कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, October 18, 2011

चांद, स्त्री और तुम्हारे खोने की रपट : तीन कविताएं

# चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345 #

बिना तुम्हारे वसंत ने किया नामंजूर

राम की तो राम जानें /
खग-मृग से उन्होंने क्या पूछा,
क्या सुना जवाब
पर व्याकुल, एकाकी मैं…
तलाशता रहा तमाम ठीहे,
जहां, कोई खग दिखे,
चोंच में तिनका या चिट्ठियां दबाए…
पर, नदारद सब के सब
पक्षिशास्त्र की किताबों में शामिल ब्योरों बीच कहीं गुटरगूं करते होंगे।
मृग,
`जू’ में तालियां बचाते बच्चों के कंकड़ों और व्यर्थ के कुरकुरे संग कन्फ्यूज़ हैं…
सो, खग-मृग के बिना,
मृ़गनयनी तुम्हारे न होने की रपट मैं कहां दर्ज कराता,
किससे पूछता सवाल
बिरला मंदिर के ऐन सामने, कौन-सा है असली पंडित पावभाजी वाला…
यह जरूर तलाशता था…, तभी चिल्लाया कानों के ठीक बगल कोई…
कहो कहां है तुम्हारी वसंतलता…
कहां गई वो मृगनयनी!
मैं निस्तब्ध, अवाक्…
निरुत्तर हूं,
उन शहरों के सभी रास्ते,
जहां हम-तुम साथ-साथ हमेशा `रंगे हृदय’ पकड़े गए थे,
मुझसे सवाल करते हैं,
अकेले, तुम अकेले, कहां गई वह…
जिसके साथ तुम ज़िंदा थे भरपूर।
अब उदास मुंह लिए कैसे फिर सकते हो?
राहों ने मेरे तनहा क़दम संभालने से इनकार कर दिया है।
अल्बर्ट हॉल में संरक्षित ममी ने पूछा–
तुम वहां, बाहर, क्या करते हो…
बिना प्रेम का लेप लगाए,
वक्त की दीमक तुम्हें खा लेगी, बेतरह!
शाम के तारे,
दोपहर का ताप
और सुबह का गुलाल…
नहीं सहा जाता कुछ भी मुझसे
न ही मुझे स्वीकार करता है कोई बगैर तुम्हारे…
वसंत,
तुम्हारे न होने को मंजूर कर लिया है मैंने.
इन दिशाओं से, रास्तों और राहगीरों से भी कह दो
मान लें,
हम-तुम कभी साथ नहीं चले,
नहीं रहे!


तुम रहना स्त्री, बचा रहे जीवन

हे सुनो न स्त्री
तुम, हां बस तुम ही तो हो
जीने का ज़रिया,
गुनगुनाने की वज़ह.
बहती हो कैसे?
साझा करो हमसे सजनी…
होंठ पर गीत बनकर,
ढलकर आंख में आंसू,
छलकती हो दंतपंक्तियों पर उजास भरी हंसी-सी!
उफ़…
तुम इतनी अगाध, असीम, अछोर
बस…एक गुलाबी भोर!
चांद को छलनी से जब झांकती हो तुम,
देखा है कभी ठीक उसी दौरान उसे?
कितना शरमाया रहता है, मुग्ध, बस आंखें मींचे
हां, कभी-कभी पलक उठाकर…
इश्श! वो देखो, मुए ने झांक लिया तुम्हारा गुलाबी चेहरा…
वसंतलता, जलता है वो मुझसे,
तुमसे,
हम दोनों की गुदगुदाती दोस्ती से…
स्त्री…
तुम न होतीं,
तो सच कहो…
होते क्या ये सब पर्व, त्योहार, हंसी-खुशी के मौके?
उत्सव के ज्वार…
मौसम सब के सब, और ये बहारें?
कहां से लाते हम यूं किसी पर, इस कदर मर-मिटने का जज़्बा?
बेढंगे जीवन के बीच, कभी हम यूं दीवाने हो पाते क्या?
कहो न सखी…
जब कभी औचक तुम्हें कमर से थामकर ढुलक गया हूं संपूर्ण,
तुमने कभी-कहीं नहीं धिक्कारा…
सीने से लगाकर माथा मेरा झुककर चूम ही तो लिया…
स्त्री, सच कहता हूं.
तुम हो, तो जीवन के होने का मतलब है…
है एक भरोसा…
कोई सन्नाटा छीन नहीं सकेगा हमारे प्रेम की तुमुल ध्वनि का मधुर कोलाहल
हमारे चुंबनों की मिठास संसार की सारी कड़वाहटों को यूं ही अमृत-रस में तब्दील करती रहेगी.
तुम रहना स्त्री,
हममें बची रहेगी जीवन की अभिलाषा…
उफ़… तुम्हारे न होने पर हो जाते हैं कैसे शब्दकोश बेमानी
आ जाओ, तुम ठीक अभी…
आज खुलकर, पागलों की तरह, लोटपोट होकर हंसने का मन है




हट पाजी चांद
चल हट पाजी,
तू क्या इतराए है
बादलों की मुंडेर पर
जुल्फ खोले हुए…
चांद कहता है खुद को…
देखा है कभी,
मेरी आंख में बसा `टिकुली’ जैसा चांद?
वो न वसंत-नयन की चमक है प्यारे…
कभी मद्धम नहीं होती /
मेरी ज़िंदगी की रोशनी!
तुम्हारी तो राह घेरता राहु
डराता है सूरज।
वसंतलता सम्मुख नत सब मौसम…
बनना हो तो चांद बनो उसकी तरह…
भरी दोपहर में है वो शीतल
और ममता की उष्णता से लबालब हर समय…
बोलो…तुम हो पाओगे ऐसे?
नहीं, तो जाओ चांद…
छुप जाओ…! 


चण्डीदत्त शुक्ल। पेशे से पत्रकार। अमर उजाला, दैनिक जागरण, फोकस टीवी, स्वाभिमान टाइम्स में विभिन्न छोटे-बड़े पदों पर नौकरी के बाद अब दैनिक भास्कर की मैगज़ीन डिवीज़न में फीचर संपादक। चौराहा के मॉडरेटर।

Tuesday, October 4, 2011

चण्डीदत्त शुक्ल की तीन कविताएँ

 

अलसाई तुम्हारी पलकों के ठीक बीच में बड़ी-सी, इला अरुणा मानिंद बिंदी

उम्मीदों से लबालब भरी इस सुबह के वक्त
ऐन ललमुंहे सूरज के चेहरे से भरकर एक चुटकी अबीर
लगा रहा हूं ख्वाब देखती, अलसाई तुम्हारी पलकों के ठीक बीच में
बड़ी-सी, इला अरुण मानिंद बिंदी।
बहुत सुलग रहा है आज का दिन
तापमान फिर उछाल मार रहा है…
उंह! कहकर, चिंहुकती हुई तुम खोल दो रतनार आंखें
बड़ी-बड़ी, सफेद पुतलियों से होती हुई बर्फीली चमक
ठंडे कर दे सूर्य के कपोल
और तुम्हारी सांसों की खुशबू से महक उठे हवा भरपूर।
वसंतलता…
तुम्हारे देखने भर से, जब संवर जाता हूं पूरा का पूरा मैं
तो…
क्यों भरपूर नींद के मोह में तुम मूंदे रखती हो नयन?
टिकटिकी भर निहारा करो न…

जीभ पर आकर झट-से घुली कुल्फी सा तुम्हारा ढुलक जाना मुझ पर

कुल्फी,
मिट्टी के बर्तन में धरी,
सिमटी, सकुचाती
खुलने और परोसे जाने के इंतज़ार में
नमक के आलिंगन में शरमाती हुई
जीभ पर आकर घुल जाती है, झट-से
जैसे,
तुम विरह के बाद ढुलक गईं हर बार
मेरे हृदय के सारे पैरहन खोलकर
और अंग-अंग में
व्याप्त कर गईं ठिठुरन
जलन भरी, दहकाती शीत बनकर…

महज तुम्हारी अनुपस्थिति से

तुम्हें भूलना
अगर होता महज खुद को नियति के हवाले छोड़ देना
यकीन मानो
कब का बिसरा चुका होता अपना प्रेम
पर
जब-जब चाहा मान लेना नियति का सत्य
तुम्हारे न होने ने मुझे यूं कुरेदा
ज्यूं,
दुनिया से गायब हो गया हो पूरा का पूरा जीवन
नदियों से कलकल
मौसमों से उल्लास
फूलों की महक
चिड़ियों का कलरव
बच्चों की खिलखिल और हिक्क करके मुंह चिढ़ाना
शहर से दूर /
गांव में / मनीऑर्डर का इंतज़ार करते / बूढ़े पिता की निगाह के सामने /
ढह जाना नदी पर बना जर्जर पुल…
तेरह साल के किशोर की हांक न सुनकर भैंसों का खेत में उमड़कर घुस जाना
और फिर भ्रष्ट होना किसी आदर्श का
नष्ट हो रहा हो जैसे कोई और रिश्ता.
महज तुम्हारी अनुपस्थिति से गड़बड़ा जाएं सारे अकादमिक सत्र जैसे
व्याकरण अपने अनुशासन भूल जाएं
और मन बेताल हो, नाचने की जगह दौड़ने को उद्यत हो
एक तुम्हारी गुमशुदगी कैसे गैरहाज़िर कर देती है
मुझसे मेरा ही जीवन…
तुम्हें भूलना,
भूल जाना है सारी दुनिया को
दुनिया में रहते हुए,
इंसानों के साथ
इंसानियत के बगैर

chandidutt shukla
(चंडीदत्त शुक्‍ल। यूपी के गोंडा ज़िले में जन्म। दिल्ली में निवास। लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने, दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे। अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद आजकल अहा ज़िन्दगी/ भास्कर लक्ष्य में फीचर संपादक हैं । ब्लॉग … chauraha)
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