कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, February 27, 2013

यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं

- चण्डीदत्त शुक्ल

मेरे शहर का नाम गोंडा है। धुंध, धूल, हंसी, उदासी, ठंड नारेबाज़ी और सरोकार – हर मौसम, हर एहसास, अपनी पूरी बुलंदी पर। सुना है – एक-दो मॉल खुल गए हैं – देखा नहीं। सोचता हूं – दिल्ली-बंबई की तरह वहां कार्ड से पेमेंट होता होगा, बैरे को टिप दी जाती होगी या फिर पुराने वक्त के हिसाब से बारगेनिंग, यानी `थोड़ा और कम करो' की कवायद जारी होगी? खैर, बयान यहां गोंडा का करना नहीं था, ये सब बताने की गरज बस इतनी थी कि मेरा शहर कुछ-कुछ कस्बाई है, जो जितना बिल्डिंगों में बना और सड़कों पर बढ़ा है, कदरन उतना ही दिलों में भी बसा है। बात उन दिनों की करनी थी, जब मैं किशोर से ज्यादा और नौजवान से कुछ कम था, बीए फर्स्ट ईयर के दौर की या उससे भी पहले की बात होगी।
जगन्नाथ त्रिपाठी जी, भाषाविद् और साहित्यकार

कहते हैं – जवानी की डगर पर पहले-पहले कुछ क़दम रखते वक्त मोहल्ले की सब लड़कियां हसीन लगती हैं और जगजीत सिंह की ग़ज़लें मीठी – ऐसे समय में डायरी लिखने की आदत पड़ जाती है, सो ग़म-ए-रोजगार इश्क था, कुछ-कुछ रोजगार की तलाश थी पर डायरी में कवितानुमा पता नहीं क्या लिखने का चस्का लग चुका था। शहर तब भी ऐसा ही था, जैसा कम-ओ-बेश अब है... साहित्य को लेकर सनक, उन्माद, जुनून इसी तरह का था, ज्यूं इस दिन तक है, जब आप ये यादनामा पढ़ रहे हैं। परंपरागत कविताई, यानी छंद, तुक से तुक मिलाने की होड़, ऐसी कविताएं – जो सांस्कृतिक पहचान हैं – मंचों पर  वीर रस का वमन, या चुटकुलेबाजी तब भी थे, लेकिन कुल-मिलाकर बात बस इतनी कि हवा में परंपरा की खुशबू ज्यादा थी। मुझे मुगालता था अपनी उम्र से आगे का होने का, सो तुक से अलग, बेतुकी बोले तो फ्री-वर्स कविताएं गढ़ने लगा था।

उन्हीं दिनों मिले थे डीएफओ साहब।
सेवानिवृत्त हो चुके थे। पर हम सबके लिए डीएफओ साहब ही थे... जगन्नाथ त्रिपाठी जी। दिखने में बेहद बुलंद, सेहतमंद, सुंदर। मेरी मसें भीग रही थीं, मूंछ हल्की-हल्की ही आई थी और वे भरे-पूरे बुजुर्ग थे। बोलते और मुंह से मिसरी फूटती – ये उपमा ग़लत नहीं है, एकदम सटीक और सही है। वे उन दिनों `पलाश' शीर्षक से एक प्रतिनिधि संकलन या कि कहें पत्रिका प्रकाशित करने की जद्दोज़हद में थे। प्रकाशन कितना दुष्कर और तकरीबन `थैंकलेस’ होता है - इसका पहले-पहला एहसास तभी हुआ था। एक गोष्ठी में मिले या फिर किसी कवि परिचित के साथ उनके घर गया था – ठीक-ठीक याद नहीं आता – पर मिलना हो गया था। बेहद आत्मीयता के साथ हाथ मिलाया था। पूछते हुए, कुछ-कुछ चुटकी लेते हुए, हंसकर - कविता लिखते हैं आप...? तो फिर सुनाइए। मुक्तछंद कविताएं याद तो रहती नहीं हैं, सो एक तुक वाली ही सुना दी थी – ज़िगर जिगर में बसे इस तरह, जिगर से उनकी याद न जाती। वो हंसे नहीं थे, पर स्मित हास्य होंठों पर था।

कविता से अलग, कविता की सारी बातें बता दी थीं उन्होंने उस शाम। कौन-सा शब्द कहां हो, क्यों हो, कितना हो, उसके भाव क्या हैं, अर्थ क्या हैं, जरूरत क्या है, परंपरा क्या है, इतिहास क्या है... पहली बार सुनी थी इतनी अंतरंगता से कही गई, बयां हुई भाषा की बात।

लिखने-पढ़ने वाली, मेरी उम्र की पीढ़ी त्रिपाठी जी को भाषाविद् के रूप में ज्यादा पहचानती है पर मैं उन्हें देखकर सोचता रह गया - इस उम्र में भी स्टूडेंट की तरह हैं ये तो! हर शब्द को लेकर उनकी उत्सुकता, इच्छा, कौतूहल, उसके आदि से अब तक के परिवर्तनों पर निगाह – इतनी सुरुचि, ऐसी तल्लीनता बिरले ही दिखती है। कृष्णनंदन तिवारी नंदन बेहद सौम्य-सरल और उतने ही मधुर कवि हैं। त्रिपाठी जी और वे देर तक चर्चा करते। इस बीच शिवाकांत मिश्र विद्रोही, झंझट जी आदि विभिन्न कवियों का जमावड़ा उनके जेल रोड के पास वाले घर में होता रहता।

मैं भी अक्सर पहुंचता। कुछ दिन बाद अघोषित तौर पर मैं `पलाश’ का सहयोगी हो गया था। नेह-दुलार और अच्छा-सा चाय-नाश्ता, जो उन दिनों बड़े आकर्षण का केंद्र था – गटकते हुए कविताओं से सजी-सुलझी शाम गुजरती जाती। ये दौर बहुत लंबा नहीं था। बाद के दिनों में मेरी पढ़ाई-लिखाई लुढ़कती-बढ़ती रही और फिर रिज़क कमाने के वास्ते शहर ही छूट गया। डीएफओ साहब ने `पलाश’ प्रकाशित कर दिया। बहुत-से लोगों ने तारीफ की। उनने भी, जो पहले इस काम में निंदा-रस के चटखारे लेते रहते थे। सुना कि त्रिपाठी जी पलाश को नियमित करने में जुटे थे। बाद में ख़बर नहीं मिली कि क्या हुआ!

वे दोस्त नहीं थे। रिश्तेदार भी नहीं। कम-अज-कम मैंने ब्राह्मणों वाली परंपरा में घुसकर किसी रक्त-संबंध की टोह-बीन नहीं की। त्रिपाठी जी हम उम्र भी नहीं थे, पर इतने अजीज लगे थे कि उन शामों का स्वाद अरसे बाद भी नहीं भूल सका हूं। आज के दौर में, जब लिखना-पढ़ना कारोबार हुआ जाता है, उदास रात के साए में खुशग़वार बना वो घर बहुत याद आता है। वहां सचमुच शब्द अर्थवान थे। त्रिपाठी जी कितने अच्छे कवि, लेखक थे – इस बारे में टिप्पणी समय देगा, पर वे एक बेहद सुंदर, सजग, कई बार अडिग भाषाप्रेमी और साहित्य के आशिक जरूर थे... और उससे भी आगे एक मुकम्मल इंसान भी। कभी, किसी वक्त, जब भाषा को लेकर बहसें करता हूं, तो वे याद आते हैं – कहते हुए, शब्द सीमित हैं। इन्हें सोच-समझ कर काम में लाइए। परंपरा है कि कोई न रहे तो उसकी इज्जत की जाती है, डीएफओ साहब के बारे में ऐसा सोच पाना भी मेरे लिए मुमकिन नहीं है। मैं उन्हें कोई श्रद्धांजलि दे ही नहीं पाऊंगा। लगता है, कुछ समस्या हुई, कोई बात-कोई शब्द-कोई एहसास समझ न आएगा तो उनके पास जाऊंगा, वे हंसते हुए अर्थों की झड़ी लगा देंगे। पर उससे भी पहले पूछेंगे – कुछ खाएंगे? चाय पी लेते है, फिर साहित्य चर्चा करेंगे। वे कहीं गए नहीं, इसीलिए यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं...।