कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, April 9, 2009

डायरेक्ट दिल-से

मेरा दिल है तू, ज़िगर भी तू...तू ही ज़िंदगी की सुबो-शाम है
तू यकीं जो कर तो कहूं ये मैं, मेरे लब पे तेरा ही नाम है
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वो जानते हैं नहीं कि ये आशिकी भी क्या चीज है...
जो दिल मिले, तो तख्त क्या, सारी दुनिया ही नाचीज़ है
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अब आ भी जा, न बन संगदिल...
बग़ैर तिरे सूनी है दिल की महफ़िल
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पत्थर हैं, उनकी हिम्मत है क्या जो आशिकी की राह में रोड़ा बनें...
तू देख हमारी चाहतों की आग के आगे दम उनका निकल जाएगा
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शब-ए-ग़म का बोझ उठाके भी यारों हम जिए जाते हैं ...
जो अश्क मोहब्बत में मिले हैं, उन्हें हंसके पिए जाते हैं
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जो पागल हुए, तो तू कहा...बस तेरी रहगुज़र की आरज़ू
होश आने का सबब नहीं, मन में है इंतज़ार की जुस्तजू
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दीवानगी मुझ पे यूं कहर ढाएगी ये सोचा ना था,
तू मेरी राह से होके गुज़र जाएगी ये सोचा ना था