है।

कहते हैं, बॉलीवुड की एक बड़ी गायिका मुबारक की लोकप्रियता से इस कदर खौफज़दा हुईं कि उन्होंने संगीतकारों को ताकीद की – मुबारक को अब और मौके न मिलने चाहिए। ऐसा ही हुआ भी। हमराही, जुआरी, ये दिल किसको दूं, सुशीला, मोरे मन मितवा, मार्वल मैन, शगुन, खूनी खजाना, सरस्वतीचंद्र सरीखी कामयाब फिल्मों में गायन करने के बावज़ूद मुबारक को नए अनुबंध मिलने बंद हो गए। गुमनामी के भंवर में घिरी मुबारक जब-जब बीता वक्त याद करती हैं, तब उनकी आंखों से आंसओं की बारिश होने लगती है। विविध भारती में कार्यरत यूनुस खान कहते हैं – ये दुर्भाग्य ही है कि ऐसे नगीने को अंधेरों में ही घुटना पड़ रहा है।‘

अधेड़ उम्र की, पर्किंसन जैसी बीमारी झेल रही बेटी और पोतियों के साथ मुबारक सीलन भरे एक छोटे-से कमरे में रहती हैं। उनका बेटा टैक्सी चलाता है। रोज बच्चों को स्कूल छोड़ने ले जाता है। काश! हमारे सरकारी नुमाइंदे भी कभी उस टैक्सी में लिफ्ट लेते, किसी स्कूल तक जाते तो इल्म की थोड़ी-सी रोशनी उनकी भी निगाह में भर जाती और वे बीमारी और गरीबी से जूझ रही मुबारक बेगम का हाल ले पाते।

Tuesday, December 6, 2011

हौसले का जादू-मंतर

राजस्थान के उत्साही युवाओं ने आपसी प्रयास से फिल्म ही बना डाली तो अयोध्या के नौजवान हर साल करते हैं फिल्म समारोह का आयोजन। हौसला इतना बड़ा है कि पैसे की किल्लत कुछ नहीं कर पाती। ये कोशिशें बताती हैं, लोक के रंग सुरक्षित रहेंगे। फिरकापरस्ती की हार होगी और सद्भावना का राज कायम होगा।

- चण्डीदत्त शुक्ल
छह दिसंबर के दिन, यानी आज यूनान में राजस्थानी लोकसंगीत की धुन गूंजने वाली है। वहां गजेंद्र एस. श्रोत्रिय निर्मित-निर्देशित फिल्म भोभर की स्क्रीनिंग हो रही है। हो सकता है, ये पंक्तियां जब आप पढ़ रहे हों, तब यूनान के शहर कोरिन्‍थ में आयोजित दूसरे कोरि‍न्थियन फिल्‍म फेस्टिवल में रामकुमार सिंह रचित गीत `उग म्हारा सूरज' की धुन और बोलों पर लोग झूम रहे हों। भोभर पहली राजस्थानी फिल्म है, जिसे किसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन किया जा रहा है। इस फिल्म के बारे में और भी कई दिलचस्प बातें साझा करने लायक हैं। मसलन- जयपुर निवासी, पेशे से पत्रकार रामकुमार सिंह और रियल एस्टेट व्यवसायी गजेंद्र एस. श्रोत्रिय व उनकी मित्र मंडली का यह शौक और जुनून ही था कि वे जब भी आपस में मिलते, केवल सिनेमा की बातें करते और ख्वाब बुनते। ये `जब भी मिलने' का सिलसिला जल्द ही नियत मुलाकातों के कार्यक्रम में बदला और फिर वे सब हर हफ्ते सिनेमा विमर्श में जुटने लगे। ऐसी ही किसी मुलाकात के दौरान रामकुमार ने अपनी एक कहानी सुनाई, जिस पर दोस्तों ने तय किया कि फिल्म बनाई जाएगी।
फिल्म बनाने का आइडिया अच्छा था, रोमांचक भी, लेकिन आगे की लड़ाई जैसा कि सब जानते हैं कि मुश्किल ही होनी थी। पहले तो पैसे जुटाने के लिए दोस्तों से लेकर फाइनेंसर्स तक की दौड़ हुई, फिर जब अधिकतर जगह से मनाही हुई, तो राम और गज्जी (गजेंद्र) ने तय कर लिया, जुनून अपना है तो पैसा भी अपना ही लगे! `जो होगा, देखा जाएगा' की तर्ज पर भोभर का काम शुरू हुआ। किसानों की व्यक्तिगत ज़िंदगी के उतार-चढ़ावों पर आधारित भोभर की मेकिंग की कहानी कम रोचक नहीं है। जिस लड़के को हीरो चुना गया, चार दिन बाद वो चलता बना। आखिरकार, एक दोस्त की सलाह पर तकरीबन पच्चीस लाख रुपए के बजट वाली भोभर का हीरो अमित सक्सेना को बनाया गया। इसके बाद हीरोइन ढूंढना भी मुश्किल काम था। पंद्रह लड़कियों से बातचीत हुई। सबने किसी न किसी वज़ह से इनकार कर दिया। अंततः थिएटर में काम करने वाली परिचित लड़की को मान-मनौव्वल और अधिकार बोध के हवाले से हीरोइन बनाया गया। डायरेक्टर गजेंद्र ने दाढ़ी बढ़ा ली थी कि और कोई हीरो बनने को तैयार न होगा, तो खुद ही अभिनय करेंगे। रामकुमार ने कलाकार न मिलने और लागत कम रहे, इन्हीं वजहों से फिल्म में अभिनय किया। उनके ही गांव बीरानिया में शूटिंग हुई। खैर, अंत भला तो सब भला। अब भोभर तैयार हो चुकी है और देश के हर कोने से तारीफें बटोर रही है। `वो तेरे प्यार का गम' जैसे मशहूर गीत के संगीत सर्जक दान सिंह ने जिस आखिरी फिल्म में संगीत दिया, वो भोभर ही है।
ये सफलता किसी एक फिल्म की नहीं है, न ही कुछ लोगों की। ऐसी कोशिशों को सलाम इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि ये सामूहिक प्रयास की जीत को उल्लिखित करती हैं। बताती हैं कि हिम्मत हो, जुनून हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। इस सिलसिले में अयोध्या में होने वाले फिल्म फेस्टिवल का जिक्र करना ज़रूरी है। यहां पर 2006 से फिल्म प्रेमियों का एक समूह, (जिसकी अगुवाई शाह आलम, शहनवाज, महताब जैसे नौजवान कर रहे हैं), अनूठे फिल्म समारोह का आयोजन करता है। बिस्मिल की शहादत की याद में आयोजित इस महोत्सव का उद्देश्य है -- प्रतिरोध की संस्कृति और अपनी साझी विरासत का जश्न मनाना। 
जैसे भोभर बनाने वालों के दिल-ओ-दिमाग में जुनून था-- किसी भी तरह राजस्थान के किसान की असल आवाज़ को रुपहले परदे पर पोट्रे किया जाए, वैसे ही अयोध्या फिल्म समारोह के आयोजकों की मंशा होती है -- फिरकापरस्ती को चोट पहुंचाई जाए। तरीका दोनों का एक है -- अपना जुनून और अपना ही पैसा। जरूरत हुई तो दोस्तो से मदद ले लेते हैं। पैसों की किल्लत उनके हौसलों पर भारी नहीं पड़ती। ये ही तो है असल मायने में हौसलों की जीत। एक तरफ लोक का रंग है, दूसरी तरफ समाज के लिए भावना। आइए, दुआ करें, ये सिलसिला कायम रहे, ताकि राजस्थान से लेकर अयोध्या तक, खुशी ज़िंदा रहे। सरयू का पानी खुशी से उफनता रहे और रेत के ढोरे गुनगुनाते रहें...सूरत पीर फकीर सी लागे / जाणैं जादू मंतर है / जिंदगानी नाचे ज्यूं बांदरी / मुलके मस्त कलंदर है...।


Thursday, December 1, 2011

क्या ‘अदम’ को भी तब ही याद करेंगे?

बचपन में सुना था — खेलोगे, कूदोगे तो बनोगे नवाब, लिखोगे-पढ़ोगे तो होगे खराब…। क्या ये कहावत सही है? क्या वज़ह है कि हिंदुस्तान में लेखकों को सांस रहते सम्मान और सहयोग नहीं मिलता? हिंदी ग़ज़ल के सबसे बड़े हस्ताक्षरों में से एक — रामनाथ सिंह अदम गोंडवी साहब की तबियत खासी ना़ज़ुक है, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। आज के दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर अदम जी को समर्पित आलेख…
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- चण्डीदत्त शुक्ल
वे सब के सब, जो दिल के करीब थे, एक-एक कर जाते रहे और इस वक्त के पन्नों पर दर्ज होती रहीं बस जुदाई की इबारतें। चंद महीनों में कुछ नाम महज किताबों, वेबसाइट्स और पुराने अखबारों के जर्द पन्नों में ही बचे रह जाएंगे। अपनी संपूर्ण क्रूरता केसाथ ये सत्य है कि गुजर गए लोगों के साथ कुछ भी नहीं ठहरता, पर इससे ज्यादा अफसोसनाक एक सच और भी है। हमें तब तक किसी को याद करने की फुरसत नहीं मिलती, जब तक वह दुनिया में होता है।
यह हालत हमारी ही नहीं, अदब के चौबारों की है और सरकारों की भी! इस साल कई अजीज चले गए। किसका कद कितना बड़ा था, यह बयां की बात नहीं है। सोचने लायक मुद्दा ये है कि जब तक वे हमारे आसपास थे, हमने उन्हें कितना सोचा-समझा, जाना-पहचाना और सराहा? आखिरकार, राजसत्ता ने कवियों-लेखकों-फिल्मकारों का हाल जानने की फुरसत क्यों नहीं जुटाई? क्या सरकारें भी इसी बात पर यकीन करती हैं कि मृत्यु के बाद ही व्यक्ति महान होता है!
यूं, किसी भी सृजनधर्मी को प्रसिद्धि, सम्मान और धन की प्रतीक्षा और परवाह नहीं होती। साहित्य के नोबेल पुरस्कार से अलंकृत लैटिन अमेरिकी लेखक गैब्रियल गार्सीया मार्केज कह भी चुके हैं कि प्रसिद्धि उन्हें डराती है, लेकिन यह तो रचनाकार का दृष्टिकोण है। हमारा फर्ज क्या है, यह एक दीगर सवाल है..।
उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में रहते हैं रामनाथ सिंह। बुजुर्ग हैं। खांटी गंवई इंसान हैं। जिस्म पर मैली धोती, खुरदुरी-बिना बनावट वाली जबान उनकी पहचान है। सीधे-सपाट, साफगो इंसान हैं, उतने ही खुद्दार भी। इन दिनों वहां के एक प्राइवेट अस्पताल में बेहद नाजुक हालत में इलाज करा रहे हैं।
रामनाथ सिंह यानी ‘अदम गोंडवी’ हिंदी गजल के जीवित शायरों में सबसे बड़े हस्ताक्षरों में से एक हैं। अदम ने अपना जीवन सामंतवादी ताकतों, भ्रष्टाचारियों, कालाबाजारियों और पाखंडियों के खिलाफ लिखते हुए बिताया है, लेकिन एक भी बड़ा, सरकारी सम्मान उनके खाते में नहीं है।
सम्मान तो दूर की बात, इलाज के लिए कोई सरकारी मदद भी उनके हिस्से में नहीं आई है। ये हालत एक ऐसे शायर की है, जिसका रचनाकर्म झिंझोड़ देने वाला है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है। ‘काजू भुनी प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/उतरा है रामराज्य, विधायक निवास में’, ‘आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को’ सरीखी कविताएं उन्होंने ही लिखी हैं।
भारत से लेकर सुदूर रूस तक वे पढ़े जाते हैं, लेकिन प्रकाशन के नाम पर दो किताबें और कवि सम्मेलनों के सिवा उनके हिस्से में कोई राष्ट्रीय-प्रादेशिक सम्मान नहीं है, न ही अब जीवन बचा लेने के लिए सरकार से उन्हें कोई मदद मिल रही है। अदम ही क्यों, बाबा नागाजरुन, मंटो, मुक्तिबोध, निराला समेत दर्जनों ऐसे नाम हैं, जिन्हें यूं तो बहुत सम्मान मिला, लेकिन सांस रहते नहीं। जीवन में अगर हासिल हुआ भी, तो तब, जब वे सम्मान और धन का लाभ उठाने की स्थिति में नहीं रह गए थे। जिंदगी रहते हुए तो ऐसे रत्नों को महज मुफलिसी और मुकदमे ही मिले।
यह संयोग नहीं कि बहुत-से अफसर तुकबंदियां भी करें तो साहित्यिक अकादमियों के अध्यक्ष-सचिव बना दिए जाते हैं और माटी से जुड़े साहित्यकारों को सरकारी तौर पर तब स्वीकृति मिलती है, जब वे दुनिया से कूच कर चुके होते हैं। अदम का स्वास्थ्य बेहतर हो, वे खूब जिएं, कामना यही है, लेकिन ये बड़ा सवाल है कि जिस समाज की बेहतरी के लिए कलमकार तिल-तिलकर मरते रहते हैं, उन्हें जिलाने की, प्रतिष्ठा और प्यार देने की कोशिश हमारा समाज और सत्ता क्यों नहीं करते? दुनिया के कई मुल्कों में सड़कों पर कलाकारों और साहित्यकारों के बुत लगाए जाते हैं, लेकिन अपने देश के रास्ते नेताओं की मूर्तियों से कब खाली होंगे?

अदम जी की कविताएं आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं…


Monday, November 28, 2011

तुम्हें खोकर, खो दिया सब कुछ!


- चण्डीदत्त शुक्ल

एक डूबता हुआ सूरज
फिर खिल उठा
खुल गए कई बंद रास्ते
न, तुम कहां आए
आई बस ज़रा-सी याद तुम्हारी
और दिन थम गया
रात रुक गई
सांस चलने लगी तेज़, और तेज़
एक तुम्हारी याद इतनी कारसाज़
तो सोचो मुकम्मल तुम,
हो कितनी अपूर्व
अतुलनीय प्रेम की बेमिसाल तस्वीर पूरी की पूरी तुम
इसीलिए इतनी दृढ़?
जानती हो,
ईश का अभिशाप मिला है मुझको
न हो सकूंगा खुश निमिश भर को
इसीलिए,
नहीं आती हो मेरे जीवन में तुम क्षण भर के लिए भी...
है न?
दुनिया के सारे वसंत अपने रुमाल में बांधकर
ओझल हो तुम वसंतलता
मेरे संसार से,
तभी तो,
हर दिन सूरज निकलता है,
रात ढलती है
सांझ होती है
उम्र के कैलेंडर में एक-एक दिन जुड़ता जाता है
और
साथ-साथ घटती जाती है ज़िंदगी मेरी
पर
स्थगित रहता है सावन...
झुंझलाते होंठों और खिन्न आंखों के साथ
बस, कभी-कभार
बहुत दम लगाकर आ जाती है तुम्हारी याद
यह एहसास दिलाने के लिए
हां, मैंने सब कुछ खो दिया है
तुम्हें खोकर
मेरे प्रेम!


<दिल की वीरान बस्ती का एक उदास टापू...>

Sunday, November 20, 2011

रामकुमार सिंह की गिलहरी का फ्री-हैंड रिव्यू

रामकुमार की गिलहरी की फ्री-हैंड समीक्षा
एक अक्सरहा सुना शेर है, कुछ यूं — बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर वे भी हम जैसे हो जाएंगे। बात एकदम सही है, लेकिन बचपन जैसे ही जवानी तक पहुंचने के आधे रास्ते तक पहुंचकर ठिठकता है, गोया किशोर होता है, उसके मन में बहुतेरी उत्सुकताओं के बवंडर मचलने लगते हैं। अफ़सोस… साधारण-सी उत्सुकता का हल साफतौर पर, सही तरीके से कभी नहीं मिलता। नैतिकता के कितने ही पैबंदों में उलझा जब कोई समाधान सामने आता है, तो उसमें धज्जियों की भरमार ऐन सामने होती है। `वह’, यानी एक गंवई किशोर की कहानी भी इससे ज़ुदा नहीं है। बच्चा जब जानना चाहता है कि उसका जन्म कैसे हुआ, तो पता चलता है — `माँ ने चावल खा लिए थे. रात को उसके पेट में भी दर्द हुआ. अगली सुबह वह खेत पर नहीं जा पाई थी. उस दिन वह पैदा हो गया था’. वह दौर, जब `वह’ ननिहाल में मौजूद भूरे कुत्ते को टहलाता, खिलाता, खिजाता बड़ा हुआ था, इन दिनों 11 साल का होने पर कलिंग की लड़ाई के संदर्भ और लोकसभा की सीटों और विज्ञान की किताब से निकालकर परागण, नर और मादा के भेद को पढ रहा था, तब बच्चे कैसे पैदा होते हैं, इसके जवाब में उसे चावल खा लेने से बच्चा होने की परिभाषाएं समझाई जा रही थीं…हालांकि `ज्योंही स्कूल की छुट्टी होती तो उसके गली के गुरु सक्रिय हो जाते’। इन्हीं दिनों में वह `कई नई बातें सीख रहा था’. घर में आई भाभी `गोरी गोरी-सी. मखमली-से गाल’ वाली। सहपाठी बताते कि ‘तेरा भाई, तेरी भाभी के साथ सोता है.’ और इसी बीच `वह’ जान पाता कि जब दो लोग साथ सोते हैं, तब `इसी से बच्चे पैदा होते हैं’। गली के गुरु उससे उम्र में कुछ महीने बड़े हैं और वह भले ही अब तक सोचता रहा था कि `बच्चे पैदा होने से रोकने हों तो त्योहार के दिनों में चावल नहीं खाने चाहिए’, लेकिन अब उसका ‘पॉइन्ट ऑव व्यू’ भी बदल रहा था। इसी बीच `वह’ एक और ज्ञान प्राप्त करता है कि साथ सोना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि `शिव भगवान और पार्वती ने ऐसा कहा है.’। नई-नई बातों के बीच बकरियों को तंग करते बकरों को देखते हुए साथी बनवारी एक अलग ही समझदारी दिखाता है ‘ओए राजू, आदमी भी स्साला औरतों को इसी तरह परेशान करता है.’ और राजू को वह ये भी बताता है कि `हेमू चाचा दारू पिए हुए थे. चाची के कपड़े खींच रहे थे.’ ‘कभी गौर से देखना, हेमू चाचा की शक्ल इस बकरे से मिलती है.’
… कुछ तो गंदा था इसमें। क्या और कितना, राजू नहीं जानता। इस बीच `उससे उमर में चार पांच साल ही तो बड़ी’ भाभी उसे एक अलग ही प्रदेश में ले जाती हैं। कितनी ही सुप्त कामनाओं, उत्सुकताओं और रोमांच के वर्जित प्रदेश में। एक अलभ्य, बहु-प्रतीक्षित दर्शन-सुख के इस प्रदेश के बाद राजू और बनवारी योजना बनाते हैं– राजू के दिमाग में एक ही बात चलती है — ‘शिवभगवान, पार्वती का आदेश और चिपमचिपा.’ … बात यहीं खत्म नहीं होती। `अगले दिन भाभी की पीठ पर उनका सामूहिक हमला होने वाला था’।
ख़ैर… मैं भटक गया। यह सब एक कहानी का बयान है, शीर्षक है `गिलहरी’, जिसकी पूरी कथा ही मैं सुनाने में अटक गया था। लिखना ये चाहता था कि बहुत अरसे बाद कोई रोचक और अद्भुत कहानी पढ़ी है। जो पहली बार में शुद्धता और नैतिकतावादियों को अश्लील लगेगी। यक़ीनन और पुरज़ोर लगेगी, लेकिन जिन्हें प्रेम, देह, लालसा, उत्सुकता और बचपन की छानबीन खुले दिमाग से करने का मन होगा, वे इस कहानी को सह पाएंगे। कहानी लिखी है रामकुमार सिंह ने। रामकुमार जी से महीने में एक-दो-तीन बार मिलना होता भी है। उनकी कुछ कहानियां पहले भी पढ़ी हैं, लेकिन इस बार भाषा, ट्रीटमेंट और कथ्य की बुनावट के लिहाज से वे पुराने लेखन पर भारी पड़े हैं।
रामकुमार जयपुर में रहते हैं। एक अखबार में काम करते हैं। दो-तीन फिल्मों में कहानियां और गीत का डिपार्टमेंट संभाल चुके हैं….पर यह उनका सामान्य-सा परिचय है। सच तो ये है कि रामकुमार प्रचार और संपर्क जुटाने से कतिपय दूर, एक बेहतरीन लेखक हैं। कहानियों के मामले में कम से कम बहुत बेहतरीन। बाकी का काम भी अच्छा है।
कुछ ज्यादा ही उत्साहित हूं, इसलिए बार-बार भटक रहा हूं। गिलहरी कहानी की भाषा पर कुछ कहने का भी मन है। यह कहानी मुहावरों, शब्द संरचना-चमत्कार-इमेज़री-विज़न-
इफेक्ट्स-कोलाज से दूर है। सीधी-सपाट, शायद इसीलिए सीधा असर करती है। रामकुमार की भाषा में `विट’ है और यह अक्सर हंसाते हुए परेशान भी करता है, तब वे तीखी बातें सीधे-सरल तरीके से कह जाते हैं। इस तथाकथित रिव्यू में इन्वर्टेड कॉमा `’ में शामिल सभी वाक्य कहानी गिलहरी से कॉपी किए गए हैं. प्रमाण सामने है, देख लीजिए।
खास बात एक और बाकी है। गिलहरी यहां प्रतीक है। एक पेड़ की डाल से कूदकर दूसरे पर चढ़ने की कोशिश में कुत्ते के मुंह में समाती हुई गिलहरी। और उसकी जान ख़तरे में इसलिए है, क्योंकि किसी ने उसे बताया था कि गिलहरी के सिर में चवन्नी छुपी होती है। शायद ऐसा ही कुछ। क्या स्त्री का रूप-सौंदर्य-देह भी ऐसी ही है। ऐसा ही आकर्षण? और पुरुष यहां किस रूप में मौजूद है? हो सकता है– रामकुमार ने ऐसा न सोचा हो… और यह मेरा शरारती दिमाग हो…।
कहानी चौंकाती है अपने क्लाइमेक्स के ज़रिए। एक किशोर नहीं जानता कि क्या वर्जनीय है, लेकिन जिस तरह राजू की मृत्यु होती है, वह तो संकेत ही है — अंधेरे गलियारे में ठोकर लगती है। बिना किसी नैतिक शिक्षा के यह कहानी हाजिर है, कई तहों को टटोलती हुई। व्यंग्य, चुटकियां, चिंता के अनेक पुटों के साथ।
गिलहरी में हम ढेरों प्रतीक देखते हैं। कहीं स्पष्ट तो कहीं कथ्य के संग गुंफित। यहां जो गांव है, वह पूरी तरह उन्मुक्त है और ठीक उसी हद तक बंधा हुआ भी। रामकुमार को बधाई इस बात की भी दी जानी चाहिए कि वे बंद निगाह और ठस, जकड़े दिमाग के साथ सबकुछ पवित्र-पवित्र नहीं बताते रहते। गिलहरी बालपन से उबरे, उम्र में बढ़े और दिल से ठहरे हुए बचपन में मन की बहुत-सी परतें खोलती है और उतना ही हमें उलझाती भी है। गिलहरी के कूदने से रोमांचित हुए राजू की दोस्त कोई लड़की हो सकती है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। प्रश्न ये भी नहीं है कि `नरम और गुनगुना’ और `रुई के फाहों की तरह हवा में तैरते बादलों’ का ज़िक्र दरअस्ल, किन चीजों के लिए किया गया है और ये अश्लील-श्लील के आईने में कितने फिट होते हैं, सवाल बस एक है — नैतिकता के मायने इतने रूढ़ क्यों हैं कि सहज उत्सुकताओं को गिलहरी की मौत मरना पड़ता है।
* रामकुमार शायद हंसेंगे मेरी इस राय पर, लेकिन मेरी नज़र में गिलहरी को सेक्स एजुकेशन की पाठ्य सामग्री में शामिल किया जाना चाहिए।
- बहुत पहले प्रियंवद की कहानी खरगोश पर बनी टेलीफिल्म देखी थी। बेहद उम्दा उस कहानी के बाद रामकुमार की गिलहरी पढ़ना रोमांचक है। दोनों कहानियों में ऐसे ही अनदेखे-छुपे संसार के लिए कौतूहल और नायिकाओं के कदरन समान व्यवहार का हवाला है, लेकिन गिलहरी का अंत और अलग भावभूमि, क्षेत्र और ट्रीटमेंट, खासतौर पर क्लाइमेक्स इसे खरगोश से अलग करता है। यूं, दोनों की तुलना नहीं है। महज ऐसी ही एक कहानी याद आई, इसलिए ज़िक्र किया। मुझे यकीन है कि मेरा नाम जोकर में अपनी टीचर को चाहने वाला ऋषि तो प्रियंवद और रामकुमार के दिमाग में नहीं रहा होगा… क्योंकि ऐसा बचपन तो हम सबका होता है… एक-सा। तमाम दुत्कारों, वर्जनाओं, कल्पित कहानियों के बावज़ूद, कहीं-कुछ टटोल-तलाश लेने की होड़ में भागता और अक्सर बिंधता हुआ।
श्लील-अश्लील के चश्मे पहनने वालों से क्षमा याचना सहित एक सुझाव… गिलहरी ज़रूर पढ़ें। अच्छी कहानी है। मुझे यह कहानी पढ़ते हुए मंटो की मुतरी भी याद आई… क्यों, शायद वहां मूत्रालय में लिखे हुए संवाद भी अतृप्त मन की परतों से बहकर कहीं उभर आए होंगे।

कहानी पढ़ने का मन हो, तो यहां क्लिक करें

Tuesday, November 1, 2011

जब मिले दो दोस्त... अभिषेक मिश्र की कलम से...

एक मुलाकात

- अभिषेक मिश्र
गत शुक्रवार को एक छोटे से एक्सीडेंट से गुजरने के बाद अगले दिन शनिवार की छुट्टी होते हुए भी कमरे में ही पुरे आराम की दुह्साध्य परिस्थिति के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर ही रहा था कि फेसबुक से गुजरते हुए चंडीदत्त शुक्ल जी के स्टेटस पर नजर पड़ गई जो अपनी एक दिवसीय यात्रा पर दिल्ली पधारने वाले थे. चंडीदत्त शुक्ल जी से ऑनलाइन तो मेरा संपर्क कई सालों से रहा जब वो नोएडा में 'दैनिक जागरण' से जुड़े हुए थे. अरुणाचल जाने के बाद मेरा संपर्क इंटरनेट से टूट गया और इन जैसे कई अन्य व्यक्तियों से भी. नेटवर्क जोन में वापसी के बाद इनसे पुनः संपर्क हुआ तो पता चला अब ये जयपुर में हैं और मेरी कुछ पसंदीदा पत्रिकाओं में से एक 'अहा ! ज़िन्दगी' से जुड़ गए हैं. 

पिछले दिनों अपनी अचानक हुई जयपुर यात्रा में मुझे याद भी न रहा कि ये भी यहीं हैं, वर्ना अपनी साईट विजीट में इनके दर्शन को भी ऐड जरुर कर लेता. अब इनके दिल्ली आने के अवसर को मैं छोड़ना नहीं चाहता था, और यह शनिवार को मेरे बाहर निकलने की एकमात्र प्रेरणा थी. 

कला-विज्ञान-संस्कृति से जुड़े लोगों से मिलने या संपर्क का अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता, यह मेरी कुछ कमजोरियों में से एक है. मेरी इस 'प्रवृत्ति' का शिकार कई लोग हो चुके हैं जिनमें ब्लॉग जगत के ही श्री अरविन्द मिश्र, यूनुस खान आदि भी शामिल हैं. इससे पहले केंद्रीय सचिवालय मेट्रो पर ही एक अन्य ब्लौगर नीरज जाट से भी मुलाकात हो चुकी थी, जिसके सन्दर्भ में यहाँ  भी देखा जा सकता है. यही मेट्रो स्टेशन इस दिन फिर हमारी मुलाकात का गवाह बनाने जा रहा था, जहाँ हमारा मिलना नियत हुआ था. 


चंडीदत्त जी एक कमाल के लेखक, कवि और साथ ही ब्लौगर भी हैं. उनका लिखना पाठकों पर जादू सा असर करता है और उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता है. इसका एक उदाहरण मैं उनके फेसबुक पेज से ही दे रहा हूँ, जिसमें उन्होंने इस सामान्य सी मुलाकात को अपने खुबसूरत शब्दों में पिरोकर एक यादगार शक्ल दे दी है - 

कुछ अलसाई सुबहें इस कदर हावी होती हैं कि गुजिश्ता दिन भागते हुए बीतता है और कसम से, ऐसी दोपहरियों के बाद की शामें अक्सर तनहाई की आग से लबरेज़ करते हुए जिस्म को सिहरन से भर देती हैं। 
कुछ ऐसा ही तो मंज़र था उस रात, जब चांद ने सरसराती हवा का आंचल थामकर सांझ को ढलने का इशारा किया और नीले आसमान के दिल के ऐन बीच जा बैठा। ठिठुरती रात ने ओस से कहा-- तुम इतनी सर्द क्यों हो आज...और वो जैसे लजाकर घास के सीने में और गहरे तक दुबक गई। क़दमों के नीचे पत्ते चरमरा रहे थे। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रपति के घर के ठीक बगल सड़क पर खंबों के माथे के ऊपर जगमगाती स्ट्रीटलाइट के नीचे कोई था, जो मेरे इंतज़ार में था और इसी फ़िक्र में मैं भी तो था...ऐन उसी वक्त, इंसानी कारीगरी का बेमिसाल नमूना- दिल्ली मेट्रो के एक शुरुआती डिब्बे में सवार मैं भी बार-बार अपनी घड़ी देखता हुआ वक्त को जैसे रोक लेने की कोशिश में जुटा था...
हर दो-तीन मिनट बाद पीछे छूट जाते प्लेटफॉर्म को अपनी रफ्तार से मुंह चिढ़ाते और जैसे साथ ही फिर मिलने का दिलासा देती मेट्रो जैसे ही मंज़िल तक पहुंची, एस्केलेटर पर मेरे क़दम जम गए और जैसे ही खुद चलती सीढ़ियां रुकीं, बेताब निगाहों ने बाहर झांककर यकीन करना चाहा-- है तो सही, वो शख्स, जिससे मिलना आज मुमकिन हुआ है। नज़रें चेहरा नहीं तलाश पाईं पर फोन के पार एक आवाज़ मौजूद थी--हां जी...आता हूं। रात के सवा नौ बजे, राह को लांघ, वो मेरे सामने था। ये ज़िक्र है--झारखंड के रहने वाले, बनारस में पढ़े, अरुणाचल में नौकरी कर चुके और फिलहाल, फरीदाबाद में सेवारत अभिषेक मिश्र का। ब्लॉगर, पत्रकार, लेखक, संगीतप्रेमी... ये तमगे दरअसल छोटे और नाकाफ़ी हैं अभिषेक का बयान करने के लिए। यकीनन...वो सबसे पहले और सबसे ज्यादा एक स्वीट इंसान हैं। एक दिन पहले ही एक एक्सीडेंट से जूझने और रा-वन देखने की हिम्मत रखने वाले अभिषेक उस रात भी महज मुझसे मिलने फरीदाबाद से चले आए थे। ये बस मोहब्बत थी। बिना किसी काम, बगैर किसी प्रोफेशनल रुचि की। रात ढलती रही, वक्त अब खुद पुरज़ोर सिफारिश कर रहा था कि मुझे गुजरना है पर कुछ तो था, जो गुज़र नहीं पाया। हम दोनों एक कृत्रिम झील के किनारे बैठे, बिना किसी कृत्रिमता के दुनिया-जहान की बातें करते रहे। बहुत देर तक भी नहीं...बमुश्किल, 45-50 मिनट। फिर विदा हुए, फिर मिलने की कोशिश के वादे के साथ..."

इन पंक्तियों से चंडीदत्त जी के शब्द कौशल की संपूर्ण तो नहीं मगर एक छोटी सी झलक जरुर मिल गई होगी. उनके जैसे व्यक्तित्व के साथ बिताये वो चंद लम्हे मेरे भी स्मृति पटल पर संगृहीत रहेंगे और आशा करता हूँ कि वो पत्रकारिता में और भी ऊँचाइयाँ हासिल करते हुए हमें भी गौरवान्वित करते रहेंगे. 
चलते-चलते उन्ही की लिखी कुछ पंक्तियाँ -   

तुम रहना स्त्री, बचा रहे जीवन

हे सुनो न स्त्री
तुम, हां बस तुम ही तो हो
जीने का ज़रिया,
गुनगुनाने की वज़ह.
बहती हो कैसे?
साझा करो हमसे सजनी…
होंठ पर गीत बनकर,
ढलकर आंख में आंसू,
छलकती हो दंतपंक्तियों पर उजास भरी हंसी-सी!
उफ़…
तुम इतनी अगाध, असीम, अछोर
बस…एक गुलाबी भोर!
चांद को छलनी से जब झांकती हो तुम,
देखा है कभी ठीक उसी दौरान उसे?
कितना शरमाया रहता है, मुग्ध, बस आंखें मींचे
हां, कभी-कभी पलक उठाकर…
इश्श! वो देखो, मुए ने झांक लिया तुम्हारा गुलाबी चेहरा…
वसंतलता, जलता है वो मुझसे,
तुमसे,
हम दोनों की गुदगुदाती दोस्ती से…
स्त्री…
तुम न होतीं,
तो सच कहो…
होते क्या ये सब पर्व, त्योहार, हंसी-खुशी के मौके?
उत्सव के ज्वार…
मौसम सब के सब, और ये बहारें?
कहां से लाते हम यूं किसी पर, इस कदर मर-मिटने का जज़्बा?
बेढंगे जीवन के बीच, कभी हम यूं दीवाने हो पाते क्या?
कहो न सखी…
जब कभी औचक तुम्हें कमर से थामकर ढुलक गया हूं संपूर्ण,
तुमने कभी-कहीं नहीं धिक्कारा…
सीने से लगाकर माथा मेरा झुककर चूम ही तो लिया…
स्त्री, सच कहता हूं.
तुम हो, तो जीवन के होने का मतलब है…
है एक भरोसा…
कोई सन्नाटा छीन नहीं सकेगा हमारे प्रेम की तुमुल ध्वनि का मधुर कोलाहल
हमारे चुंबनों की मिठास संसार की सारी कड़वाहटों को यूं ही अमृत-रस में तब्दील करती रहेगी.
तुम रहना स्त्री,
हममें बची रहेगी जीवन की अभिलाषा…
उफ़… तुम्हारे न होने पर हो जाते हैं कैसे शब्दकोश बेमानी
आ जाओ, तुम ठीक अभी…
आज खुलकर, पागलों की तरह, लोटपोट होकर हंसने का मन है

Tuesday, October 18, 2011

चांद, स्त्री और तुम्हारे खोने की रपट : तीन कविताएं

# चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345 #

बिना तुम्हारे वसंत ने किया नामंजूर

राम की तो राम जानें /
खग-मृग से उन्होंने क्या पूछा,
क्या सुना जवाब
पर व्याकुल, एकाकी मैं…
तलाशता रहा तमाम ठीहे,
जहां, कोई खग दिखे,
चोंच में तिनका या चिट्ठियां दबाए…
पर, नदारद सब के सब
पक्षिशास्त्र की किताबों में शामिल ब्योरों बीच कहीं गुटरगूं करते होंगे।
मृग,
`जू’ में तालियां बचाते बच्चों के कंकड़ों और व्यर्थ के कुरकुरे संग कन्फ्यूज़ हैं…
सो, खग-मृग के बिना,
मृ़गनयनी तुम्हारे न होने की रपट मैं कहां दर्ज कराता,
किससे पूछता सवाल
बिरला मंदिर के ऐन सामने, कौन-सा है असली पंडित पावभाजी वाला…
यह जरूर तलाशता था…, तभी चिल्लाया कानों के ठीक बगल कोई…
कहो कहां है तुम्हारी वसंतलता…
कहां गई वो मृगनयनी!
मैं निस्तब्ध, अवाक्…
निरुत्तर हूं,
उन शहरों के सभी रास्ते,
जहां हम-तुम साथ-साथ हमेशा `रंगे हृदय’ पकड़े गए थे,
मुझसे सवाल करते हैं,
अकेले, तुम अकेले, कहां गई वह…
जिसके साथ तुम ज़िंदा थे भरपूर।
अब उदास मुंह लिए कैसे फिर सकते हो?
राहों ने मेरे तनहा क़दम संभालने से इनकार कर दिया है।
अल्बर्ट हॉल में संरक्षित ममी ने पूछा–
तुम वहां, बाहर, क्या करते हो…
बिना प्रेम का लेप लगाए,
वक्त की दीमक तुम्हें खा लेगी, बेतरह!
शाम के तारे,
दोपहर का ताप
और सुबह का गुलाल…
नहीं सहा जाता कुछ भी मुझसे
न ही मुझे स्वीकार करता है कोई बगैर तुम्हारे…
वसंत,
तुम्हारे न होने को मंजूर कर लिया है मैंने.
इन दिशाओं से, रास्तों और राहगीरों से भी कह दो
मान लें,
हम-तुम कभी साथ नहीं चले,
नहीं रहे!


तुम रहना स्त्री, बचा रहे जीवन

हे सुनो न स्त्री
तुम, हां बस तुम ही तो हो
जीने का ज़रिया,
गुनगुनाने की वज़ह.
बहती हो कैसे?
साझा करो हमसे सजनी…
होंठ पर गीत बनकर,
ढलकर आंख में आंसू,
छलकती हो दंतपंक्तियों पर उजास भरी हंसी-सी!
उफ़…
तुम इतनी अगाध, असीम, अछोर
बस…एक गुलाबी भोर!
चांद को छलनी से जब झांकती हो तुम,
देखा है कभी ठीक उसी दौरान उसे?
कितना शरमाया रहता है, मुग्ध, बस आंखें मींचे
हां, कभी-कभी पलक उठाकर…
इश्श! वो देखो, मुए ने झांक लिया तुम्हारा गुलाबी चेहरा…
वसंतलता, जलता है वो मुझसे,
तुमसे,
हम दोनों की गुदगुदाती दोस्ती से…
स्त्री…
तुम न होतीं,
तो सच कहो…
होते क्या ये सब पर्व, त्योहार, हंसी-खुशी के मौके?
उत्सव के ज्वार…
मौसम सब के सब, और ये बहारें?
कहां से लाते हम यूं किसी पर, इस कदर मर-मिटने का जज़्बा?
बेढंगे जीवन के बीच, कभी हम यूं दीवाने हो पाते क्या?
कहो न सखी…
जब कभी औचक तुम्हें कमर से थामकर ढुलक गया हूं संपूर्ण,
तुमने कभी-कहीं नहीं धिक्कारा…
सीने से लगाकर माथा मेरा झुककर चूम ही तो लिया…
स्त्री, सच कहता हूं.
तुम हो, तो जीवन के होने का मतलब है…
है एक भरोसा…
कोई सन्नाटा छीन नहीं सकेगा हमारे प्रेम की तुमुल ध्वनि का मधुर कोलाहल
हमारे चुंबनों की मिठास संसार की सारी कड़वाहटों को यूं ही अमृत-रस में तब्दील करती रहेगी.
तुम रहना स्त्री,
हममें बची रहेगी जीवन की अभिलाषा…
उफ़… तुम्हारे न होने पर हो जाते हैं कैसे शब्दकोश बेमानी
आ जाओ, तुम ठीक अभी…
आज खुलकर, पागलों की तरह, लोटपोट होकर हंसने का मन है




हट पाजी चांद
चल हट पाजी,
तू क्या इतराए है
बादलों की मुंडेर पर
जुल्फ खोले हुए…
चांद कहता है खुद को…
देखा है कभी,
मेरी आंख में बसा `टिकुली’ जैसा चांद?
वो न वसंत-नयन की चमक है प्यारे…
कभी मद्धम नहीं होती /
मेरी ज़िंदगी की रोशनी!
तुम्हारी तो राह घेरता राहु
डराता है सूरज।
वसंतलता सम्मुख नत सब मौसम…
बनना हो तो चांद बनो उसकी तरह…
भरी दोपहर में है वो शीतल
और ममता की उष्णता से लबालब हर समय…
बोलो…तुम हो पाओगे ऐसे?
नहीं, तो जाओ चांद…
छुप जाओ…! 


चण्डीदत्त शुक्ल। पेशे से पत्रकार। अमर उजाला, दैनिक जागरण, फोकस टीवी, स्वाभिमान टाइम्स में विभिन्न छोटे-बड़े पदों पर नौकरी के बाद अब दैनिक भास्कर की मैगज़ीन डिवीज़न में फीचर संपादक। चौराहा के मॉडरेटर।

Tuesday, October 4, 2011

चण्डीदत्त शुक्ल की तीन कविताएँ

 

अलसाई तुम्हारी पलकों के ठीक बीच में बड़ी-सी, इला अरुणा मानिंद बिंदी

उम्मीदों से लबालब भरी इस सुबह के वक्त
ऐन ललमुंहे सूरज के चेहरे से भरकर एक चुटकी अबीर
लगा रहा हूं ख्वाब देखती, अलसाई तुम्हारी पलकों के ठीक बीच में
बड़ी-सी, इला अरुण मानिंद बिंदी।
बहुत सुलग रहा है आज का दिन
तापमान फिर उछाल मार रहा है…
उंह! कहकर, चिंहुकती हुई तुम खोल दो रतनार आंखें
बड़ी-बड़ी, सफेद पुतलियों से होती हुई बर्फीली चमक
ठंडे कर दे सूर्य के कपोल
और तुम्हारी सांसों की खुशबू से महक उठे हवा भरपूर।
वसंतलता…
तुम्हारे देखने भर से, जब संवर जाता हूं पूरा का पूरा मैं
तो…
क्यों भरपूर नींद के मोह में तुम मूंदे रखती हो नयन?
टिकटिकी भर निहारा करो न…

जीभ पर आकर झट-से घुली कुल्फी सा तुम्हारा ढुलक जाना मुझ पर

कुल्फी,
मिट्टी के बर्तन में धरी,
सिमटी, सकुचाती
खुलने और परोसे जाने के इंतज़ार में
नमक के आलिंगन में शरमाती हुई
जीभ पर आकर घुल जाती है, झट-से
जैसे,
तुम विरह के बाद ढुलक गईं हर बार
मेरे हृदय के सारे पैरहन खोलकर
और अंग-अंग में
व्याप्त कर गईं ठिठुरन
जलन भरी, दहकाती शीत बनकर…

महज तुम्हारी अनुपस्थिति से

तुम्हें भूलना
अगर होता महज खुद को नियति के हवाले छोड़ देना
यकीन मानो
कब का बिसरा चुका होता अपना प्रेम
पर
जब-जब चाहा मान लेना नियति का सत्य
तुम्हारे न होने ने मुझे यूं कुरेदा
ज्यूं,
दुनिया से गायब हो गया हो पूरा का पूरा जीवन
नदियों से कलकल
मौसमों से उल्लास
फूलों की महक
चिड़ियों का कलरव
बच्चों की खिलखिल और हिक्क करके मुंह चिढ़ाना
शहर से दूर /
गांव में / मनीऑर्डर का इंतज़ार करते / बूढ़े पिता की निगाह के सामने /
ढह जाना नदी पर बना जर्जर पुल…
तेरह साल के किशोर की हांक न सुनकर भैंसों का खेत में उमड़कर घुस जाना
और फिर भ्रष्ट होना किसी आदर्श का
नष्ट हो रहा हो जैसे कोई और रिश्ता.
महज तुम्हारी अनुपस्थिति से गड़बड़ा जाएं सारे अकादमिक सत्र जैसे
व्याकरण अपने अनुशासन भूल जाएं
और मन बेताल हो, नाचने की जगह दौड़ने को उद्यत हो
एक तुम्हारी गुमशुदगी कैसे गैरहाज़िर कर देती है
मुझसे मेरा ही जीवन…
तुम्हें भूलना,
भूल जाना है सारी दुनिया को
दुनिया में रहते हुए,
इंसानों के साथ
इंसानियत के बगैर

chandidutt shukla
(चंडीदत्त शुक्‍ल। यूपी के गोंडा ज़िले में जन्म। दिल्ली में निवास। लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने, दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे। अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद आजकल अहा ज़िन्दगी/ भास्कर लक्ष्य में फीचर संपादक हैं । ब्लॉग … chauraha)
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Wednesday, August 10, 2011

चंडीदत्त शुक्ल की कविताएँ

काश…हम होते…उंगलियां एक हाथ की!

काश! तुम होते
गर्म चाय से लबालब कप
हर लम्हा निकलती तुम्हारे अरमानों की भाप…
दिल होता मिठास से भरा
काश!
मैं होती
तुम्हारी आंख पर चढ़ा चश्मा..
सोचो, वो भाप बार-बार धुंधला देती तुम्हारी नज़र
काश! मैं होती रुमाल…
और तुम पोंछते उससे आंख…
हौले-से ठहर जाती पलक के पास कहीं
झुंझलाते तुम…
काश, होती जीभ मैं तुम्हारी
गोल होकर फूंक देती…आंख में…।
काश,
हम दोनों होते एक ही हाथ में
उंगलियां बनकर साथ-साथ
रहते हरदम संग,
वही
गर्म चाय से लबालब कप पकड़ते हुए
छू लेते एक-दूसरे को, सहला लेते…
काश, मैं होती तेज़ हवा,
उड़ाती अपने संग धूल
बंद हो जाती सबकी नज़र, पल भर को ही सही
जब तुम छूते मुझे
कोई देख भी ना पाता..

प्यार का प्रूफ पढ़ते हुए…

अक्सर,
प्रूफ पढ़ने वालों की
आंखों में होता है
धुंध का बसेरा
एक अक्षर से दूसरे अक्षर की ओर बढ़ते हुए
वर्तनी की गलतियों को टांकते
अर्धविराम और पूर्णविराम को आंकते
वे झुंझलाते नहीं
मूल से नया पाठ मिलाते हुए
प्रूफ पढ़ने वाले
रेखांकित करते हैं त्रुटियां
और भर लेते हैं
अपने चेहरे की झुर्रियों में
कितने ही थके, छूटे शब्द
यूं ही मैं
तु्म्हारी यादों के निशान टटोलता हूं
पढ़ने की कोशिश करता हूं
कि मूल में क्या होगा
और नए पाठ से उसका ताल्लुक कैसे बिठाऊं
सहज नहीं होता हर बार
सही-सही थाम पाना गलत और सही शब्द का छोर
तभी तो
तुम्हारी मुस्कान में प्रेम के चिह्न ढूंढता हूं
और बाद में पता चलता है
यहां वितृष्णा और व्यंग्य की हंसी थी
अब, जब तुम भी नहीं साथ हो
गुज़रे वक्त और आज के दिन में
कुछ वीक सिग्नल्स की तरह
गुजरे प्रेम के बिंदु जोड़ पाना
नहीं रह गया है आसान
माफ़ करना, मैं ठीक नहीं हूं
प्रेम की प्रूफ रीडिंग के मामले में

प्रेम के रफू–बीच

उंगलियों के पोरों बीच
एक पतली सुई की पूंछ थामे
चुभन को नसों में बहते देखकर भी
एक बार को सी नहीं करता रफूगर
धागा-दर-धागा
फटी-ख़राब-वीभत्स आकृतियों को
एकरंग करता जाता है
उस की तर्ज पर जब-जब मैंने सोचा
उधड़े हुए प्रेम को भी सिल लूंगा
सुई यकायक चुभ गई
और छलछला उठा पोरों में खून
रंग लाल ही था इस खून का
तुम्हारे प्रेम की तरह
पर कहां वह उन्माद
वैसा लगाव
वहां के घाव मरहम की मानिंद थे
और अब ये जख्म
चुभता है
तुम, घायल उंगलियों को जीभ से गर्म तो करोगी नहीं?
मैं जानता हूं
जीवन भर रहूंगा प्रेम के रफूकार की प्रतीक्षा में
और वो कभी नहीं आएगा
मेरे जख्म सिलने के लिए

सब हो गए बेवफ़ा

आज गायब है गंध
किवाम से
modern_art_gallery_-contemporary_galleries_of_modern_art_paintings_merello__mujer_caobaज़र्द है ज़र्दा
चूना भी नहीं काटता जीभ
देखो… सब हो गए बेवफा- बेअसर
तुम भी तो सी-सी करती
नहीं काटती अपने ही दांतों से अपनी जीभ
ना ही पोंछ देती हो
कथियाई उँगलियों को रुमाल समझकर
मेरी शर्ट की बांह से
उफनाता नहीं है कल्पना में कोई झरना
सूखते सब स्रोत
तुमने भी तो छोड़ दिया रियाज़ करने से पहले
गला तर करके कुल्ली करना
और कहीं, रुक गयी है बयार
अब तुम ही कहाँ भरती हो
संसार की दशा पर `उफ़’ कहती हुई निश्वास
नहीं हो तुम
तो रुकी है
पूरी पृथ्वी
तुम हंस दो अब खिलखिलाकर
ताकि खिल जाएँ सब फूल
और लौट आये जीवन भरपूर-भरापूरा

- साभार, परिकल्पना...

Monday, July 4, 2011

वो तेरे प्यार का गम...

चर्चित संगीतकार दान सिंह को श्रद्धा-सुमन


- चण्डीदत्त शुक्ल
chandiduttshukla@gmail.com

बेदम, निचुड़ी-सूखी धरती ने इधर-उधर छिटके पानी से अपने पपड़ाए होंठ गीले करने की नाकाम कोशिश के बाद हाथ जोड़कर सूरज से कहा--क़हर बरपाना छोड़ो, फिर बादलों से गुहार की--निष्ठुर, कितना इंतज़ार करूं! उलाहना जैसे दिल में तीर की तरह लगा और सब के सब काले बादल जल बन धरती की ओर भाग निकले। देखते ही देखते जलधारा ने धरती का आलिंगन कर लिया। दोनों की प्यास बुझ चुकी थी। इन दिनों जयपुर का हाल ऐसा ही है। सरेशाम बारिश शुरू हो जाती है। बिल्डिंगों, टावर्स, परछत्तियों और बस स्टैंड्स के अंदर या फिर नीचे सिमटते हुए, बूंदों की फुहार चेहरे से होती दिल तक पहुंच जाती है...पर कोई भी मौसम क्या करे, जो मन कतरा-कतरा भरा हुआ हो। दिल भारी है और नसों में विदा का मद्धम शोकगीत बजता ही जा रहा है--वो तेरे प्यार का ग़म…!

दिल्ली की भीड़ से दूर, गुलाबी शहर में आना हरदम खुशी से भरपूर करता है। इस बार तो खैर, और, और ज्यादा खुशी थी। पहली वज़ह तो ज़रा पर्सनल-सी है पर दूसरा कारण था--उस शख्स से मिलने की आरज़ू, जो ज़िंदगी में बड़ी अहमियत रखता है। दान सिंह, खुद्दार और मनमौजी संगीतकार। महज इसलिए मुंबई छोड़ दी, क्योंकि समझौता करना शान के ख़िलाफ़ था। उनकी कितनी ही कृतियां चोरी हो गईं। मायानगरी में ठगे गए दान सिंह संकोची भी थे, लेकिन सिर झुका दें, ऐसी विनम्रता उन्होंने कभी नहीं ओढ़ी।

जि़क्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है, तू जो चाहे तो दिन निकलता है, तू जो चाहे तो रात होती है'...और वो तेरे प्यार का गम, इक बहाना था सनम, अपनी तो किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया...ये नग्मे बचपन से जवानी तक हर अहसास के वक्त साथ रहे हैं, उनको रेशा-रेशा अहसास में लपेटकर वज़ूद में लाने वाले दान सिंह से मिलने की खुशी चेहरे से टपक रही थी। कवि मित्र दुष्यंत ने भरोसा दिलाया था कि वो मुझे उस शख्स से मिला देंगे, जिसे बिना देखे ही प्यार कर बैठा था। ठीक वैसे ही तो, जैसे ता-ज़िंदगी कुछ लोगों के साथ रहते हुए भी हम उनके मन का क़तरा भी नहीं छू पाते हैं। पर हम कहां मिल पाए। जयपुर आने के चंद रोज बाद ही पता चला कि वो बहुत बीमार हैं और फिर एक दिन वो चल दिए, ऐसे सफ़र पर, जहां से कोई लौटकर नहीं आता।

ऐसे मौकों पर शोक की महज रस्म-अदायगी नहीं होती। होश में रहा नहीं जाता। हज़म नहीं होती ये बात-हाय, वो चला गया, जो दिल के इतने क़रीब था...यूं, अब भी एक अजीम फ़नकार से ना मिल पाने का ग़म तारी है। ऐसे ही मौकों पर याद आते हैं तीन और चेहरे। ज्यूं, दान सिंह के गानों का ज़िक्र ना हो, तो शायद आम लोग उन्हें पहचान भी ना पाएं, ऐसे ही तो थे वे तीनों भी। महेश सिद्धार्थ, कॉमरेड फागूराम और बिरजू चाचा। नहीं, ये सब के सब ऐसे लोग नहीं, जिन्हें दुनिया-जहान जानता था पर थे सब क़माल के। महेश सिद्धार्थ अपने ज़माने का ऐसा खिलाड़ी, जिस पर लड़कियां जान देतीं। बाद में थिएटर में पूरी ज़िंदगी लगा दी। कॉमरेड फागूराम सिद्धांतों में ऐसे रमे कि सर्वहारा समाजवादी क्रांति की फ़िक्र में कभी दो वक्त की पुरसुकून रोटी की परवाह नहीं की और बिरजू चाचा, यूं तो बुक स्टॉल चलाते थे, लेकिन पढ़ने-लिखने के संस्कार उन्होंने शहर के सैकड़ों लड़कों को ज़बरन ही दिए। बिना पैसे लिए। ये सब भी बीते बरसों में नहीं रहे और अब दान सिंह भी नहीं!

आप सोच सकते हैं कि एक अजीम संगीतकार का ज़िक्र करते हुए तीन तकरीबन अनजाने लोगों की बात क्यों? सो इसका क्या जवाब दें। बस यूं ही समझ लीजिए, हर ज़ुदाई कुछ और खाली कर देती है। इन चारों में एक समानता भी तो थी, ये सब के सब इंसानियत और इंसान को भरपूर बनाने की ख्वाहिश से भरपूर थे। एक के पास बदलाव के लिए संगीत का सपना था, तो बाकियों के लिए क्रांति, रंगमंच और किताबों के हथियार और औजार थे। ये सब अब नहीं हैं, लेकिन उनकी आंखों में देखे सपने तो हम अपनी पुतलियों में सजा सकते हैं। शोक में डूबे रहकर मैं इस बारिश को दरकिनार करता रहा...पर अब उन सबके जाने की उदासियों पर परदा डालने के लिए निकलता हूं। कल ही गांव से ख़बर मिली है, पड़ोस में गाय ने बछिया दी है और चचेरे भाई के घर बेटा जन्मा है। सच, जीवन कभी नहीं थमता। दान सिंह ने भी तो सत्तर की उम्र में गजेंद्र श्रोत्रिय की फ़िल्म भोभर के गीत को संगीत से संवारा। उन्हें सही श्रद्धांजलि तो यही होगी कि हम जमकर भीगें और कोशिश करें...बुन सकें दान सिंह जैसा एक नग्मा, महेश की तरह का कोई नाटक, फागूराम जैसा एक क्रांति गीत गुनगुनाएं और बिरजू चाचा के यहां से उठाकर पढ़ लें एक अच्छी-सी क़िताब। ये सब अकेले नहीं होगा बिरादर। आप साथ आएंगे ना? 

संप्रति : फीचर संपादक, दैनिक भास्कर मैगज़ीन डिवीज़न, जयपुर

Thursday, April 14, 2011

दूसरों की बात छोड़िए, अपनी आत्मा से तो न्याय कीजिए

विचार : समाचार4मीडिया से साभार

- चण्डीदत्त शुक्ल
जिस दौर में पत्रकारिता की मूर्छावस्था और मृत्यु की समीपता तक की बातें कही जा रही हैं, उस समय में नैतिकता के सवाल मायने ही नहीं रखते। सच तो यह है कि ये विधा, जो कभी मिशन थी, फिर प्रोफेशन बनी, अब विश्वसनीयता और जिजीविषा के संकट से घिरी है। हालांकि भयानक नैराश्य के माहौल में भी, इस तथ्य और सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि टीआरपी के विष-बाण से ग्रस्त टेलीविजन पत्रकारिता और पेड न्यूज़ के संक्रमण से ग्रस्त हुई प्रिंट जर्नलिज्म के कर्मचारी लगातार अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे हैं। यही नहीं, अपनी सीमित कोशिशों में वे पत्रकारिता और खुद को बचाने की जद्दोज़हद कर रहे हैं।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि संपादकों के मैनेजर बनते चले जाने की स्थितियां किस हद तक पत्रकारिता को सजीव और सजग बनाए रख सकेंगी। बहुत कम ही हैं, जिनकी भाषा प्रखर हो, इरादा स्पष्ट और जो सचमुच पत्रकार बनने के लिए इस फील्ड में आ रहे हों। वैसे, इस सबको `फ्रस्ट्रेशन’ मानकर आप खारिज़ भी कर सकते हैं, लेकिन फ़िल्म स्टार, आईएएस, नेता या फिर क्लर्क भी ना बन पाने की स्थिति में, चलो पत्रकार ही बन लिया जाए…या कुछ एंकर्स और प्रभावशाली टीवी पत्रकारों की तर्ज पर चुंधियाकर इस फील्ड में आ जाना भी पत्रकारिता को संकट में डाल रहा है।
ठीक इसी तर्ज पर ऐसा करने वाले भी आजीवन अस्तित्व की जद्दोज़हद और इरादा-लक्ष्य ना स्पष्ट होने के भ्रम से जूझते रहते हैं। यूं, आपको यह विषयांतर लगेगा, लेकिन इस पूरी बात के पीछे कारण है। वज़ह यह कि पत्रकारिता के पीछे अगर मन में स्पष्ट तौर पर मिशन जैसी कोई भावना है, तो वह निर्लज्ज और क्रूर समय में संभव नहीं है, वैसे ही पत्रकारिता की आदर्श परिभाषा के मुताबिक, इसे शुद्ध तौर पर प्रोफेशन नहीं बनाया जा सकता। कारण यह भी है कि यदि आप इस पेशे में बिना किसी पूर्व लक्ष्य के आ गए हैं, तो बाकी धंधों की तरह यहां भी कमाई और नाम की दौड़ में लग जाने का ख़तरा भरपूर है।
मुझे लगता है, भले ही पत्रकारिता के आदर्श अब कायम ना रह गए हों और इसे प्रोफेशन की तरह लेते हुए कमाने-खाने की पद्धतियां शुरू हो गई हों, लेकिन यहीं पर स्व-चेतना और यथास्थिति के फ़र्क समझने और स्वयं पर नियंत्रण की ज़रूरत है। सुदामा पांडेय धूमिल की एक कविता को उद्धृत कर रहा हूं… ज़िंदा रहने के पीछे अगर सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेचकर या …दलाली करके रोजी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है। कविता से दो शब्द हटा दिए गए हैं, क्योंकि वह संसदीय भाषा का बहाना लेकर अश्लील बताए जा सकते हैं। ख़ैर, मुद्दा यही कि पत्रकारिता में अगर हम आए हैं, तो हमारे बहुतेरे उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ इस बात का इलहाम, चेतनता, स्पष्टता और इरादा यही होना चाहिए कि ख़बरची बनने के पीछे बिल्डिंग खड़ी करना हमारा काम नहीं है।
निश्चित तौर पर सारी दुनिया के सामने आदर्शों की दुहाई देने वाले पत्रकारों को अपनी संपत्ति का खुलासा करना चाहिए। वैसे भी, खबरगोई रियल एस्टेट, बेकरी और मैट्रिमोनियल साइट से अलग कुछ खास किस्म का काम तो है ही। इसकी इज्जत बचानी है, तो हमें भी ईमानदार होना होगा। महज आदर्श होने का अभिनय करते रहने और खुद में झूठ पालते हुए पत्रकार ना किसी का विश्वास अर्जित कर सकेंगे, ना ही अपनी आत्मा से न्याय कर पाएंगे।
(लेखक चौराहा.इन पोर्टल के संस्थापक संपादक और स्वाभिमान टाइम्स हिंदी दैनिक के वरिष्ठ समाचार संपादक हैं

Monday, April 11, 2011

फिर उगते सूरज को सलाम

# चण्डीदत्त शुक्ल
(लेखक चौराहा के केयर टेकर, यानी मॉडरेटर हैं। पेशा है पत्रकारिता। दिल्ली में डेरा-बसेरा।)
चीनी भाषा के जिम्पोज शब्द से मिला है जापान को अपना नाम, यानी “सूर्य का देश”। खुद को सूर्य की संतान कहने वाले जापानी सुबह की शुरूआत सूर्य दर्शन से करते हैं, लेकिन 11 मार्च को कुदरत उनसे नाराज थी, देश दहल उठा…पर उगते सूरज के देश में जीवन का सूरज फिर उगा, आइए हम हमेशा की तरह उगते सूरज को सलाम करें…

आंसू पोंछते, सिसकते हुए, बार-बार चीखने भी लगा जापान, लेकिन इस बार चीख दुख से ज्यादा जोश से भरी थी। मन में कसक तो बाकी है, टूटे हुए घरौंदों के बचे-खुचे निशान झोली में बांध रखे हैं, लेकिन पूरा जापान जुट गया है पुननिर्माण में। यही है उगते हुए सूरज वंशियों का साहस, जो अपनी जिद के बलबूते पर महाविनाश के बाद महज पंद्रह दिन में मुल्क को फिर संवार देने की जद्दोजहद शुरू कर चुके हैं। एक तरफ है सुनामी के प्रलय का आतंक, अपनों से बिछुड़ जाने की अंतहीन पीड़ा।
सामने है ऎसा रास्ता, जिस पर चलना तो दूर, पांव बढ़ाने की भी हिम्मत नहीं होती, वहीं दूसरी ओर लाखों लोग निकल पड़े हैं राष्ट्र को पुरानी सूरत देने। धन्य है जापान और वहां के लोगों की जद्दोजहद। सच है, जापान इकलौता ऎसा देश है, जहां हम बिना किसी धार्मिक भाव के राष्ट्र की विचारधारा ना सिर्फ समझते हैं, बल्कि कार्यान्वित होते हुए भी देखते हैं।
पिछले दिनों एक जापानी लड़की ने टि्वटर पर ट्वीट किया। लिखा–पापा परमाणु संयंत्र में गए हैं और मां इतना रो रही है, जितनी कभी नहीं रोई। लड़की चिंतित थी, गुहार लगा रही थी–पापा! लौट आओ…बस तुम आ जाओ और उसके पिता फुकुशिमा न्यूक्लियर पावर प्लांट में रेडिएशन कंट्रोल की मुहिम में लगे हुए थे।
पिता का दिल है, धड़कता होगा बच्ची के लिए…बीवी का प्यार उसे भी खींचता होगा…पर वो जुटा रहा, दिन-रात, क्योंकि उसके सामने अपनों के दर्द से कहीं बड़ा था देश का सम्मान और लोगों की जान बचाने का मिशन। “फुकुशिमा फिफ्टी”और “न्यूक्लियर निंजा” जैसे नामों से पुकारे गए ये शूरवीर खुद की जान जोखिम में डालते हुए रेडिएशन से युद्ध में जुटे रहे। 11 मार्च को सुनामी और भूकंप के बाद फुकुशिमा एटमी प्लांट में विस्फोट हुआ और रेडिएशन का खतरा बढ़ गया, लेकिन असली रणबांकुरे तो वही हैं, जो जान की परवाह किए बिना देश की रक्षा में तल्लीन रहे। जापान में बहादुरी के किस्से तमाम हैं। इनका कोई अंत नहीं। मृत्यु सामने थी।उसे स्वीकार कर जापानियों ने ठान लिया, जब तक जिएंगे, मृत्यु से जूझते हुए देश को नया जीवन दे देंगे।
ओशो ने कहा था–उन्होंने जापान के एक पर्वत शिखर पर पच्चीस हजार साल पुरानी डोबू मूर्तियों का समूह देखा था। ये मूर्तियां रहस्यमयी थीं, लेकिन जब अंतरिक्ष में यात्री गए, तब इनका रहस्य खुला। यात्रियों ने बताया, मूर्तियों ने वैसे ही वस्त्र पहने थे, जैसे एस्ट्रोनॉट पहनते हैं। यह मिथक कमोबेश पुष्पक विमान जैसा लगेगा, लेकिन एक बात तो मानने वाली है–जापानी दूर की सोचते हैं।
सामने खतरा सुनामी का था, दस्तक थी परमाणु विकिरण की, जो मुंह खोले निगलने को तैयार था और फिजा में हर तरफ थी हाड़ गला देने वाली ठंड। थरथराते जापानी एक तरफ कुदरत के हमले से जूझ रहे थे, दूसरी ओर ठंड से दो-दो हाथ करते हुए मैदान में थे। सड़कें बनाते हुए, घर खड़े करते हुए। पुल जोड़ते हुए और प्रकृति को शांत करने की तकनीक में दिमाग और दिल सब एकसाथ लगाते हुए। 235 अरब डॉलर का नुकसान हुआ था। पूरा विश्व जानता था यह बात कि जापान खतरे में है, इसलिए सबने मदद की।
भारत ने सबसे पहले कंबल भेजे, स्विटजरलैंड ने नौ खोजी कुत्तों और 25 राहतकर्मियों की एक टीम भेज दी, तो ब्रिटेन ने 63 राहतकर्मियों का एक दल रवाना किया। थाईलैंड, चीन, सिंगापुर…हर जगह से राहत के हाथ जापान की ओर बढ़े। धन्य है जापान…वहां के लोग सहायता और राहत की प्रतीक्षा में रूके नहीं। खुद को बचाते हुए, वो दूसरों को भी बचा रहे थे। सुरक्षित जगहों पर पहुंचा रहे थे।
यह महज जज्बा था, जिसने जापान को नया जीवन दिया। जिंदगी ने रफ्तार पकड़ने में वषोंü का समय नहीं लगाया। यहां हफ्ते भर में ही जीवन लौट आया। तीन सौ से ज्यादा झटकों के बाद भी सांसों की गर्माहट बाकी थी। शुरूआती दौर में ही 9,452 लोगों के मरने की की पुष्टि हो गई थी, जबकि 14,715 लोग लापता थे। अकेले मियागी में दस हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे पर बचे-खुचे लोग शहर को पुरानी शक्ल देने में जुट गए थे। हर बार मृत्यु से जूझकर जापान ने जीवन की नई परिभाषा लिखी है, वही इस बार भी हुआ…यह बात प्रशंसा से मुग्ध होकर नहीं कही जा रही।
जापानियों ने इसे साबित कर दिखाया है। जापान में जिंदगी गुजर कर रहे बहुतेरे भारतीयों ने भी अपने दोस्तों की मदद करने के लिए स्वदेश वापसी से इनकार कर जुनून और सहधर्मिता साबित की। आप भूले नहीं होंगे, जापान में मौजूद भारतीय दूत आलोक प्रसाद ने बताया था कि जापान में रह रहे बहुत से भारतीयों ने राष्ट्र छोड़ने से इनकार कर दिया था। समुद्री तूफान में दम नहीं कि जापान को खाक कर दे, क्योंकि वहां के लोग जानते हैं कि किस तरह बरबादी के बाद गुलशन रचा जा सकता है।
ऎसी ही एक सोच जापानी कथाकार साक्यो कोमात्सु के उपन्यास “निप्पॉन चिम्बोत्सु” में नजर आती है, जिसमें उन्होंने धरती की विशाल प्लेटें खिसकने से आए भूकंप के बाद भीषण जल प्रलय का ब्यौरा पेश किया था। साफ तौर पर जापानियों के लिए भूकंप नया नहीं है। वो हरदम इससे जूझते हैं और नई लड़ाई के लिए खड़े हो जाते हैं। वहां आपाधापी नहीं है, आपदा से लड़ने का अभ्यास है, यही वजह है कि सुनामी के बाद जापान के लोग जितने बदहवास थे, उतने ही संयत भी।
त्रासदी गुजर गई, उसके निशान बाकी हैं। तबाह हुए बहुत-से कस्बे और शहर वैसे तो शायद पांच-सात साल में हो पाएं, लेकिन जिंदगी लौट आई है और इसका सारा श्रेय जापानियों की हिम्मत को जाता है। वो जानते हैं-जीवन क्या है और कैसे जिया जाता है। जापानी मृत्यु से लड़ना जानते हैं, वो समूह की शक्ति पहचानते हैं, हरदम कहते हैं-”मदादायो”, यानी अभी नहीं।
जापानी सिनेमा के महान हस्ताक्षर अकीरा कुरासोवा की फिल्म “मदादायो” में इस दृढ़ता की साफ झलक दिखती है, वो मौत के सामने खड़े होकर, दुख भुलाकर अट्टहास करने का साहस रखते हैं। एक वजह तो सदैव संकट से लड़ने का जज्बा है ही, साथ ही है समूह का विश्वास। जापान की संस्कृति में सामूहिकता की भावना अद्भुत ढंग से भरी हुई है।
विडंबनापूर्ण सत्य है कि जापान को वही स्वरूप हासिल करने में तकरीबन 309 अरब डॉलर खर्च करने होंगे। अर्थशास्त्र चौपट हो चुका है, रिश्ते-नातेदार-घर-कारोबार-परिवार। सबका अभाव ज्यादातर लोगों के सामने है, विश्व बैंक के विशेषज्ञ बताते हैं कि बुनियादी ढांचा चरमरा गया है, उसे सही करने में कम से कम पांच साल लगेंगे पर जापानी ना थके हैं, ना पलायन करने को तैयार हैं। वो पूरी दुनिया को बता रहे हैं- हम लड़ेंगे साथी।
(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के रविवारीय सप्लिमेंट हमलोग में प्रकाशित)

Sunday, March 13, 2011

मौत की गुज़ारिश!


सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक तौर पर इच्छामृत्यु का कानूनी अधिकार दे दिया है...फिर भी, नैतिकतावादियों का मानना है कि जीवन जैसा भी हो, जिस भी परिस्थिति में हो, उसका अंत नहीं होना चाहिए। पाप-पुण्य और जंग-ए-ज़िंदगी की जद्दोज़हद के सवालों से जूझती हुई ये स्टोरी आपके फ़ैसले के लिए पेश है... 


- चण्डीदत्त शुक्ल

हर तरफ अंधेरा है...उसकी आंखों से रोशनी गैरहाज़िर है, इसलिए काले रंग से उसे कोई शिकायत नहीं। दिल धड़कता है, सांसें चलती हैं, जान बाकी है, वो औरत है और आप कह सकते हैं—है तो ज़िंदगी, क्योंकर हो शिकवा...। फिर भी, उसकी सहेली पिंकी वीरानी चाहती थी कि उसे मौत नसीब हो...जल्द से जल्द मिले मर जाने की दुआ। मौत, यहां सज़ा नहीं थी, दवा थी। अरुणा शानबाग के लिए सबसे बड़ी दवा।
1973 की बात है। कोई सैंतीस साल पहले का वाकया, जिसके बाद अरुणा पत्थर बन गई। वो मुंबई के अस्पताल में नर्स थी, दुखियारों के घावों पर मरहम लगाती थी, अब बिस्तर पर पड़ी है। हिल नहीं सकती, सोच नहीं सकती, बोल नहीं पाती। अरुणा मर चुकी है, महज दिमाग ज़िंदा है। तीन दशक से अरुणा कोमा में है। उसके साथ अस्पताल के ही एक वार्ड ब्वाय ने कुकर्म किया और इस कोशिश में अरुणा के गले में जंजीर डालकर उसे बिस्तर से बांध दिया। आरोपी फरार है और अरुणा कैद रह गई है। इस हादसे में होशोहवाश जाते रहे और वो हमेशा के लिए ज़िंदा लाश में तब्दील हो गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने ताज़ा फैसले में कहा है—अरुणा के साथ नाइंसाफ़ी हुई, पर उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त नहीं दी जा सकती। कारण महज इतना कि अरुणा के लिए ऐसे निर्देश देने की याचिका मित्र पिंकी वीरानी ने दायर की थी। ख़ैर, बात अरुणा की नहीं, इस मुद्दे की है। इस सवाल की है कि इच्छामृत्यु का हक़ मिलना चाहिए या नहीं। या फिर ऐसी इच्छा पलायन है, ज़िंदगी से भागने की कोशिश है, कमज़ोरी की निशानी है।
जवाब में भी एक सवाल ही पैदा होता है—क्या जीवन का नाम महज सांस है...धड़कनें हैं...लाश जैसा ही सही, रक्तसंचार से गर्माया हुआ शरीर भर है।
सवाल यह भी है कि जीवन के लिए ज़रूरी चेतना, खुशी, सुख, उपलब्धियां और माहौल नहीं है, तो ऐसी ज़िंदगी के क्या मायने हैं? माना, अरुणा के अस्पताल की नर्सें उसे जी-जान से प्यार करती हैं, इतनी सेवा करती हैं कि उसके बदन पर कभी घाव तक नहीं होने दिए, लेकिन इन सबका क्या फायदा? अरुणा तो हमेशा के लिए बेहोश हो चुकी है। कभी होश में आएगी भी, तो उसके हाथ वेदना से भरा खाली जीवन ही होगा। ना परिवार, ना खुशी का एक भी क़तरा।
बहुतेरे लोग इस बात से इत्तिफाक़ नहीं रखते। वो कहते हैं—जीवन ईश्वर की देन है। जीवहत्या पाप है। हमें भी इत्तिफाक़ है उनकी बात से...लेकिन अरुणा के जीवन में जीवन जैसा कुछ भी था ही कहां? 
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद इच्छामृत्यु को लेकर बहस फिर गरमा गई है। कुछ अरसा पहले रिलीज़ फ़िल्म गुज़ारिश को लेकर भी विवाद हुआ था। जैसे, अरुणा प्यार भरी छुअन से तन-मन की हर तकलीफ़ दूर कर देती थी, ठीक वैसे ही तो गुज़ारिश का जादूगर अपने करतबों से सबके चेहरे पर मुस्कान खिला देता था। जैसे सबकी ज़िंदगी खुशियों के फूल से हरदम नहीं महकती, उसी तरह हर फ़िल्म सुखांत नहीं होती...सो गुज़ारिश का जादूगर भी लकवे का शिकार हो जाता है। चल नहीं पाता...महज बैठे-सोते-सिसकते हुए घिसटती ज़िंदगी की गाड़ी को रेंगते हुए देखता है। तभी तो कहता है--मुझे मृत्यु चाहिए।
... तब भी नैतिकता-मानवतावादियों ने खूब शोर मचाया था, कहा गया था—गुज़ारिश अनैतिक पाठ पढ़ाती है...लेकिन क्या हमें उस जादूगर के दर्द की परवाह नहीं होनी चाहिए थी? अरुणा भी तो ऐसे ही दर्द से भरपूर है। वो चीख सके, इतनी समझ भी नहीं है उसके पास...क्या मौत के बाद उसका जीवन खत्म हो जाएगा...? पुनर्जन्म जैसी आध्यात्मिक सोच को स्वीकार करें, तब तो कह सकते हैं--एक नया जीवन ही उसे मिलेगा।
  अरुणा पहली इंसान नहीं, जिसके लिए इच्छामृत्यु की गुहार लगाई गई। अपनी मर्जी से दुनिया को अलविदा कह देने की आरज़ू बहुतों की रही है। दो-तीन साल पहले ही उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति ने दस से सोलह साल की उम्र के अपने बच्चों के लिए इच्छामृत्यु मांगी थी। ये बच्चे पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे। 2008 में हिमाचल प्रदेश की एक इंजीनियर सीमा ने भी इसकी इजाज़त चाही थी। वो आर्थराइटिस से परेशान थी और तेरह साल से एक कमरे के अंधेरे में क़ैद रही। शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश ने जीवन रक्षक व्यवस्था के तहत ज़िंदगी बिताने की बहुत जद्दोज़हद की। जब डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, तो उसकी मां ने गुहार लगाई—अब मेरे बेटे को मौत ही मिल जाए।
उत्तर प्रदेश के बांदा के बबेरू कस्बे में हृदय रोग से पीड़ित एक दलित छात्रा ने इच्छामृत्यु की इजाज़त ना मिलने के बाद आमरण अनशन शुरू कर दिया, तो झारखंड का दिलीप मचुआ इच्छामृत्यु की मांग करते-करते मर ही गया। बैतूल में सेवा से बेदखल एक कर्मचारी ने बीवी और पांच बेटियों के साथ इच्छामृत्यु की अनुमति मांगी, वहीं इलाहाबाद में 14 वर्षो से ज्यादा समय से जेल में बंद उम्रकैद की सजा पाए 97 कैदियों की गुहार भी यही थी। एचआईवी ग्रस्त लोगों, भुखमरी के शिकार किसानों, अत्याचार से पीड़ित लड़कियों ने भी इच्छामृत्यु की आरज़ू बार-बार दोहराई है। पटना के तारकेश्वर सिन्हा की याचिका चर्चा में रही है, जिसमें उन्होंने पांच साल से बेहोश पत्नी कंचनदेवी को इस पीड़ा से मुक्त कराने की गुज़ारिश की थी।
इन याचनाओं और याचिकाओं के हवाले से बात साफ़ है कि फ़िल्म `मदर इंडिया’ में भले ही नायिका गुनगुनाती रहे—जीवन है अगर ज़हर, तो जीना ही पड़ेगा, लेकिन हर इंसान विष पीने वाला शिव नहीं बन पाता। यह बात एकदम सही है कि कंटकों से जूझकर गुलाब तक पहुंचने वाला ही असली योद्धा होता है, लेकिन इसे भी कैसे गलत कहें कि जब सांस-सांस में शीशा घुल जाए, आंख-आंख में यह बात झलकने लगे कि दुनिया अपने काम की नहीं रही, तो कोई कैसे ज़िंदा रहने की ठान पाए।
   मुद्दा मौजूं है...सोचने को मज़बूर करता है। इसे महज भावुक होकर, धार्मिकता के हवाले से हवा में उड़ाया नहीं जा सकता। बहुतेरे डॉक्टर मानते हैं कि वो अपने प्रोफेशन में ऐसे कदम उठा चुके हैं, जब उन्होंने मरीज की तकलीफ़ की इंतिहां देखकर उसके इलाज में ढील बरती और उसे चैन की आखिरी सांस लेकर दुनिया छोड़ने का मौका दे दिया। रायपुर के मेडिकल कॉलेज में इस बारे में ज़बर्दस्त बहस भी हो चुकी है। 2010 में भावी डॉक्टरों ने तर्क दिया था कि देश के अस्पतालों में कुछ निश्चित बेड उपलब्ध हैं। डॉक्टरों की बेहद कमी है। ऐसे में कोई व्यक्ति जीवन की इच्छा और संभावना, दोनों खो चुका है, तो उसे मरने देना चाहिए।
  मुद्दा यह नहीं कि अरुणा या उसके जैसे अनेकों लोगों को इच्छामृत्यु की इजाज़त मिले या नहीं...या फिर इच्छामृत्यु आत्महत्या की ही एक किस्म है और इससे बाज आना चाहिए। चिंतन के बिंदु और हैं, जो खास हैं। अहम बात ये है कि कष्ट, संत्रास और खोखलेपन के अहसास के बीच यदि कोई जीवन की लड़ाई से चले ही जाना चाहे, तो उसे क्यों मज़बूर किया जाए—नहीं जियो, तुम्हें जीना ही होगा। कहा जा रहा है कि इच्छामृत्यु को अनुमति मिल गई, तो लोग अपने छुटकारे के लिए इसका गलत फायदा उठाएंगे, लेकिन इसका भी हल है। सरकार, समाज और परिवार की सतर्क निगाह से ऐसे किसी भी दुरुपयोग पर रोक लगाई जा सकती है।
यूं भी, देश की संस्कृति में इच्छामृत्यु का इतिहास रचा-बसा है। भीष्म पितामह ने तीरों की शैया पर लेटकर मृत्यु की प्रतीक्षा की। राम-लखन ने जलसमाधि ली। बहुत से साधु-संतों, खासकर जैन धर्मावलंबियों ने जीवन को निस्सार मानकर स्वतः प्राण त्यागे। ध्यान देने की बात ये कि इनमें से किसी ने आत्महत्या नहीं की, विधिवत मृत्यु को ग्रहण किया। उन्हें कष्ट नहीं था, लेकिन वह जान चुके थे कि जीवन संपूर्ण हो चुका है और अब महज निस्सारता शेष है।
इस सबके बावज़ूद यह सवाल अब भी जवाब के इंतज़ार में है—जीवन से तंग आकर इच्छामृत्यु चुनने का अधिकार मिले या फिर ज़िंदगी से जंग जारी रखी जाए...। इसका उत्तर तलाशते हुए मुझे 
`सॉरो ऑफ बेल्जियम’ के रचनाकार ह्यूगो क्लॉस की एक बात याद आती है। उन्होंने कहा था—`मैं एक ऐसा आदमी हूं, जो जैसा चल रहा है, उससे नाखुश है। दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में हम स्वीकार नहीं कर सकते। जिस तरह से अन्याय हो रहे हैं, उसे देखते हुए हमें हर सुबह एक नाराज़ इंसान के तौर पर आंखें खोलनी चाहिए।‘ ह्यूगो की नाराज़गी जब हद से गुज़र गई, तो उन्होंने 78 साल की उम्र में एल्जाइमर्स से मिली तकलीफ़ ना झेलने की ठानी और इच्छामृत्यु चुन ली। वहां निराशा नहीं थी, पलायन नहीं था। वो जान चुके थे—ऐसी ज़िंदगी के कोई मायने नहीं।
  कमोबेश, मैं भी यही सोचता हूं। ज़िंदगी अगर सचमुच ज़िंदा है...जीवन की शर्तों को पूरी करती है, आनंद-उपलब्धि और संतोष के साथ, तब ही उसका मतलब है। हो सकता है, आपको यह बात पलायन से भरी लगे। खिन्नता और कुंठा से सनी हुई नज़र आए, लेकिन ऐसी सोच ना बने, इसकी ज़िम्मेदारी भी तो हमें ही उठानी होगी। क्यों ना हम, फिर किसी अरुणा को बलत्कृत ना होने दें। कोई किसान भूखा ना मरे, इसके लिए रोटी, अनाज और बीज का इंतज़ाम करें। अगर हम ऐसा कर पाए, तो फिर इच्छामृत्यु की ज़रूरत ही ना होगी। दुनिया खूबसूरत बनेगी और उसमें हमारा योगदान भी होगा। ऐसा होगा ना?



Friday, March 11, 2011

अहा! प्रेम...

प्रेम में बिताए गए समय और उस याद से रची-बसी कविताओं को भास्कर समूह की उल्लेखनीय पत्रिका अहा ज़िंदगी में सेंटर स्प्रेड में, दो पन्नों का विस्तार मिला है...मार्च अंक में सचित्र परिचय और कविताएं छपना अच्छा लगा। पन्नों की ये झलक ज़रा पुरानी है, यानी छपे हुए से काफी अलग है...

ये सब कविताएं चौराहे पर पहले से उपलब्ध हैं। लिंक रहे यहां...

Sunday, February 27, 2011

ट्विंकल है उदास...चले गए अंकल पै

स्मृति-शेष


किस्से-कहानियां सुनाने वाली दादी अब साथ नहीं रहती...घर छोटे हैं...बिल्डिंगें बड़ी हैं...दादी का जी शहर में नहीं लगता...वैसे भी, कार्टून और एनिमेशन का ज़माना है, वो भी डिज़्नी वाले कार्टून्स का। पिछले दिनों `माई फ्रेंड गणेशा’ और `हनुमान’ जैसे कैरेक्टर ज़रूर देखे थे, लेकिन ऐसा कम ही होता है। बहुतायत में तो अब भी अंगरेज़ हावी हैं, पैंट के ऊपर चड्ढी पहनने वाले हीरो! 
यह कोई आज की बात नहीं है। साठ-सत्तर साल पहले से अब तक, कभी बैटमैन, तो कभी स्पाइडरमैन, तो कहीं-कहीं फैंटम जलवा बिखेरते रहे हैं। प्राण के चाचा चौधरी और अंकल पै की ट्विंकल ने ज़रूर धक्का मारकर इनको कई बार भगाया है। बात यह नहीं कि कॉमिक्स के कैरेक्टर स्वदेशी हों। यह राष्ट्रवाद का मामला तो है नहीं, लेकिन इससे भी कौन इनकार करेगा कि अपने बगीचे में फला-पका आम कुछ ज्यादा ही जायका देता है...नहीं क्या? ऐसे ही, रियल इंडियन हीरोज़ के क्रिएटर थे अंकल पै, यानी अनंत पै।
याद आए? हां, अब उनकी याद ही बाकी है। बीते गुरुवार को अनंत पै का निधन हो गया है। उनके परिवार में पत्नी ललिता हैं और हम सबके जेहन में अंकल की यादें...ट्विंकल की बातें और अमर चित्रकथा की तस्वीरें।
बहुत-से साल गुज़र गए, वैसे ही बचपन बीत गया, लेकिन तब मोहल्ले के परचूनिए से ऑरेंज वाली टॉफियां खरीदने के लिए घर से अठन्नी मिलती थी। कई बार मिलती, तो कई दफा हम किसी ना किसी तरीके से झटक लेते। बहुत दफा टॉफी ना आती, उसकी जगह हम कॉमिक्स ले आते। तीन-चार चवन्नियां मिलाकर, या फिर पैसे कम पड़ते तो किराए पर ही सही। सबसे ज्यादा डिमांड इंद्रजाल कॉमिक्स की होती। बाद में यही मांग ट्विंकल और अमर चित्रकथा की हो गई थी। कॉमिक्स इधर हाथ में आई नहीं कि धमाचौकड़ी शुरू...भाई फील्डिंग-वील्डिंग तो सब ठीक है, लेकिन बैटिंग पहले हम ही करेंगे...की तर्ज वाली होड़—कॉमिक्स तो हमें ही पढ़नी है सबसे आगे होकर। 
बहुत बार पैसे ना होते, तो बिरजू चाचा की दुकान पर जाते। कॉमिक्स देखने का बहाना करते और सर्राटे के साथ एक-एक तस्वीर और शब्द ऐसे पी लेते, जैसे—ताज़ा नींबू का शरबत पिया हो। बाद में बिरजू चाचा भी चालाकी समझ गए थे पर वो किस्सा फिर कभी सही। बात अंकल पै की हो रही थी, उनके जादू की, कारनामे की।

दो साल के थे अनंत, जब माता-पिता नहीं रहे। बारह साल के थे, तब मुंबई आ गए। अपना बचपन मां-बाप के बिना गुज़ारा, लेकिन यह ठान ली—दुनिया भर के बच्चों के चेहरे मुस्कान के खजाने से भर देंगे।
रसायन विज्ञान में पढ़ाई करने के साथ-साथ अनंत समझ चुके थे कि बच्चों का दिल लुभाने, यानी उनके दिमाग में केमिकल लोचा करने के लिए क्या-क्या करना होगा? 1967 में उन्होंने अमर चित्रकथा छापनी शुरू की। यह वह दौर था, जब कॉमिक्स ज्यादातर अंगरेज़ी में मिलती। वह भी ऐसी, जिसके हीरो-हीरोइन हमारे कल्चर से एकदम अलग, यानी तकरीबन डरावने होते। हालांकि बच्चों की ऐसी कोई डिमांड नहीं थी कि हीरो हिंदुस्तानी चाहिए, और फिर रामायण-महाभारत की कहानियां तो सबको मुंहज़बानी याद थीं, ऐसे में उनमें कोई खास इंट्रेस्ट नहीं था...लेकिन कमाल थे अंकल पै।
उन्होंने वही पुरानी कहानियां सुनाईं...बस उन्हें पेश करने का अंदाज़ ऐसा था कि वो आदत बन गईं...नस में उतर गईं...। हिम्मतवाले भीम, हरदम सच बोलने वाले युधिष्ठिर, बंशी बजाते कान्हा, माखन चुराते गोपाल...पढ़कर लगता, जैसे हम किसी नए हीरो से मिल रहे हैं।
1929 में कर्नाटक के करकाला में पैदा हुए अंकल पई का 81 साल की उम्र में निधन हुआ है। इस दौरान उन्होंने भरपूर ज़िंदगी जी है। ठीक उसी जोश के साथ, जिस तरह उन्होंने टाइम्स ग्रुप की नौकरी छोड़कर अमर चित्रकथा का प्रकाशन शुरू किया था। क्या कोई सोच सकता है, पुरानी कहानियों की नई पेशकश का उनका अंदाज़ बेस्ट सेलर बन जाएगा। हां, यह रिकॉर्डेड फैक्ट है कि अमर चित्रकथा की कॉपीज़ दस करोड़ से ज्यादा बिक चुकी हैं।
अंकल पै इस मायने में खास हैं कि उन्होंने इतिहास को फिर से रचा (अमर चित्रकथा), फिर 1980 में हिंदी और अंगरेज़ी, दोनों ज़ुबानों में ट्विंकल प्रकाशित करनी शुरू की। कपीश और ट्विंकल जैसे किरदार अब तक घर के मेंबर्स की तरह लगते हैं—यह अंकल पै का ही तो कमाल है। आज तमाम अखबारों में दिखने वाली कॉमिक्स स्ट्रिप्स के पीछे अनंत पै का योगदान कौन भुला सकता है? 1969 में उन्होंने रेखा फीचर्स की शुरुआत की थी और जगह-जगह कार्टून और कॉमिक्स स्ट्रिप्स भेजने का सिलसिला भी।
पिछले दिनों ख़बर सुनी थी कि अमर चित्रकथा अब आईफोन, आईपॉड और सेलफोन पर उपलब्ध होगी। इसके बाद पता चला कि इस लोकप्रिय सीरीज़ पर टेलिविजन सीरियल भी बनने वाला है। यह सबकुछ होगा। बचपन फिर हंसेगा। अपने पुरखों के कारनामे हम याद करेंगे, सबकुछ होगा...बस अंकल पै ना होंगे।