मैं अयोध्या हूं...। राजा राम की राजधानी अयोध्या...। यहीं राम के पिता दशरथ ने राज किया...यहीं पर सीता जी राजा जनक के घर से विदा होकर आईं। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ...। यहीं बहती है सरयू.... लेकिन अब नदी की मस्ती भी कुछ बदल-सी गई है...। कहां तो कल तक वो कल-कल कर बहती थी और आज, जैसे धारा भी सहमी-सहमी है...धीरे-धीरे बहती है। पता नहीं, किस कदर सरयू प्रदूषित हो गई है...कुछ तो कूड़े-कचरे से और उससे भी कहीं ज्यादा...सियासत की गंदगी से। सच कहती हूं... आज से सत्रह साल पहले मेरा, अयोध्या का कुछ लोगों ने दिल छलनी कर दिया...वो मेरी मिट्टी में अपने-अपने हिस्से का खुदा तलाश करने आए थे...।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ था...सैकड़ों साल से मज़हबों के नाम पर कभी हिंदुओं के नेता आते हैं, तो कभी मुसलमानों के अगुआ आ धमकते हैं...वो ज़ोश से भरी तक़रीरे देते हैं...अपने-अपने लोगों को भड़काते हैं और फिर सब मिलकर मेरे सीने पर घाव बना जाते हैं...। कभी हर-हर महादेव की गूंज होती है, तो कभी अल्ला-हो-अकबर...की आवाज़ें आती हैं....
लेकिन ये आवाज़ें, नारा-ए-तकबीर जैसे नारे अपने ईश्वर को याद करने के लिए लगाए जाते हैं...। पता नहीं...ये तो ऊंची-ऊंची आवाज़ों में भगवान को याद करने वाले जानें, लेकिन मैंने, अयोध्या ने तो देखा है... अक्सर भगवान का नाम पुकारते हुए तमाम लोगों ने खून की होलियां खेली हैं...और हमारे लोगों के घरों से मोहब्बत लूट ले गए हैं...। जिन गलियों में रामधुन होती थी...जहां ईद की सेवइयां खाने हर घर से लोग जमा होते थे...वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है...वहां नफ़रतों का कारोबार होता है।
किसी को मंदिर मिला, किसी को मसज़िद मिली...हमारे पास थी मोहब्बत की दौलत, घर को लौटे, तो तिज़ोरी खाली मिली...।
छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ...हो गया...पर वो सारा मंज़र अब तक याद आता है...और जब याद आता है, तो थर्रा देता है...। धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़े, उनकी छातियां चौड़ी हो जाती हैं...कोई शौर्य दिवस मनाता है, कोई कलंक दिवस, लेकिन अयोध्या के आम लोगों से पूछो...वो क्या मनाते हैं...क्या सोचते हैं...बाकी मुल्क के बाशिंदे क्या जानते हैं...क्या चाहते हैं...। वो तो आज से सत्रह साल पहले का छह दिसंबर याद भी नहीं करना चाहते, जब एक विवादित ढांचे को कुछ लोगों ने धराशायी कर दिया था।
हिंदुओं का विश्वास है कि विवादित स्थल पर रामलला का मंदिर था...। वहां पर बनेगा तो राम का मंदिर ही बनेगा...। मुसलिमों को यकीन है कि वहां मसज़िद थी...।
जिन्हें दंगे करने थे, उन्होंने घर जलाए...जिन्हें लूटना था, वो सड़कों पर हथियार लेकर दौड़े चले आए...नफरतों का कारोबार उन्होंने किया...और बदनाम हो गई अयोध्या...मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का?
मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पांच जैन तीर्थंकर यहां जन्मे...इनके मंदिर भी तो बने हैं यहां. वो लोग भला क्यों नहीं झगड़ते। नहीं...मैं नहीं चाहती...कि वो भी अपने मज़हब के नाम पर लड़ाइयां लड़ें...लेकिन मंदिर और मसजिद के नाम पर तो कितनी बड़ी लड़ाई छिड़ गई है।
आज...रात के इस पहर...जैसे फिर वो मंज़र आंख के सामने उभर आया है...एक मां के सीने में दबे जख्म हरे हो गए हैं...कल फिर सारे मुल्क में लोग अयोध्या का नाम लेंगे...कहेंगे..इसी जगह मज़हब के नाम पर नफ़रत का तमाशा देखने को मिला था।
हमारे नेता तरह-तरह के बयान देते हैं। मुझे कभी हंसी आती है...अपने नेताओं की बात सुनकर...तो कई बार मन करता है...अपना ही सिर धुन लूं। एक नेता कहती हैं—विवादित स्थल पर कभी मस्जिद नहीं थी...इसीलिए हम चाहते हैं कि वहां एक भव्य मंदिर बने। वो इसे जनता के आक्रोश का नाम देती हैं। उमा भारती ने साफ़ कहा है कि वो ढांचा गिराने को लेकर माफ़ी नहीं मांगेंगी...चाहे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
सियासतदानों की ज़ुबान के क्या मायने हैं...वही जानें...वही समझें...ना अयोध्या समझ पाती है...ना उसके मासूम बच्चे। राम के मंदिर के सामने टोकरियों में फूल बेचते मुसलमानों के बच्चे नहीं जानते कि दशरथ के बेटे का मज़हब क्या था, ना ही सेवइयों का कारोबार करने वाले हिंदू हलवाइयों को मतलब होता है इस बात से कि बाबर के वशंजों से उन्हें कौन-सा रिश्ता रखना है और कौन-सा नहीं। वो तो बस एक ही संबंध जानते हैं—मोहब्बत का!
खुदा ही इंसाफ़ करेगा उन सियासतदानों का...जो मेरे घर, मेरे आंगन में नफ़रत की फसल बोकर चले गए? मैं देखती हूं...मेरी बहनें...दिल्ली, पटना, काशी, लखनऊ...सबकी छाती ज़ख्मी है।
एक नेता कहती हैं—जैसे 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली थी और कत्ल-ए-आम हुए थे, वैसे ही तो छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया ....अयोध्या में मौजूद कुछ लोग जनविस्फोट को कैसे रोक पाते?
वो बताएं....सड़कों पर निकले हुए लोग एक-दूसरे को देखकर गले लगाने को क्यों नहीं मचल पड़ते...क्यों नहीं उनके मन में आता...सामने वाले को जादू की झप्पी देनी है...। क्या नफ़रतों के सैलाब ही उमड़ते हैं? बसपा की नेता, उप्र की मुख्यमंत्री मायावती कांग्रेस को दोष देती हैं...कांग्रेस वाले बीजेपी पर आरोप मढ़ते हैं...बाला साहब ठाकरे कहते हैं...1992 में हिंदुत्ववादी ताकतें एक झंडे के तले नहीं आईं...नहीं तो मैं भी अयोध्या आता।
मुझ पर, अयोध्या पे शायद ही इतने पन्ने किसी ने रंगे हों, लेकिन हाय री मेरी किस्मत...मेरी मिट्टी पर छह दिसंबर, 1992 को जो खून बरसा, उसके छींटों की स्याही से हज़ारों ख़बरें बुन दी गईं। किसने घर जलाया, किसके हाथ में आग थी...मुझको नहीं पता...हां एक बात ज़रूर पता है...मेरे जेहन में है...खयाल में है...विवादित ढांचे की ज़मीन पर कब्जे को लेकर सालों से पांच मुक़दमे चल रहे हैं...।
पहला मुक़दमा तो 52 साल भी ज्यादा समय से लड़ा जा रहा है, यानी तब से, जब जंग-ए-आज़ादी के जुनून में पूरा मुल्क मतवाला हुआ था...। अफ़सोस...मज़हब का जुनून भी देशप्रेम पर भारी पड़ गया। मुझे पता चला है कि कई मामले 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने से जुड़े हैं। क्या कहूं...या कुछ ना कहूं...चुप रहूं, तो भी कैसे? मां हूं...मुझसे अपनी ऐसी बेइज़्ज़ती देखी नहीं जाती। कहते हैं—23 दिसंबर 1949 को विवादित ढांचे का दरवाज़ा खोलने पर वहां रामलला की मूर्ति रखी मिली थी। मुसलिमों ने आरोप लगाया था--रात में किसी ने चुपचाप ये मूर्ति वहां रख दी थीं.
किसे सच कहूं और किसे झूठा बता दूं...दोनों तेरे लाल हैं...चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूं कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?
23 दिसंबर 1949 को ढांचे के सामने हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए. यहां के डीएम ने यहां ताला लगा दिया। मैंने सोचा—कुछ दिन में हालात काबू में आ जाएंगे...लेकिन वो आग जो भड़की, वो फिर शांत नहीं हुई। अब तक सुलगती जा रही है...और मेरे सीने में कितने ही छाले बनाती जा रही है...। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद, दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अर्ज़ी दी कि रामलला के दर्शन की इजाज़त मिले। अदालत ने उनकी बात मान ली...और फिर यहां दर्शन-पूजा का सिलसिला शुरू हो गया। एक फ़रवरी 1986 को यहां ताले खोल दिए गए और इबादत का सिलसिला ढांचे के अंदर ही शुरू हो गया।
हे राम! क्या कहूं...अयोध्या ने कब सोचा था...कि उसकी मिट्टी पर ऐसे-ऐसे कारनामे होंगे। 11 नवंबर 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने यहीं पास में ज़मीन पर गड्ढे खोदकर शिला पूजन किया। अब तक अलग-अलग चल रहे मुक़दमे एक ही जगह जोड़कर हाईकोर्ट में एकसाथ सुने जाएं। किसी और ने मांग की—विवादित ढांचे को मंदिर घोषित कर दिया जाए। 10 नवंबर 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ और 6 दिसंबर 1992 को वो सबकुछ हो गया...जो मैंने कभी नहीं सोचा था...। कुछ दीवानों ने वो ढांचा ही गिरा दिया...जिसे किसी ने मसज़िद का नाम दिया, तो किसी ने मंदिर बताया। मैं तो मां हूं...क्या कहूं...वो क्या है...। क्या इबादतगाहों के भी अलग-अलग नाम होते हैं? इन सत्रह सालों में क्या-क्या नहीं देखा...क्या-क्या नहीं सुना...क्या-क्या नहीं सहा मैंने...। मैं अपनी भीगी आंखें लेकर बस सूनी राह निहार रही हूं...क्या कभी मुझे भी इंसाफ़ मिलेगा? क्या कभी मज़हब की लड़ाइयों से अलग एक मां को उसका सुकून लौटाने की कोशिश भी होगी?
1993 में यूपी सरकार ने विवादित ढांचे के पास की 67 एकड़ ज़मीन एक संगठन को सौंप दी..। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला रद्द कर दिया। अदालत ने ध्यान तो दिया था मेरे दिल का...मेरे जज़्बात का...इंसाफ़ के पुजारियों ने साफ़ कहा था... मालिकाना हक का फ़ैसला होने से पहले इस ज़मीन के अविवादित हिस्सों को भी किसी एक समुदाय को सौंपना "धर्मनिरपेक्षता की भावना" के अनुकूल नहीं होगा। इसी बीच पता चला कि उत्तर प्रदेश सचिवालय से अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 फा़इलें ग़ायब हो गईं। क्या-क्या बताऊं...! मज़हब को लेकर फैलाई जा रही नफ़रत मैं बरसों-बरस से झेल रही हूं। 1528 में यहां एक मसज़िद बनाई गई। 1853 में पहली बार यहां सांप्रदायिक दंगे हुए।
1859 में अंग्रेजों ने बाड़ लगवा दी। मुसलिमों से कहा...वो अंदर इबादत करें और हिंदुओं को बाहरी हिस्से में पूजा करने को कहा। हाय रे...क्यों किए थे अंग्रेजों ने इस क़दर हिस्से? ये कैसा बंटवारा था...उन्होंने जो दीवार खींची...वो जैसे दिलों के बीच खिंच गई। 1984 में कहा गया...यहां राम जन्मे थे और इस जगह को मुक्त कराना है...। हिंदुओं ने एक समिति बनाई और मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति गठित कर डाली। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ कर दिया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव डाल दी। 1990 में भी विवादित ढांचे के पास थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ की गई थी। 1992 में छह दिसंबर का दिन...मेरे हमेशा के लिए ख़ामोशियों में डूब जाने का दिन...अपने-अपने ख़ुदा की तलाश में कुछ दीवानों ने मुझे शर्मशार कर दिया। विवादित ढांचे को गिरा दिया गया। अब कुछ लोग वहां मंदिर बनाना चाहते हैं...तो कुछ की तमन्ना है मसज़िद बने...। मैं तो चाहती हूं...कि मेरे घर में, मेरे आंगन में मोहब्बत लौट आए।
बीते सत्रह सालों में मैंने बहुत-से ज़ख्म खाए हैं...सारे मुल्क में 2000 लोगों की सांसें हमेशा के लिए बंद हो गईं...कितने ही घरों में खुशियों पर पहरा लग गया। ऐसा भी नहीं था कि दंगों और तोड़फोड़ के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ले। 2001 में भी इसी दिन खूब तनाव बढ़ा...जनवरी 2002 में उस वक्त के पीएम ने अयोध्या समिति गठित की...पर हुआ क्या??? क्या कहूं...!!! मेरी बहन गोधरा ने भी तो वही घाव झेले हैं...फरवरी, 2002 में वहां कारसेवकों से भरी रेलगाड़ी में आग लगा दी गई। 58 लोग वहां मारे गए।
किसने लगाई ये आग...। अरे! हलाक़ तो हुए मेरे ज़िगर के टुकड़े ही तो!! मां के बच्चों का मज़हब क्या होता है? बस...बच्चा होना!!
अब तक तमाम सियासतदां मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। फरवरी, 2002 में एक पार्टी ने यकायक अयोध्या मुद्दे से हाथ खींच लिया...। जैसे मैं उनके लिए किसी ख़िलौने की तरह थी...। जब तक मन बहलाया, साथ रखा, नहीं चाहा, तो फेंक दिया। आंकड़ों की क्या बात कहूं...कितनी तस्वीरें याद करूं...जो कुछ याद आता है...दिल में और तक़लीफ़ ताज़ा कर देता है। क्या-क्या धोखा नहीं किया...किस-किस ने दग़ा नहीं दी।
अभी-अभी लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट दी है..कुछ लोगों को दंगों का, ढांचा गिराने का ज़िम्मेदार बताया है...सुना है...उन्हें सज़ा देने की सिफ़ारिश नहीं की गई है। गुनाह किसने किया...सज़ा किसे मिलेगी...पता नहीं...पर ये अभागी अयोध्या...अब भी उस राम को तलाश कर रही है...जो उसे इंसाफ़ दिलाए।
कोई कहता है—अगर मेरे खानदान का पीएम होता, तो ढांचा नहीं गिरता...कोई कहता है—अगर मैं नेता होती, तो मंदिर वहीं बनता...कहां है वो...जो कहे...मैं होता तो अयोध्या इस क़दर सिसकती ना रहती...मैं होती, तो मोहब्बत इस तरह रुसवा नहीं होती।
(फोकस टीवी के विशेष कार्यक्रम ``...17 साल ’’ का मूल आलेख, लेखक चैनल के प्रोग्रामिंग विभाग में स्क्रिप्ट राइटर हैं.)
39 comments:
bahtu sundar........ek vastvik dard ke sath bahut jankari bhar di aapne
बिल्कुल नये अंदाज में लिखी गयी यह पोस्ट बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है । बढ़िया आलेख ।
Rhidaysharshi aalekh hai..shat partishat saty...siyasat, aur siyasat karnewalon ke behkave me aanewale log,donohee zimmeadaar hain..
http://shamasansmaran.blogspot.com
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बेहतरीन है चण्डीबाबू
अयोध्या को लिब्रहान की तो खबर होगी? चंद अल्फाज उनके मुताल्लिक भी कहलवा लेते तो मज़ा आ जाता। सत्रह साल सिर्फ रोजगार में बने रहने की खातिर या किन्ही और वजूहात से चली सुनवाई। हाथ क्या आया?
सौ बात की एक बात - अयोध्या में राम के जन्मस्थल पर भव्य मन्दिर बनना चाहिए। ..
बाकी ये भावुकता भरी बातें और तमाम खयालात बहुत सी सम्स्याओं और मुद्दों पर लागू होते हैं। उन पर मौन धारण करना, सिर्फ अयोध्या और 6 दिसम्बर को इतना तूल देना इंटेलिजेंसिया को कटघरे में खड़ा करते हैं।
..सेफ खेलना इंटेलिजेंसिया का स्वभाव हो गया है।
अयोध्या को लेकर जितनी राजनीति हुई, सच में उससे ऊबन हो गयी है । इस बात से मेरा भी इत्तेफाक -
"..सेफ खेलना इंटेलिजेंसिया का स्वभाव हो गया है।"
बहुत ही मर्मस्पर्शी आलेख है आपका । आज के इंसान ने य्ह सिद्ध कर दिया है कि 'मज़हब ही सिखा रहा है आपस में बैर रखना ' । निजी स्वार्थों के चलते नेता इस आग को बुझाने की जगह भड़का कर अपनी रोटियाँ सेक रहे हैं । इसका हल कोई नहीं निकालना चाहता । हल निकल गया तो चुनाव में मुद्दा कौन सा उछालेंगे । हृदयस्पर्शी आलेख के लिये शुभकामनायें ।
मित्र अभी आपके ब्लॉग तक पहुंचा हूँ पहली नज़र में अपने मन के अनुकूल ही पाया है थोड़ा समय और चाहिए इसे समझने के लिए. फिर आऊंगा.
अच्छा आलेख है, सही किया कि मुझ को भी आमंत्रित किया, किसी मुस्लिम की प्रतिक्रिया जानने के लिए। लेकिन सवाल केवल किसी मुस्लिम का नहीं, केवल हिन्दु का नहीं, देश के सेकुलरिज़्म, धर्म निर्पेक्षता का है। इस विचार से 6 दिसम्बर एक कलंक ही कहा जाना उचित होगा।
Atyant moulik vichar hain, is "darshan" ki avashykata hamesha hi rahi hai aur rahegi. Jai rakhiye hamari shubhkamnayen apke sath hain.
मंदिर तो बनना ही चाहिये, यह आस्था का प्रश्न है। मुस्लिम में मस्जित कोई पूज्य स्थल नही है वह सिर्फ नमाज अदा करने का स्थान भर है, जरूर नही है कि हिन्दूओ की छाती पर ही मुस्लिम अपनी नमाज अदा करे।
एक रास्ता यदि मुस्लिम दे तो सैकड़ो रास्ते हिन्दू अपने आप दे देगा। और विवाद का नाम ही नही मिलेगा।
kitna accha likha hai.........ki ayodhya ki manodasha aur peda par koi dhyan nahi deta .................sab apni apni rotiya sekne me lage hain......................yeh bahut rochak bhi hai kyunki aapne isme kafi sare tathya batayen hai jo aaj tak kafi sare logo ko pata hai nahi the ................sadhuvad
चर्चा में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद | जो लिखा है आपने बिल्कुल ही सटीक लिखा है | जहाँ हिन्दू मुस्लिम सब आपसी भाईचारे के साथ रहा करते थे, सबके अच्छी तरह से काम काज चाल रहे थे, हमारे राजनेताओं ने अपने छोटे छोटे हितों की पूर्ती के लिए सब कुछ तहस नहस कर डाला | हम तो यही कहेंगे कि अयोध्या मसले को हिन्दू मुस्लिम के नज़रिए से ना देखकर मानवता के नज़रिए से देखना चाहिए | लिखने को तो बहुत कुछ है | पर अभी बस इतना ही ......
खेल होगा बंद कब तक, कौन जीतेगा यहाँ ?
हर कोई इससे अपरिचित लडखडाता खेलता |
जबकि सम्मुख हो रहा है खून सबके सुख सपन का |
ओ अरे नादाँ मानव है समय अब भी संभल जा
बंद कर दे आज तो यह खेल जीवन और मरण का |
पूर्णिमा
बहुत ही विस्तार से ,सम्पूर्ण हकीकत -जिम्मेदार कौन ?
घरों की राख फ़िर देखेंगे ,पहले देखना ये है /घरों को फ़ूंक देने का इशारा कौन करता है ।
दुष्यन्त जी ने भी कहा है
"मस्लहत आमेज होते हैं सियासत के कदम/ तू न समझेगा इसे ,तू अभी इन्सान है ।
जिन गलियों मे रामधुन होती हो और ईद की सेवैंयां खाई जाती हो वही आज भय का माहोल हो । एक निवेदन अत्यंत विनम्रता के साथ कि मोहब्बत की दौलत कितनी ही लुटाओ तिजोरी कभी खाली नही होती ।जहां पांच पांच तीर्थंकर जन्मे हो उस भूमि को रक्त रंजित किया जाना मानवता का सबसे बडा अपमान है ।आपको उनके बयानों पर हंसी आती है आना ही चाहिये बहुरूपिये है ।कौन कहे-
जिनकी वजह से == जिनकी महनत से तुम्हे ताज मिला तख्त मिला , उनके सपनों के जनाजों मे तो शामिल होते, तुमको शतरंज की चालों से नही वक्त मिला ।
इनकी फ़ितरत मे नही खून से कपडे रंगना , अपने मतलब के लिये तुमने लडाया तो नही ,कौन पूछे
... prabhaavashaali abhivyakti !!!!
धन्यवाद्
बहुत खूब लिखा बृजमोहन जी
सारगर्भित लेख प्रकाशित करने के लिए आभार!
लिखने के इस अंदाज के लिए चंडीदत्त जी को काफी बधाईयां। आपका छपास www.chhapas.com
बाबरी विध्वंस इस देश के क़ानून और संविधान ही नहीं पारस्परिक सद्भाव की परंपरा पर काला धब्बा है।
हज़ारों-लाखों लोगों की लाशों पर बने मंदिर या मस्ज़िद में बस गिद्ध आयेंगे आराधना करने।
बहुत खूब लिखा बृजमोहन जी
sanjay
बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है । बढ़िया आलेख ।
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
जबरदस्त चंडीदा। बेहद ही शोधपरक है आपका यह आलेख। अयोध्या के दर्द को आपने बखूबी सबके सामने पेश किया है और इस अयोध्या विवाद की गहरी पड़ताल की है। इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। हमें उम्मीद है कि आप आगे भी ऐसे ही लेख लिखते रहेंगे।
पहली बार किसी ने धरती के दर्द को यूँ महसूस करके लिखा है..इस धरती का क्या कसूर जो उसे लहू लुहान किया जा रहा है...उसने तो अपने दोनों बेटों को सामान अनाज,सामान फल-फूल,सामान पर्वत और सामान नदियों से नवाज़ा है पर उन दोनों केबीच के झगड़ों में यह धरती क्षत-विक्षत हो रही है,इस से सब अनजान हैं.....सच लिखा है, आम नागरिक को इन झगड़ों से कोई मतलब नहीं ऐसे ही मुस्लिम बच्चे मंदिर के सामने फूल बेचते रहेंगे और हिन्दू हलवाई सेवइयां बनाते रहेंगे.
Bahut kuch sochne ko majboor kiya...
bahut dardnaak manzar pesh kiya hai aapne,mujhe mera qata yaad aa gaya;
aye kaash apne mulk mein aisi faza bane,
mandir jale to ranj musalman ko bhi ho,
pamal hone paye na masjid ki aabroo,
ye fikr mandiron ke nigahbaan ko bhi ho.
चंडी भाई आपका यह अंदाज ए बयान कमाल का है..
ब्लौगिंग में आपकी सक्रियता देखकर खुशी मिलती है,पिछले दिनों मोहल्ला पर भी आपकी रचना देखने का मौक़ा मिला, शुभकामना बड़े भाई
SAARTHAK AALEKH DWARA SARTHAK PRASH UTHAYE HAIN AAPNE....PAR INKE UTTAR KOUN DEGA.....
IISHWAR SABKO SADBUDDHI DEN AUR LOGON KE BEECH KHADE VAIMANASYTA KE SABHI DEEVAAR DHAAH DEN...
आज अयोध्या फिर से चौराहे पर खड़ी है ... एक दिन उसने देखा आस्था के उन्माद में सरयू के पुल को पार करते हुये अनेकों लोगों पर बिना पूर्व चेतावनी के अंधाधुंध फायरिंग का नर संहार और उसके कुछ ही वर्षों बाद अयोध्या काम्द का द्वितीय सर्ग ... और लाक्षाग्रह कौंसिल का ... पांडवों ने कर दिया बहिष्कार .... बचाया इस तरह यह नवीन वार .... सब कुछ स्मरण है मित्र .. ५ दिसंबर को मेरी यह कविता असम से निकलने वाले हिंदी दैनिक सेंटिनल में छपी थी. ऐसा आभास उस समय किसी को भी हो सकता था. मात्र एक दिन उपरांत ६ दिसंबर को ऐसा हुआ जिसे मैंने अपनी कविता में महाभारत का द्वितीय सर्ग निरूपित किया था.
राजनीति की विड्म्बना और विद्रूपता ने आज अयोध्या को पीर से उसी चौराहे पर लाकर खड़ा किया है जहां .....
भरोसा अब कांच की उन बंद खिड़की के सहन
’कान्त’ पत्थर वोट का संसद से चलाया जायेगा
आलेख के लिये हार्दिक आभार
पहले सरयू बहती थी
अब वो तो रोती है
गरीब की गरीबी में
छिन गई धोती है।
मजहब छील रहा है
मन को, तन को
सब जन को
सिर्फ बचे हुए
नेतागण हैं
वही बचे रहेंगे
जो झूठे हैं।
अद्भुत सत्य कथा।
बहुत मार्मिक और समयानुकूल आलेख है आपका.
मुझे तो लगता है कि हम सबका भला इसी में है कि हम अयोध्या को भूल ही जाएं.
क्या जामा मस्जिद में हुनमान मंदिर बनाने की बात आप लोग कर सकते है..? नहीं ना..तो फिर जो लोग धर्म निर्पेछ्त्ता की बात करते है वो कृपा करके चुप हो जाएँ...शोभा नहीं देता
और आप भी शुक्ला जी....धर्म को मानते है तो फिर ठीक है, नहीं तो आप भी धर्म निरपेछ बन जाएँ, ठीक रहेगा.....भीड़ में जैसे सारे सियार हूँआन हूआं करते है ..आप भी करिए ..
क्या जामा मस्जिद में हुनमान मंदिर बनाने की बात आप लोग कर सकते है..? नहीं ना..तो फिर जो लोग धर्म निर्पेछ्त्ता की बात करते है वो कृपा करके चुप हो जाएँ...शोभा नहीं देता
और आप भी शुक्ला जी....धर्म को मानते है तो फिर ठीक है, नहीं तो आप भी धर्म निरपेछ बन जाएँ, ठीक रहेगा.....भीड़ में जैसे सारे सियार हूँआन हूआं करते है ..आप भी करिए ..
भाई शुक्ल जी
में अयोध्या हूँ...,
क्या लिखा है आप ने ,बधाई के पात्र हैं.
पढ़ने के साथ-साथ ऐसा लगा की अयोध्या की गलियों में घूम रहा हूँ.
आज अयोध्या का यह हल किसने किया ,वहाँ के लोगों ने नहीं,
जिन लोंगों ने किया वे बाहर के ही थे,अयोध्या वासियों से पूछिए ६ दिसंबर ९२
के बारे में चाहे वे मुस्लिम हों या हिन्दू,हर व्यक्ति बाहर वालों कों ही कोसेगा.
कोसे भी क्यों न,आज जो हालत वहाँ के पैदा हुवे हैं उसके लिए वे ही जिम्मेदार जो हैं.
आज से १७ साल पहले तक कितनी संत नगरी थी हमारी अयोध्या ,जहाँ खुली साँस
लेते थे ,लेकिन आज उसी मर्यादा पुरुसोत्तम भगवन की नगरी में प्रवेश करते ही दम घुटने लगता है,
चारों तरफ संगीन के साये,हर आने -जाने वालों कों संदेह की निगाह से देखा जाना.कितना ख़राब
लगता है की आज हम अपने सहर में स्वतंत्र हो कर नहीं घूम सकते ,क्यों?
इसके लिए हम अयोध्या वाले ही दोषी हैं ,जिन्हों ने बाहर वालों कों मौका दिया .
आज भी अयोध्या के लोग (दोनों समुदाय के )अमन सन्ति चाहते हैं.
एक बार फिर बधाई .
प्रदीप श्रीवास्तव
निज़ामाबाद आन्ध्र प्रदेश
09848997327
sundar post!! ayodhya ka manvikaran achha laga..!!
kabhi mere blog par bhi aayen..swagat hai..!
http://www.dankiya.blogspot.com/
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बेहतरीन कहूं... बहुत खूब कहूं... या लाजवाब कहूं... अल्फ़ाज़ कम पड़ रहे हैं... इतना खूबसूरत ब्लॉग है, कि मैंने अपने ब्लॉग के साथ लिंक कर लिया है...
किसे सच कहूं और किसे झूठा बता दूं...दोनों तेरे लाल हैं...चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूं कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?
आह! क्या आह है अयोध्या की!!!!
बहेतरीन पोस्ट के लिये आभार। और उसपर भी अशोककुमार पांडेजी की कमेण्ट ने सोने पे सुहागे का काम कर दीया।
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