कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, October 23, 2010

मायावती जी, सुन लीजिए एक मां का दर्द!

देश की राष्ट्रपति, लोक सभाध्यक्ष, केंद्र में सत्तासीन दल की मुखिया, दिल्ली की सीएम और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री...ये सब महिलाएं हैं। ताक़तवर पदों पर आसीन हैं। दावा है—ये दौर महिला सशक्तीकरण का है पर सच क्या है? जानना चाहेंगे, वो दहला देगा। उत्तम प्रदेश कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में दलित, महिलाएं और मीडिया सब निशाने पर हैं। छह महीने में आधा दर्जन पत्रकार मारे जा चुके। आजमगढ़ में सत्रह साल की दलित युवती से सामूहिक दुष्कर्म हुआ और चंद रोज पहले की घटना भी जान लीजिए।
यूपी के गाजीपुर ज़िले में एक साधारण-से गांव की तीन भोली-भाली निर्दोष औरतें सारी रात नंदगंज थाने में बिठाए रखी गईं। इनमें से एक बीमार थी। बैठ नहीं पाई, तो ज़मीन पर लेट गई। एक अपाहिज थी, वो बैसाखी के सहारे घंटों खड़ी रही। अट्ठारह घंटे तक पुलिसिया सितम झेलने के बाद इन महिलाओं को घर जाने की इजाज़त मिली।
ये सबकुछ विजयादशमी के ऐन पहले हुआ। देश भर में रावण जल रहा था। असत्य पर सत्य की जीत का पर्व मनाया जा रहा था, लेकिन खुशी से सराबोर लोग नहीं जानते थे कि रावण नहीं मरा था। यूपी में वो अट्टहास कर रहा था। अपने अभिमान में चूर ठहाके लगा रहा था।
ये है उत्तर प्रदेश की मासूम महिलाओं का हाल। उस यूपी में, जहां दलितों की बेटी, स्त्रियों की शुभचिंतक मायावती का राज चलता है। वही मायावती, जो वरुण गांधी को जेल भेजने के बाद मेनका गांधी के कटाक्ष—माया मां होतीं तो दर्द समझतीं, पर उबल पड़ती हैं। कह देती हैं—मां का दर्द समझने के लिए मां होना ज़रूरी नहीं है, लेकिन उनके अफ़सर बेगुनाह औरतों पर जुल्म ढाते हैं।
अब जान लीजिए इन औरतों का ज़ुर्म भी। बस इतना कि इनका ताल्लुक एक ऐसे व्यक्ति से था, जो आपराधिक मामले में आरोपी है। आरोपी सरेंडर कर दे, ये दबाव बनाने के लिए पुलिस बेगुनाह महिलाओं को थाने उठा लाई थी।
चंद रोज पहले घटा ये मामला गुम हो जाता। वर्दीवाले गुंडों के रूप में कु-ख्यात पुलिस का कारनामा कोई जान भी ना पाता, लेकिन संयोग ही था कि ये महिलाएं चर्चित मीडिया साइट bhadas4media.com के मॉडरेटर यशवंत सिंह के परिवार की थीं, इसलिए इसकी चर्चा देश भर में हुई। इनमें यशवंत की मां यमुना सिंह,  चाची रीता सिंह और चचेरे भाई की पत्नी सीमा सिंह शामिल थीं।
इस घटना के बाद अयोध्या प्रेस क्लब, जन जागरण मीडिया मंच समेत बहुतेरे मीडिया संगठन सामने आए। उन्होंने दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की मांग की। पूरे देश में विचारोत्तेजक अभियान छेड़ा गया, लेकिन गाजीपुर पुलिस चुपचाप रही। वहां के पुलिस अधीक्षक ने कहा--हमें इस बारे में कुछ नहीं मालूम। ये सफ़ेद झूठ था और इसके जवाब में यशवंत ने वो सभी ई-मेल सार्वजनिक कीं, जो उन्होंने तमाम पुलिस अधिकारियों को भेजी थीं। एसपी ही नहीं, बनारस रेंज के डीआईजी को भी फोन कर जानकारी दी गई थी। शोर बढ़ा, तब कहीं गाजीपुर के एएसपी (सिटी) की अगुआई में पुलिस नंदगंज थाने के अलीपुर बनगांवा गांव पहुंची। वहां पीड़ित महिलाओं का बयान दर्ज किया गया।
ये घटना मायाराज की खोखली हकीकत से परदा उठाती है और ये भी बताती है कि यूपी की पुलिस अपने अफ़सरों से भी नहीं डरती। यशवंत ने जब आईजी को फोन किया, तो उन्होंने महिलाओं को छोड़ने का निर्देश दे दिया, लेकिन स्थानीय पुलिस ने आला अफ़सर की बात तक नहीं सुनी। मामले में इतना ही हुआ है कि आई जी ने जांच रिपोर्ट मंगाई है और वो अब वो इस पर विचार करेंगे। पहले पुलिस क्यों चुप थी, तो वज़ह ये—चुनावों के चलते कोई कार्रवाई नहीं हो सकती।
... तो क्या बस बेगुनाह महिलाओं को उठाया भर जा सकता था? उनके स्वाभिमान से खिलवाड़ ही किया जा सकता था? ऐसे में ताज्जुब क्या कि पीड़ित पत्रकार यशवंत उबल पड़ते हैं—ये मेरी निजी लड़ाई है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा स्त्री के सम्मान के लिए संघर्ष है।
चर्चित संपादक हरिवंश साफतौर पर कहते हैं कि सत्ता आज भी पुराने युग के बर्बर कानूनों को इस्तेमाल कर रही है और ये दुर्भाग्यपूर्ण है। तकरीबन दस दिन गुज़र चुके हैं, लेकिन यूपी की पुलिस स्त्रियों के इस अपमान पर तकरीबन ख़ामोश है। मायावती जी क्या आप सुन रही हैं एक मां का दर्द?

Tuesday, October 19, 2010

ज़िद से जीत तक

भव्यता और प्रभाव, प्रदर्शन और उपलब्धि, पसीना और सोना...यही सब हैं राष्ट्रमंडल खेलों के मुख्य तत्व...आइए, हम आपको मिलवाते हैं इन खेलों में भारत का नाम रोशन करने वाले कुछ ऐसे जांबाज खिलाड़ियों से, जिन्होंने गुरबत को ही ताकत बना लिया, जो मेहनत के दम पर हर सुविधा से आगे निकल आए, जिन्होंने मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुजारते हुए भी सोने-चांदी-कांसे के पदकों से देश की तिज़ोरी भर दी।

कुछ लोग रोते-बिसूरते रहते हैं कि हमारे पास ये सुविधा नहीं, वो खुशी नहीं, इतना पैसा नहीं, उतना आराम नहीं—नहीं तो हम आकाश की छाती में सुराख कर देते...काश! वो गौर से देखते राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन...उनकी समझ में आ जाता कि धन और उन्नति का एकसाथ कोई संबंध नहीं होता।
इस बात को पुख्ता करता है हरप्रीत सिंह का प्रदर्शन। बचपन में गुब्बारों पर निशाना साधते थे, बड़े हुए तो सोने के लक्ष्य पर लगा दी आंख और ऐसी टिकाई कि देश की तिज़ोरी स्वर्णिम आभा से चमका दी। राष्ट्रमंडल खेलों की 25 मीटर सेंटरफायर पिस्टल सिंगल्स और 25 मीटर सेंटरफायर पिस्टल पेयर्स प्रतियोगिता में स्वर्ण और वो भी दो दिन तक लगातार सोना जीतने वाले हरप्रीत के बारे में और कुछ जानना चाहेंगे आप?
हरियाणा के करनाल ज़िले का रहने वाला हरप्रीत किसी अमीर खानदान का लाडला नहीं है। उसने एक फैक्टरी में लोडर का काम किया, ताकि घर में दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम हो सके।
ये देश एकलव्य का देश है, जिसने बिना गुरु के सान्निध्य के सारे जग को वाण-वर्षा के आगे झुका दिया...कुछ ऐसी ही हैं तीरंदाजी में माहिर दीपिका कुमारी। दोहरा स्वर्ण हासिल करने वाली दीपिका के पिता ऑटो रिक्शा चालक हैं, मां नर्स हैं, पूरा परिवार झोपड़ी में रहता है, लेकिन हौसले आसमान को छूते हैं।
दीपिका ही क्यों, भारोत्तोलन की दुनिया में देश का नाम रोशन करने और 69 किलोग्राम भार वर्ग में स्वर्ण पदक हासिल कर नया खेल रिकॉर्ड बनाने वाले के. रवि कुमार भी ऐसा ही नायाब नगीना हैं। उड़ीसा निवासी रवि वो दिन कभी नहीं भुला पाते, जब घर का खर्च चलाने वाले टैक्सी ड्राइवर पिता की असमय मृत्यु हो गई थी। मां के नाजुक कंधों पर पूरे परिवार का पेट पालने की ज़िम्मेदारी थी और रवि की आंखों में पल रहे थे बेशुमार सपने। मां आंगनबाड़ी जातीं, जमकर मेहनत करतीं, ताकि बच्चों को रोटी मिल पाए और रवि दिन-रात पसीना बहाते, ताकि कुछ कर गुजरने के सपने मंज़िल तक पहुंच जाएं। आज दोनों के दिल खुशी से लबालब हैं—मां को नाज़ है कि बेटे ने उनका और देश का नाम रोशन किया, तो बेटे को फ़ख्र है राष्ट्र की मिट्टी पर, जिसने उनके पसीने से सिंचकर सोना उगा दिया।
जज़्बा, जुनून और ज़िद हो, तो इंसान क्या नहीं कर सकता। इसी का प्रमाण हैं तैराकी की नायाब कला के बेमिसाल उदाहरण—प्रशांत कर्माकर। एक बार बस में सफ़र करते वक्त बगल से निकले ट्रक ने उनके एक हाथ की बलि ले ली पर हाथ नहीं तो क्या हुआ...कहते हैं—इंसान ज़िद कर ले, तो सारी दुनिया को झुका सकता है। प्रशांत ने भी कसम खाई कि हार नहीं मानेंगे। उन्हें सहानुभूति नहीं, सम्मान पाना था। लेकिन ज़िद भर होती, तो मंज़िल ना मिलती। उन्होंने जी-जान लगाकर मेहनत की और फिर शीर्ष पर स्थान बना लिया। प्रशांत ने 50 मीटर पैरास्पोर्ट्स फ्री-स्टाइल एस-9 पुरुष वर्ग में देश के लिए कांस्य पदक हासिल किया है।
प्रशांत के साथ जब हादसा हुआ था, तब वो दादी के साथ ही सफ़र कर रहे थे। अब भी दादी की आंखों में वो लम्हा ठहरा हुआ है, लेकिन पोते के कमाल और उपलब्धियों ने दिल के दर्द पर कुछ मरहम ज़रूर लगा दिया है।
आशीष कुमार ने जिम्नास्टिक आर्टिस्टिक वर्ग में वाल्ट स्पर्धा में रजत और फ्लोर एक्सरसाइज में ब्रोंज मेडल हासिल किए। उनकी ये उपलब्धि दुनिया के सामने हमारा सिर इसलिए भी ऊंचा करती है, क्योंकि खेलों के संसार में भारत ने अब तक एथलेटिक्स में कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया था।
इलाहाबादी छोरे आशीष की उम्र सुनेंगे तो चौंक जाएंगे। महज—19 साल। ऐसी उम्र में तो नौजवान लड़के-लड़कियां मोबाइल पर मैसेजिंग करने में ही मशगूल रहते हैं, लेकिन आशीष दिन-रात देखे बिना हर पल बस खेल के बारे में ही सोचते रहे, अभ्यास करते रहे। पिता चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं। उनके घर में लोगों की आरजुएं उभरती भी नहीं, ज़ुबान तक आने से पहले ही थम जाती हैं। वज़ह यही—चादर छोटी है, पैर ज्यादा ना पसारो, लेकिन नन्ही-नन्ही आंखों में बड़े सपने देखने वाले आशीष ने क्लर्क की नौकरी करते हुए भी ख्वाबों को झुलसने नहीं दिया।
और अब बात एथलेटिक्स की सूरमा कृष्णा पूनिया की। उन्होंने देश को 52 साल बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स में सोना दिलाया है। आपको बता दें कि 1958 में कार्डिफ में हुई प्रतियोगिता में मिल्खा सिंह 400 मीटर दौड़ में पदक लाए थे। वही मिल्खा इस बार निराश और नाराज़ थे। उन्होंने कहा था—दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में भारत को सोना नहीं मिलेगा, लेकिन उन्हें तब सबसे ज्यादा खुशी हुई होगी, जब कृष्णा ने उनकी बात गलत साबित कर दी और सोने का पदक चूम लिया! 
28 साल की कृष्णा महीनों तक डेढ़ साल के बच्चे और पति व कोच वीरेंद्र से दूर रहीं। कैसे कटते होंगे दिन के 24 घंटे...हर वक्त अपनों से बिछड़कर रहना...पर देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा ही तो ऐसे खिलाड़ियों को महान और प्रणाम के काबिल बनाता है। भारत को ऊंचाई, खुशी और सोने-चांदी-कांसे के गौरव से मालामाल कर देने वाले इन खिलाड़ियों को दिल से सलाम। देश को मिले 101 पदकों का शगुन लाने वाले ये खिलाड़ी ही असल मायने में रोल मॉडल हैं, जो बताते हैं—मुफलिसी मज़बूत बना देती है। आपको आगे लाकर खड़ा करती है। अभाव पक्का करते हैं और जिगर में ज़िद पैदा करते हैं—हमें जीतना ही होगा...।

Tuesday, October 5, 2010

अफसानों में अपने बुजुर्ग



`अहदे-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आंखें मूंद / यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया' ... मीर तकी मीर का ये शेर बताता है--जवानी तो मरते-मिटते, नावां और नाम कमाते, बस जुटे रहने का नाम है, बुढ़ापा वक़्त है आराम से ठहरकर सोचने का...ये महसूस करने का--क्या था, जो दौड़भाग में छूट गया, वो वक्त कैसा था, जो हाथ से फिसल गया और फिर ये फैसला करने का--यादों की धुंधली तस्वीरों को फिर ताज़ा किया जाए और कोशिश की जाए, उन सब ख्वाबों को पूरा करने की, जो अधूरे रह गए। सच है...बुढ़ापा थककर निढाल हो जाने का सबब बनकर नहीं आता। ये वो सांझ है, जिसे मीर जैसे शायर सुबह का नाम देते हैं, जिसमें--मज़बूरी वाली ज़िम्मेदारी नहीं...खुला आसमान है...जो बुला रहा है--मन परिंदा तोड़ के पिंजरा, आ जा खुली हवा में झूमें।
यूं तो, शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक जैसे शायर ठंडी आहें भरते हुए शेर सुनाते हैं-- वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें / ऐसे हैं जैसे ख़्वाब की बातें..., वहीं आशापूर्णा देवी के उपन्यास मन की उड़ान का नायक प्रभुचरण भी सोचता है--`बुढ़ापा जाड़े के मौसम जैसा है। प्रति क्षण स्मरण करा देता है कि अब रोशनी का खजाना खत्म होने को है, अंधकार छाने ही वाला है।' लेकिन ऐसी निराशा को तोड़ते हुए अगले ही चौराहे पर गुलज़ार टकरा जाते हैं...वो कहते हैं--सारी जवानी कतरा के काटी पीरी में टकरा गए हैं...हां, कई ख्वाब ऐसे ही यादों की संदूक से बाहर निकलते हैं और धुंधलाते चश्मे पर आकर ठहर जाते हैं, ऐन निगाह के सामने, कहते हैं--अब तो मियां वक्त है, हमें पूरा करो ना।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे के 'ओल्ड मैन एंड द सी' का बूढ़ा मछुआरा ही कहां झुकता है? ना वो खुद का भरोसा टूटने देता है, ना हमारा। हेमिंग्वे कहते भी थे--इंसान को बर्बाद किया जा सकता है, लेकिन हराया नहीं जा सकता, सो उनके उपन्यास का हीरो भी हारता नहीं है।
तो ज़िंदगी की ये दूसरी पारी क्या है, कैसी है...ये जानना, समझना खूब दिलचस्प है और हिंदी समेत दुनिया भर के हर साहित्य में बुजुर्गों की खूब, खू़बसूरत दास्तान भी है। चेखव की ओल्ड एज के साथ ही एक और मशहूर नॉवेल याद आ रही है गाब्रिएल गार्सिया मर्कुएज़ की `लव इन द टाइम ऑफ़ कोलेरा'। इस कृति में पकी हुई उम्र, बढ़ी हुई बीमारी और बिगड़ी हुई दिल की हालत का एकसाथ ज़िक्र है, लेकिन नायिका यहां अंत तक हर उस बात से जूझती है, जो उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा सकती है।
और, प्रेमचंद का भगत? मंत्र का कथानायक, उसकी आंखों से ही तो हम देखते हैं डॉक्टर चड्ढा का घमंड, जब वो एक गरीब आदमी का बीमार लड़का देखने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि यह उनके खेलने का समय होता है। `बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भांति निश्चल खड़ा' रहकर लौट जाता है...उसी दिन उसका बेटा गुज़र जाता है पर वक्त लौटता है। एक दिन चड्ढा का बेटा कैलाश प्रेयसी की ज़िद में सांप की गरदन पकड़कर जोर से दबा देता है और फिर सांप उसे डस लेता है। बहुत-सी कोशिशें होती हैं। नामी-गिरामी वैद्य, डॉक्टर, तांत्रिक आते हैं पर कैलाश को कोई जिला नहीं पाता, इसी समय आता है भगत। वही बूढ़ा, जिसके बेटे को देखने से डॉक्टर चड्ढा ने मना कर दिया था। वो कैलाश के ठंडे पड़े बदन में सांसें फूंककर लौट आता है, लेकिन बदले में एक बीड़ी तक नहीं पीता...। ऐसे बुढ़ापे पे तो हज़ार ज़िंदगियां कुर्बान...है कि नहीं?
प्रेमचंद की एक और कहानी अक्सर याद आती है--बूढ़ी काकी। 1921 में लिखी गई इस कहानी की शुरुआत में ही वो बताते हैं--`बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही।' अब कोई बच्चा रो-रोकर, गला फाड़कर अपनी ओर खींच लेता है, तो कोई बुज़ुर्ग अगर अपना हाल-ए-दिल बयां करना चाहे, तो हम उससे आंख क्यों चुराएं। `बूढ़ी काकी' में कथा सम्राट बताते हैं काकी के बारे में, जिनकी `...समस्त इन्द्रियां, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं।'
काकी के पति थे नहीं, बेटा भी स्वर्ग सिधार चुका था। भतीजे के नाम सारी जायदाद लिख दी थी, जिसे अब उनसे कोई मतलब नहीं था, यूं तो भतीजे `बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था'...लेकिन काकी से सचमुच कोई प्रेम करता था, तो वो थी बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली। कहानी का सबसे दिलचस्प मोड़ है बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम के तिलक का मौक़ा। काकी इंतज़ार करती हैं कि उन्हें पूड़ी मिले। देर हो गई, तो बेचैन हुईं पर रोईं नहीं कि अपशकुन होगा। अजवाइन और इलायची की महक बता रही थी कि पूड़ी गरम-गरम और जायकेदार है।आखिरकार, सब्र नहीं रहा, तो चौखट से उतरीं और कड़ाह के पास जा बैठीं। भतीजे की पत्नी ने देखा, तो बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोलीं-- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? बूढ़ी काकी चुप रहीं...कुछ ना बोलीं...चुपचाप लौट गईं। फिर भी देर रात तक पूड़ियों का इंतज़ार था। फिर से आंगन में आ गईं, तो एक मेहमान चिल्लाने लगा। इस बार भतीजे ने उन्हें कोठरी में ले जाकर पटक दिया। आखिरकार, लाडली अपने हिस्से की पूड़ियां बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली। 
यहीं पर सतीश दुबे की लघुकथा ‘बर्थ-डे गिफ्ट’ की याद भी आ जाती है। दादाजी के लिए उनकी पांच साल की पोती एक टॉफी छुपाकर रख देती है। फ़िलहाल बात लाडली की, वो काकी के पास पहुंची और बोली-- 'काकी उठो, मैं पूड़ियां लाई हूँ।' काकी पूड़ियों पर टूट पडीं। उनका पेट ना भरा, तो पोती ने उन्हें जूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। `दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी।'  भतीजे की बहू रूपा ने ये सबकुछ देखा, तो स्तब्ध रह गई। रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली।' उसने माफ़ी मांगी और फिर तो `भोले-भोले बच्चों की भांति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है , बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थीं'।
चलिए, रूपा ने देर से ही सही, काकी की इच्छा का सम्मान किया। ऐसे ही ज़रूरी है कि सब समझें अपने बुज़ुर्गों को, उनके सपनों को। 
फ्रांस की चिंतक सिमोन द बउवा की किताब है--‘ला विल्लेस’, इसका अंग्रेज़ी अनुवाद है--‘ओल्ड एज’ (अनुवादक-पैट्रिक ओ ब्रैन)। सिमोन साफ़ कहती हैं कि `बूढ़े लोगों के मामले में यह समाज न केवल दोषी है, बल्कि अपराधी भी है...फ्रांस की बारह प्रतिशत जनता पैंसठ वर्ष पार कर चुकी है और इतनी बड़ी संख्या गरीबी, उपेक्षा और निराशा झेल रही है। अमेरिका में भी लगभग यही स्थिति है।...बुढ़ापे को समाज में एक ही तरह से नहीं देखा जाता है। प्रायः बचपन से युवावस्था में कदम रखने की आयु 18 से 29 वर्ष की मानी जाती है, जबकि बुढ़ापे में कदम कोई किस आयु में रखता है, इसकी लकीर कहीं भी नहीं खींची गई है।' सिमोन सवाल करती हैं, `जब इन वृद्धों में वही ख्वाहिशें, वही संवेदनाएं और वही आवश्यकताएं हैं, जो युवाओं की हैं, तो फिर क्यों दुनिया इनको घृणा की नज़र से देखती है?'... ऐसे में तो ये बात एकदम सच्ची-पक्की-दुरुस्त है कि क्या समझें, रूपा की तरह बहुत-से लोग, सरकारें, कानून सब नींद में सोए हुए हैं।
वैसे, नींद में सिर्फ नौजवान नहीं हैं। कई जगह माता-पिता भी अपेक्षाओं से इस कदर घिरे हैं कि सच्चाई से दूर भागते हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा अपनी लघुकथा ‘कथा नहीं’ में ऐसा ही सवाल खड़ा करते हैं। उनके कथानायक बूढ़े मां-बाप हैं, जो दुखी हैं, क्योंकि बेटा उनकी देखभाल नहीं करता, लेकिन वो ये नहीं देखते कि बेटे की हालत कैसी है...पर भला हो साहित्यकारों का कि वो हर तरह की नींद ख़त्म करने में लगातार जुटे हैं। 
उषा प्रियंवदा की कहानी `वापसी' में हम उस बुज़ुर्ग से मिलते हैं, जो पूरी जवानी खर्च कर घर लौटा है, लेकिन यहां भी एक सत्ता उसके लिए तैयार है--उपभोक्तावादी संस्कृति की, जहां वो बेकार है, बिना काम का है। पैंतीस साल तक परिवार पालने वाले गजाधर बाबू को रिटायरमेंट के बाद बेटे, बेटी, बहू और पत्नी तक के सामने खुद का वज़ूद साबित करने की जद्दोज़हद झेलनी पड़ती है। आख़िरकार, वो ऐसा रास्ता तलाशते हैं, जहां उनके अपने सपनों के लिए बची हुई ज़मीन है।... तो एक कोण ये भी है, जहां बुजुर्ग अपने लिए अंत तक लड़ते-भिड़ते हैं।
चित्रा मुद्‌गल का उन्यास `गिलिगडु' बुज़ुर्गों के लिए चिंता और उन्हें समझने की ज़रूरत पर ही जोर देता है। एक साक्षात्कार में चित्रा ने कहा था--जब उन्हें पता चला कि 225 लोगों की क्षमता वाले वृद्धाश्रम के लिए पांच हज़ार आवेदन आए, तो वो स्तब्ध रह गईं। आख़िरकार, जिन लोगों ने सारी ज़िंदगी अपनों को बनाने-तराशने में खर्च कर दीं, उन्हें ही जीवन-संध्या में खुद के लिए ठिकाना तलाशने की ऐसी जद्दोज़हद करनी पड़ रही है?
हालात ऐसे हों, तो बुज़ुर्ग क्या करें, क्या दुख से धधकने लगें और खुद में ही सिमट जाएं? भीष्म साहनी की यादें और चीफ की दावत याद कीजिए। एक जगह दो बुजुर्ग लखमी और गोमा यादों की संदूक खोलते हैं और सबकुछ भुलाकर खिलखिलाने लगते हैं, वहीं चीफ की दावत में मां घर में फालतू सामान-सी मौजूद है।
ऐसे ही समय में बुजुर्ग सोचते हैं, जब हमारी किसी को ज़रूरत नहीं तो क्यों ना हम अपना आसमान खुद तलाश करें। मोहन राकेश की कहानी `मलबे का मालिक' में एक बुढ़िया हर मोड़ पर भटकते हुए जानना चाहती है कि दंगों में मारे गए बेटे की जायदाद की वारिस उसे होना है, वो क्या करे।
यूं, बहुतेरे लोग ज़िंदगी इसी जद्दोज़हद में काट देते हैं कि बुढ़ापे में क्या करेंगे। असमिया लेखक लक्ष्मी नंदन बोरा की नॉवेल  ‘कायाकल्प’ यौवन फिर हासिल करने के लिए वृद्धावस्था को रोकने की कवायद का बयान करती है। ऐसी कोशिशें इसी विचार से उपजी हैं कि बुढ़ापा वो हालत है, जो लाचारी लेकर आती है...काश! कोई समझे कि पीरी तो ललक लाने वाली उम्र है...सपनों को फिर बुनने की रस्म है...बस इस सांझ को थोड़ा गुलाबी बना दिया जाए। जिन कंधों ने हमें बचपन में सहारा दिया था, उन्हें अपनी बाहों का, सीने के दम का बल दिया जाए, फिर देखिएगा...उम्मीद, आशा, अनुभव का संगम सिर चढ़कर बोलेगा।

(दैनिक भास्कर की विशेष परिशिष्ट में प्रकाशित, इसे यहां भी पढ़ सकते हैं http://www.bhaskar.com/article/ABH-elderly-in-mistries-1418130.html)