कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, September 25, 2009

इन्हें क्या नाम दूं?

मैली कमीज
नई-नकोर, शफ्फाक शर्ट
मल-मलकर छांट दी थीं मैल की परतें
फिर भी अच्छी नहीं लग रही ये
आज क्यों नहीं पोंछ दिए तुमने जूठे हाथ?

सिनेमा / कॉफी घर
बत्तियां बुझते ही
सुलग उठता है सफ़ेद परदा
और दूसरे ठौर
ठंडे प्याले के नीचे से सरक जाती है सफ़ेद चादर

जर्जर आडंबर
बंद करो प्रेम प्रहसन
आओ भोगें एक-दूसरे को
कहा तूने, जड़ा ज़ोरदार तमाचा
नैतिकता का बहाना खील-खील!

10 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी बात तीनों मे...यह भी जबरदस्त अभिव्यक्ति का तरीका है.

M VERMA said...

वाह क्या कहने नायाब्

डॉ .अनुराग said...

सब की सब लाज़वाब....खास तौर पे पहली

Chandan Kumar Jha said...

सभी उम्दा रचनायें है । बहुत सुन्दर । और आपके ब्लाग का यह नया कलेवर भी बहुत अच्छा लग रहा है । आभार

Anonymous said...

वाह चंडी...तुम जो भी कहते हो दिल से कहते हो.कहना बंद मत करो कि दिल सुनना चाहता है..

गीताश्री

अनिल कान्त said...

लाजवाब !!

दिगम्बर नासवा said...

वाह कमाल का लिखा है .......

rashmi ravija said...
This comment has been removed by the author.
rashmi ravija said...

बड़ी मीठी कसक लिए हुए हैं सारी क्षणिकाएं...

Chandan Kumar Jha said...

सब की सब लाजवाब ।