कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, October 20, 2009

बीमारी या फिर प्रेम में दाखिल होना

केमिस्ट को याद हो गया घर का पता
रफ्तार के साथ चलता है पंखा
तेजी से धड़क रहा दिल
बिजली के साथ दवा का बिल भी बढ़ा
सौभाग्य ऊपर फ्लैक्चुएट कर रहा
या फिर दुर्भाग्य जोर-जोर से दरवाजा खटखटाने लगा यानी
बुरी तरह बीमार हूं
या प्रेम में हूं
अब ये न कहना
प्रेम भी तो एक बीमारी ही है...
(मूलतः 5 मार्च, 2009 को लिखा)

5 comments:

Chandan Kumar Jha said...

वाह !!! बहुत सुन्दर प्रेम ।

संगीता पुरी said...

अच्‍छे भाव !!

विनीत उत्पल said...

बहुत खूब. झमाझम लिख रहे हैं

हरीश करमचंदाणी said...

... अंदाजे बयां और ...क्या कहना ,अदभुत हैं यह अंदाज़ .आपसे इतनी मन की बातें हो गयी लगा बरसो पुरानी पहचान हैं .साथ बना रहेगा .

चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345 said...

चंदन, संगीता जी, विनीत बाबू और अपने संवेदनशील हरीश भाई...आप सबका आभार. आपने इतनी गंभीरता से पढ़ा और हौसला बढ़ाया.