कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, October 4, 2011

चण्डीदत्त शुक्ल की तीन कविताएँ

 

अलसाई तुम्हारी पलकों के ठीक बीच में बड़ी-सी, इला अरुणा मानिंद बिंदी

उम्मीदों से लबालब भरी इस सुबह के वक्त
ऐन ललमुंहे सूरज के चेहरे से भरकर एक चुटकी अबीर
लगा रहा हूं ख्वाब देखती, अलसाई तुम्हारी पलकों के ठीक बीच में
बड़ी-सी, इला अरुण मानिंद बिंदी।
बहुत सुलग रहा है आज का दिन
तापमान फिर उछाल मार रहा है…
उंह! कहकर, चिंहुकती हुई तुम खोल दो रतनार आंखें
बड़ी-बड़ी, सफेद पुतलियों से होती हुई बर्फीली चमक
ठंडे कर दे सूर्य के कपोल
और तुम्हारी सांसों की खुशबू से महक उठे हवा भरपूर।
वसंतलता…
तुम्हारे देखने भर से, जब संवर जाता हूं पूरा का पूरा मैं
तो…
क्यों भरपूर नींद के मोह में तुम मूंदे रखती हो नयन?
टिकटिकी भर निहारा करो न…

जीभ पर आकर झट-से घुली कुल्फी सा तुम्हारा ढुलक जाना मुझ पर

कुल्फी,
मिट्टी के बर्तन में धरी,
सिमटी, सकुचाती
खुलने और परोसे जाने के इंतज़ार में
नमक के आलिंगन में शरमाती हुई
जीभ पर आकर घुल जाती है, झट-से
जैसे,
तुम विरह के बाद ढुलक गईं हर बार
मेरे हृदय के सारे पैरहन खोलकर
और अंग-अंग में
व्याप्त कर गईं ठिठुरन
जलन भरी, दहकाती शीत बनकर…

महज तुम्हारी अनुपस्थिति से

तुम्हें भूलना
अगर होता महज खुद को नियति के हवाले छोड़ देना
यकीन मानो
कब का बिसरा चुका होता अपना प्रेम
पर
जब-जब चाहा मान लेना नियति का सत्य
तुम्हारे न होने ने मुझे यूं कुरेदा
ज्यूं,
दुनिया से गायब हो गया हो पूरा का पूरा जीवन
नदियों से कलकल
मौसमों से उल्लास
फूलों की महक
चिड़ियों का कलरव
बच्चों की खिलखिल और हिक्क करके मुंह चिढ़ाना
शहर से दूर /
गांव में / मनीऑर्डर का इंतज़ार करते / बूढ़े पिता की निगाह के सामने /
ढह जाना नदी पर बना जर्जर पुल…
तेरह साल के किशोर की हांक न सुनकर भैंसों का खेत में उमड़कर घुस जाना
और फिर भ्रष्ट होना किसी आदर्श का
नष्ट हो रहा हो जैसे कोई और रिश्ता.
महज तुम्हारी अनुपस्थिति से गड़बड़ा जाएं सारे अकादमिक सत्र जैसे
व्याकरण अपने अनुशासन भूल जाएं
और मन बेताल हो, नाचने की जगह दौड़ने को उद्यत हो
एक तुम्हारी गुमशुदगी कैसे गैरहाज़िर कर देती है
मुझसे मेरा ही जीवन…
तुम्हें भूलना,
भूल जाना है सारी दुनिया को
दुनिया में रहते हुए,
इंसानों के साथ
इंसानियत के बगैर

chandidutt shukla
(चंडीदत्त शुक्‍ल। यूपी के गोंडा ज़िले में जन्म। दिल्ली में निवास। लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने, दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे। अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद आजकल अहा ज़िन्दगी/ भास्कर लक्ष्य में फीचर संपादक हैं । ब्लॉग … chauraha)
Filed in: कविता

5 comments:

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

भाई चंडी दत्त शुक्ल जी ;
नमस्कार
बहुत अच्छी लगीं आपकी तीनों कवितायें | बहुत दिन बीत गए भेंट-मुलाकात हुए ...
शायद पहचान जाओगे ...

अभिषेक मिश्र said...

"...एक तुम्हारी गुमशुदगी कैसे गैरहाज़िर कर देती है
मुझसे मेरा ही जीवन…
तुम्हें भूलना,
भूल जाना है सारी दुनिया को..."

सभी कविताओं ने काफी प्रभावित किया.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

Anamikaghatak said...

bahut hi badhiya prastuti

अजय कुमार said...

उत्तम भावों से युक्त तीन सुंदर कवितायें ।