और आज, बहुत दिनों बाद...चौराहा पर एक पुस्तक समीक्षा
बेबस, मज़बूर, ढकी-छुपी, सिसकती, विचारहीन, कमनीय और समर्पित—ऐसी स्त्री के बारे में सुनते ही पुरुषों की ज़ुबान से यही तो निकलता है— वाह! और अगर यही औरत अपने मन में विचार पाल ले, उसे आकार दे, तो? तो वो कुलटा हो जाती है, चरित्रहीन, भटकी हुई, संस्कार विहीन, आधुनिकता के नाम पर अंधी!
`चर्चा हमारा’ में मैत्रेयी पुष्पा आधी आबादी की इसी जमात को स्वर देती हैं, जो सोच सकती है, सोचना चाहती है, उसका साहस रखती है, जो अघाई नहीं है, जिसने अपने विचारों को, आकांक्षाओं को दफन नहीं होने दिया, जो शुचिता और समर्पण के नाम पर हर शोषण सहने के लिए तैयार नहीं है।
मैत्रेयी के लिखे हुए को युवा पत्रकार प्रतिभा कटियार ने एक खास आकार दिया है...। दरअसल, मैत्रेयी के कुछ लेखों, साक्षात्कारों और विचारों के अनगढ़ भंडार को प्रतिभा ने छाना और फिर एक बेबाक संकलन सामने आया। ये स्त्री-विमर्श की वो आंधी है, जिसमें वायु और इंद्र देवता के आशीर्वाद से पुत्र जन्म लेने की कहानियां उड़ जाती हैं। लेखिका सवाल करती हैं—संसर्ग के बिना पुत्र जन्म की कहानियां क्यों? उनके लेखन में मिथकों की आड़ में स्त्री को या तो देवी या फिर भोग्या बनाए जाने पर भरपूर कटाक्ष है।
बेवज़ह बुने गए शिल्प की आड़ मैत्रेयी नहीं लेतीं, उनके विचार स्पष्ट और तीखे हैं। पैरा-दर-पैरा मैत्रेयी की भाषा में व्यंग्य का ज़बर्दस्त प्रभाव नज़र आता है और उन लोगों को चोटिल भी करता है, जिन्होंने अपनी बुद्धि को अंधेरे कुएं में धकेल रखा है, विवेक की धार पर रोशन नहीं होने दिया। वो प्रश्न करती हैं—पुरुष जितने चाहे संबंध बना सकता है और स्त्री एक भी रिश्ता कायम कर ले, तो सारे परिवार का अस्तित्व खतरे में कैसे पड़ सकता है।
मर्द बुरा है, शोषक है और घृणित है—ऐसी राय रखने वाले स्त्री-विमर्शकारों से इतर मैत्रेयी मानती हैं—वो स्त्री का साथी है, प्रेमी है, लेकिन तभी, जब वो औरत का मन समझे।
वो प्रेम को सबसे बड़ी ताकत बताती हैं और अपने लेखन में ये तथ्य भी उजागर करती हैं, समाज को भय था कि प्रेम स्थापित ना होने पाए, इसलिए उसने प्रेम किससे हो, कितना हो, जैसी शर्तें लगाईं और उसे कुचलने की कोशिश की।
बेहतरीन कथाकार होने की वज़ह से उदाहरणों और आख्यानों की मात्रा उनके लेखों में भरपूर है। स्त्री-चिंतक के रूप में अपनी नज़र और अंदाज़-ए-बयां से वो महत्वपूर्ण दर्जा हासिल करती हैं। अगर बाजार स्त्री की ताकत है, तो वो उसे सिर्फ उत्पाद कैसे बना रहा है? ये एक बड़ा सवाल है, जिसे अक्सर पुरुषवादी लेखक सामने लाते हैं। मैत्रेयी की दृष्टि यहां चौंकाने वाली है—'कभी सोचा है मर्द क्यों विज्ञापनों में आने पर गर्व करता है? उसका वहां कैसा इस्तेमाल हो रहा है, इस ब्यौरे को कौन खोलेगा? बात तो यही है न कि आप औरत के क्रियाकलापों को उसके शरीर से जोड़कर देखने का चस्का पाले हुए हैं। (करवट ले रही है अब औरतों की ताकत)'
कुछ जगहों पर पाठक (खासकर पुरुष पाठकों) को लग सकता है कि मैत्रेयी अतिरेकी हो जाती हैं, लेकिन सदियों की पीड़ा, कुंठा, क्षोभ और नैराश्य झेल चुकी स्त्रियां समझ सकती हैं कि लेखिका यहां कितनी सच्ची और ज़रूरी बातें कर रही हैं। उद्वेग और उद्वेलन का मिला-जुला अहसास मैत्रेयी की लिखावट में स्याही की जगह ले चुका है। यहां कई बार संवेदनाओं का आवेग तर्क के आधार से भी बड़ा है, लेकिन जो कुछ है, जितना है, सच्चा और ज़रूरी है।
'श्लीलता की रक्षा के लिए जिंदगी को तबाह कर दूं ऐसे दबाव से इंकार करती हूं।' ऐसी बातें कहते हुए मैत्रेयी फट पड़ने की कगार पर खड़ी स्त्री का गुस्सा ही सामने लाती हैं, जो जड़ मानस लिए फिर रहे पुरुष के लिए चुनौती है। लेखिका स्पष्ट करती हैं कि आदर्शों, परंपराओं, संस्कारों और मर्यादाओं के नाम पर स्त्री को गुलाम बनाए रखने की साज़िश लगातार रची जाती रही है और पुरुष नहीं चाहते कि वो खुलकर सांस भी ले सके। जब मिले, सिर्फ घुटने टेके हुए, बिना सवालों के मिले।
अपने एक लेख में मैत्रेयी बताती हैं कि जब स्त्री चाहती है कि वो अखबार पढ़े, तो उसे वो पन्ना थमा दिया जाता है, जिसमें पुरुष को रिझाने के गुर बताए गए हैं...लेकिन अब उसकी रुचियां बदलने लगी हैं। स्त्री चाय थमाने के साथ चर्चा भी करना चाहती है। वो चाहती हैं कि पुरुष ही सबकुछ जानने-समझने का दावा करना छोड़ें। मैत्रेयी गार्गी नामकी विदुषी की चर्चा करते हुए कहती हैं कि ऐसे नाम रखने से महिलाओं का भला नहीं होने वाला।
जिन महिलाओं पर वेदपाठ ना करने की पाबंदी लगाई गई थी, वो अब चिंतन और शास्त्र के क्षेत्र में दखल करना चाहती हैं। चर्चा हमारा में मैत्रेयी ने महिला आरक्षण, स्त्री की नैतिकता, उसकी देह, सेरोगेट मदर और नैतिकता के खोखले प्रश्नों को गंभीरता के साथ उठाया है। स्त्री-देह को दुनिया की सबसे बड़ी समस्या बताने के अलावा, मैत्रेयी ने शादी की उम्र तय करने का अधिकार लड़की को मिलने की वकालत भी की है। संग्रह का सबसे विचारोत्तेजक लेख है—लड़कियों में प्रेम करने का रोग नहीं, साहस होता है। मैत्रेयी के इस संग्रह की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे पढ़कर आप स्त्री की नज़र से संसार को देखने के लिए मज़बूर होते हैं और ये भी समझ पाते हैं कि सहमी रहने वाली, अब तक ठगी गई औरत अब और झुकने को तैयार नहीं है।
पुस्तक : चर्चा हमारा
लेखिका : मैत्रेयी पुष्पा
प्रस्तुति : प्रतिभा कटियार
मूल्य : 300 रुपये
प्रकाशन : सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
दैनिक हरिभूमि की साप्ताहिक परिशिष्ट में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा
(चौराहा की ये पोस्ट सृजनगाथा http://www.srijangatha.com/bloggatha-60_2k10 पर भी है)
(चौराहा की ये पोस्ट सृजनगाथा http://www.srijangatha.com/bloggatha-60_2k10 पर भी है)
3 comments:
ऐसे ही विचारों की आज जरुरत है समाज को.
मैत्रेयी जी से मिलने का मौका मिला था एक बार प्रगति मैदान में....वो जैसा लिखती हैं, वैसी ही दिखती भी हैं....एकदम सादा और सटीक......ये पुस्तक भी पढ़ने का मौका मिला तो ज़रूर पढ़ेंगे....
मै भी उनकी कहानियों की फैन हूँ उनके कहानी संग्रह को कई बार पढा है प्त्र प्त्रिकाओं मे भी पढा है सलाम है उनकी कलम और साहस को। अच्छी जानकारी है धन्यवाद्
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