कभी गुल थे हम, चमन भी खुद / खुद हौसले की ज़ुबान थे / वही बुत बने पत्थर हुए /
तुम ही बताओ क्यों आज, अपने से लगते नहीं, जो कभी दिल के इतने क़रीब थे
तेरी दीद की है आरज़ू / बस सुस्त सी खुद से गुफ्तगू / न उम्मीद के चराग़ हैं / न मोहब्बतों के दीए जले / हम सुस्त-सुस्त से बैठे हैं / बस आह की हैं रवायतें / अब ढल गए तारे सभी / जिन्हें छूने की थीं कभी कोशिशें
यूं ही वक़्त पे हम रो रहे / जैसे दीया बन के जल रहे / जो हालात खुद पैदा किए / उन्हें दफ्न होने तक ढो रहे
यूं आह में ग़ुम हुई चाह है / भटकी जैसे ज़िंदगी की राह है / जो साथ तुम थे रोशनी थी / अब हर पल लगे जैसे स्याह है
राहे जुनून में यूं भटकन है / ये हमको कहां मालूम था / शौक-ए-मोहब्बत की चाह का / ये हस्र कहां मालूम था
12 comments:
बहुत बढिया ...
Bahut khub...!!
नव संवत्सर २०६६ विक्रमी और नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनायें
खूबसूरत शेर सब के सब
achi rachna hai
Wah.. behtreen...
इस रौशनी को फिर से चुरा लो
न रहो स्याह, पलों को रंगीन बना लो
achha tha waise bhi aapki baatein kaafi gehri hoti hain naa chandi jeeeee
Aapka blog kaafi khoobsurat hai aapke man ki tarah hi..............
अब आप पत्रकार से साहित्यकार हो गएँ हैं
आपकी रचनायें बेमिशाल हैं
kaafi crative hain aap sir jee. badhayi
उम्दा. शुक्रिया.
जारी रहें.
lage raheye..sher dher v ho jaye to v sher hi rahta hai...
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