कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, December 31, 2010

मैं बेचारा, महंगाई का मारा

मैं हूं आम आदमी... सरकार का मारा...मेरी आवाज़ सुनो... दर्द का राज सुनो... फ़रियाद सुनो। मनमोहन सिंह जी, आप तो सुनो... कुछ जवाब दो। जी हां, मैं इसी मुल्क का बाशिंदा हूं, जहां मुकेश और अनिल अंबानी रहते हैं। पहले मुकेश ने तारों से बातें करने वाला दुनिया का सबसे महंगा घर ' एंटिला' 4500 करोड़ खर्च करके बनाया और अब अनिल बड़े भाई से बड़ा घर बनवा रहे हैं। मेरा नाम तो आपको पता नहीं है, हां, वो घर जब बनकर तैयार होगा, तो उसका नाम ज़रूर जानेंगे। और क्या पूछा आपने, मैं कहां रहता हूं? अरे साहब, छोटे-छोटे कमरों में, कहीं झुग्गियों में, तो कभी पाइप लाइन में...क्यों? क्योंकि मैं आम आदमी हूं। अनिल अंबानी का घर 150 मीटर ऊंचा होगा और मेरा...? सच कहूं—मैंने बड़े ख्वाब देखने छोड़ दिए हैं। घर का ख्वाब बड़े सपनों में ही शामिल है। सुना है, एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों ने फिर से ब्याज दर बढ़ा दी है। एक ने 0.75 फीसदी का इजाफा किया, तो दूसरे बैंक ने 0.50 प्रतिशत दर बढ़ा दी। यही वज़ह है कि होम लोन महंगा हो गया है। अब जिन लोगों ने फ्लोटिंग रेट पर होम लोन लिया होगा, उनकी हालत पूछिए...। पसीना छूट रहा है। यही वज़ह है कि मैं अपना घर जैसी सोच को सपनों में भी नहीं आने देता।
घर की तो दूर, सुबह चाय पीने की सोचना भी भारी लगता है। आप तो जानते ही होंगे— मदर डेयरी का दूध फिर महंगा हो गया है। तैंतीस रुपए खर्च करके कौन दूध खरीदेगा चाय पीने के लिए? मेरी तो हिम्मत नहीं पड़ती। कहीं फिर से वही दिन तो नहीं लौटने वाले, जब मां आटे में पानी घोलकर रखेगी और कहेगी—बेटे, पी लो, दूध है। दूध उत्पादक कहते हैं—लागत बढ़ी है। पशुपालकों का शिकवा है—खर्चे बढ़े हैं। हम क्या कहें, किससे कहें, कोई हमें बता दे।
कल की ही बात  है, बच्चे ज़िद कर रहे थे कि गाड़ी से चलेंगे। वो भी यहां-वहां नहीं, डायरेक्ट शिमला। अब इन्हें कौन समझाए—टैक्सियों में सफर करना इतना महंगा हो चुका है कि साल भर की बचत कर लो, तो अपनी गाड़ी, कम से कम नैनो का तो ख्वाब देख ही सकते हैं।
पेट्रोल के दाम तीन रुपए बढ़े, ऐसे में टैक्सी यूनियनें भी किराया बढ़ाने की मांग कर रही हैं। उन्हें ही गैरवाज़िब कैसे ठहराएं? सोल्यूशन क्या है—जो मिले खाएं और मुंह ढककर सो जाएं। किसी शायर ने भी तो कहा है—आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए।
वैसे, कार भी कुछ दिन में ख्वाबों में शामिल करने वाली चीज ही होने वाली है। नैनो ने भले थोड़ी राहत दी थी, लेकिन नई खबर पता है आपको? वो यह है—मारुति सुजुकी इंडिया और हुंडई कारों के दाम बढ़ा रही हैं। बोले तो, बैलगाड़ी ज़िंदाबाद।
दिल्ली की बसों में जेब कट जाती है, तो पंजाब  में बस से चलने की सोच ही नहीं सकते। हाल में ही सुखबीर साहब की सरकार ने पंजाबी जूती से वैट घटा दिया है और बसों का किराया महंगा कर दिया है, यानी 10 पैसे प्रति किलोमीटर के हिसाब से।
खैर, मैं एक कन्फेशन कर लूं। भटक गया था, कॉमन मैन हूं ना। गाड़ियों, बसों की बात करने लगा था। यहां तो दिक्कत दो जून रोटी की है ज़नाब। खबर आई है कि एलपीजी भी सौ रुपए तक महंगी हो सकती है। तेल मंत्रालय के आकाओं से गुहार लगानी पड़ेगी। उनके आंकड़े भी अजब-गजब हैं। पूर्वी एशिया में एलपीजी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हम ही करते हैं और इसके लिए हर साल 30 लाख टन कुकिंग गैस आयात की जाती है।
सो... हम आंकड़े नहीं समझते मंत्रीजी। रहम करें, ताकि अगस्त के बाद से कुकिंग गैस की कीमतों में हर सिलिंडर पर पचास से सौ रुपए का इजाफा ना हो। माना कि एक साल में अंतरराष्ट्रीय कीमतों में दो तिहाई की तेजी आ चुकी है। अमीर मुल्क तो झेल लेंगे साहब, हमारा क्या होगा। सुन रहे हैं ना मनमोहन जी?
बहुत डर लगता है ये सुनकर भी कि 2011 में वैश्विक खाद्य संकट हो सकता है। एफएओ ने चेतावनी दी है कि 2011 में दुनिया वैश्विक खाद्य संकट से जूझ रही होगी। हमारी भूख का हल क्या होगा पीएम साहब?
भूखे पेट बच्चे भी भला कैसे स्कूल जाएंगे, उस पर भी पता चला है कि स्कूलों की फ़ीस बढ़ने वाली है! प्राइवेट स्कूल बसों की फीस में इजाफा हो रहा है। एमपी के निजी स्कूल दस से पंद्रह फीसदी तक फीस बढ़ाने वाले हैं। विडंबना भी जान लीजिए, फीस बढ़ाने वालों में ज्यादातर सीबीएसई से एफिलेटेड हैं। और एमपी ही क्यों, दिल्ली में भी ऐसा होने वाला है... पर स्कूल वाले इसे मज़बूरी में लिया गया फ़ैसला बता रहे हैं। वो कहते हैं—तीन साल में डीजल 43 रुपए प्रति लीटर तक बढ़ चुका है। स्कूल बसों का खर्च भी तो बढ़ रहा है, ऐसे में इसकी पूर्ति कैसे की जाएगी? सच कह रहे हैं प्रिंसिपल साहब, पर आम आदमी क्या करे? आप ही कुछ सुझाइए पीएम साहब।
हम लोग कौन  हैं...छोटी-मोटी फैक्टरियों में काम करते हैं, दफ्तरों में वर्कर हैं या फिर दुकानें चलाते हैं। कहां से लाएं पैसे, कैसे करें महंगाई का मुकाबला?
खबरें खूब हैं, सब की सब डराती हैं। एक खबर ये भी है कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति सख्त हो सकती है। ऐसा हुआ, तब तो छोटे और मझोले उद्योगों की हालत और खस्ता हो जाएगी। विदेश से सप्लाई के लिए मांग कम हो गई थी। अब वो सुधरी है, तो डॉलर कमज़ोर हो रहा है। एक तो नीम, दूसरे करैला चढ़ा। बैंक भी ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। कर्ज महंगा हो जाएगा, बाजार में रकम कम हो रही है, ऐसे में छोटे-मोटे उद्योग क्या करेंगे?
पंजाब नेशनल बैंक पहले नए ग्राहकों के लिए अपनी आधार दर आधा फीसदी बढ़ाकर नौ फीसदी कर चुका है। उसके ज़रिए मिलने वाले सभी कर्ज महंगे हो गए हैं। पेट्रोल भी लगातार महंगा होता जा रहा है।
केंद्र सरकार पेट्रोल की कीमतों से नियंत्रण हटा चुकी है। कारोबारी मनमानी कर रहे हैं। कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। पिछले साल जून में नियंत्रण हटाया गया था। तब से पेट्रोल 17-18 फीसदी महंगा हो चुका है। तेल कंपनियां कच्चे तेल की कीमतों और उत्पादक लागत को आधार बनाकर इसकी कीमत तय करने के लिए आज़ाद हो गई हैं। ऐसे में लगातार कीमतें बढ़ती जाएंगी। सुन रहे हैं मंत्री जी? क्या इसीलिए, आपने नियंत्रण हटाया था, ताकि मनमानापन शुरू हो जाए?
माना कि पेट्रोल के कारोबारी घाटे को कम करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, लेकिन आप तो पेट्रोल पर लगाए जाने वाले टैक्स में कमी ला सकते हैं। सुना है, डीजल भी महंगा करने की तैयारी हो रही है। खैर, पेट्रोल की बात ही क्या करें। जयपुर में तो कर्नाटक मॉडल पर पानी के रेट बढ़ाने की तैयारी हो रही है।
तो... सब्जियां महंगी, दूध महंगा, टमाटर महंगा, प्याज महंगा, लहसुन महंगा, अब इस महंगाई की मार से घर का, ज़िंदगी का कौन-सा कोना अछूता बचा है? सरकार को कोई सुध नहीं है। आम आदमी चाहे हड़ताल करे या आंदोलन। मैं बेचारा सचमुच हूं... सरकार का मारा।
और महंगे हो सकते हैं
* पेट्रोल-डीजल, दूध, बिजली, परिवहन, सब्जियां, दालें।
* डीजल की कीमतों में दो रुपए प्रति लीटर की वृद्धि का प्रस्ताव विचाराधीन।
लेखक चंडीदत्‍त शुक्‍ल स्‍वाभिमान टाइम्‍स के समाचार संपादक हैं. इनकी साहित्‍य में भी रूच‍ि है



Monday, December 20, 2010

ना गोली चलेगी, ना बहेगा खून, फिर भी लड़ेगी दुनिया

- चण्डीदत्त शुक्ल
अब नाम तो याद नहीं है, शायद शंकर दादा था उस पुरानी फ़िल्म का नाम। इसमें एक गाना है—इशारों को अगर समझो, राज़ को राज़ रहने दो, लेकिन पर्दाफ़ाश करने वालों के हाथ कहीं राज़ की पोटली लग जाए, तो उनके पेट में अजब-सी गुदगुदी होने लगती है। यूं तो, ऐसे लोग अक्सर अमानत में खयानत की तर्ज पर ढके-छुपे राज़ की धज्जियां उड़ाते हुए उन्हें सार्वजनिक करते आपके लिए मुश्किलें ही खड़ी करते हैं, हैक्टिविस्ट (हैकर + एक्टिविस्ट) जूलियन असांजे ने भी कमोबेश अमेरिका के लिए वही किया। बावज़ूद इसके असांजे ऐसे शख्स नहीं, जिन्हें अहसान फ़रामोश कहा जाए। बेशक, ये कहने के पीछे धारणा है कि उन्होंने सच की लड़ाई लड़ी है।
असांजे ने अमेरिकी दूतावासों से जुड़े ढाई लाख गोपनीय संदेश विकिलीक्स वेबसाइट पर लीक कर दिए। खुफिया जानकारियों के सबसे बड़े खुलासे ने गोपनीयता और तकनीक को लेकर नए सिरे से बहसों का स्थान पैदा किया। यही नहीं, कूटनीतिक मोर्चे पर दुनिया के दादा कहलाने वाले अमेरिका की सोच कितनी ख़राब, भटकी हुई है—ये बात भी विश्व के सामने आई।
असांजे अमेरिका के लिए काफी पुराना सिरदर्द हैं। उन्होंने इराक युद्ध के सिलसिले में चार लाख दस्तावेज़ पहले भी जारी किए थे। असांजे के जेल जाने और ज़मानत मिलने की कहानी से तो सब वाकिफ़ हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि जूलियन को गिरफ्तार किए जाने से आहत लोगों की फौज साइबर वार छेड़ चुकी है। 
साइबर वार, यानी इंटरनेट के सहारे लड़ा जाने वाला वैश्विक युद्ध। ये लड़ाई अमेरिका के ख़िलाफ़ लड़ी जा रही है। देखते ही देखते विकिलीक्स की डुप्लीकेट 507 साइट इंटरनेट पर आ गईं और हज़ारों लोग अमेरिका के विरुद्ध साइबर वार में सक्रिय हो गए। आज से एक दिन पहले, यानी 18 दिसंबर को नेट यूजर्स ने अंसाजे के समर्थन में 'ऑपरेशन ब्लैकफेस'  चलाया, वहीं हैकर्स ने 'ऑपरेशन लीकस्पिन'  लॉन्च किया। इसके तहत अब तक जो केबल्स जारी नहीं की गई हैं, उन्हें भी लीक किया जाएगा। सबसे मज़ेदार रहा—ऑपरेशन ब्लैकफेस। इसके तहत नेट यूजर्स ने इंटरनेट पर प्रोफाइल पिक्चर की जगह ब्लैक रखी। प्रोफाइल चाहे फेसबुक पर थी या फिर आरकुट पर। शुरुआती दौर में आकलन है कि इस मुहिम में पचास हज़ार से ज्यादा नेट यूजर शामिल हुए।
असांजे समर्थकों के इस ज़ोरदार हमले से अमेरिका बुरी तरह परेशान है। ये लोग सच्चाई की लड़ाई में असांजे के साथ हैं और अमेरिका के कारोबार, कंपनियों, सुरक्षा व्यवस्था से लेकर प्रशासन तक साइबर संसार की सरहदों में सेंध लगाने में जुटे हैं। यही वज़ह है कि काफी कम अरसे में अमेरिकी बैंकिंग,  बीमा और शेयर बाजार पर इन हमलों का असर पड़ने लगा है।
सौदे या कारोबार की किस्म चाहे जैसी हो, उसमें ई-बैंकिंग, ऑनलाइन मनी ट्रांसफ़र सरीखे तरीक़े ज़रूर अपनाए जाते हैं। अब ये प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। असांजे समर्थकों ने कारोबार की इसी धड़कन को थामने की तैयारी कर ली है। उन्होंने मनी ट्रांसफ़र और आंकड़ों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है, ऐसे में अमेरिका की पेशानी पर बल पड़ने स्वाभाविक हैं। असांजे के हमदर्द हैकरों ने क्रेडिट कार्ड कंपनी वीज़ा की वेबसाइट को भी निशाना बना दिया। वज़ह—एक दिन पहले वीज़ा ने विकिलीक्स को मिलने वाली सहयोग राशि प्रोसेस करने से मना कर दिया था।
हम बात कर रहे थे साइबर युद्ध की, तो इसे समझना काफी रोचक कवायद होगी। सच तो ये है कि अब युद्ध परंपरागत हथियारों से नहीं जीते जाते। देशों के बीच युद्ध की रूप-रंगत भी बदलती जा रही है। प्रत्यक्ष तौर पर इसमें खून नहीं बहता, जानं  नहीं जातीं (कम से कम शुरुआती समय में), लेकिन दुश्मन मुल्क की पूरी व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने के उपक्रम लगातार किए जाते हैं। विरोधी देश की कंप्यूटर आधारित प्रणाली ध्वस्त कर सूचनाएं चुराने और उनका दुरुपयोग करने का यही काम साइबर वार कहलाता है।
ज्यादा समय नहीं बीता, जब कनाडा के शोधकर्ताओं ने साइबर वार पर विस्तृत रिपोर्ट जारी कर बताया कि चीन के गुप्त साइबर नेटवर्क ने भारतीय खुफिया तंत्र में सेंध लगाने की कोशिश की। यूं, चीन ने कभी इसकी आधिकारिक हामी नहीं भरी, लेकिन ये अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल नहीं है कि ऐसी किसी कोशिश को निजी तौर पर अंजाम नहीं दिया जा सकता। चीन के हैकर्स ने ये कोशिश महज इसलिए की, ताकि शांतिकाल में ज़रूरी जानकारियां इकट्ठी कर लें और लड़ाई के समय में भारत की रणनीति के विरुद्ध काम आने वाली योजना बना पाएं। 
साइबर के मैदान में लड़ी जाने वाली ये लड़ाई बहुत पेचीदा है। चीन इस मामले में कुछ ज्यादा ही ख़तरनाक ढंग से सक्रिय भी है। उसके सर्विलांस सिस्टम घोस्टनेट के ज़रिए दूसरे देशों के कंप्यूटर नेटवर्क से छेड़छाड़ और डाटा ट्रांसफ़र का काम धड़ल्ले से हो रहा है।
सेंसरशिप के मोर्चे पर भी चीन की चालाकी देखने लायक है। उसने गूगल की कई सेवाएं अपने यहां बैन कर रखी हैं। इसी तरह अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क ने भी चीन पर आरोप लगाया है कि उसकी ओर से सूचनाओं में सेंध लगाने की कोशिश की गई। फिलहाल, कोई भी देश सामने आकर साइबर वार नहीं छेड रहा है, लेकिन ढके-छिपे तौर पर, पीछे रहकर तकरीबन सब साइबर युद्ध की भूमिकाएं बना रहे हैं, ताकि समय आने पर दुश्मन देश को चित्त कर सकें।
सच तो ये है कि साइबर युद्ध का चेहरा इतना भर नहीं कि मनी ट्रांसफर अवरुद्ध कर दिया जाए, या फिर उसे किसी और एकाउंट में ट्रांसफ़र करने की प्रक्रिया अपनाई जाए। विकिलीक्स के मामले में भी सबसे बड़ी चेतावनी यही है कि कुछ और जानकारियां लीक कर दी जाएंगी। ज्यादा दिन नहीं गुज़रे, जब असांजे के वकील मार्क स्टीफन ने बीबीसी को बताया था कि उनके मुवक्किल ने कुछ सामग्री रोक रखी है। यदि उसे गिरफ्तार किया गया तो ये सामग्री सार्वजनिक कर दी जाएगी। ये कथित विस्फोटक जानकारी अब तक लीक नहीं हुई है, लेकिन मार्क स्टीफन का ये कथन—रोकी गई सामग्री हाइड्रोजन बम की तरह है, अमेरिका की चिंता में इज़ाफा ज़रूर कर रहा है।
असांजे की मुहिम तो सकारात्मक थी, लेकिन ऐसा काम कोई नेगेटिव सोच के साथ करे, तो सोचिए, हालात कितने ख़राब हो सकते हैं?
असांजे की गिरफ्तारी के बाद अमेरिका के खिलाफ़ बढ़े साइबर युद्ध ने इस दिशा में भारत को भी बहुत कुछ सोचने को मज़बूर कर दिया है। दरअसल, इस लड़ाई का हिस्सा बनने से भारत भी बच नहीं सका है। पाकिस्तान ने ‘नकली विकिलीक्स’ को आधार बनाकर हमारे मुल्क को बदनाम करने की कोशिश भी की, लेकिन ये पाखंड ज्यादा देर नहीं टिका। इसके बाद इंडियन साइबर आर्मी ने मुंबई हमले की दूसरी बरसी पर पाकिस्तान की करीब 30 सरकारी साइटों पर हमला कर 26/11 के शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी। इंडियन साइबर आर्मी ने पाकिस्तान सरकार, विदेश मंत्रालय, ऑडिटर जनरल ऑफ पाकिस्तान, विज्ञान और तकनीक मंत्रालय और पाकिस्तानी नौसेना की साइट्स हैक कर ली थीं। जवाब में पाकिस्तानी साइबर आर्मी ने सीबीआई की वेबसाइट पर कब्ज़ा जमा लिया...तो ज़ाहिर तौर पर ख़तरा बड़ा है और सिर पर हाज़िर भी है।
कंप्यूटर नहीं, हेलीकॉप्टर पर निशाना
सूचना युग में हर समय दुनिया में किसी ना किसी कंप्यूटर पर हमारी सूचनाएं दर्ज होती हैं। हैकर्स इन्हीं सूचनाओं के सहारे किसी भी सिस्टम को हैक कर लेते हैं, लेकिन इन साइबर क्रिमिनल्स, यानी हैकर से निपटना कभी आसान नहीं रहा। अब वो हाइजैकर भी बनते जा रहे हैं। वो बंदूक की जगह कंप्यूटर का इस्तेमाल करने लगे हैं। बाइनरी सिस्टम के ज़रिए काम करने वाले कंप्यूटर को हैकरों ने साध लिया है। ये ख़तरा आतंकी संगठनों के ई-मेल भेजने तक नहीं सिमटता। कुछ अरसा पहले तक हम हैकरों की क़रतूत से कभी-कभार ही रूबरू होते थे, जब पता चलता था कि फलां वेबसाइट को किसी ने हैक कर लिया है या फिर ऑनलाइन धोखाधड़ी की है, लेकिन महज पंद्रह दिन पुरानी ख़बर याद कीजिए, आप चौंक जाएंगे। पाकिस्तान साइबर आर्मी ने सीबीआई की वेबसाइट हैक की तो दावा ये भी किया कि एनआईसी के सिस्टम को बाधित किया जा चुका है।
इग्लैंड के अख़बार डेली मेल की एक ख़बर और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून की नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटजी रिपोर्ट से भी पता चलता है कि कई आतंकी संगठनों ने उस तकनीक का विकास कर लिया है, जिसकी मदद से एयरोप्लेन के ऑनबोर्ड कंप्यूटर सिस्टम को नियंत्रित किया जा सकता है। ये ख़तरनाक संकेत है, क्योंकि इस तरह तो कोई भी आतंकी हैकर हवाई जहाज में बैठे बिना किसी भी प्लेन को ध्वस्त कर सकते हैं। ऐसे में ये समझना मुश्किल नहीं है कि हैकरों का शिकंजा सबकी गर्दन पर कसता जा रहा है।
इनसे बचना आसान नहीं है। हमारी सरकार को खास आईटी स्पेशलिस्ट्स की टीम तैयार करनी होगी। यही नहीं, आईटी कानूनों में भी बदलाव करने होंगे। यूं तो, भारत में हैकिंग के दोषी को तीन साल तक की कैद होती है या फिर दो लाख रुपये तक जुर्माना भरना होता है, लेकिन इस सबको तभी लागू किया जा सकता है, जब पता चल पाए कि हैकर आखिर था कौन? सवाल चिंता बढ़ाते हैं, लेकिन इनके जवाब तो तलाशने ही होंगे। भारत को अमेरिका की तैयारियों से भी सबक लेना होगा। हाल में ही अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने माइक्रोसॉफ्ट के सुरक्षा प्रमुख रह चुके हॉवर्ड श्मी को साइबर सुरक्षा प्रमुख तैनात किया, ताकि रूस और चीन की तरफ से आने वाले ख़तरे का मुकाबला किया जा सके, तो भारत क्या सोच रहा है?
(लेखक चर्चित युवा पत्रकार हैं)

Tuesday, December 7, 2010

एक सुरीली आपा, जो दीवाना बना देती है...


दर्द तो दर्द है, क्या तेरा-क्या मेरा। इसकी तासीर इक जैसी है, तड़प का रंग भी है इक जैसा, तभी तो जब आबिदा परवीन की तबियत नासाज़ हुई, तब हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हर जगह मौसिकी के दीवानों ने दिल थाम लिए, दुआएं करने लगे। आबिदा के चाहने वाले इस पार और उस पार, बेशुमार हैं और आपा के नाम से मशहूर सूफी-सिंगर-संत आबिदा भी इस रिश्ते को अच्छी तरह पहचानती हैं, मान देती हैं। आबिदा की सरगम से रिश्तेदारी और भारत-पाकिस्तान में उनकी मशहूरियत रेखांकित करते हुए इस लाज़वाब सिंगर के सफ़र पर एक मुख्तसर-सी नज़र...
`आपा...आप अपना ख़याल रखना। सुन रही हैं ना। क्या पूछा—हम आपके हैं कौन? अजी, हम आपके मुरीद हैं और जो हैं, तो कोई अहसान नहीं कर रहे...आप हैं ही इतनी अच्छी।‘
अहसासों से नम कोई ख़त अगर हिंदुस्तान से पाकिस्तान की ओर रवाना हो और उसमें ऐसे अलफाज़ हों, तो आप क्या सोचेंगे? किसी ने अपनी किसी रिश्तेदार को लिखी होगी चिट्ठी। हां, सच है। रिश्ता तो है। खत लिखने और पाने वाले के बीच। ये रिश्तेदारी खून की नहीं, जज़्बात और अहसास की है।
हिंदुस्तान के लाखों लोग तब से हैरान-परेशान और उदास हैं, जब से सुना कि प्यारी आपा की तबियत नासाज़ है। वो आपा, जो पाकिस्तान की लता मंगेशकर कहलाती हैं, वो—जिनके दर्द भरे नगमे सुनकर सारा मुल्क आंसू बहाता रहा है। अब इस मुल्क का कोई एक नाम नहीं है। ये है पूरा का पूरा मुकम्मल हिंदुस्तान। वही हिंदोस्तां, जिसके ज़िगर का एक टुकड़ा पाकिस्तान कहलाया, तो दूसरे को अंग्रेज़ों ने इंडिया नाम दे डाला। दीवारें खिंच गईं, कांटों की बाड़ लग गई और एक देश के दो हिस्से हो गए पर दिल तो दोनों तरफ एक-सा ही है, दर्द की रंगत एक जैसी है।
यही वज़ह है कि जब रंग बातें करें और बातों से खुशबू आए / दर्द फूलों की तरह महके अगर तू आए / भीग जाती है किस उम्मीद पे आंखें हर शाम / शायद से रात हो महताब लबेजू आए जैसी रचना आपा, यानी आबिदा गुनगुनाती हैं, तो उनकी आवाज़ पर भारत और पाक, दोनों के बाशिंदों के होंठों से मोहब्बत के तराने फूट पड़ते हैं। अंगुलियां मेज़ का कोना भी खटखटाने लगती हैं, जैसे—सामने कोई साज़ रखा हो।
ऐसा हो भी क्यों ना...आबिदा की गायकी में वो अमृत है, जो सुनने वालों की रूह में रच-बस जाता है। अपना हर दर्द हम आबिदा की आवाज़ के साथ सांझा करते हैं। आपा की गायकी ऐसे सुकून देती है, जैसे सांझ के वक्त, तनहाई में किसी ने सिर सहलाकर पूछा हो—तुम इतने अकेले क्यों हो?
सच मानिए, आपा की आवाज़ में क़तरा-दर-क़तरा सारे जहान के लिए मोहब्बत बसती है और उन्हें सुनने वाले मोहब्बत की इस चाशनी से ज़िंदगी की मिठास पुरअसर तरीके से महसूस भी तो करते हैं।
किसी ने ग़लत नहीं कहा है कि कोई सरहद सरगम को नहीं बांध पाती। जिस तरह परिंदे हर दीवार को उसकी हैसियत बताते हुए आसमान की सैर करते एक देश से दूसरे देश सैलानी बने चले आते हैं, वैसे ही तो आबिदा की आवाज़ की नूराई हिंदुस्तान चली आई है। मुल्क के कोने-कोने में आबिदा के प्रशंसक मौज़ूद हैं और शायद ही कोई म्यूज़िक स्टोर हो, जहां आपा की सीडीज़ और कैसेस्ट्स ना मिल जाएं। आपा पॉप और रॉक के दौर में भी सूफ़ियाना अलमस्ती की पैरोकारी करती हैं। यूं तो, उम्र के बहुतेरे पड़ाव पार कर चुकी हैं, लेकिन उनके सुरों में झरने के पानी जैसा बहाव और सुबह की ओस सरीखी ताज़गी बनी-बची हुई है।
वैसे, आबिदा का सफ़र भी कम दिलचस्प नहीं है। बात साठ के दशक की है। तब फ़रीदा ख़ानम और इकबाल खान की ग़ज़लें पाकिस्तान से लेकर हिंदुस्तान तक संगीत के दीवनों की ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा बन चुकी थीं। उसी दौर में सिंध की दरगाहों पर एक लोकगायक भी हाज़िरी लगाया करता था। ये थे—हैदर शाह। हैदर के संग आठ बरस की एक बच्ची भी अक्सर नज़र आती—वही, जो अब अपनी आपा है, यानी आबिदा। जब भी हैदर तान छेड़ते, आलाप के साथ-साथ सुनने वालों के दिल और हथेलियां दोनों मचल पड़ते। एक तरफ तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती और दूसरी तरफ आबिदा के होंठों की मुस्कराहट और, और भी खिलती चली जाती। नन्ही आबिदा की आंखों में खुशी की चमक भर जाती। वो सोचती—अब्बू हों तो ऐसे, देखो—क्या कमाल गाते हैं, लोग वाह-वाह करने को मज़बूर हो जाते हैं।
यूं ही नहीं कहते कि बचपन में कोरी स्लेट से दिमाग पे जो भी इबारत छप जाती है, ता-ज़िंदगी नहीं धुलती, सो गुड्डे-गुड़ियों से खेलने के वक्त में आबिदा ने जो सरगम की तहरीर पढ़ी, फिर तो अब तक दोहराती ही जा रही हैं।
एक दिन रेडियो स्टेशन जाने का मौक़ा मिला। धड़कते दिल और मचलते अरमानों, विरासत में मिली अलमस्ती का एक टुकड़ा और ढेर सारी लाज और हिचक के साथ आबिदा गुनगुनाने लगीं और फिर क्या था, सारी महफ़िल लूट ली उन्होंने। यूं, वहां सुनने वालों की भीड़ ना थी, चंद पारखी ज़रूर थे, जिन्होंने जान लिया—यही है आने वाले वक्त की आवाज़। आबिदा रेडियो के ऑडिशन में चुन ली गईं और फिर क्या था...एक घिसे-पिटे मुहावरे की मदद लेता हूं—उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। देखतीं भी कैसे, वक्त ही ठहरकर सुरों की इस मलिका को निहारने लगा।
बात हैदराबाद स्टेशन की है। यहीं पे शेख़ ग़ुलाम हुसैन म्यूज़िक प्रोड्यूसर थे। वो नौकरी महज इसलिए नहीं करते थे कि पैसे मिलें और घर चले। शेख को ज़ुनून था—कुछ नया करने का और उस पर जो आबिदा की आवाज़ का साथ मिला, फिर तो सारा ज़माना ही मज़बूर हो गया—क़माल की है ये जोड़ी...कहने को। व्यावसायिक साथ जल्द ही जन्म-जन्म तक साथ निभाने के वादे में तब्दील हो गया। आबिदा और शेख मियां-बीवी भी बन बैठे। आपा छोटी थीं, दुनियादारी उन्हें नहीं आती थी, लेकिन मौसिकी की हर बारीकी समझती थीं। बड़ी बारीक़ नज़र रखती थीं हर सुर पर, हर अंदाज़ पर।
शेख और आबिदा ने ग़ज़लगोई के तरीके तक बदल डाले। पहले स्टेज़ पर सिंगर यूं बैठते थे, ज्यूं इबादत के समय बैठा करते हैं। एकदम दरबारी शैली में पर आपा ने दरगाह वाली गायकी की शैली अपनाई। ऐसे, जैसे ध्यान लगाकर कोई सूफी संत बैठता हो। अब, जब खुद से बेख़बर होकर कोई नस-नस में संगीत महसूस करे, गाए, सिर हिलाए और दीवाना हो जाए, तो आप क्यूंकर मतवाले ना होंगे?
आपा की यही शैली तो जादू कर गई। वो गुनगुनातीं ‘चिर कड़ा साइयां दा, तेरी कत्तन वाली जीवे’ और ‘इक नुक्ते विच गल मकदी ए’, तो सन्नाटा-सा छा जाता, बस तान गूंजती और लोगों की तालियां।
दो-चार साल, दस-पंद्रह साल की बात होती, तो गिनीं भी जातीं मज़लिसें, अवार्डों की लिस्ट बनाते, रिसालों और ख़बरों के हवाले देते पर अब चालीस बरस से भी ज्यादा का वक्त गुज़र गया, आबिदा की मशहूरियत का क्या तज़िकरा करें? आबिदा अब भी ज़ोश से भरपूर हैं। वो ‘जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है, संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रखा है’ जैसे कलाम सुनाकर दीवाना बना देने में कामयाब हैं।
हफ़्ता भर पहले आपा दिल्ली में थीं। एक मुख़्तसर-सी गुफ़्तगू के दौरान वो जब बोलीं तो बेधड़क बोलीं—मेरी समझ में तो शरीयत से भी पहले सुर आते हैं। और हैरत भरी नज़र से तकते पाया, तो बताने भी लगीं—मियां, मुझे लगता है कि किसी इंसान ने ये सुर नहीं बनाए। इनमें सारी कायनात की आवाज़ ही शामिल है। देखो, शरीयत में भी तो कहा गया है कि अजान सुरीले तरीके से पढ़ें।
बात हिंदुस्तान-पाकिस्तान के रिश्तों की रटी-रटाई डोर की ओर बढ़ी, तो सदाबहार मुस्कान के साथ कहने लगीं—अल्लाह कभी मोहब्बत की मुखालफत नहीं करता और इबादत दरअसल मोहब्बत ही है। जिसे हम आलाप कहते हैं, वो और क्या है... दरअसल अल्लाह...आप ही तो है।

आबिदा यक़ीनन रश्क करने लायक पर्सनेलिटी हैं। अलमस्त भी और कामयाब भी। मासूम ऐसी हैं, ज्यूं कोई ताज़ा जन्मा बच्चा। किशोरी अमोनकर, परवीन सुल्ताना, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उस्ताद अमजद अली खान जैसों को सुनती हैं, तो घंटों रोते हुए बिताती हैं। कोई देखे, तो क्या सोचे—इतनी बड़ी सेलिब्रिटी और ऐसा दीवानापन. लेकिन कौन बताए—जो प्योर ना होगा, वो मिलावटी ही तो गाएगा-सुनेगा।
आबिदा के लिए हिंदुस्तान-पाकिस्तान दो मुल्क नहीं हैं। वो तो बस इस पार से उस पार, उस पार से इस पार आती-जाती रहती हैं, नफ़रत की जंज़ीरें तोड़कर नेह का प्रसाद बांटने। आपा अक्सर हंसती हैं, जब नहीं हंस रही होती हैं, तो खूब मुस्कराती हैं। खुशी किसी क़दर बिखरने ना पाए, इसका ज़बर्दस्त ख़याल उन्हें है और पॉज़िटिव स्पिरिट—उसके तो कहन  क्या। किसी ने एक बार पूछा—हिमेश रेशमिया कैसा गाते हैं, तो आपा झट बोल पड़ीं—उसकी आवाज़ में दर्द है। इसे कहेंगे विनम्रता, सकारात्मकता और बड़े गायक की कद्रदानी। नुसरत फ़तह अली ख़ान के अलावा, आबिदा की सीडीज़ सारी दुनिया में खरीदी-मंगाई जाती हैं। यूं, जहां नहीं मिलतीं, वहां के लोग भारत-पाकिस्तान आने वालों से कहते हैं, सुनो मियां—जा रहे हो तो मिरे लिए आपा की फलां सीडी लेते आना। बहुत छुटपन में हरिद्वार या इलाहाबाद जाते वक्त लोगों को गंगाजल लाने की बात कहते सुना था। गंगाजल मुक्ति दिलाता है, तो आबिदा की आवाज़ भी ऐसी ही है—हर दर्द से मुक्ति दिला देने वाली, सो इस मांग पर हैरत की बात कहां!

Tuesday, November 23, 2010

अतीत के एलबम से यादों के पन्ने

स्मृतियों का आवेग किसी हैंगओवर से कम नहीं होता, जिससे उबारता है जिम्मेदारी का नींबू पानी। ऎसे ही पहले प्यार की कसक जिंदगी भर साथ रहती है। कितने ही शायरों ने हजारों कलाम टूटे हुए दिल में बसे महबूब के अक्स की तारीफ में लिख डाले, लेकिन अलविदा कहकर चले गए आशिक के साथ बिताए लम्हे भी कौन, कब तक संभालकर रख सका है? फैज अहमद फैज भी ऎसा ही बयान करते हैं- दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया, तुझ से भी दिल फरेब हैं गम रोजगार के।

बीते लम्हों के अक्स जब भी आंखों में उभरते हैं, दिल का कतरा-कतरा जख्मी हो जाता है पर ऎसा नहीं कि हर बार यादें चोट पहुंचाती हों, अक्सर ये भर देती हैं ऎसी कसक से, जिसका कोई अंत नहीं होता। बारहा आंखों में उभरता है बारिश में छप-छप करती नन्ही-नन्ही हथेलियों का क्लोजअप। याद आता है-दौड़के बेर तोड़ना, भागकर साथी को पकड़ना, दादी की गोद में सिर रखकर आधी रात तक कहानियां सुनना। बचपन-जो हर पल साथ रहता है, कभी नहीं छोड़ता। आपको याद आई जगजीत सिंह की आवाज और सुदर्शन फाकिर की गजल-

कड़ी धूप में अपने घर से निकलना/ वो चिडिया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना/ वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी/ वो ख्वाबों-खिलौनों की जागीर अपनी/ न दुनिया का डर था, न रिश्तों के बंधन/ बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी...वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी...।

...बचपन ही क्यों, यादों की एलबम के पन्ने ज्यूं-ज्यूं पलटते हैं, जिंदगी का हर लम्हा जवान होता है। परेशान करता है, अपने आंचल में समेट लेने को जैसे घेर लेता है। आखिर कौन है, जो अतीत से मुक्त हो सका है। वर्तमान और भूत के बीच ये जद्दोजहद अक्सर चलती है। यूं, जिम्मेदारियों की रस्सी बहुत मजबूती से बांधे रहती है, फिर भी हम अतीत की संदूक खोलकर उसमें झांक लेते हैं। ये क्या है, अतीत मोह, नास्टेल्जिया या फिर कुछ और। बिना भूत के किसी का कोई अस्तित्व नहीं। कहते हैं- किसी देश को खत्म करना हो, तो उसका इतिहास नष्ट कर दो। ऎसे ही तो बिना अतीत, बिना इतिहास के हम नहीं, लेकिन किस हद तक। किस कीमत पर। ये सवाल भी मौजू हैं और उतने ही जरूरी, ताकि इन पर जमकर बहस की जाए। समाधान निकाले जाएं। 

यादें क्या हैं और कैसी होनी चाहिए, उनमें किस कदर पड़ा जाए, उनकी कितनी छानबीन हो, ये भी सवाल उठता है पर कहां किसी के हाथ में है स्मृतियों के उलझाव में नाप-तौलकर पड़ना। जिंदगी अपने आप में इम्तिहान है, सो गुजरी और गुजरती जा रही उम्र का हर पड़ाव किसी क्वेश्चन पेपर से कम नहीं। बशीर बद्र तो बाजादि बयान करते हैं-उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।

यकीनन, अलग-अलग लोगों के लिए जिंदगी के मायने भी अलग हैं। किसी के लिए जहर है, तो इसे पीना मजबूरी है, सो किसी और के लिए सेलिब्रेशन। सुदर्शन फाकिर कहते हैं-जिंदगी को भी सिला कहते हैं कहने वाले/ जीने वाले तो गुनाहों की सजा कहते हैं। वहीं आजकल लाइफ स्पिरिट से भरपूर है, मस्ती और आशा से लबालब है। वो अतीत में डूबना किसी उलझाव की तरह समझते हैं। पर ऎसे भी लोग हैं, जिनकी निगाहों में हर पल यादों का नशा छलकता है। यादें अक्सर उदास करती हैं। सुदर्शन फाकिर के शेर गवाही देते है-

गम बढ़े आते हैं कातिल की निगाहों की तरह / तुम छुपा लो मुझे ऎ दोस्त गुनाहों की तरह/ अपनी नजरों में गुनहगार न होते क्यों कर / दिल ही दुश्मन था मुखालिफ के गवाहों की तरह / हर तरफ जीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त / बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह।

जीवन ही क्यों, इसका आईना यानी साहित्य ही अतीत-मोह से कहां बच पाया है। ललित निबंध जैसी विधा और संस्मरण भी नास्टेल्जिया के सबसे बड़े उदाहरण हैं। चर्चित आलोचक अष्टभुजा शुक्ल, हरिशंकर परसाई के ललित निबंधों के बारे में बताते हैं--उनमें व्यक्ति और आत्म का जो स्पर्श है, वह निरंतर गहरी सामाजिकता में रचा-बसा है। दरअसल, चेतना, स्मृति और वर्तमान का अंतर्द्वद्व ही जीवन की सच्चाई है। राजेन्द्र यादव भी कह चुके हैं कि हिंदी में ललित निबंध की मूल चेतना नास्टेल्जिया है।

रामदरश मिश्र जैसे साहित्यकार हों या प्रेमचंद सरीखे अमर कलमकार, सबका साहित्य स्मृति-अंशों से फला-फूला है। हां, हमारे फिल्मी गानों और दृश्यों की अटकाऊ, उलजाई याद-रसायन से इतर वहां आत्ममुग्धता की जगह अतीत की सटीक और निष्पक्ष समीक्षा है। दिक्कत तब होती है, जब वर्तमान को धिक्कार भाव से देखने की सोच अतीत को अधिक रूमानी बना देती है। ये बिंदु जोरदार तरीके से बहस के दायरे में लाने की जरूरत है। वास्तविकता ये कि अतिरिक्त मोह खतरनाक होता है, चाहे वो जीवन के किसी खास चरण के लिए हो या फिर देश, प्रदेश-जिले-मोहल्ले का हो, कोई शख्स दिल की धड़कन पर कुंडली मारकर बैठा हो या फिर विचार का अतिRमण कर रहा हो, नास्टेल्जिया पर मुग्ध होने के साथ ये बात भी भुलाई नहीं जा सकती। 

यूं, जयशंकर प्रसाद इससे अलग बात अपने एक पात्र मधुआ के हवाले से कहते हैं, मौज-मस्ती की एक घड़ी भी ज्यादा सार्थक होती है एक लंबी निरर्थक जिंदगी से। ऎसे में अतीत-मोह से निकल पाने का हल क्या है। क्या बीती हुई यादों मुझे इतना ना रूलाओ, अब चैन से रहने दो, मेरे पास ना आओ, कहने भर से स्मृतियों से पीछा छुड़ाया जा सकता है? नहीं...यकीनन नहीं।

प्रभाष जोशी ने तो बड़ी कड़ी टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था--यथार्थवादी वर्तमानवादी होते हैं। वर्तमान में सिर्फ पशु ही जीते हैं, क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होता...आदमी-आदमी हुआ तो इसलिए कि उसके स्मृति मिली और वह भविष्य के सपने देखने लगा। वर्तमान यथार्थ हो सकता है, परन्तु यथार्थ सत्य नहीं हो सकता। इसी सिलसिले में एग्स विल्सन की बात याद आती है--भारत एक भौगोलिक वास्तविकता से कहीं अधिक परंपरा और एक बौद्धिक आध्यात्मिक ढांचा है। लूट, गुलामी, विध्वंस, बगावत और पुन:निर्माण से जूझते भारत देश में स्मृतियों का पुन: पुन: जागरण एक कुदरती प्रçRया भी तो है। यहीं पर रामदरश मिश्र कहते हैं--बहुत-से लोग गांव से आकर शहर में खो जाते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं कहीं बचा हुआ हूं। 

इसका श्रेय गांव को है, मेरे पैतृक संस्कार को है। वो बताते हैं कि लेखक अपनी जमीन, अपने गांव से जुड़कर उसके बदलाव को रेखांकित करता हुआ भी उसके मूल्यों को भीतर से तलाशता है और ये मूल्य कहीं हैं? उस सही जगह को देखने की कोशिश करता है। यहां अतीत से जुड़ाव कितना सकारात्मक सिद्ध हुआ है। है कि नहीं? पर यही तब बड़ी फांस बन जाता है, जब वर्तमान की उपेक्षा होने लगती है। और अंत में फिर रामदरश जी की बात--वास्तव में नास्टेल्जिया खराब अर्थ में तभी होता है जब आप अपने समय की पहचान छोड़कर 25 साल, 30 साल के समय में दुबक जाते हैं।

सवाल वही-यादों में उलझकर वर्तमान की खिन्नता के साथ उपेक्षा करें या फिर जिम्मेदारियों का बोझ संभालते हुए कुछ- कुछ देर को आंखें भी मूंदते रहें, ताकि बचपन की छुपन-छुपैया खेलने और बारिश में कागज की कश्ती तैराने के दृश्य उभर सकें? जवाब आप ही तलाशें।


Daily News


डेली न्यूज, जयपुर के हमलोग सप्लिमेंट में प्रकाशित (
http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/21112010/Humlog-Special-article/22666.html) कवर स्टोरी

Friday, November 19, 2010

ज़िंदगी की धुन पर मौत का नाच

सारी दुनिया बंधी है कालबेलिया के जादू में पर इसके फ़नकार अब भी तलाश रहे अपनी पहचान

धीरे-धीरे रात गहरा रही है। दिन भर खेल-कूदकर बच्चे थक गए हैं पर निंदिया रानी पलकों से दूर हैं। बच्चे जब सोते नहीं, बार-बार शरारतें करते हैं, तब दादी शुरू करती हैं—एक राजकुमारी की कहानी। राजकुमारी, जिससे प्यार करता है राजकुमार। सफेद घोड़े पे आता है, उसे अपने साथ ले जाता है। बच्चे जब तक सपनों में डूब नहीं जाते, `हां...’, `और क्या हुआ...’, `आगे...’ बुदबुदाते हुए, आंखें खोले, टकटकी लगाए सुनते रहते हैं। कमाल है कि दादी की किस्सों वाली पोटली कभी खाली नहीं होती। उसमें से निकलते जाते हैं एक के बाद एक अनूठे, मज़ेदार, अनोखे किस्से। राजकुमारी के बाद जादूगर, जिसकी जान चिड़िया के दिल में कैद है और फिर नाग-नागिन की बातें। हां...डर रहे हैं बच्चे, सिमट रहे हैं खुद में, सट रहे हैं एक-दूसरे से और सुनते ही जा रहे हैं नाग-नागिन के जोड़े के बारे में। उनसे जुड़ी कितनी ही कहानियां...। मन मोह लेती हैं नाग-नागिन की रहस्यमयी कथाएं। इच्छाधारी नागिन का प्रेमी नाग से मिलना, फिर नाग की हत्या, नागिन का बदला और भी पता नहीं क्या-क्या।
जितनी पुरानी दुनिया है, कुदरत है, उतनी ही तो पुरानी हैं नाग-नागिन की कहानियां। उनके किस्से, अफ़साने और हां, उसी तरह प्राचीन हैं सपेरे और उनका संसार।
बीन बजाता संपेरा याद है? उसकी वो पोटली, जिसमें से पूंछ पकड़कर, कभी गर्दन से थामकर संपेरा सांप निकालता है। ओह...ये क्या, कैसा डरावना सांप है, पर संपेरे नहीं डरते। खेलते हैं ज़हरीले सांपों से। वही क्यों...उनके छोटे-छोटे बच्चे तक, जो बोल तक नहीं पाते, फिर भी नाग का मुंह खोलकर उसके दांत गिनने की कोशिश जो करते हैं।
ये हैं संपेरे, जो मौत के सौदागर सांपों को थामकर, उनका नाच दिखाकर रोजी-रोटी की लड़ाई लड़ते हैं। दिन भर सांपों की तलाश करने या फिर घर-घर उनकी नुमाइश कर शाम तक जुटाते हैं दो रोटी लायक थोड़ा-सा पैसा।
ये हालत यूपी-बिहार के ही संपेरों की नहीं, पूरे देश में संपेरे खुद का अस्तित्व बचाने की जद्दोज़हद कर रहे हैं, लेकिन वो हुनर ही क्या, जो गरीबी के अंधेरे में गुम हो जाए। यही वज़ह है कि संपेरों के फ़न की चमक कहीं कम नहीं हुई है।
इसी सिलसिले में एक सवाल पूछ लें आपसे? राजस्थान की घुमक्कड़ जनजाति कालबेलिया का नाम सुना है? वही कालबेलिया, जिसके नृत्य की धमक से सारी दुनिया गुलज़ार हो रही है। काले कपड़े पहनकर जब कालबेलिया समुदाय की लड़कियां तेज़-तेज़ कदमों के साथ लयात्मक नृत्य करती हैं, तो जैसे कुदरत की हर हरकत ठहर जाती है। सासें थमकर सुनती हैं—जादुई धुन, आंखें देखती हैं अनूठे लोकनृत्य की धूम।
रेतीले रेगिस्तान के बीच बसे गांवों में हर दिन गर्मी से झुलसाता है और रातें ठिठुरन से भर जाती हैं। ऐसे में, कहीं, किसी मौके पर सजती है महफ़िल। महफ़िलें जवान होने के लिए किन्हीं खास मौकों का इंतज़ार कहां करती हैं...ऐसे ही धीरे-धीरे सुलगती लकड़ियां चटखती हैं और फिर धीरे-धीरे शोले परवान चढ़ते हैं। फिर उनके सामने आ जाती हैं दो महिलाएं। ये किसी भी उम्र की हो सकती हैं, यूं, ज्यादातर ये युवा ही होती हैं। 
कालबेलिया जनजाति की युवतियां थिरकना शुरू करती हैं और उनके साथ-साथ ढोरों से होती हुई कसक भरी आवाज़ गूंजती है।
सपेरों का ये नाच ग़ज़ब है। कालबेलिया युवतियों की लोच से भरपूर देह बल खाती है और उन्हें देखने वाले सांसें रोककर जिस्म की हर हरकत देखते हैं...सुध-बुध भुलाकर देखते हैं ग़ज़ब का कालबेलिया नाच।
कसीदाकारी की कलाकारी से भरपूर घेरदार काले घाघरे पर लगे कांच में लपटों की झलक दिखती है। इकहरी-पतली लचकदार देह पे सजा होता है खूब घेरदार घाघरा...घेरदार परतों के बीच लाल, नीली, पीली और रूपहले रिबन से सजी गोट और गोल-गोल शीशे।
जिस्म लहराता है, साथ ही हाथ ज़मीन पर टिक जाते हैं। नर्तकी पीछे को झुकती हुई घूम जाती है। जैसे बदन हाड़-मांस से नहीं बना, रबड़ से तैयार किया गया हो। पैर और गर्दन एक लय पर घूमते हैं। मुस्कराती हैं आंखें और होंठ भी साथ-साथ। नैनों की कटार खाकर हर कोई एकसाथ कह उठता है—`आह और वाह’!

'म्हारो अस्सी कली को घाघरो' की तान छेड़ती नर्तकियां क्या हैं। हर चक्कर के साथ जैसे केंचुल छोड़कर जन्म लेती हुई सांप की बेटी, ताज़ा-ताज़ा पैदा हुई नागिन-सी। मोहक, रहस्यमय, धारदार और उल्लास से भरा यौवन। कौन सोचेगा...अभावों में निखरा हुआ सौंदर्य है ये।
रात गुज़रती जाती है पर कालबेलिया की थिरकन कम नहीं होती। ओढ़नी ओढ़े कालबेलिया युवतियां गोल-गोल घेरे में नाचती हैं, फिरकनी की तरह। उनकी रफ्तार में तब-तब बदलाव आता है, जैसे-जैसे राजस्थानी लोकगीतों की सुरलहरियों में उतार-चढ़ाव शामिल होता है। संगीत भी मादक होता है। एक तरफ बीन की मदमाती धुन, दूसरी ओर ढपली का जादू...। लड़कियां नृत्य करती हैं और साज़ पर तैनात होते हैं सपेरे, यानी पुरुष। ये महिला सशक्तीकरण की मिसाल है, जहां पुरुष सहयोगी की मुद्रा में है। वो नेता नहीं, साथी है, सरदार नहीं, सिपाही है।
पुरुष सहयोगी के हाथ बाज़ों पर तड़पते हैं और बिजली कड़कने जैसी ताल के साथ कालबेलिया लड़कियां नाचती जाती हैं। कहीं कोई पास में ही बैठा तान देता है। ये कोई भी हो सकता है, कोई पुरुष या फिर स्त्री। 
कालबेलिया मनोरंजन के लिए किया जाने वाला कोई आम नृत्य नहीं है। थिरकन के इस जादू में छिपा है जीवन का गहरा संदेश...मृत्यु सत्य है। वो आनी ही है। उसका सामना करो।
जैसे, शिव ने संसार की रक्षा के लिए विष पिया। ज़हर को गले में रोकने के लिए नीलकंठ हो गए, वैसे ही तो संपेरन लड़कियां कालबेलिया नृत्य करती हैं। यही बताती हुई—मृत्यु का सामना करना जानो। उनकी मुद्रा बताती है—हम अभाव में जीते हैं, फिर भी ज़िंदगी को ज़हर नहीं समझते।
कालबेलिया घुमक्कड़ जाति है। नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे सांप पकड़ने, उनका प्रदर्शन करने के अलावा, और कोई हुनर उनके पास नहीं है। हां, कुछ कालबेलिया आटा पीसने की चक्की और खरल-बट्टा भी बनाते रहे हैं। बीते कुछ साल में ज़रूर उनमें ठहराव आया है, लेकिन रोजमर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए अब भी जद्दोज़हद करनी पड़ती है।
राजस्थान की तमाम घुमंतू जातियां पुख्ता पहचान के लिए जूझ रही हैं। ये मूलभूत सुविधाओं के लिए सरकार का मुंह देखते हैं और बस बिसूरते रहने को मज़बूर हैं।
बंजारा, कालबेलिया और खौरूआ जाति के लोगों के पास राशन कार्ड और फोटो पहचान पत्र तक नहीं होते, ऐसे में उन्हें नरेगा जैसी योजनाओं का फायदा नहीं मिल पाता। राजस्व रिकॉर्ड में कालबेलिया के नाम के साथ नाथ या जोगी लिखा जाता है। वो गरीबी रेखा से नीचे के वर्ग में भी शामिल नहीं किए जाते। ऐसी हालत में संपेरे अपने सुनहरे दिनों के आने का कभी ना खत्म होने वाला इंतज़ार ही करते जा रहे हैं।
ये दीगर बात है कि कालबेलिया नृत्य ज़रूर संपेरों के ख्वाबों, ज़िंदगी की यात्रा और सोच को ऊंचाई तक ले जा रहा है। ऐसी ऊंचाई, जिस तक पहुंचने का ख्वाब दुनिया के बड़े-बड़े कलाकार देखते हैं।
इन्हीं संपेरों के बीच की एक लड़की है धनवंती। धनतेरस के दिन जन्मी थी, इसलिए नाम पड़ा धनवंती। बचपन और जवानी दोनों मुफलिसी में गुज़री पर आज के दिन वो धन और शान, दोनों का पर्याय बन गई है। 1985 में हरियाणा की एक पत्रिका ने उसे पहली बार गुलाबो नाम दिया और फिर तो यही नाम कालबेलिया का पर्याय बन गया।
153 देशों में प्रस्तुतियां दे चुकीं गुलाबो को 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वो लंदन के अलबर्ट हॉल में परफॉर्म कर चुकी हैं, ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ तक से सराहना पा चुकी हैं, लेकिन 90 के दशक से पहले वो ख़तरनाक सांपों की खिलाड़न भर थीं। सांप नचाकर लोगों का मनोरंजन करती गुलाबो आज राजस्थानी लोकनृत्य कालबेलिया की पहचान बन गई हैं। देश की सरहदों से पार, परदेस में जगह-जगह कालबेलिया पेश कर वाहवाही हासिल कर चुकी गुलाबो का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। राजस्थान के लोग अपनी संपेरन-जादूगरनी-कलाकार गुलाबो का ज़िक्र बड़ी इज़्ज़त के साथ करते हैं। वो चाहती हैं, इस नृत्य का सम्मान और बढ़े। अपने पिता को याद करते हुए गुलाबो कहती हैं—बापू मुझे समझाते थे, कुछ भी करना पर चोरी की राह पर ना चलना। मेरे लिए जीवन का यही मूलमंत्र है।
गुलाबो और उन जैसी दीवानी नृत्यांगनाओं के ज़रिए कालबेलिया की धमक कहां नहीं पहुंची। मौजूदा साल में भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी की। खेलों के उद्घाटन समारोह की शान भी कालबेलिया नृत्य ने ही बढ़ाई। गुलाबो के दल का हिस्सा पुष्कर की पांच कालबेलिया नर्तकियां बनीं। उन्होंने सारी दुनिया को एक बार फिर कालबेलिया के सम्मोहन से जकड़ दिया। ये लड़कियां हैं—कुसुमी, मीरा, सुनहरी, रेखा और उनके साथ गुलाबो भी। ये अजमेर के गनाहेड़ा रोड पर न्यू कॉलोनी और देवनगर के बीच के इलाके में झोपड़ों में रहती हैं। 
इन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन के मौके पर नृत्य का जादू दिखाया। एक तरफ ढपली, झांझरी, रावणहत्था और अलगोजा की धुन थी और दूसरी तरफ कालबेलिया की थिरकन। लोग वाह-वाह कर उठे।
यूं तो राजस्थान का कालबेलिया ने बड़ा नाम किया है, लेकिन इसके कलाकारों की फ़िक्र किसी ने भी नहीं की। साल 2007-08 के बजट में कालबेलिया स्कूल ऑफ डांस की शुरुआत करने की घोषणा की गई थी। इसके लिए एक करोड़ रुपये आवंटित भी किए गए थे पर कई साल गुज़र जाने के बाद भी इस स्कूल की शुरुआत तक नहीं हो सकी है।
संस्थान बनाने के लिए जयपुर के हाथीगांव के पास जयपुर विकास प्राधिकरण ने 1.25 हेक्टेयर ज़मीन का आवंटन किया। चारदीवारी भी बनवाई गई पर अब ये ज़मीन बेकार पड़ी है। 7 करोड़ रुपये के इस प्रोजेक्ट में बाद में कोई राशि जारी नहीं की गई। प्रशासन एक बार फिर सुस्त पड़ा है। किसी को कालबेलिया के उत्थान की फ़िक्र नहीं है। अफ़सोस, जो नृत्य राजस्थानी लोकसंगीत की पहचान है, उसके फ़नकारों की ही कोई पहचान नहीं। कम से कम सरकारी फाइलों में तो वो अब भी अपना वज़ूद तलाश रहे हैं।
कहने की बात नहीं कि कालबेलिया नृत्य का संस्थान बन जाता, तो सरकार की आमदनी बढ़ती और इस फ़न से जुड़े फ़नकारों का नाम भी होता। यही नहीं, इस नृत्य को संरक्षित रखा जा सकता, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच यही है कि कालबेलिया की नृत्यशैली और इसके कलाकार अब तक अपना संरक्षक ढूंढ़ रहे हैं, जो सत्ता और सियासत के बीच कहीं खो सा गया है। कबीलाई संस्कृति से निकलकर कालबेलिया नृत्य की चमक बिखेरने वाले युवक-युवतियां चाहते हैं—उनके जीवन में भी थोड़ी-सी रोशनी भर जाए। क्या ऐसा होगा?


दैनिक स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित आलेख

Monday, November 15, 2010

बदलती दुनिया की `आभासी’ खिड़कियां

एक अंकुर जब ज़मीन से उभरता है, तो अनगिनत परतें तय करके दरख़्त बनता है, यूं ही ज़िंदगी की पहली सांस से जवानी और फिर फ़ना होने तक कितने ही क़दम आगे बढ़ाने होते हैं। जीवन के इस सफ़र में बहुतेरे रिश्ते साथ जुड़ते हैं, अहसास बुलंद होते हैं और तब कहीं कोई मुकम्मल होता है। जीवन यात्रा के कई पड़ाव हैं। कहीं हम ठहरते हैं, कहीं तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ जाते हैं...लेकिन दोस्तों का, संबंधों का तानाबाना हरदम साथ रहता है। दोस्त, सिर्फ वही नहीं, जो आंखों के सामने, चाय की प्याली के साथ, चिट्ठियों और फ़ोन पर संग-संग होते हैं, कई बार उनसे भी ग़ज़ब की अटूट रिश्तेदारी होती है, जो सिर्फ अहसास में होते हैं, आभास में मिलते हैं। ऐसी ही दोस्तियां बुनी जाती हैं आभासी दुनिया, यानी  virtual world में।
जैसे ज़िंदगी गतिशील है, ठीक वैसे ही दुनिया भी लगातार बदल रही है। हम लगातार प्रगति की बातें करते हैं, उसके लिए कोशिशें करते हैं और सजग रहते हैं। कई बार हमें अपने हमख़यालों के बारे में पता चलता है, तो ज्यादातर बार इसी फ़िक्र में दिन बीतता है—हमारे जैसी सोच सबकी क्यों नहीं होती? लेकिन ऐसा नहीं है। दुनिया को बेहतर बदलाव देने की कोशिश में बहुत-से लोग जुटे हैं। आभासी दुनिया में ऐसे ही कई ठिकाने हैं, जहां झांककर हम जान सकते हैं कि संसार कितना गतिशील है। तो आइए, सबसे पहले चलें दुधवा जंगल की ओर। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के पास है दुधवा अभयारण्य। 
महात्मा गांधी ने कहा था, `किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है।‘ पेशे से शिक्षक कृष्ण कुमार मिश्र ने ये बात गंभीरता से समझी और जनवरी, 2010 से शुरू कर दिया एक अनूठा पोर्टल—http://www.dudhwalive.com/

हालांकि कृष्ण कुमार का ये पोर्टल सिर्फ दुधवा जंगल की बातें नहीं करता। मिश्र बताते हैं, `दुधवा लाइव के सृजन का पहला मकसद है, हमारे आस-पास के वन्य-जीवों व पर्यावरण के बारे में दुनिया को बताना।‘ वो अपने मकसद में कामयाब भी रहे हैं। मिश्र की मानें, तो उनके पोर्टल पर आवाज़ उठाने के बाद पक्षी सरंक्षण की मुहिम शुरू हुई। उनका इरादा है कि दुधवा लाइव पर संरक्षित वनों और वन्य जीवों के अलावा गांव-जंवार के पशु-पक्षियों और खेत-खलिहानों की बातें भी की जाएं।
...लेकिन जंगल का मतलब जानवर ही तो नहीं हैं? वनों की एक दुनिया ऐसी भी है, जिसके बारे में बातें करते समय हम सिहर उठते हैं और जंगल को नाम देते हैं—बीहड़। दस्यु गिरोहों की कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनकी अपनी ज़िंदगी-जद्दोज़हद कैसी है, इसकी दिलचस्प कहानी बयां करता है एक ब्लॉग—बीहड़ (http://beehad.blogspot.com/) । औरैया, उप्र के रहने वाले योगेश जादौन ने कई अख़बारों समेत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी काम किया, लेकिन मन में हमेशा ये इच्छा हिलोर मारती रही कि बीहड़ संसार से सबको परिचित कराया जाए, तो ये ब्लॉग बना डाला।
हरे-भरे जंगलों के साथ पानी की चिंता करने वाले पोर्टल और ब्लॉग भी बहुतेरे हैं। इनमें अहम नाम है—http://hindi.indiawaterportal.org/। कृष्ण कुमार की तरह इस पोर्टल के संचालकों को भी महात्मा गांधी का एक कथन बहुत प्रभावित करता है—‘यदि हम कार्य करने में केवल यह सोचकर सकुचाते हैं कि हमारे सारे सपने पूरे नहीं हो सकते अथवा इसलिए कि कोई हमारा साथ नहीं दे रहा, तो इससे केवल हमारी कोशिशों में बाधा ही पड़ती है।‘ 
यकीनन, हिंदी में मौलिक वैचारिक काम करना काफी कठिन है, क्योंकि ज्यादातर संदर्भ अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध हैं, लेकिन 2005 से लेकर अब तक अंग्रेज़ी में लंबे समय तक वाटर पोर्टल चलाने के साथ राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने एनजीओ अर्घ्यम् के साथ हिंदी में पानी पर पोर्टल शुरू किया। कहने की बात नहीं कि इस पोर्टल की मदद से आम लोग भी जल संरक्षण से लेकर पानी के महत्व की हर बात अपनी भाषा में समझ पाने में सक्षम हुए हैं। हिंदी पोर्टल का कामधाम मुख्यतौर पर वाटर कम्युनिटी इंडिया की चेयर पर्सन श्रीमती मीनाक्षी अरोड़ा और सिराज केसर ही संभालते हैं। पानी को लेकर जागरूकता फैलाने वाली कुछ और वेबसाइट्स में http://www.waterresourcesgroup.com/irm/content/home.html, www waterresourcesgroup com, http://www.carewater.org/, http://www.himalayanwater.org/ का नाम शामिल है।
पानी, जंगल, ज़मीन, खेताबीड़ी को लेकर अलग-अलग भाषाओं में चलाए जा रहे पोर्टल और ब्लॉग अच्छा काम कर रहे हैं। इनमें http://www.waterandfood.org/, http://savemaaganga.blogspot.com/, http://www.waterkeeper.org/, http://www.prakriti-india.org/Home, http://www.bhartiyapaksha.com/, http://www.blueplanetproject.net/, खास हैं।
वैसे, एक बात बताइए? क्या आप जानते हैं कि देश के 12 करोड़ किसान परिवारों में से 60 फीसदी के पास बैंक खाते तक नहीं हैं, जबकि आयात के नाम पर विदेशी किसानों को मालामाल किया जा रहा है? जानकारी चौंकाने वाली है...और ऐसी ही बहुतेरी सूचनाएं देता है वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग-- http://khet-khalihan.blogspot.com/।
अब बात करें एक रोचक अभियान छेड़ने वाले पोर्टल की। ये है www.fluoridealert.org। यूं तो, अमेरिका में चूहे मारने के लिए फ्लोराइड का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन उसका परिणाम ये हुआ कि देश का सत्तर फीसदी भूजल फ्लोराइड की वज़ह से दूषित हो चुका है। फ़्लोराइड एक्शन नेटवर्क ने फ्लोराइड प्रदूषण से बचाव के लिए बहुतेरे कार्यक्रम शुरू किए और साथ ही इससे संबंधित पोर्टल भी शुरू किया। इस आभासी मंच पर फ्लोराइड प्रदूषण,  ज़हरीले असर को लेकर बहुत-सी सूचनाएं, आंकड़े और तथ्य मुहैया कराए गए हैं। 
एक तरफ फ्लोराइड का ज़हर और दूसरी ओर विस्थापन की तक़लीफ़...दर्द कैसा भी हो, एक जैसी ही तड़प पैदा करता है। http://matujan.blogspot.com/ ऐसी ही तक़लीफ़ का बयान है। ये ब्लॉग उत्तराखण्ड समेत अन्य हिमालयी राज्यों के लोगों की समस्याएं बयां करने के लिए बनाया गया है। टिहरी पर बांध बनाने को लेकर नाराज़ सिरांई गांव के नौजवानों ने नवंबर, 2001 में संगठन बनाया और ज़ाहिर तौर पर अपनी आवाज़ सारी दुनिया तक पहुंचाने के लिए ब्लॉग भी तैयार कर लिया। वैसे, अब इस ब्लॉग स्वर टिहरी के अलावा, भागीरथी, अलकनंदा व गंगा घाटी के अन्य बांधों को लेकर भी जनचेतना जगा रहा है...।
कुछ और ब्लॉग व पोर्टल हैं, जो नदियों की खुशी और पीर की कथा बयां करते हैं, इनमें http://www.savegangamovement.org/, http://gangajal.org.in/, http://www.neerexnora.com/index.asp, www.holyganga.org, www.navdanya.org प्रमुख हैं।
वैसे, विकास की ख़बरों तक पहुंचने के लिए http://www.im4change.org/hindi/ भी बेहतर मंच है। यहां खेतिहर संकट, गांवों के आंकड़े, बेरोजगारी, घटती आमदनी, माइग्रेशन, भोजन का अधिकार, नरेगा, सूचना और शिक्षा का अधिकार जैसे विषयों पर सार्थक बहस के साथ मिड डे मील, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, कर्ज- आत्महत्या, नीतिगत पहल, पर्यावरण से संबंधित आंकड़े और दिलचस्प चर्चा भी पढ़ने को मिल जाती है।
आंदोलनों और चिंताओं के बीच हमें अक्सर याद आती है बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ की। 1974 में पाठक ने बिहार में सुलभ इण्टरनेशनल शुरू किया। फ्लश शौचालयों को लोकप्रिय बनाने की उनकी ये मुहिम सफाईकर्मियों के लिए वरदान साबित हुई। इस पूरी यात्रा की झलकियां http://www.sulabhinternational.org,  www.sulabhtoiletmuseum.org, www.sulabhenvis.in जैसे लिंक्स के ज़रिए देखी जा सकती है।
कहते हैं, कुदरत के रंग हज़ार हैं, तो आभासी दुनिया कम रंग-बिरंगी कैसे हो सकती है? इसी की गवाही देता है बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण का ब्लॉग-- http://kudaratnama.blogspot.com/। बालू नाम से मशहूर लक्ष्मीनारायण केरल के हैं, अहमदाबाद में रहते हैं और हिंदी में खूब रोचक जानकारियां मुहैया कराते हैं, मसलन—आंध्र प्रदेश के बपाटला कस्बे के बांदा आदिवासी गिद्ध जैसे शवभोजी पक्षी भी खा लेते हैं और ये भी कि असम के एक छोटे-से पहाड़ी गांव जटिंगा में हर साल अगस्त से अक्टूबर के बीच रोशनी जलाते ही दर्जनों पक्षी खिंचे चले आते हैं...। तो पतंगों को रोशनी पर मर मिटते देखा था आपने, लेकिन ऐसी किसी घटना के बारे में सुना था कभी? बेहतरी के लिए बदलाव की रोशनी जलाए हुए आगे बढ़ रहे इन पोर्टलों, ब्लॉगों (जिन्हें हिंदी में चिट्ठा कहा जाता है) के बारे में फ़िलहाल इतना ही...।
समाज, परिवेश, कुदरत और जीवन के बदलाव से जुड़े कुछ और ब्लॉग / पोर्टल
delhigreens com, paryavaran-digest blogspot, jalsangrah.org, matrisadan.wordpress com, nregawatch.blogspot.com, pragyaabhiyan.info, http://www.carewater.org/, narmadanchal.in, http://www.savegangamovement.org/, http://gangajal.org.in/


छोटी-सी बातचीत-1
कृष्ण कुमार मिश्र, मॉडरेटर, http://www.dudhwalive.com/

जंगल पर पोर्टल शुरू करने का इरादा कैसे बनाया?
- इन्टरनेट एक ऐसा माध्यम है, जो हमारी आवाज को इस ग्रह के तमाम हिस्सों में पहुंचाने की क्षमता रखता है। जंगल और जंगली जीवों पर मानवता के कथित विकास के दुष्परिणामों और उनके निवारण की वह बातें जो हाशिए के आदमी की नज़र से होती हैं, कहने की कोशिश ही है ये पोर्टल।
ये प्रयोग कितना सफल रहा है?
दुधवा लाइव का मुख्य मकसद था, अपनी जैव-विविधिता का अध्ययन, सरंक्षण व संवर्धन, जिसमें हमें काफी सफ़लता मिली है।  हमने एक और प्रयोग किया कि वर्चुवल दुनिया से "गौरैया बचाओ अभियान" जैसी गतिविधियां शुरू करें और इसमें चमत्कारिक सहयोग मिला है।
योजनाएं क्या हैं?
फ़िलहाल, दुधवा लाइव को अंग्रेज़ी भाषा में भी पेश कर दिया गया है। आगे भी बदलावों का सिलसिला जारी रहेगा।

छोटी-सी बातचीत-2
मीनाक्षी अरोड़ा, प्रमुख, वाटर कम्युनिटी इंडिया और संचालक, hindi.indiawaterportal.org

पानी पर पोर्टल की शुरुआत के पीछे क्या इरादा था?
पानी पर हिंदी में पोर्टल शुरू करने का इकलौता उद्देश्य ये था कि देश के विभिन्न भागों में पानी के विभिन्न पहलुओं पर हो रही गतिविधियों की जानकारी लोगों तक पहुंचाई जा सके। इसमें हमने "प्रश्न पूछें" जैसी सेवा शुरू की है।
कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
हिंदी पोर्टल की शुरुआत के समय बहुत-सी चुनौतियां हमारे सामने आईं। इनमें आर्थिक, तकनीकी और भाषाई ज्ञान की समस्या प्रमुख थी। आर्थिक रूप से तो रोहिणी निलेकणी ने अर्घ्यम् की ओर से इसे संबल दिया, लेकिन तकनीक को साधने में थोड़ी दिक्कत हुई। यूनिकोड के बारे में पता चलने के बाद हमारी समस्या का समाधान हो गया। पानी-पर्यावरण पर अब तक अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है जिसके कारण हमें अनुवाद का सहारा ज्यादा लेना पड़ता है, लेकिन हम अनुवाद करने के बाद भी उसको कई बार पढ़कर मौलिक हिंदी आलेख बनाने का प्रयास करते हैं।



और अब यहां सोपान स्टेप (जहां मूल रूप में ये लेख छपा) के पेजेज़ की प्रत्यक्ष झांकी



Saturday, October 23, 2010

मायावती जी, सुन लीजिए एक मां का दर्द!

देश की राष्ट्रपति, लोक सभाध्यक्ष, केंद्र में सत्तासीन दल की मुखिया, दिल्ली की सीएम और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री...ये सब महिलाएं हैं। ताक़तवर पदों पर आसीन हैं। दावा है—ये दौर महिला सशक्तीकरण का है पर सच क्या है? जानना चाहेंगे, वो दहला देगा। उत्तम प्रदेश कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में दलित, महिलाएं और मीडिया सब निशाने पर हैं। छह महीने में आधा दर्जन पत्रकार मारे जा चुके। आजमगढ़ में सत्रह साल की दलित युवती से सामूहिक दुष्कर्म हुआ और चंद रोज पहले की घटना भी जान लीजिए।
यूपी के गाजीपुर ज़िले में एक साधारण-से गांव की तीन भोली-भाली निर्दोष औरतें सारी रात नंदगंज थाने में बिठाए रखी गईं। इनमें से एक बीमार थी। बैठ नहीं पाई, तो ज़मीन पर लेट गई। एक अपाहिज थी, वो बैसाखी के सहारे घंटों खड़ी रही। अट्ठारह घंटे तक पुलिसिया सितम झेलने के बाद इन महिलाओं को घर जाने की इजाज़त मिली।
ये सबकुछ विजयादशमी के ऐन पहले हुआ। देश भर में रावण जल रहा था। असत्य पर सत्य की जीत का पर्व मनाया जा रहा था, लेकिन खुशी से सराबोर लोग नहीं जानते थे कि रावण नहीं मरा था। यूपी में वो अट्टहास कर रहा था। अपने अभिमान में चूर ठहाके लगा रहा था।
ये है उत्तर प्रदेश की मासूम महिलाओं का हाल। उस यूपी में, जहां दलितों की बेटी, स्त्रियों की शुभचिंतक मायावती का राज चलता है। वही मायावती, जो वरुण गांधी को जेल भेजने के बाद मेनका गांधी के कटाक्ष—माया मां होतीं तो दर्द समझतीं, पर उबल पड़ती हैं। कह देती हैं—मां का दर्द समझने के लिए मां होना ज़रूरी नहीं है, लेकिन उनके अफ़सर बेगुनाह औरतों पर जुल्म ढाते हैं।
अब जान लीजिए इन औरतों का ज़ुर्म भी। बस इतना कि इनका ताल्लुक एक ऐसे व्यक्ति से था, जो आपराधिक मामले में आरोपी है। आरोपी सरेंडर कर दे, ये दबाव बनाने के लिए पुलिस बेगुनाह महिलाओं को थाने उठा लाई थी।
चंद रोज पहले घटा ये मामला गुम हो जाता। वर्दीवाले गुंडों के रूप में कु-ख्यात पुलिस का कारनामा कोई जान भी ना पाता, लेकिन संयोग ही था कि ये महिलाएं चर्चित मीडिया साइट bhadas4media.com के मॉडरेटर यशवंत सिंह के परिवार की थीं, इसलिए इसकी चर्चा देश भर में हुई। इनमें यशवंत की मां यमुना सिंह,  चाची रीता सिंह और चचेरे भाई की पत्नी सीमा सिंह शामिल थीं।
इस घटना के बाद अयोध्या प्रेस क्लब, जन जागरण मीडिया मंच समेत बहुतेरे मीडिया संगठन सामने आए। उन्होंने दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की मांग की। पूरे देश में विचारोत्तेजक अभियान छेड़ा गया, लेकिन गाजीपुर पुलिस चुपचाप रही। वहां के पुलिस अधीक्षक ने कहा--हमें इस बारे में कुछ नहीं मालूम। ये सफ़ेद झूठ था और इसके जवाब में यशवंत ने वो सभी ई-मेल सार्वजनिक कीं, जो उन्होंने तमाम पुलिस अधिकारियों को भेजी थीं। एसपी ही नहीं, बनारस रेंज के डीआईजी को भी फोन कर जानकारी दी गई थी। शोर बढ़ा, तब कहीं गाजीपुर के एएसपी (सिटी) की अगुआई में पुलिस नंदगंज थाने के अलीपुर बनगांवा गांव पहुंची। वहां पीड़ित महिलाओं का बयान दर्ज किया गया।
ये घटना मायाराज की खोखली हकीकत से परदा उठाती है और ये भी बताती है कि यूपी की पुलिस अपने अफ़सरों से भी नहीं डरती। यशवंत ने जब आईजी को फोन किया, तो उन्होंने महिलाओं को छोड़ने का निर्देश दे दिया, लेकिन स्थानीय पुलिस ने आला अफ़सर की बात तक नहीं सुनी। मामले में इतना ही हुआ है कि आई जी ने जांच रिपोर्ट मंगाई है और वो अब वो इस पर विचार करेंगे। पहले पुलिस क्यों चुप थी, तो वज़ह ये—चुनावों के चलते कोई कार्रवाई नहीं हो सकती।
... तो क्या बस बेगुनाह महिलाओं को उठाया भर जा सकता था? उनके स्वाभिमान से खिलवाड़ ही किया जा सकता था? ऐसे में ताज्जुब क्या कि पीड़ित पत्रकार यशवंत उबल पड़ते हैं—ये मेरी निजी लड़ाई है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा स्त्री के सम्मान के लिए संघर्ष है।
चर्चित संपादक हरिवंश साफतौर पर कहते हैं कि सत्ता आज भी पुराने युग के बर्बर कानूनों को इस्तेमाल कर रही है और ये दुर्भाग्यपूर्ण है। तकरीबन दस दिन गुज़र चुके हैं, लेकिन यूपी की पुलिस स्त्रियों के इस अपमान पर तकरीबन ख़ामोश है। मायावती जी क्या आप सुन रही हैं एक मां का दर्द?

Tuesday, October 19, 2010

ज़िद से जीत तक

भव्यता और प्रभाव, प्रदर्शन और उपलब्धि, पसीना और सोना...यही सब हैं राष्ट्रमंडल खेलों के मुख्य तत्व...आइए, हम आपको मिलवाते हैं इन खेलों में भारत का नाम रोशन करने वाले कुछ ऐसे जांबाज खिलाड़ियों से, जिन्होंने गुरबत को ही ताकत बना लिया, जो मेहनत के दम पर हर सुविधा से आगे निकल आए, जिन्होंने मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुजारते हुए भी सोने-चांदी-कांसे के पदकों से देश की तिज़ोरी भर दी।

कुछ लोग रोते-बिसूरते रहते हैं कि हमारे पास ये सुविधा नहीं, वो खुशी नहीं, इतना पैसा नहीं, उतना आराम नहीं—नहीं तो हम आकाश की छाती में सुराख कर देते...काश! वो गौर से देखते राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन...उनकी समझ में आ जाता कि धन और उन्नति का एकसाथ कोई संबंध नहीं होता।
इस बात को पुख्ता करता है हरप्रीत सिंह का प्रदर्शन। बचपन में गुब्बारों पर निशाना साधते थे, बड़े हुए तो सोने के लक्ष्य पर लगा दी आंख और ऐसी टिकाई कि देश की तिज़ोरी स्वर्णिम आभा से चमका दी। राष्ट्रमंडल खेलों की 25 मीटर सेंटरफायर पिस्टल सिंगल्स और 25 मीटर सेंटरफायर पिस्टल पेयर्स प्रतियोगिता में स्वर्ण और वो भी दो दिन तक लगातार सोना जीतने वाले हरप्रीत के बारे में और कुछ जानना चाहेंगे आप?
हरियाणा के करनाल ज़िले का रहने वाला हरप्रीत किसी अमीर खानदान का लाडला नहीं है। उसने एक फैक्टरी में लोडर का काम किया, ताकि घर में दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम हो सके।
ये देश एकलव्य का देश है, जिसने बिना गुरु के सान्निध्य के सारे जग को वाण-वर्षा के आगे झुका दिया...कुछ ऐसी ही हैं तीरंदाजी में माहिर दीपिका कुमारी। दोहरा स्वर्ण हासिल करने वाली दीपिका के पिता ऑटो रिक्शा चालक हैं, मां नर्स हैं, पूरा परिवार झोपड़ी में रहता है, लेकिन हौसले आसमान को छूते हैं।
दीपिका ही क्यों, भारोत्तोलन की दुनिया में देश का नाम रोशन करने और 69 किलोग्राम भार वर्ग में स्वर्ण पदक हासिल कर नया खेल रिकॉर्ड बनाने वाले के. रवि कुमार भी ऐसा ही नायाब नगीना हैं। उड़ीसा निवासी रवि वो दिन कभी नहीं भुला पाते, जब घर का खर्च चलाने वाले टैक्सी ड्राइवर पिता की असमय मृत्यु हो गई थी। मां के नाजुक कंधों पर पूरे परिवार का पेट पालने की ज़िम्मेदारी थी और रवि की आंखों में पल रहे थे बेशुमार सपने। मां आंगनबाड़ी जातीं, जमकर मेहनत करतीं, ताकि बच्चों को रोटी मिल पाए और रवि दिन-रात पसीना बहाते, ताकि कुछ कर गुजरने के सपने मंज़िल तक पहुंच जाएं। आज दोनों के दिल खुशी से लबालब हैं—मां को नाज़ है कि बेटे ने उनका और देश का नाम रोशन किया, तो बेटे को फ़ख्र है राष्ट्र की मिट्टी पर, जिसने उनके पसीने से सिंचकर सोना उगा दिया।
जज़्बा, जुनून और ज़िद हो, तो इंसान क्या नहीं कर सकता। इसी का प्रमाण हैं तैराकी की नायाब कला के बेमिसाल उदाहरण—प्रशांत कर्माकर। एक बार बस में सफ़र करते वक्त बगल से निकले ट्रक ने उनके एक हाथ की बलि ले ली पर हाथ नहीं तो क्या हुआ...कहते हैं—इंसान ज़िद कर ले, तो सारी दुनिया को झुका सकता है। प्रशांत ने भी कसम खाई कि हार नहीं मानेंगे। उन्हें सहानुभूति नहीं, सम्मान पाना था। लेकिन ज़िद भर होती, तो मंज़िल ना मिलती। उन्होंने जी-जान लगाकर मेहनत की और फिर शीर्ष पर स्थान बना लिया। प्रशांत ने 50 मीटर पैरास्पोर्ट्स फ्री-स्टाइल एस-9 पुरुष वर्ग में देश के लिए कांस्य पदक हासिल किया है।
प्रशांत के साथ जब हादसा हुआ था, तब वो दादी के साथ ही सफ़र कर रहे थे। अब भी दादी की आंखों में वो लम्हा ठहरा हुआ है, लेकिन पोते के कमाल और उपलब्धियों ने दिल के दर्द पर कुछ मरहम ज़रूर लगा दिया है।
आशीष कुमार ने जिम्नास्टिक आर्टिस्टिक वर्ग में वाल्ट स्पर्धा में रजत और फ्लोर एक्सरसाइज में ब्रोंज मेडल हासिल किए। उनकी ये उपलब्धि दुनिया के सामने हमारा सिर इसलिए भी ऊंचा करती है, क्योंकि खेलों के संसार में भारत ने अब तक एथलेटिक्स में कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया था।
इलाहाबादी छोरे आशीष की उम्र सुनेंगे तो चौंक जाएंगे। महज—19 साल। ऐसी उम्र में तो नौजवान लड़के-लड़कियां मोबाइल पर मैसेजिंग करने में ही मशगूल रहते हैं, लेकिन आशीष दिन-रात देखे बिना हर पल बस खेल के बारे में ही सोचते रहे, अभ्यास करते रहे। पिता चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं। उनके घर में लोगों की आरजुएं उभरती भी नहीं, ज़ुबान तक आने से पहले ही थम जाती हैं। वज़ह यही—चादर छोटी है, पैर ज्यादा ना पसारो, लेकिन नन्ही-नन्ही आंखों में बड़े सपने देखने वाले आशीष ने क्लर्क की नौकरी करते हुए भी ख्वाबों को झुलसने नहीं दिया।
और अब बात एथलेटिक्स की सूरमा कृष्णा पूनिया की। उन्होंने देश को 52 साल बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स में सोना दिलाया है। आपको बता दें कि 1958 में कार्डिफ में हुई प्रतियोगिता में मिल्खा सिंह 400 मीटर दौड़ में पदक लाए थे। वही मिल्खा इस बार निराश और नाराज़ थे। उन्होंने कहा था—दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में भारत को सोना नहीं मिलेगा, लेकिन उन्हें तब सबसे ज्यादा खुशी हुई होगी, जब कृष्णा ने उनकी बात गलत साबित कर दी और सोने का पदक चूम लिया! 
28 साल की कृष्णा महीनों तक डेढ़ साल के बच्चे और पति व कोच वीरेंद्र से दूर रहीं। कैसे कटते होंगे दिन के 24 घंटे...हर वक्त अपनों से बिछड़कर रहना...पर देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा ही तो ऐसे खिलाड़ियों को महान और प्रणाम के काबिल बनाता है। भारत को ऊंचाई, खुशी और सोने-चांदी-कांसे के गौरव से मालामाल कर देने वाले इन खिलाड़ियों को दिल से सलाम। देश को मिले 101 पदकों का शगुन लाने वाले ये खिलाड़ी ही असल मायने में रोल मॉडल हैं, जो बताते हैं—मुफलिसी मज़बूत बना देती है। आपको आगे लाकर खड़ा करती है। अभाव पक्का करते हैं और जिगर में ज़िद पैदा करते हैं—हमें जीतना ही होगा...।

Tuesday, October 5, 2010

अफसानों में अपने बुजुर्ग



`अहदे-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आंखें मूंद / यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया' ... मीर तकी मीर का ये शेर बताता है--जवानी तो मरते-मिटते, नावां और नाम कमाते, बस जुटे रहने का नाम है, बुढ़ापा वक़्त है आराम से ठहरकर सोचने का...ये महसूस करने का--क्या था, जो दौड़भाग में छूट गया, वो वक्त कैसा था, जो हाथ से फिसल गया और फिर ये फैसला करने का--यादों की धुंधली तस्वीरों को फिर ताज़ा किया जाए और कोशिश की जाए, उन सब ख्वाबों को पूरा करने की, जो अधूरे रह गए। सच है...बुढ़ापा थककर निढाल हो जाने का सबब बनकर नहीं आता। ये वो सांझ है, जिसे मीर जैसे शायर सुबह का नाम देते हैं, जिसमें--मज़बूरी वाली ज़िम्मेदारी नहीं...खुला आसमान है...जो बुला रहा है--मन परिंदा तोड़ के पिंजरा, आ जा खुली हवा में झूमें।
यूं तो, शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक जैसे शायर ठंडी आहें भरते हुए शेर सुनाते हैं-- वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें / ऐसे हैं जैसे ख़्वाब की बातें..., वहीं आशापूर्णा देवी के उपन्यास मन की उड़ान का नायक प्रभुचरण भी सोचता है--`बुढ़ापा जाड़े के मौसम जैसा है। प्रति क्षण स्मरण करा देता है कि अब रोशनी का खजाना खत्म होने को है, अंधकार छाने ही वाला है।' लेकिन ऐसी निराशा को तोड़ते हुए अगले ही चौराहे पर गुलज़ार टकरा जाते हैं...वो कहते हैं--सारी जवानी कतरा के काटी पीरी में टकरा गए हैं...हां, कई ख्वाब ऐसे ही यादों की संदूक से बाहर निकलते हैं और धुंधलाते चश्मे पर आकर ठहर जाते हैं, ऐन निगाह के सामने, कहते हैं--अब तो मियां वक्त है, हमें पूरा करो ना।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे के 'ओल्ड मैन एंड द सी' का बूढ़ा मछुआरा ही कहां झुकता है? ना वो खुद का भरोसा टूटने देता है, ना हमारा। हेमिंग्वे कहते भी थे--इंसान को बर्बाद किया जा सकता है, लेकिन हराया नहीं जा सकता, सो उनके उपन्यास का हीरो भी हारता नहीं है।
तो ज़िंदगी की ये दूसरी पारी क्या है, कैसी है...ये जानना, समझना खूब दिलचस्प है और हिंदी समेत दुनिया भर के हर साहित्य में बुजुर्गों की खूब, खू़बसूरत दास्तान भी है। चेखव की ओल्ड एज के साथ ही एक और मशहूर नॉवेल याद आ रही है गाब्रिएल गार्सिया मर्कुएज़ की `लव इन द टाइम ऑफ़ कोलेरा'। इस कृति में पकी हुई उम्र, बढ़ी हुई बीमारी और बिगड़ी हुई दिल की हालत का एकसाथ ज़िक्र है, लेकिन नायिका यहां अंत तक हर उस बात से जूझती है, जो उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा सकती है।
और, प्रेमचंद का भगत? मंत्र का कथानायक, उसकी आंखों से ही तो हम देखते हैं डॉक्टर चड्ढा का घमंड, जब वो एक गरीब आदमी का बीमार लड़का देखने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि यह उनके खेलने का समय होता है। `बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भांति निश्चल खड़ा' रहकर लौट जाता है...उसी दिन उसका बेटा गुज़र जाता है पर वक्त लौटता है। एक दिन चड्ढा का बेटा कैलाश प्रेयसी की ज़िद में सांप की गरदन पकड़कर जोर से दबा देता है और फिर सांप उसे डस लेता है। बहुत-सी कोशिशें होती हैं। नामी-गिरामी वैद्य, डॉक्टर, तांत्रिक आते हैं पर कैलाश को कोई जिला नहीं पाता, इसी समय आता है भगत। वही बूढ़ा, जिसके बेटे को देखने से डॉक्टर चड्ढा ने मना कर दिया था। वो कैलाश के ठंडे पड़े बदन में सांसें फूंककर लौट आता है, लेकिन बदले में एक बीड़ी तक नहीं पीता...। ऐसे बुढ़ापे पे तो हज़ार ज़िंदगियां कुर्बान...है कि नहीं?
प्रेमचंद की एक और कहानी अक्सर याद आती है--बूढ़ी काकी। 1921 में लिखी गई इस कहानी की शुरुआत में ही वो बताते हैं--`बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही।' अब कोई बच्चा रो-रोकर, गला फाड़कर अपनी ओर खींच लेता है, तो कोई बुज़ुर्ग अगर अपना हाल-ए-दिल बयां करना चाहे, तो हम उससे आंख क्यों चुराएं। `बूढ़ी काकी' में कथा सम्राट बताते हैं काकी के बारे में, जिनकी `...समस्त इन्द्रियां, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं।'
काकी के पति थे नहीं, बेटा भी स्वर्ग सिधार चुका था। भतीजे के नाम सारी जायदाद लिख दी थी, जिसे अब उनसे कोई मतलब नहीं था, यूं तो भतीजे `बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था'...लेकिन काकी से सचमुच कोई प्रेम करता था, तो वो थी बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली। कहानी का सबसे दिलचस्प मोड़ है बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम के तिलक का मौक़ा। काकी इंतज़ार करती हैं कि उन्हें पूड़ी मिले। देर हो गई, तो बेचैन हुईं पर रोईं नहीं कि अपशकुन होगा। अजवाइन और इलायची की महक बता रही थी कि पूड़ी गरम-गरम और जायकेदार है।आखिरकार, सब्र नहीं रहा, तो चौखट से उतरीं और कड़ाह के पास जा बैठीं। भतीजे की पत्नी ने देखा, तो बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोलीं-- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? बूढ़ी काकी चुप रहीं...कुछ ना बोलीं...चुपचाप लौट गईं। फिर भी देर रात तक पूड़ियों का इंतज़ार था। फिर से आंगन में आ गईं, तो एक मेहमान चिल्लाने लगा। इस बार भतीजे ने उन्हें कोठरी में ले जाकर पटक दिया। आखिरकार, लाडली अपने हिस्से की पूड़ियां बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली। 
यहीं पर सतीश दुबे की लघुकथा ‘बर्थ-डे गिफ्ट’ की याद भी आ जाती है। दादाजी के लिए उनकी पांच साल की पोती एक टॉफी छुपाकर रख देती है। फ़िलहाल बात लाडली की, वो काकी के पास पहुंची और बोली-- 'काकी उठो, मैं पूड़ियां लाई हूँ।' काकी पूड़ियों पर टूट पडीं। उनका पेट ना भरा, तो पोती ने उन्हें जूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। `दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी।'  भतीजे की बहू रूपा ने ये सबकुछ देखा, तो स्तब्ध रह गई। रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली।' उसने माफ़ी मांगी और फिर तो `भोले-भोले बच्चों की भांति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है , बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थीं'।
चलिए, रूपा ने देर से ही सही, काकी की इच्छा का सम्मान किया। ऐसे ही ज़रूरी है कि सब समझें अपने बुज़ुर्गों को, उनके सपनों को। 
फ्रांस की चिंतक सिमोन द बउवा की किताब है--‘ला विल्लेस’, इसका अंग्रेज़ी अनुवाद है--‘ओल्ड एज’ (अनुवादक-पैट्रिक ओ ब्रैन)। सिमोन साफ़ कहती हैं कि `बूढ़े लोगों के मामले में यह समाज न केवल दोषी है, बल्कि अपराधी भी है...फ्रांस की बारह प्रतिशत जनता पैंसठ वर्ष पार कर चुकी है और इतनी बड़ी संख्या गरीबी, उपेक्षा और निराशा झेल रही है। अमेरिका में भी लगभग यही स्थिति है।...बुढ़ापे को समाज में एक ही तरह से नहीं देखा जाता है। प्रायः बचपन से युवावस्था में कदम रखने की आयु 18 से 29 वर्ष की मानी जाती है, जबकि बुढ़ापे में कदम कोई किस आयु में रखता है, इसकी लकीर कहीं भी नहीं खींची गई है।' सिमोन सवाल करती हैं, `जब इन वृद्धों में वही ख्वाहिशें, वही संवेदनाएं और वही आवश्यकताएं हैं, जो युवाओं की हैं, तो फिर क्यों दुनिया इनको घृणा की नज़र से देखती है?'... ऐसे में तो ये बात एकदम सच्ची-पक्की-दुरुस्त है कि क्या समझें, रूपा की तरह बहुत-से लोग, सरकारें, कानून सब नींद में सोए हुए हैं।
वैसे, नींद में सिर्फ नौजवान नहीं हैं। कई जगह माता-पिता भी अपेक्षाओं से इस कदर घिरे हैं कि सच्चाई से दूर भागते हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा अपनी लघुकथा ‘कथा नहीं’ में ऐसा ही सवाल खड़ा करते हैं। उनके कथानायक बूढ़े मां-बाप हैं, जो दुखी हैं, क्योंकि बेटा उनकी देखभाल नहीं करता, लेकिन वो ये नहीं देखते कि बेटे की हालत कैसी है...पर भला हो साहित्यकारों का कि वो हर तरह की नींद ख़त्म करने में लगातार जुटे हैं। 
उषा प्रियंवदा की कहानी `वापसी' में हम उस बुज़ुर्ग से मिलते हैं, जो पूरी जवानी खर्च कर घर लौटा है, लेकिन यहां भी एक सत्ता उसके लिए तैयार है--उपभोक्तावादी संस्कृति की, जहां वो बेकार है, बिना काम का है। पैंतीस साल तक परिवार पालने वाले गजाधर बाबू को रिटायरमेंट के बाद बेटे, बेटी, बहू और पत्नी तक के सामने खुद का वज़ूद साबित करने की जद्दोज़हद झेलनी पड़ती है। आख़िरकार, वो ऐसा रास्ता तलाशते हैं, जहां उनके अपने सपनों के लिए बची हुई ज़मीन है।... तो एक कोण ये भी है, जहां बुजुर्ग अपने लिए अंत तक लड़ते-भिड़ते हैं।
चित्रा मुद्‌गल का उन्यास `गिलिगडु' बुज़ुर्गों के लिए चिंता और उन्हें समझने की ज़रूरत पर ही जोर देता है। एक साक्षात्कार में चित्रा ने कहा था--जब उन्हें पता चला कि 225 लोगों की क्षमता वाले वृद्धाश्रम के लिए पांच हज़ार आवेदन आए, तो वो स्तब्ध रह गईं। आख़िरकार, जिन लोगों ने सारी ज़िंदगी अपनों को बनाने-तराशने में खर्च कर दीं, उन्हें ही जीवन-संध्या में खुद के लिए ठिकाना तलाशने की ऐसी जद्दोज़हद करनी पड़ रही है?
हालात ऐसे हों, तो बुज़ुर्ग क्या करें, क्या दुख से धधकने लगें और खुद में ही सिमट जाएं? भीष्म साहनी की यादें और चीफ की दावत याद कीजिए। एक जगह दो बुजुर्ग लखमी और गोमा यादों की संदूक खोलते हैं और सबकुछ भुलाकर खिलखिलाने लगते हैं, वहीं चीफ की दावत में मां घर में फालतू सामान-सी मौजूद है।
ऐसे ही समय में बुजुर्ग सोचते हैं, जब हमारी किसी को ज़रूरत नहीं तो क्यों ना हम अपना आसमान खुद तलाश करें। मोहन राकेश की कहानी `मलबे का मालिक' में एक बुढ़िया हर मोड़ पर भटकते हुए जानना चाहती है कि दंगों में मारे गए बेटे की जायदाद की वारिस उसे होना है, वो क्या करे।
यूं, बहुतेरे लोग ज़िंदगी इसी जद्दोज़हद में काट देते हैं कि बुढ़ापे में क्या करेंगे। असमिया लेखक लक्ष्मी नंदन बोरा की नॉवेल  ‘कायाकल्प’ यौवन फिर हासिल करने के लिए वृद्धावस्था को रोकने की कवायद का बयान करती है। ऐसी कोशिशें इसी विचार से उपजी हैं कि बुढ़ापा वो हालत है, जो लाचारी लेकर आती है...काश! कोई समझे कि पीरी तो ललक लाने वाली उम्र है...सपनों को फिर बुनने की रस्म है...बस इस सांझ को थोड़ा गुलाबी बना दिया जाए। जिन कंधों ने हमें बचपन में सहारा दिया था, उन्हें अपनी बाहों का, सीने के दम का बल दिया जाए, फिर देखिएगा...उम्मीद, आशा, अनुभव का संगम सिर चढ़कर बोलेगा।

(दैनिक भास्कर की विशेष परिशिष्ट में प्रकाशित, इसे यहां भी पढ़ सकते हैं http://www.bhaskar.com/article/ABH-elderly-in-mistries-1418130.html)

Friday, September 17, 2010

अयोध्या का दर्द



साभार...फोकस टीवी, प्रवक्ता.कॉम <http://www.pravakta.com/?p=13377>और  हस्तक्षेप.कॉम<http://hastakshep.com/view_info.php?id=87>
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24 सितंबर को अयोध्या की विवादित ज़मीन के मालिकाना हक़ पर ऊंची अदालत का फ़ैसला आएगा...निर्णय क्या होगाकोर्ट ही जानेउससे किसे ख़ुशी मिलेगी और किसका चेहरा लटक जाएगा
ये भी वक़्त बताएगालेकिन अयोध्या की पीर कब कम होगी...
ये एक बड़ा सवाल है...
अयोध्या की पीड़ाउसकी ही ज़ुबानी...




मैं अयोध्या हूं...।




राजा राम की राजधानी अयोध्या...।
यहीं राम के पिता दशरथ ने राज किया...यहीं पर सीता जी राजा जनक के घर से विदा होकर आईं। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ। यहीं बहती है सरयू, लेकिन अब नदी की मस्ती भी कुछ बदल-सी गई है। कहां तो कल तक वो कल-कल कर बहती थी और आजजैसे धारा भी सहमी-सहमी है...धीरे-धीरे बहती है। पता नहींकिस कदर सरयू प्रदूषित हो गई है...कुछ तो कूड़े-कचरे से और उससे भी कहीं ज्यादा सियासत की गंदगी से। सच कहती हूं...आज से सत्रह साल पहले मेराअयोध्या का कुछ लोगों ने दिल छलनी कर दिया...वो मेरी मिट्टी में अपने-अपने हिस्से का खुदा तलाश करने आए थे...।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ...
सैकड़ों साल से मज़हबों के नाम पर कभी हिंदुओं के नेता आते हैंतो कभी मुसलमानों के अगुआ आ धमकते हैं...
वो ज़ोश से भरी तक़रीरे देते हैं...अपने-अपने लोगों को भड़काते हैं और फिर सब मिलकर मेरे सीने पर घाव बना जाते हैं...। कभी हर-हर महादेव की गूंज होती हैतो कभी अल्ला-हो-अकबर की आवाज़ें आती हैं....
लेकिन ये आवाज़ेंनारा-ए-तकबीर जैसे नारे अपने ईश्वर को याद करने के लिए लगाए जाते हैं...पता नहीं...ये तो ऊंची-ऊंची आवाज़ों में भगवान को याद करने वाले जानेंलेकिन मैंनेअयोध्या ने तो देखा है...अक्सर भगवान का नाम पुकारते हुए आए लोगों ने खून की होलियां खेली हैं...और हमारे घरों से मोहब्बत लूट ले गए हैं। जिन गलियों में रामधुन होती थी...जहां ईद की सेवइयां खाने हर घर से लोग जमा होते थे...वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है...वहां नफ़रतों का कारोबार होता है।
किसी को मंदिर मिलाकिसी को मसज़िद मिली...हमारे पास थी मोहब्बत की दौलतघर को लौटेतो तिज़ोरी खाली मिली। छह दिसंबर1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ...हो गया पर वो सारा मंज़र अब तक याद आता है...और जब याद आता हैतो थर्रा देता है। धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़ेउनकी छातियां चौड़ी हो जाती हैं...कोई शौर्य दिवस मनाता हैकोई कलंक दिवसलेकिन अयोध्या के आम लोगों से पूछो--वो क्या मनाते हैंक्या सोचते हैं बाकी मुल्क के बाशिंदे क्या जानते हैं...क्या चाहते हैंवो तो आज से सत्रह साल पहले का छह दिसंबर याद भी नहीं करना चाहतेजब एक विवादित ढांचे को कुछ लोगों ने धराशायी कर दिया था। हिंदुओं का विश्वास है कि विवादित स्थल पर रामलला का मंदिर था। वहां पर बनेगा तो राम का मंदिर ही बनेगा...। मुसलिमों को यकीन है कि वहां मसज़िद थी।
जिन्हें दंगे करने थेउन्होंने घर जलाएजिन्हें लूटना थावो सड़कों पर हथियार लेकर दौड़े चले आए नफरतों का कारोबार उन्होंने किया...और बदनाम हो गई अयोध्या...मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का?
मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पांच जैन तीर्थंकर यहां जन्मे इनके मंदिर भी तो बने हैं यहां. वो लोग भला क्यों नहीं झगड़ते। नहीं...मैं ये नहीं चाहती कि वो भी अपने मज़हब के नाम पर लड़ाइयां लड़ेंलेकिन मंदिर और मसजिद के नाम पर तो कितनी बड़ी लड़ाई छिड़ गई है।
आजइस पहरजैसे फिर वो मंज़र आंख के सामने उभर आया है...एक मां के  सीने में दबे जख्म हरे हो गए हैंकल फिर सारे मुल्क में लोग अयोध्या का नाम लेंगे...कहेंगेइसी जगह मज़हब के नाम पर नफ़रत का तमाशा देखने को मिला था।
हमारे नेता तरह-तरह के बयान देते हैं। मुझे कभी हंसी आती हैतो कई बार मन करता है--अपना ही सिर धुन लूं। एक नेता कहती हैंविवादित स्थल पर  कभी मस्जिद नहीं थीइसीलिए हम चाहते हैं कि वहां भव्य मंदिर बने। वो इसे जनता के आक्रोश का नाम देती हैं। उमा भारती ने साफ़ कहा है कि वो ढांचा गिराने को लेकर माफ़ी नहीं मांगेंगीचाहे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
सियासतदानों की ज़ुबान के क्या मायने हैंवही जानें--वही समझेंना अयोध्या समझ पाती हैना उसके मासूम बच्चे। राम के मंदिर के सामने टोकरियों में  फूल बेचते मुसलमानों के बच्चे नहीं जानते कि दशरथ के बेटे का मज़हब क्या थाना ही सेवइयों का कारोबार करने वाले हिंदू हलवाइयों को मतलब होता है इस बात से कि बाबर के वशंजों से उन्हें कौन-सा रिश्ता रखना है और कौन-सा नहीं। वो तो बस एक ही संबंध जानते हैंमोहब्बत का!
खुदा ही इंसाफ़ करेगा उन सियासतदानों काजो मेरे घरमेरे आंगन में नफ़रत की फसल बोकर चले गएमैं देखती हूं...मेरी बहनें--दिल्लीपटनाकाशीलखनऊ...सबकी छाती ज़ख्मी है।
एक नेता कहती हैंजैसे 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली थी और कत्ल-ए-आम हुए थेवैसे ही तो छह दिसंबर1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया ....अयोध्या में मौजूद कुछ लोग जनविस्फोट को कैसे रोक पाते?
वो बताएं....सड़कों पर निकले हुए लोग एक-दूसरे को देखकर गले लगाने को क्यों नहीं मचल पड़ते क्यों नहीं उनके मन में आता--सामने वाले को जादू की झप्पी देनी है। क्या नफ़रतों के सैलाब ही उमड़ते हैंबसपा की नेताउप्र की मुख्यमंत्री मायावती कांग्रेस को दोष देती हैं...कांग्रेस वाले बीजेपी पर आरोप मढ़ते हैं बाला साहब ठाकरे कहते हैं...1992 में हिंदुत्ववादी ताकतें एक झंडे के तले नहीं आईं...नहीं तो मैं भी अयोध्या आता।
मुझ परअयोध्या पे शायद ही इतने पन्ने किसी ने रंगे होंलेकिन हाय री मेरी किस्मत...मेरी मिट्टी पर छह दिसंबर1992 को जो खून बरसाउसके छींटों की स्याही से हज़ारों ख़बरें बुन दी गईं। किसने घर जलायाकिसके हाथ में आग थी...मुझको नहीं पता हां! एक बात ज़रूर पता है...मेरे जेहन में है...खयाल में है...विवादित ढांचे की ज़मीन पर कब्जे को लेकर सालों से पांच मुक़दमे चल रहे हैं...।
पहला मुक़दमा तो 52 साल भी ज्यादा समय से लड़ा जा रहा हैयानी तब  सेजब जंग-ए-आज़ादी के जुनून में पूरा मुल्क मतवाला हुआ था। अफ़सोस...मज़हब का जुनून भी देशप्रेम पर भारी पड़ गया। मुझे पता चला है कि कई मामले 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने से जुड़े हैं। क्या कहूं...या कुछ ना कहूं...चुप रहूंतो भी कैसेमां हूं...मुझसे अपनी ऐसी  बेइज़्ज़ती देखी नहीं जाती। कहते हैं23 दिसंबर 1949 को विवादित ढांचे का दरवाज़ा खोलने पर वहां रामलला की मूर्ति रखी मिली थी। मुसलिमों ने आरोप लगाया था--रात में किसी ने चुपचाप ये मूर्ति वहां रख दी थीं
किसे सच कहूं और किसे झूठा बता दूं...दोनों तेरे लाल हैंचाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूं कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?
23 दिसंबर, 1949 को ढांचे के सामने हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए. यहां के डीएम ने यहां ताला लगा दिया। मैंने सोचाकुछ दिन में हालात काबू में आ जाएंगे...लेकिन वो आग जो भड़कीवो फिर शांत नहीं हुई। अब तक सुलगती जा रही है और मेरे सीने में कितने ही छाले बनाती जा रही है...। 16 जनवरी, 1950 को गोपाल सिंह विशारददिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अर्ज़ी दी कि रामलला के दर्शन की इजाज़त मिले। अदालत ने उनकी बात मान ली और फिर यहां दर्शन-पूजा का सिलसिला शुरू हो गया। एक फ़रवरी, 1986 को यहां ताले खोल दिए गए और इबादत का सिलसिला ढांचे के अंदर ही शुरू हो गया।
हे राम! क्या कहूं...अयोध्या ने कब सोचा था कि उसकी मिट्टी पर ऐसे-ऐसे कारनामे होंगे। 11 नवंबर1986 को विश्व हिंदू परिषद ने यहीं पास में ज़मीन पर गड्ढे खोदकर शिला पूजन किया। अब तक अलग-अलग चल रहे मुक़दमे एक ही जगह जोड़कर हाईकोर्ट में एकसाथ सुने जाएं। किसी और ने मांग कीविवादित ढांचे को मंदिर घोषित कर दिया जाए। 10 नवंबर 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ और 6 दिसंबर 1992 को वो सबकुछ हो गया...जो मैंने कभी नहीं सोचा था...। कुछ दीवानों ने वो ढांचा ही गिरा दिया...जिसे किसी ने मसज़िद का नाम दियातो किसी ने मंदिर बताया। मैं तो मां हूं...क्या कहूं...वो क्या है...। क्या इबादतगाहों के भी अलग-अलग नाम होते हैंइन सत्रह सालों में क्या-क्या नहीं देखा...क्या-क्या नहीं सुना...क्या-क्या नहीं सहा मैंने। मैं अपनी भीगी आंखें लेकर बस सूनी राह निहार रही हूं...क्या कभी मुझे भी इंसाफ़  मिलेगाक्या कभी मज़हब की लड़ाइयों से अलग एक मां को उसका सुकून लौटाने की कोशिश भी होगी?
1993 में यूपी सरकार ने विवादित ढांचे के पास की 67 एकड़ ज़मीन एक संगठन को सौंप दी..। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला रद कर दिया। अदालत ने ध्यान तो दिया था मेरे दिल का...मेरे जज़्बात का...इंसाफ़ के पुजारियों ने साफ़ कहा था... मालिकाना हक का फ़ैसला होने से पहले इस ज़मीन के अविवादित हिस्सों को भी किसी एक समुदाय को सौंपना `धर्मनिरपेक्षता की भावनाके अनुकूल नहीं होगा। इसी बीच पता चला कि उत्तर प्रदेश सचिवालय से अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 फा़इलें ग़ायब हो गईं। क्या-क्या बताऊं...!  मज़हब को लेकर फैलाई जा रही नफ़रत मैं बरसों-बरस से झेल रही हूं। 1528 में यहां एक मसज़िद बनाई गई। 1853 में पहली बार  यहां सांप्रदायिक दंगे हुए। 
1859 में अंग्रेजों ने बाड़ लगवा दी। मुसलिमों से कहा...वो अंदर इबादत करें और हिंदुओं को बाहरी हिस्से में पूजा करने को कहा। हाय रे...क्यों किए थे अंग्रेजों ने इस क़दर हिस्सेये कैसा बंटवारा था...उन्होंने जो दीवार खींची...वो जैसे दिलों के बीच खिंच गई। 1984 में कहा गया--यहां राम जन्मे थे और इस जगह को मुक्त कराना है।  हिंदुओं ने एक समिति बनाई और मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति गठित कर डाली। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ कर दिया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव डाल दी। 1990 में भी विवादित ढांचे के पास थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ की गई थी। 1992 में छह दिसंबर का दिन...मेरे हमेशा के लिए ख़ामोशियों में डूब जाने का दिन...अपने-अपने ख़ुदा की तलाश में कुछ दीवानों ने मुझे शर्मसार कर दिया। विवादित ढांचे को गिरा दिया गया। अब कुछ लोग वहां मंदिर बनाना चाहते हैं...तो कुछ की तमन्ना है मसज़िद बने...। मैं तो चाहती हूं...कि मेरे घर मेंमेरे आंगन में मोहब्बत लौट आए। 
बीते सत्रह सालों में मैंने बहुत-से ज़ख्म खाए हैं...सारे मुल्क में 2000 लोगों की सांसें हमेशा के लिए बंद हो गईं...कितने ही घरों में खुशियों पर पहरा लग गया। ऐसा भी नहीं था कि दंगों और तोड़फोड़ के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ले। 2001 में भी इसी दिन खूब तनाव बढ़ा...जनवरी 2002 में उस वक्त के पीएम ने अयोध्या समिति गठित की...पर हुआ क्या??? क्या कहूं...!!!  मेरी बहन गोधरा ने भी तो वही घाव झेले हैं...फरवरी2002 में वहां कारसेवकों से भरी रेलगाड़ी में आग लगा दी गई। 58 लोग वहां मारे गए। किसने लगाई ये आग...। अरे!  हलाक़ तो हुए मेरे ज़िगर के टुकड़े ही तो!!  मां के बच्चों का मज़हब क्या होता है?  बस...बच्चा होना!!
अब तक तमाम सियासतदां मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। फरवरी2002 में एक पार्टी ने यकायक अयोध्या मुद्दे से हाथ खींच लिया...। जैसे मैं उनके लिए किसी ख़िलौने की तरह थी। जब तक मन बहलायासाथ रखानहीं चाहातो फेंक दिया। आंकड़ों की क्या बात कहूं...कितनी तस्वीरें याद करूं...जो कुछ याद आता है...दिल में और तक़लीफ़ ताज़ा कर देता है। क्या-क्या धोखा नहीं किया...किस-किस ने दग़ा नहीं दी।
अभी-अभी लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट दी है..कुछ लोगों को दंगों काढांचा गिराने का ज़िम्मेदार बताया है...सुना है...उन्हें सज़ा देने की सिफ़ारिश नहीं की गई है। गुनाह किसने किया...सज़ा किसे मिलेगी...पता नहीं...पर ये अभागी अयोध्या...अब भी उस राम को तलाश कर रही है...जो उसे इंसाफ़ दिलाए।
कोई कहता हैअगर मेरे खानदान का पीएम होतातो ढांचा नहीं गिरता...कोई कहता हैअगर मैं नेता होतीतो मंदिर वहीं बनता...कहां है वो...जो कहे...
मैं होता तो अयोध्या इस क़दर सिसकती ना रहती...
मैं होतीतो मोहब्बत इस तरह रुसवा नहीं होती।




(ये पोस्ट पहले भी चौराहा पर आई थी. सामयिक है, इसलिए रि-पोस्ट कर रहा हूं।)








उस समय की प्रतिक्रियाएं भी यहां दे रहा हूं...आप बहस आगे बढ़ाएं...प्रतिक्रियाएं ये हैं...







Tara Chandra Gupta "MEDIA GURU" said...





bahtu sundar........ek vastvik dard ke sath bahut jankari bhar di aapne



चंदन कुमार झा said...





बिल्कुल नये अंदाज में लिखी गयी यह पोस्ट बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है । बढ़िया आलेख ।



shama said...





Rhidaysharshi aalekh hai..shat partishat saty...siyasat, aur siyasat karnewalon ke behkave me aanewale log,donohee zimmeadaar hain..

http://shamasansmaran.blogspot.com

http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

http://lalitlekh.blogspot.com



अजित वडनेरकर said...





बेहतरीन है चण्डीबाबू

अयोध्या को लिब्रहान की तो खबर होगी? चंद अल्फाज उनके मुताल्लिक भी कहलवा लेते तो मज़ा आ जाता। सत्रह साल सिर्फ रोजगार में बने रहने की खातिर या किन्ही और वजूहात से चली सुनवाई। हाथ क्या आया?



गिरिजेश राव said...





सौ बात की एक बात - अयोध्या में राम के जन्मस्थल पर भव्य मन्दिर बनना चाहिए। ..
बाकी ये भावुकता भरी बातें और तमाम खयालात बहुत सी सम्स्याओं और मुद्दों पर लागू होते हैं। उन पर मौन धारण करना, सिर्फ अयोध्या और 6 दिसम्बर को इतना तूल देना इंटेलिजेंसिया को कटघरे में खड़ा करते हैं।
..सेफ खेलना इंटेलिजेंसिया का स्वभाव हो गया है।



हिमांशु । Himanshu said...





अयोध्या को लेकर जितनी राजनीति हुई, सच में उससे ऊबन हो गयी है । इस बात से मेरा भी इत्तेफाक -
"..सेफ खेलना इंटेलिजेंसिया का स्वभाव हो गया है।"



Sadhana Vaid said...





बहुत ही मर्मस्पर्शी आलेख है आपका । आज के इंसान ने य्ह सिद्ध कर दिया है कि 'मज़हब ही सिखा रहा है आपस में बैर रखना ' । निजी स्वार्थों के चलते नेता इस आग को बुझाने की जगह भड़का कर अपनी रोटियाँ सेक रहे हैं । इसका हल कोई नहीं निकालना चाहता । हल निकल गया तो चुनाव में मुद्दा कौन सा उछालेंगे । हृदयस्पर्शी आलेख के लिये शुभकामनायें ।



Kishore Choudhary said...





मित्र अभी आपके ब्लॉग तक पहुंचा हूँ पहली नज़र में अपने मन के अनुकूल ही पाया है थोड़ा समय और चाहिए इसे समझने के लिए. फिर आऊंगा.



Aijaz said...





अच्छा आलेख है, सही किया कि मुझ को भी आमंत्रित किया, किसी मुस्लिम की प्रतिक्रिया जानने के लिए। लेकिन सवाल केवल किसी मुस्लिम का नहीं, केवल हिन्दु का नहीं, देश के सेकुलरिज़्म, धर्म निर्पेक्षता का है। इस विचार से 6 दिसम्बर एक कलंक ही कहा जाना उचित होगा।



luckrees said...





Atyant moulik vichar hain, is "darshan" ki avashykata hamesha hi rahi hai aur rahegi. Jai rakhiye hamari shubhkamnayen apke sath hain.



महाशक्ति said...





मंदिर तो बनना ही चाहिये, यह आस्‍था का प्रश्‍न है। मुस्लिम में मस्जित कोई पूज्‍य स्‍थल नही है वह सिर्फ नमाज अदा करने का स्‍थान भर है, जरूर नही है कि हिन्‍दूओ की छा‍ती पर ही मुस्लिम अपनी नमाज अदा करे।

एक रास्‍ता यदि मुस्लिम दे तो सैकड़ो रास्‍ते हिन्‍दू अपने आप दे देगा। और विवाद का नाम ही नही मिलेगा।



kuhu said...





kitna accha likha hai.........ki ayodhya ki manodasha aur peda par koi dhyan nahi deta .................sab apni apni rotiya sekne me lage hain......................yeh bahut rochak bhi hai kyunki aapne isme kafi sare tathya batayen hai jo aaj tak kafi sare logo ko pata hai nahi the ................sadhuvad



Dr. Purnima said...





चर्चा में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद | जो लिखा है आपने बिल्कुल ही सटीक लिखा है | जहाँ हिन्दू मुस्लिम सब आपसी भाईचारे के साथ रहा करते थे, सबके अच्छी तरह से काम काज चाल रहे थे, हमारे राजनेताओं ने अपने छोटे छोटे हितों की पूर्ती के लिए सब कुछ तहस नहस कर डाला | हम तो यही कहेंगे कि अयोध्या मसले को हिन्दू मुस्लिम के नज़रिए से ना देखकर मानवता के नज़रिए से देखना चाहिए | लिखने को तो बहुत कुछ है | पर अभी बस इतना ही ......

खेल होगा बंद कब तक, कौन जीतेगा यहाँ ?
हर कोई इससे अपरिचित लडखडाता खेलता |
जबकि सम्मुख हो रहा है खून सबके सुख सपन का |
ओ अरे नादाँ मानव है समय अब भी संभल जा
बंद कर दे आज तो यह खेल जीवन और मरण का |

पूर्णिमा



BrijmohanShrivastava said...





बहुत ही विस्तार से ,सम्पूर्ण हकीकत -जिम्मेदार कौन ?
घरों की राख फ़िर देखेंगे ,पहले देखना ये है /घरों को फ़ूंक देने का इशारा कौन करता है ।
दुष्यन्त जी ने भी कहा है
"मस्लहत आमेज होते हैं सियासत के कदम/ तू न समझेगा इसे ,तू अभी इन्सान है ।
जिन गलियों मे रामधुन होती हो और ईद की सेवैंयां खाई जाती हो वही आज भय का माहोल हो । एक निवेदन अत्यंत विनम्रता के साथ कि मोहब्बत की दौलत कितनी ही लुटाओ तिजोरी कभी खाली नही होती ।जहां पांच पांच तीर्थंकर जन्मे हो उस भूमि को रक्त रंजित किया जाना मानवता का सबसे बडा अपमान है ।आपको उनके बयानों पर हंसी आती है आना ही चाहिये बहुरूपिये है ।कौन कहे-
जिनकी वजह से == जिनकी महनत से तुम्हे ताज मिला तख्त मिला , उनके सपनों के जनाजों मे तो शामिल होते, तुमको शतरंज की चालों से नही वक्त मिला ।
इनकी फ़ितरत मे नही खून से कपडे रंगना , अपने मतलब के लिये तुमने लडाया तो नही ,कौन पूछे



श्याम कोरी 'उदय' said...





... prabhaavashaali abhivyakti !!!!



Dr. Purnima said...





धन्यवाद्



Dr. Purnima said...





बहुत खूब लिखा बृजमोहन जी



डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...





सारगर्भित लेख प्रकाशित करने के लिए आभार!



chhapas said...





लिखने के इस अंदाज के लिए चंडीदत्त जी को काफी बधाईयां। आपका छपास www.chhapas.com



अशोक कुमार पाण्डेय said...





बाबरी विध्वंस इस देश के क़ानून और संविधान ही नहीं पारस्परिक सद्भाव की परंपरा पर काला धब्बा है।

हज़ारों-लाखों लोगों की लाशों पर बने मंदिर या मस्ज़िद में बस गिद्ध आयेंगे आराधना करने।



संजय भास्कर said...





बहुत खूब लिखा बृजमोहन जी

sanjay



संजय भास्कर said...





बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है । बढ़िया आलेख ।


http://sanjaybhaskar.blogspot.com



प्रेम said...





जबरदस्त चंडीदा। बेहद ही शोधपरक है आपका यह आलेख। अयोध्या के दर्द को आपने बखूबी सबके सामने पेश किया है और इस अयोध्या विवाद की गहरी पड़ताल की है। इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। हमें उम्मीद है कि आप आगे भी ऐसे ही लेख लिखते रहेंगे।



rashmi ravija said...





पहली बार किसी ने धरती के दर्द को यूँ महसूस करके लिखा है..इस धरती का क्या कसूर जो उसे लहू लुहान किया जा रहा है...उसने तो अपने दोनों बेटों को सामान अनाज,सामान फल-फूल,सामान पर्वत और सामान नदियों से नवाज़ा है पर उन दोनों केबीच के झगड़ों में यह धरती क्षत-विक्षत हो रही है,इस से सब अनजान हैं.....सच लिखा है, आम नागरिक को इन झगड़ों से कोई मतलब नहीं ऐसे ही मुस्लिम बच्चे मंदिर के सामने फूल बेचते रहेंगे और हिन्दू हलवाई सेवइयां बनाते रहेंगे.



sandhyagupta said...





Bahut kuch sochne ko majboor kiya...



लता 'हया' said...





bahut dardnaak manzar pesh kiya hai aapne,mujhe mera qata yaad aa gaya;
aye kaash apne mulk mein aisi faza bane,
mandir jale to ranj musalman ko bhi ho,
pamal hone paye na masjid ki aabroo,
ye fikr mandiron ke nigahbaan ko bhi ho.



आशीष कुमार 'अंशु' said...





चंडी भाई आपका यह अंदाज ए बयान कमाल का है..
ब्लौगिंग में आपकी सक्रियता देखकर खुशी मिलती है,पिछले दिनों मोहल्ला पर भी आपकी रचना देखने का मौक़ा मिला, शुभकामना बड़े भाई



रंजना said...





SAARTHAK AALEKH DWARA SARTHAK PRASH UTHAYE HAIN AAPNE....PAR INKE UTTAR KOUN DEGA.....

IISHWAR SABKO SADBUDDHI DEN AUR LOGON KE BEECH KHADE VAIMANASYTA KE SABHI DEEVAAR DHAAH DEN...



श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’ said...





आज अयोध्या फिर से चौराहे पर खड़ी है ... एक दिन उसने देखा आस्था के उन्माद में सरयू के पुल को पार करते हुये अनेकों लोगों पर बिना पूर्व चेतावनी के अंधाधुंध फायरिंग का नर संहार और उसके कुछ ही वर्षों बाद अयोध्या काम्द का द्वितीय सर्ग ... और लाक्षाग्रह कौंसिल का ... पांडवों ने कर दिया बहिष्कार .... बचाया इस तरह यह नवीन वार .... सब कुछ स्मरण है मित्र .. ५ दिसंबर को मेरी यह कविता असम से निकलने वाले हिंदी दैनिक सेंटिनल में छपी थी. ऐसा आभास उस समय किसी को भी हो सकता था. मात्र एक दिन उपरांत ६ दिसंबर को ऐसा हुआ जिसे मैंने अपनी कविता में महाभारत का द्वितीय सर्ग निरूपित किया था.

राजनीति की विड्म्बना और विद्रूपता ने आज अयोध्या को पीर से उसी चौराहे पर लाकर खड़ा किया है जहां .....

भरोसा अब कांच की उन बंद खिड़की के सहन
’कान्त’ पत्थर वोट का संसद से चलाया जायेगा

आलेख के लिये हार्दिक आभार



अविनाश वाचस्पति said...





पहले सरयू बहती थी
अब वो तो रोती है
गरीब की गरीबी में
छिन गई धोती है।

मजहब छील रहा है
मन को, तन को
सब जन को
सिर्फ बचे हुए
नेतागण हैं
वही बचे रहेंगे
जो झूठे हैं।

अद्भुत सत्‍य कथा।



डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...





बहुत मार्मिक और समयानुकूल आलेख है आपका.
मुझे तो लगता है कि हम सबका भला इसी में है कि हम अयोध्या को भूल ही जाएं.



Uday khaware said...





क्या जामा मस्जिद में हुनमान मंदिर बनाने की बात आप लोग कर सकते है..? नहीं ना..तो फिर जो लोग धर्म निर्पेछ्त्ता की बात करते है वो कृपा करके चुप हो जाएँ...शोभा नहीं देता
और आप भी शुक्ला जी....धर्म को मानते है तो फिर ठीक है, नहीं तो आप भी धर्म निरपेछ बन जाएँ, ठीक रहेगा.....भीड़ में जैसे सारे सियार हूँआन हूआं करते है ..आप भी करिए ..



Uday khaware said...





क्या जामा मस्जिद में हुनमान मंदिर बनाने की बात आप लोग कर सकते है..? नहीं ना..तो फिर जो लोग धर्म निर्पेछ्त्ता की बात करते है वो कृपा करके चुप हो जाएँ...शोभा नहीं देता
और आप भी शुक्ला जी....धर्म को मानते है तो फिर ठीक है, नहीं तो आप भी धर्म निरपेछ बन जाएँ, ठीक रहेगा.....भीड़ में जैसे सारे सियार हूँआन हूआं करते है ..आप भी करिए ..



प्रदीप श्रीवास्तव said...





भाई शुक्ल जी
में अयोध्या हूँ...,
क्या लिखा है आप ने ,बधाई के पात्र हैं.
पढ़ने के साथ-साथ ऐसा लगा की अयोध्या की गलियों में घूम रहा हूँ.
आज अयोध्या का यह हल किसने किया ,वहाँ के लोगों ने नहीं,
जिन लोंगों ने किया वे बाहर के ही थे,अयोध्या वासियों से पूछिए ६ दिसंबर ९२
के बारे में चाहे वे मुस्लिम हों या हिन्दू,हर व्यक्ति बाहर वालों कों ही कोसेगा.
कोसे भी क्यों न,आज जो हालत वहाँ के पैदा हुवे हैं उसके लिए वे ही जिम्मेदार जो हैं.
आज से १७ साल पहले तक कितनी संत नगरी थी हमारी अयोध्या ,जहाँ खुली साँस
लेते थे ,लेकिन आज उसी मर्यादा पुरुसोत्तम भगवन की नगरी में प्रवेश करते ही दम घुटने लगता है,
चारों तरफ संगीन के साये,हर आने -जाने वालों कों संदेह की निगाह से देखा जाना.कितना ख़राब
लगता है की आज हम अपने सहर में स्वतंत्र हो कर नहीं घूम सकते ,क्यों?
इसके लिए हम अयोध्या वाले ही दोषी हैं ,जिन्हों ने बाहर वालों कों मौका दिया .
आज भी अयोध्या के लोग (दोनों समुदाय के )अमन सन्ति चाहते हैं.
एक बार फिर बधाई .
प्रदीप श्रीवास्तव
निज़ामाबाद आन्ध्र प्रदेश
09848997327



Dankiya said...





sundar post!! ayodhya ka manvikaran achha laga..!!

kabhi mere blog par bhi aayen..swagat hai..!
http://www.dankiya.blogspot.com/



Dankiya said...





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Dankiya said...





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अबयज़ ख़ान said...





बेहतरीन कहूं... बहुत खूब कहूं... या लाजवाब कहूं... अल्फ़ाज़ कम पड़ रहे हैं... इतना खूबसूरत ब्लॉग है, कि मैंने अपने ब्लॉग के साथ लिंक कर लिया है...



रज़िया "राज़" said...





किसे सच कहूं और किसे झूठा बता दूं...दोनों तेरे लाल हैं...चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूं कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?
आह! क्या आह है अयोध्या की!!!!


बहेतरीन पोस्ट के लिये आभार। और उसपर भी अशोककुमार पांडेजी की कमेण्ट ने सोने पे सुहागे का काम कर दीया।