एक सवाल का जवाब देंगे आप? चिप्स के दो बड़े पैकेट ख़रीदने के लिए कितने पैसे ख़र्च करने पड़ते हैं? चालीस रुपये ना!! और पांच के लिए? जवाब आसान है—सौ रुपये। क्या इतने पैसे में नामी-गिरामी लेखकों की अस्सी से सौ पेज वाली दस किताबें मिलें, तो इन्हें ख़रीदना अच्छा सौदा होगा? कुछ दिन पहले ये सवाल हंसी में उड़ाया जा सकता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है…। जयपुर के एक कम जाने प्रकाशक मायामृग नेबोधि पुस्तक पर्व नाम से ऐसी योजना की शुरुआत की है। इसमें हिंदी के सुपरचित और नए, दोनों तरह के रचनाकार शामिल हैं, मसलन— विजेंद्र, चंद्रकांत देवताले, नंद चतुर्वेदी, हेमंत शेष, महीप सिंह, प्रमोद कुमार शर्मा, सुरेन्द्र सुन्दरम, हेतु भारद्वाज, नासिरा शर्मा और सत्यनारायण। किताबें बाज़ार में आईं और पहले हफ़्ते में ही 925 सेट बिक गए। इससे उत्साहित प्रकाशक ने गिफ्ट पैक लॉन्च करने की योजना बना ली। लगे हाथ ये घोषणा भी कर दी कि हर साल ऐसे दो सेट पेश किए जाएंगे, यानी बीस लेखकों की बीस किताबें।
बहुतेरे लोगों की राय में ये—`दुधारी तलवार पर चलना’ और `घर फूंक कर तमाशा देखना’ था, लेकिन हिंदी का साहित्य जगत ना तो किसी घटना से खुश हो जाने को आतुर है और ना झट-से नाराज़ होने के लिए। 300 से 500 तक के प्रिंट ऑर्डर में सिमटते जा रहे प्रकाशन और विचार जगत में एक अचीन्हे-प्रकाशक की इस कोशिश को चर्चित साहित्यकार विष्णु नागर ने `पुस्तक जगत की नैनो क्रांति’ नाम दिया। उन्होंने व्यंग्य किया—ये क्रांति सिर्फ हिंदी साहित्य संसार में हुई है, इसलिए इसकी खबर शायद हिंदी के अखबार लेना जरूरी नहीं समझें।
नागर का स्वर भले ही प्रशंसा का रहा हो, लेकिन योजना की आलोचना करने वाले भी कम नहीं हैं। असहमति का मूल कारण है—प्रकाशक की ओर से लेखकों को रायल्टी ना देने का निर्णय। रोचक बात ये कि इसका उन रचनाकारों ने विरोध नहीं किया है, जिन्होंने प्रकाशन के लिए अपनी कृतियां दी हैं, बल्कि वाद-विवाद को आगे खासतौर पर राजस्थान के साहित्यकारों और पत्रकारों ने बढ़ाया।
रामकुमार सिंह |
हाल में फ़िल्म `चुटकी बजा के’ का निर्माण करने के लिए चर्चा में आए युवा पत्रकार रामकुमार सिंह और संपादक-कवि डॉ. दुष्यंत ने कम्युनिटी साइट `फेसबुक’ पर एक ज़ोरदार बहस छेड़ दी। उनका कहना है—असल में क्रांति पाठक को सस्ती किताबों से नहीं होती। वो तो जमीन पर ही होती है। रामकुमार की चिंता है कि दिल के साथ दिमाग की भी माननी चाहिए, क्योंकि नुक्सान उठाकर प्रकाशक बचा नहीं रह सकेगा।
डॉ. दुष्यंत |
संपादक-कवि डॉ. दुष्यंत ने मुफ़्त या सस्ते में साहित्य बेचने की ख़िलाफ़त करते हुए कहा कि जिन लेखकों ने अपने हक़ की बात नहीं की, उन्होंने नए लेखकों के लिए ठीक मिसाल भी नहीं पेश की। आख़िरकार, इस दौर में साहित्य और ज्ञान ही कौड़ियों के मोल क्यों बिके? इस तरह तो हम तकरीबन लुगदी किस्म के साहित्य को बढ़ावा देते हैं और पाठक की प्रतिक्रिया जानने की लेखकीय व्याकुलता का पता भी चलता है।
रामकिशन अडिग |
छपास की अनंत भूख के चलते लेखकीय गरिमा ख़त्म करने वाले रचनाकारों से दुष्यंत नाराज़ हैं। वो राजस्थान के बड़े कवि नंदकिशोर आचार्य का हवाला देते हैं, जिनके मुताबिक, लेखक को पैसे के लिए नहीं लिखना चाहिए पर उसके लिखे का पैसा जरूर मिलना चाहिए।
चित्रकार रामकिशन अडिग ने इस मुद्दे पर ख़ुशी जताई कि दस रुपये में वो अपने प्रिय लेखक को पढ़ पाएंगे, लेकिन रचनाकार के हक़ की बात पर उनका गंभीर हो जाना बताता है कि सौ रुपये में दस किताबों की योजना उन्हें भी पूरी तरह हजम नहीं होती।
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल |
योजना के पैरोकारों के पास भी ठोस तर्क हैं। विचारक ललित शर्मा मानते हैं कि गुणवत्ता की कसौटी पर तो बड़े प्रकाशकों की किताबें तक खरी नहीं उतरतीं, इसलिए इसको लेकर हो-हल्ला नहीं होना चाहिए। इसी तरह बुजुर्ग लेखक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने सवाल किया कि कितने लेखकों को कितनी रायल्टी मिलती है? इस तरह कम से कम लेखक को पाठक तो मिलेंगे। उन्होंने `अब तक उपेक्षित पाठक की परवाह करने वाले प्रकाशक की प्रशंसा करनी चाही’ वहीं प्रतिलिपि के संचालक ओमप्रकाश कागद ये कहने से नहीं चूके कि लेखक खुद अपनी रचनाएं बगैर रायल्टी के छपवाने को तैयार हैं,
तो ये उनका अपना फ़ैसला है। वैसे भी, लेखक और साहित्यकार में अंतर करना ज़रूरी है। लेखक उपभोक्ता और विक्रेता की शर्तों पर लिखता है।
इंटरनेट की दुनिया में साहित्य और प्रकाशन पर ये गंभीर विमर्श का एक अहम उदाहण है। बहस के दौरान ऑन डिमांड छपने वाली प्रतिलिपि पत्रिका से लेकर, लोकायत प्रकाशन के कर्मठ संचालक शेखर जी की सार्थक सक्रियता और लघु पत्रिकाओं में बिना पारिश्रमिक रचनाएं देने-ना देने तक के मुद्दे उठाए गए।
भीगे डैनों वाला गरुण |
वर्चुअल संसार ही नहीं, बाहर की दुनिया में भी साहित्यकारों-प्रकाशकों की राय एक जैसी है। यूं तो, लेखकों ने खुद ही रायल्टी ना लेने का अनुबंध किया, लेकिन चर्चित रंग समीक्षक प्रयाग शुक्ल इसे सही नहीं ठहराते। वो मानते हैं कि शर्त कोई भी क्यों ना हो, लेखक की हक़मारी किसी कीमत पर नहीं होनी चाहिए। प्रयाग बताते हैं कि हाल में ही बच्चों के लिए उन्होंने एक किताब लिखी। जब उसे रॉयल्टी फ्री करने की बात कही गई, तो वो तैयार हो गए, लेकिन उन्होंने शर्त रखी—ऐसा अगले संस्करण से किया जाए।
कमोबेश ऐसी ही राय राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी की है। वो मानते हैं कि कीमत का संतुलन होना चाहिए। मुफ़्त या सस्ते के नाम पर लेखक को रायल्टी ना देना ठीक नहीं है। वो ये सवाल भी करते हैं कि जब कागज से लेकर बाइंडिंग तक का खर्च हम दे सकते हैं, तो रचना के मूल उत्स लेखक को क्यों नहीं?
अरुण माहेश्वरी |
वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी की नज़र में लेखक और प्रकाशक, दोनों को अपना हक़ मिलना चाहिए। ऐसी योजनाएं सफल होनी चाहिए, क्योंकि इनकी नाकामयाबी से पाठकों और लेखकों के अलावा, प्रकाशन जगत का भी अपूर्णीय नुक्सान होता है। हिंदी के सुपरचित कवि और संवाद प्रकाशन के संचालक आलोक श्रीवास्तव की राय में, `योजना शुरू कर देना आसान है, उन्हें निभाना मुश्किल, इसलिए इस पर कुछ कहने का समय अभी आना बाकी है।’
प्रभात प्रकाशन के संचालक डॉ. पीयूष ने कहा कि मुनाफ़े की चिंता छोड़ भी दी जाए, तो किसी योजना के संचालन के पीछे तर्क पुख़्ता होने चाहिए। कई योजनाएं उत्साह में शुरू कर दी जाती हैं, लेकिन उनका भविष्य नहीं होता।
प्रकाशक की मंशा क्या है—प्रचार पाना, अति उत्साह, दिल से लिया गया फैसला या तर्क से, सोच-विचार कर की गई व्यापारिक गणना…इस सवाल पर सैकड़ों अंदेशों, उलाहनों और आलोचनाओं से घिरे मायामृग बताते हैं कि टाइपसेटिंग, डिजाइनिंग और प्रकाशन तक की व्यवस्था अपनी है, बहुत पहले से ऐसा काम करने का मन था, इसलिए कोशिश शुरू कर दी है। किताबें उचित मात्रा में बिकेंगी, तो लागत निकल आएगी…। वाद-विवाद और प्रतिवाद के स्वरों के बीच फ़िलहाल, इतना ही कहना ठीक होगा—आगाज़ तो अच्छा है, अंजाम रीडर जाने!
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(चर्चित पोर्टल प्रवक्ता.कॉम http://www.pravakta.com/?p=13169 और मासिक पत्रिका ‘सोपानस्टेप’ से साभार)
2 comments:
hmm विचारणीय.
पढ़कर आनन्द आ गया!
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