कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, July 29, 2008

गौरैया


एक सुर्ख शाम
डूबा नहीं सूरज अभी
पर
दीवार के पांवों तक
घिर रहा अंधेरा.
अभी-अभी
चहकी है गौरैया
घर जाएगी अब
बता रही है
पहले बारिश तो थम जाने दो
सुबह होगी
फिर आएगी
उसकी टोली...
गौरैया बारिश से नहीं डरती
वो उड़ना चाहती है
बूंदों के बीच
पर जानती है
पंख भीग जाएंगे तो नहीं उड़ पाएगी
भूल करती है गौरैया फिर भी
वो बढ़ती है घर की ओर
जो है बाज के बगल
चहको गौरैया
गिलहरी भी तुम्हारे साथ फुदकेगी
पर
बाज से बचकर
हंसो
करो कलरव
पर
थमकर.

6 comments:

Amit K Sagar said...

कविता सचमुच कई मायनों में प्रभावशाली है. कई अर्थ हैं, विस्तार है...जिसकी एवज भी इक कविता बन पड़ती है. यथार्थ के धरातल पे बेहतर संदेश. बहुत खूब. शुकिया. (मेरे जीवन के निजी अध्याय के संकलन की बेहतर कविताओं में शुमार. आगे भी उम्मीद. लिखते रहिये.
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उल्टा तीर

सुभाष नीरव said...

आपके "चौराहा" पर आया, पहली बार। अच्छा लगा। आगे भी आता रहूँगा इस चौराहे पर नया कुछ जानने के लिए।

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi komalta ke saath isme dusra paksh ubhara gaya hai,prabhawshali

Dr SK Mittal said...

बहुत खुब.....................

चौराहे पर खडा मैं सोच रहा
किधर जाऊं मन टटोल रहा

चार राहें जहाँ आके मिलती हैं
उस चौराहे के थानेदार से मैं बोल रहा

बहुत सुंदर सजाया है चौराहे को
उसपे बैठाया चहचहाते चिडे चिडयों को

मुबारक हो थानेदार तुम्हे यह खुशहाल चौराहा
हमारा तो येही रास्ता है
रोज निकलेंगे इस चौराहे से
दिलबर का आशियाँ यहाँ से दिखता है

इतना रहम करना दिलबर के रूबरू होने पर
रोक देना उन्हें अपना रुआब दिखा कलाम सुना कर

Smart Indian said...

बहुत सुंदर कविता है.

Anil Arya said...

tum to kamal ho chandi bhai......badhai
abhi tak kahan chhupa ke rakha tha aapne is hunar ko...!!!