

भाप सी उठीं तुम
आंख सी छलकीं
वसंत सी खिलीं
उमड़ी नस-नस तक
पतझड़ सी बिखरीं रेशा-रेशा
ग्रीष्म सी दहकीं, सुलगीं, धुआं-धुआं हुईं
पिघलीं कतरा-कतरा, बूंद-बूंद
पहले थीं बचपन
मादा या नर भेद से अलग
गुनगुनी धूप में बस्ता राह पर पटक
भटकतीं पानी में हाथ भिगोने
जैसे भिगो लेना हो मन
सब सराबोर करने की इच्छा...
कोमल, सुंदर, अद्भुत, कितना अच्छा
चांद पर घर का सपना
कहां पूरा हुआ छोटा-सा स्वप्न भी
आशा से देखा खेलते बच्चों को,
उनका हिस्सा भी कहां बनीं
सिसकीं तब, जब आंसू पोंछने का हुनर भी नहीं सीखा था
न गले में दबाकर, जीभ से पीकर, नाक में समेटकर आंसुओं को आंख तक न पहुंचने देने का कौशल पाया था
तब, राह चलते एक दिन
बचपन छीन लिया एक भद्दी सी बात ने
कितना गहरा था वो धक्का
यकायक बच्चे का सावन मादा होने के जंगल तक सिमट गया और ले गया साथ तुम्हें
फिर बिखरीं
टूटीं, दरकती रहीं बार-बार
वर्षों लंबे नर्क में
भगवान बनाए
मूर्तियां सजाईं
उन्हें पूजा, पाया धिक्कार का प्रसाद
कहां समझ पाया कोई मन तुम्हारा
मृत्यु मांगी, झटक देनी चाही ज़िंदगी
फिर उबर आईं तुम...हर बार की तरह
कुछ स्वप्न फिर बुने
कुछ क़दम तुम चलीं
बना रहा फिर भी मंज़िलों को लेकर भ्रम
जैसे भगवान टूटे, वैसे ही टूटती रहीं राहें
फिर मैं मिला एक दिन
झूठ और सच के अंतर्द्वंद्व के बीच
कहीं उपजने लगा प्रेम
प्रेम, जिससे सच्चा कुछ नहीं
न तुम, न मैं, न वो काला समय
जिसमें सिर्फ प्रेम की तलाश नहीं थी
थीं कई अंधेरी घाटियां
कई गहरे काले गड्ढे
वो जो नहीं मिला, जो चाहा था, उसका खोखलापन तुमने दबा दिया था गहरे गड्ढे में
पर शंकाएं और सच भारी पड़े प्रेम पर
मैंने कुरेदे गड्ढे, फिर निकालीं सड़ी-गली दफन हुई रातों, दिनों, दोपहरियों की लाशें
तुम टूट गई हो...अविश्वास के अंधेरे से घिरी
मरघट की दुर्गंध से त्रस्त
तुम्हारी आस्था एक बार फिर छिन्न-भिन्न है
तुम जो वसंत थीं, थीं लड़की
आज फिर मादा हो...बार-बार भोगे, नोचे, छले जाने को अभिशप्त मादा
और मैं
सिर्फ नर बनकर रह गया हूं...
प्रेम कहां पाता है कोई नर...पुरुष...मर्द
कहां पाऊंगा मैं भी
तुम्हें अपनी हथेलियों में समेटते हुए
अतीत की कालिमा को ही बार-बार उंगलियों से छुड़ाने की कोशिश करूंगा
और तुम भी अब कहां हो पाओगी
रात भर जागने के बाद जेएनयू के गंगा ढाबे के पास मिली सुबह की तरह सहज...
फिर भी यही चाहता हूं
आवरण उतर जाएं, मुस्कराते हुए कुटिलताएं न करूं
चाहूं तुम्हें तो कहूं, बोलूं तो निभाऊं, चाहूं तो चाहूं
बस तुम्हें...बस तुम्हें...