कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, April 17, 2013

हर साल बस इंतज़ार






- चण्डीदत्त शुक्ल

धुंधली होती गई धीरे-धीरे गुलाबी जनवरी.
कोहरे की चुन्नी में बंधी रही,
जाती हुई फरवरी के चांद की हंसी.
मार्च की अलगनी पर टंगी रह गई,
तुम्हारी किलकन की चिंदी-चिंदी रुमाल।
अप्रैल, मई और जून पकते हैं मेरे दिमाग में,
सड़े आम की तरह,
बस अतीत की दुर्गंध के माफिक,
पूरी जुलाई बरसती है आंख
और कब बीत जाते हैं,
अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर
कांपते हुए,
जान भी नहीं पाता।
तुम्हारे बिना मिला सर्द अकेलापन मौसमों पर भारी है.
नवम्बर के दूसरे हफ्ते की एक बोझिल शाम में याद करता हूं,
चार साल पहले के दिसम्बर की वो रात,
जब तुमने हौले-से
चीख जैसा घोल दिया था,
कान में,
तीखा-लाल मिर्च सरीखा स्वाद,
कहकर –
अब के बाद हर साल बस इंतज़ार करोगे!

5 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

बेहतरीन..............
इश्क/इंतज़ार/और अश्क......सृजन करवाते हैं सुन्दर कविताओं का.

too good!!

anu

Amrita Tanmay said...

सुन्दर..अति सुन्दर...

दीपिका रानी said...

एक और बेहतर ब्लॉग का ठिकाना मिला :) आजकल दुर्लभ होता जा रहा है जब लोग आराम से अपना एक ब्लॉग खोल कर उसमें कुछ भी कचरा परोस रहे हैं। और उसे पढ़ने का आग्रह भी करते रहते हैं :( कविताएं आपकी फेसबुक पर भी पढ़ने को मिलती रहती हैं। यहां आपको तसल्ली से पढ़ सकेंगे।

रवि रतलामी said...

अहा! जिंदगी में अमीश जी से लिया गया आपका साक्षात्कार अच्छा लगा. इसे साभार रचनाकार में प्रकाशित किया है -

http://www.rachanakar.org/2013/07/blog-post_348.html

magikjahlia said...

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