कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द
मुसाफ़िर...
Saturday, February 21, 2009
क्या आंखें प्यार में नहीं रोतीं
तुम्हें देखने की कोशिश में
अक्सर धुंधला जाती है नज़र
आंसुओं में घुल-ढक जाती रोशनी
बायलोजिकल उपज हैं ये
सच है साथी
कैसे हो सकता है आंसुओं का महिमामंडन
रक्त, कफ और वीर्य की तरह
ये तो पैथालोजी लैब के लिए टेस्ट का सामान भर हैं
किसी कसक से इनका क्या वास्ता
भरोसे दरक जाएं, तो भरोसा नहीं होते
जो चटख जाए, वो प्यार ही कहां भला
याद है वो बारिश, जब एक छतरी फेंककर तुम मुस्कराई थीं
और पानी में सन गए थे हम-तुम
तब भी तो रो दिया था मैं
पर आंसुओं और महिमामंडन का रिश्ता इससे तो नहीं बनता
बुनता रहूं भले ही मैं इनका संबंध
तुम तो जानती हो ना
ये छलने की नई तरकीब भर है, है ना...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
तुम्हें देखने की कोशिश में
अक्सर धुंधला जाती है नज़र
आंसुओं में घुल-ढक जाती रोशनी
बायलोजिकल उपज हैं ये
सच है साथी
कैसे हो सकता है आंसुओं का महिमामंडन
रक्त, कफ और वीर्य की तरह
कहुत सुंदर और sadhe हुए शब्दों का chayan है जो अच्छा लगा
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!!
याद है वो बारिश, जब एक छतरी फेंककर तुम मुस्कराई थीं
और पानी में सन गए थे हम-तुम
तब भी तो रो दिया था मैं
खूबसूरत अभिव्यक्ति है
haquikkat hai
याद है वो बारिश, जब एक छतरी फेंककर तुम मुस्कराई थीं
और पानी में सन गए थे हम-तुम
Post a Comment