कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, May 9, 2009

ऐसा क्यों होता है...

ख़ुदाया क्यों यूं बेखुद हो जाता हूं मैं कि उनकी खुदी भी भुला बैठता हूं /
वो सफ़र पर जाने को पंख फैलाते हैं और मैं सुबकते हुए उनके क़दम थाम बैठता हूं

2 comments:

दिगम्बर नासवा said...

खूबसूरत है शेर ........

Shamikh Faraz said...

bahut bahtareen likha hai.kabhi mere blog par bhi aayen.