कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, September 23, 2009

चार-चार पंक्तियां

माफ़ कीजिएगा...अरसा हुआ, कुछ लिखे हुए। आज कुछ पंक्तियां उभरी हैं...लिखा नहीं है इन्हें...नकली लेखन जैसे करता रहा हूं, वैसा नहीं है, इसलिए ना तो लालित्य दिखेगा ना शब्द चमत्कार। हो सके, तो मान लीजिए, ये सचमुच दिल से निकली हैं...!


आंसू

तुम्हारी आंख से टपका
पलक में अटका मेरी
नहा गया रोम-रोम
जन्म-जन्म को



निवेदन

सांस भर हूक
यक़ीन भर सब्र
खाली झोली
भर डालो अब

अप्रत्याशित

तुम जीवन हो
कहा हरदम
घृणा के ज्वार तुमसे
अब सहे जाते नहीं

अहसास

हृदय-तार झनझनाते हैं
वधिक के भी
जब छू लेता है वो
कोई मासूम आंसू

अनाकांक्षा

नहीं चाहिए दिशा
न मंज़िल
तुम्हीं तुम सबकुछ
ना चाहो तो ना मानो

मैकेनिक!

सूखे आलू, जली दाल
पंक्चर साइकिल
संभालो सबकुछ
जीवन के जादूगर

9 comments:

Udan Tashtari said...

एक से एक बेहतरीन क्षणिकाएँ निकल कर आई हैं, वाह!

rashmi ravija said...

bahut hi sundar....gaagar me saagar bharne jaisa prayas hai.:)

ओम आर्य said...

दिल को छू गयी चार चार लाइना

Chandan Kumar Jha said...

बहुत ही बेहतरीन और लाजबाव रचनायें । आभार ।

वेद रत्न शुक्ल said...

बहुत खूब!!!

ओमप्रकाश तिवारी said...

बेहतरीन

Lage Raho

तेजेन्द्र शर्मा said...

Chaar linoN mein kitna kuchh keh jaatey ho bhai.

Tejendra Sharma
Katha UK - London

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

भई वाह!
आप जो भी कहें, मुझे तो इनमें बेहतरीन कविता के दर्शन हो रहे हैं. इतने कम शब्दों में बात कहना कोई आसान काम नहीं है. आप इसी तरह सक्रिय बने रहें, यही कामना है.

shubhAM said...

behad sundar aur masoom rachnayein hain...!!