कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, June 1, 2010

सयंमी होने का एकांतवास


क्यों झेल रहे तुम
संयमी होने का एकांतवास...
प्रिय,
क्या ना जानूं मैं
तुम्हारे अपनेपन का उद्वेलन?
गुंजित होता है हर पल
तेरे अंतर्मन का ये मंथन...
कैसा यह जटिल चक्र रचने का मोह...
भाव बोध से विरक्ति प्रदर्शन कैसा...
और..
ये दर्शाना कि तरंगित होता तन
उठती नहीं उमंगें मन में...
भावहीन मुख से एक अच्छे अभिनेता का
करा सकते हो आभास...
लेकिन सपाटपन का मेकअप उतारने के बाद
देख लीं हैं मैंने सपने देखतीं पनीली आंखें...
अब ना करो, बहाने बनाओ या खिन्नता का करो प्रदर्शन.
पहले मैं बोलूं, झुकूं...
ये प्रत्यंचा शैली तो जड़ पुरुषों के ही खाते लिखी गई है...
मंगलगायन वाले स्वर क्यों बोल रहे हैं...
परेड का कॉशन!
नारी तो भावुकता का द्रवित संगम है...
इतने मत तानो तार प्रिय
कि टूट जाए झनककर मन का सितार...
कितना रोकोगे खुद को-
कहीं बिखर गए तब...?
इसलिए हो जाओ समर्पित...
और हो जाने दो.
समर्पण के क्रम से ही-
तो होगी एक नव अनुभूति,
हठ और इनकार के अतिरिक्त
खोल सकेंगे भावनेत्र हम...
साकार कर सकेंगे...
प्रेमाकाश में मुक्त पांखी बन बिचरने का
सब से दूर, सबकुछ बिसरने का
स्वप्न


गोंडा, रात के 4.30 बजे, 1997 

3 comments:

Dev K Jha said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति... भावनाओं को शब्द का रुप बहुत ही सार्थक रुप से दिया है आपनें...
बधाई स्वीकारें..

दिलीप said...

नारी तो भावुकता का द्रवित संगम है...
इतने मत तानो तार प्रिय
कि टूट जाए झनककर मन का सितार...
कितना रोकोगे खुद को-
कहीं बिखर गए तब...?waah adbhut panktiyan

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मनोभावों का सुन्दर प्रस्तुतिकरण!