कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, August 10, 2010

प्रतिभा कटियार की कविता...चिड़िया नहीं हूं मैं...








स्त्री-विमर्श की दुनिया में खरी-खरी कहने के लिए चर्चित और अपनी संवेदना-पगी कहानियों के ज़रिए मुग्ध और सोचाकुल करने में माहिर प्रतिभा कटियार लखनऊ में रहती हैं और हमारे वक्त की ज़रूरी रचनाकार हैं। इन्हें पढ़ना एक अनूठे अनुभव से साक्षात्कार करना है। दैनिक हिंदुस्तान में छपी उनकी एक कविता चौराहा के पाठकों के लिए प्रतिभा जी की अनुमति और नुक्कड़ के सहयोग से यहां हाज़िर है। 

मेरी राय में कविता-- ये स्त्री का स्वतंत्र स्नेहगान है, जिसमें तुम केवल श्रद्धा हो या फिर भटका हुआ संसार हो...इस तरह के दोनों आकलन से अलग स्त्री का स्वाभाविक भाष्य है, स्वयं के बारे में...नहीं, मैं इतनी सहज नहीं हूं कि तुम छल लो, ना ही मैं इतनी कठिन हूं कि हल नहीं निकाल पाओ. जैसी दृष्टि रखोगे, वैसा ही दर्शन पाओगे और नहा जाओगे नेह ही नेह से...नेह ही नेह में.



अब आप सबकी राय का इंतज़ार...

7 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

सुन्दर कविता

राघवेंद्र said...

सच्ची कविता.

संजय भास्‍कर said...

..........सुन्दर कविता

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना । आभार
ढेर सारी शुभकामनायें.
Sanjay kumar
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

नेह की एक बूँद हूँ जो नेह से पैघल जाती है। बिलकुल सही कहा। लाजवाब रचना प्रतिभा जी का परिचय देने के लिये धन्यवाद। शुभकामनायें

नवीन त्रिपाठी said...

कविता सुंदर है...वास्तविकता बयां करती हैं
नवीन कुमार त्रिपाठी

mdfaiyz said...

प्रतिभा जी आपकी कविता बहुत सरल और सहज शब्दो में बहुत कुछ कह रही है। प्रकृति से जिस तरह आपने इसे पिरोया है वो काबिले तारिफ है। आपकी और रचनाओं का हमें इंतेजार रहेगा।