विचार : समाचार4मीडिया से साभार
- चण्डीदत्त शुक्ल
जिस दौर में पत्रकारिता की मूर्छावस्था और मृत्यु की समीपता तक की बातें कही जा रही हैं, उस समय में नैतिकता के सवाल मायने ही नहीं रखते। सच तो यह है कि ये विधा, जो कभी मिशन थी, फिर प्रोफेशन बनी, अब विश्वसनीयता और जिजीविषा के संकट से घिरी है। हालांकि भयानक नैराश्य के माहौल में भी, इस तथ्य और सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि टीआरपी के विष-बाण से ग्रस्त टेलीविजन पत्रकारिता और पेड न्यूज़ के संक्रमण से ग्रस्त हुई प्रिंट जर्नलिज्म के कर्मचारी लगातार अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे हैं। यही नहीं, अपनी सीमित कोशिशों में वे पत्रकारिता और खुद को बचाने की जद्दोज़हद कर रहे हैं।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि संपादकों के मैनेजर बनते चले जाने की स्थितियां किस हद तक पत्रकारिता को सजीव और सजग बनाए रख सकेंगी। बहुत कम ही हैं, जिनकी भाषा प्रखर हो, इरादा स्पष्ट और जो सचमुच पत्रकार बनने के लिए इस फील्ड में आ रहे हों। वैसे, इस सबको `फ्रस्ट्रेशन’ मानकर आप खारिज़ भी कर सकते हैं, लेकिन फ़िल्म स्टार, आईएएस, नेता या फिर क्लर्क भी ना बन पाने की स्थिति में, चलो पत्रकार ही बन लिया जाए…या कुछ एंकर्स और प्रभावशाली टीवी पत्रकारों की तर्ज पर चुंधियाकर इस फील्ड में आ जाना भी पत्रकारिता को संकट में डाल रहा है।
ठीक इसी तर्ज पर ऐसा करने वाले भी आजीवन अस्तित्व की जद्दोज़हद और इरादा-लक्ष्य ना स्पष्ट होने के भ्रम से जूझते रहते हैं। यूं, आपको यह विषयांतर लगेगा, लेकिन इस पूरी बात के पीछे कारण है। वज़ह यह कि पत्रकारिता के पीछे अगर मन में स्पष्ट तौर पर मिशन जैसी कोई भावना है, तो वह निर्लज्ज और क्रूर समय में संभव नहीं है, वैसे ही पत्रकारिता की आदर्श परिभाषा के मुताबिक, इसे शुद्ध तौर पर प्रोफेशन नहीं बनाया जा सकता। कारण यह भी है कि यदि आप इस पेशे में बिना किसी पूर्व लक्ष्य के आ गए हैं, तो बाकी धंधों की तरह यहां भी कमाई और नाम की दौड़ में लग जाने का ख़तरा भरपूर है।
मुझे लगता है, भले ही पत्रकारिता के आदर्श अब कायम ना रह गए हों और इसे प्रोफेशन की तरह लेते हुए कमाने-खाने की पद्धतियां शुरू हो गई हों, लेकिन यहीं पर स्व-चेतना और यथास्थिति के फ़र्क समझने और स्वयं पर नियंत्रण की ज़रूरत है। सुदामा पांडेय धूमिल की एक कविता को उद्धृत कर रहा हूं… ज़िंदा रहने के पीछे अगर सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेचकर या …दलाली करके रोजी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है। कविता से दो शब्द हटा दिए गए हैं, क्योंकि वह संसदीय भाषा का बहाना लेकर अश्लील बताए जा सकते हैं। ख़ैर, मुद्दा यही कि पत्रकारिता में अगर हम आए हैं, तो हमारे बहुतेरे उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ इस बात का इलहाम, चेतनता, स्पष्टता और इरादा यही होना चाहिए कि ख़बरची बनने के पीछे बिल्डिंग खड़ी करना हमारा काम नहीं है।
निश्चित तौर पर सारी दुनिया के सामने आदर्शों की दुहाई देने वाले पत्रकारों को अपनी संपत्ति का खुलासा करना चाहिए। वैसे भी, खबरगोई रियल एस्टेट, बेकरी और मैट्रिमोनियल साइट से अलग कुछ खास किस्म का काम तो है ही। इसकी इज्जत बचानी है, तो हमें भी ईमानदार होना होगा। महज आदर्श होने का अभिनय करते रहने और खुद में झूठ पालते हुए पत्रकार ना किसी का विश्वास अर्जित कर सकेंगे, ना ही अपनी आत्मा से न्याय कर पाएंगे।
(लेखक चौराहा.इन पोर्टल के संस्थापक संपादक और स्वाभिमान टाइम्स हिंदी दैनिक के वरिष्ठ समाचार संपादक हैं
2 comments:
शुक्ल जी, मैं आपकी बातों से सहमत हूं। लेकिन सवाल ये है कि आखिर कलंकित होते चौथे स्तंभ को पीत पत्रकारिता से निजात कैसे मिलेगी ? यह प्रयास तो जड़ से शुरू होने चाहिए। अखबारों के कर्ता धर्ता, मालिक, प्रबंधक चापलूसों को तरजीह देते हैं, न कि खरा लिखने वालों को, ऐसे में पत्रकारिता की आड़ में तमाम तरह के धंधे फल फूल रहे हैं। इस पेशे को विश्वसनीय बनाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास करने होंगे, कितने लोग चाहते हैं कि मीडिया को बदनाम करने वाले, इसके नाम पर धंधा करने वाले, ब्लैकमेल करने वालों को निकाल बाहर किया जाए ?
आदरणीय शुक्ल जी बहुत ही सुन्दर विचार आप के सार्थक लेख मीडिया को बहुत ही सार्थक यथार्थ परक देश और समाज के हित की चीजों को वरीयता दे कार्य करना चाहिए पर हो कहाँ पा रहा है ये सब दुखद है ये ..
शुक्ल भ्रमर ५
वज़ह यह कि पत्रकारिता के पीछे अगर मन में स्पष्ट तौर पर मिशन जैसी कोई भावना है, तो वह निर्लज्ज और क्रूर समय में संभव नहीं है, वैसे ही पत्रकारिता की आदर्श परिभाषा के मुताबिक, इसे शुद्ध तौर पर प्रोफेशन नहीं बनाया जा सकता। कारण यह भी है कि यदि आप इस पेशे में बिना किसी पूर्व लक्ष्य के आ गए हैं, तो बाकी धंधों की तरह यहां भी कमाई और नाम की दौड़ में लग जाने का ख़तरा भरपूर है।
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