कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, October 8, 2008

इंग्लैंड में हिंदी

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चौराहा के पाठकों के लिए आजकल मैं मौलिक पोस्ट नहीं लिख पा रहा हूँ...पहले चवन्नी से पोस्ट साभार ली और अब जागरण.कॉम से...हाँ...मूल रूप से यह पोस्ट लिखी मैंने ही हैं...
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फिल्म 'लगान' याद है आपको? हां! तो भुवन भी याद होगा। गंवई भुवन, जिसे न बैट पता, न बाल पर बल्लेबाजी करने उतरा, तो अंग्रेजों के छक्के छूट गए। भुवन के पास थी बस एक ताकत-अपने समाज को 'लगान' की जंजीरों से मुक्त कराने का संकल्प।
लंदन में इन दिनों भारतीय साहित्यकार कुछ ऐसी ही बल्लेबाजी कर रहे हैं। फर्क इतना भर कि वे भुवन जैसे अनगढ़ नहीं, न हिंदी उनके लिए अबूझ-अनजानी भाषा है। वैसे, वे अंग्रेजी या अंग्रेजीयत को जवाब देने के लिए साहित्य नहीं रच रहे। उनके मन में भुवन जैसा इरादा है, तो इसलिए कि सात समंदर पार लंदन में भी हिंदी की धाक हो।
इसके लिए प्रवासी भारतीयों ने इंग्लैंड से हिंदी में पत्रिकाएं निकालीं। लगातार कवि सम्मेलन आयोजित किए और भारत-ब्रिटेन के बीच की दूरी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये कम कर दी। दिल्ली में नीपा जैसे थिएटर ग्रुप के साथ अंतरराष्ट्रीय बाल रंग महोत्सव की बात करें, या 'अक्षरम' के सालाना भव्य आयोजन पर नजर डालें, लंदन के प्रवासी भारतीयों की अकुलाहट और लगन की गवाही मिल जाएगी।
बीबीसी से जुड़े रहे डा. ओंकारनाथ श्रीवास्तव [2004 में निधन] और कुछ अरसा पहले ही दिवंगत हुई 'तीसरा सप्तक' की कवयित्री कीर्ति चौधरी की जोड़ी हिंदी के प्रचार-प्रसार में तन-मन-धन से जुटी रही। सनराइज रेडियो के प्रसारक रवि शर्मा, फिल्मकार डा. निखिल कौशिक, पूर्णिमा वर्मन, कवयित्री दिव्या माथुर और भारतीय उच्चायोग के हिंदी अधिकारी राकेश दुबे जैसे कार्यकर्ता हिंदी को सम्मानित करने की मुहिम में जुटे हैं।
वैसे, यह सब कुछ दो-चार दिन में नहीं हुआ। जहां भी किसी भाषा के मुरीद रहते हैं, उसे स्थापित करने की कोशिश करते ही हैं। उल्लेखनीय इतना भर कि ब्रिटेन और खासकर लंदन में ये कोशिश खासी असरदार साबित हो रही है।
अब एक नजर चर्चित लेखिका-अनुवादक युट्टा आस्टिन के बयान पर। युट्टा मानती हैं कि हिंदी के लेखक जो कहानी-कविता लिखते हैं, वे भारतीय या पाश्चात्य के समीकरणों से कहीं ऊपर हैं। युट्टा आस्टिन बताती हैं कि लंदन में हिंदी कोई अपरिचित भाषा नहीं रही। यहां के लोग हिंदी में रचा गया साहित्य पसंद करते हैं और हिंदी लिखने वालों को भी। युट्टा के कथन को प्रमाणित करती हैं जून के आखिरी हफ्ते में घटी दो घटनाएं--
लंदन के नेहरू सेंटर सभागार में कहानीकार उषा राजे सक्सेना के कथा संग्रह 'वह रात और अन्य कहानियां' का लोकार्पण हुआ। समारोह में बीबीसी की निदेशक अचला शर्मा, नेहरू सेंटर की निदेशक मोनिका मोहता, आलोचक प्राण शर्मा और प्रकाशक महेश भारद्वाज खास तौर पर मौजूद थे। कार्यक्रम में लंदन में रह रहे हिंदी के लेखक तो आए ही, दर्जन भर से ज्यादा ब्रिटिश हिंदी प्रेमी भी हाजिर हुए।
चंद रोज बाद ब्रिटिश संसद के उच्च सदन हाउस आफ ला‌र्ड्स में हिंदी का गुणगान हुआ। यहां नासिरा शर्मा को उपन्यास 'कुइयांजान' के लिए 14वां अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया। इस मौके पर ब्रिटिश सरकार के आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री टोनी मैक्नलटी ने हिंदी में ही अपने भाषण की शुरुआत की।
हिंदी को लगातार ऊंचाई पर चढ़ते देखकर क्या खुलकर हंसा जा सकता है? इसका जवाब जानने से पहले घुमक्कड़ सांस्कृतिक लेखक अजित राय [जो इनमें से एक बड़े आयोजन के सहभागी रहे] की बात सुन लीजिए, 'हिंदी लंदन के माथे की बिंदी बन चुकी है। हमारी भाषा के आराधक अब अंग्रेजों के सबसे बड़े सदन में पुष्पहार पहनते हैं।' वे 'जागरण' से बातचीत में कहते हैं, 'लंदन में जल्द ही भारतीय प्रकाशकों के सहयोग से ब्रिटेन की प्रमुख साहित्यिक संस्था 'कथा यूके' एक बुक क्लब शुरू करने जा रही है। ऐसे में ब्रिटेनवासी हिंदी साहित्य को और मजे के साथ पढ़ सकेंगे।' वे खासे विश्वास के साथ बताते हैं, 'खुलकर हंसने जैसा वक्त आना अभी बाकी है, लेकिन हम देर तक मुस्करा जरूर सकते हैं।'

1 comment:

अभिषेक मिश्र said...

England mein hindi ka adhar to hai hi us par ek majboot imarat khari karni baaki hai. Asha hai hamare sahitykar is uddeshya mein safal honge.