कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, February 19, 2011

फिर सुनें स्त्री-मन और जीवन की कहानियां

चर्चा में किताब

कथा में नई दृष्टि और भाषा गढ़ती हैं रीता सिन्हा 


चूल्हे पर रखी पतीली में धीरे-धीरे गर्म होता और फिर उफनकर गिर जाता दूध देखा है कभी? ऐसा ही तो है स्त्री-मन। संवेदनाओं की गर्माहट कितनी देर में और किस कदर कटाक्ष-उपेक्षा की तपन-जलन में तब्दील हो जाएगी, पहले से इसका अंदाज़ा लगाना संभव होता, तो स्त्री-पुरुष संबंधों में आई तल्खी यूं, ऐसे ना होती, ना समाज का मौजूदा अविश्वसनीय रूप बन पाता। सच तो ये है कि स्त्री के चित्त-चाह-आह और नाराज़गी को शब्द कम ही मिले हैं। ज्यादातर समय अहसास या तो चूल्हे से उठते धुएं में गुम हो गए हैं या फिर दौड़ में शामिल होने के लिए लगाई जा रही चटख लिपिस्टिक के रंगों में लिपट बदरंग होते रहते हैं। समझदारी और समझ के बीच की तहें खोलने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जद्दोज़हद में स्त्री कभी भरती है, तो कई बार पूरी तरह खाली हो जाती है। किसी ने सच कहा है—कामयाबी के शीर्ष पर खड़ी स्त्रियां अकेली होती हैं, वहीं घर-परिवार के भरपूर जीवन में भी तो उन्हें तनहा ही होना होता है। वैसे, बात स्त्री के अपने अस्तित्व-जद्दोज़हद की ही नहीं, वह समाज का हिस्सा भी तो है, इसलिए चाहे-अनचाहे उसे वज़ूद के साथ मौजूदगी के ख़तरों-ज़िम्मेदारियों से अनिवार्य तौर पर रूबरू होना होता है। स्त्री की इसी सोच-संवेदना-संत्रास और स्वप्न यात्रा को शब्दों में पिरोने का खूबसूरत काम किया है रीता सिन्हा ने। सामयिक प्रकाशन से आया उनका नया कथा संग्रह—डेस्कटॉप इस काम को बखूबी अंजाम देता है।
बिहार की रीता सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर एवं इग्नू (दिल्ली) में एकेडेमिक काउंसलर हैं। हिंदी भाषा में एमए, पीएच-डी करने के अलावा, रीता आकाशवाणी से कहानियों और कविताओं तथा दूरदर्शन से कविताओं का पाठ कर चुकी हैं। बीस वर्षों से प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां, कविताएं, समीक्षाएं एवं लेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं।
खासी पढ़ी-लिखी रीता के साथ सकारात्मक बात यह है कि वह संतुष्ट हो जाने की जगह सजग हैं। यही सजगता उनकी कहानियों में भी नज़र आती है।
रीता कहती हैं—जब विसंगतियों या विडंबनाओं के कारण भीतर प्रश्नाकुलता की बेचैनी होती है, तब मेरे मस्तिष्क में बिम्बों का सृजन होने लगता है। ये बिम्ब कभी शृंखलाबद्ध होते हैं और कभी टुकड़ों में बनने लगते हैं। इसी के साथ मेरे भीतर की रचनाशीलता भी प्रतिक्रयात्मक संवेगों के साथ सक्रिय होने लगती है। जबतक मैं इन्हें अभिव्यक्त नहीं कर लूँ, मेरे भीतर की बेचैनी खत्म नहीं होती। मैं मानती हूं कि लेखक का समाज के प्रति बहुत बड़ा दायित्व भी होता है। व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को आइने में अपने वास्तविक स्वरूप दिखाने का कार्य भी लेखक ही करता है। मैं अपने लेखन के द्वारा आसपास की उन विडंबनाओं को सामने लाना चाहती हूं, जिन्हें हम देखते तो हर समय हैं, पर उनपर सोचना नहीं चाहते।
तकरीबन पौने दो सौ पृष्ठों के कहानी संग्रह डेस्कटॉप की कीमत ढाई सौ रुपए है, जो कुछ ज्यादा लग सकती है, लेकिन नई सोच और भाषा की जादुई बुनावट के लिए इसे पढ़ा जा सकता है। नए प्रतीकों, मीडिया की अक्षमता-विवशता, मौद्रिक नीतियों के कु-फल, स्त्री की सनातन छटपटाहट और रिश्तों के खोखलेपन को रेखांकित करते इस कथा संग्रह का आमुख प्रख्यात कहानीकार चित्रा मुद्गल ने लिखा है और वह भी मानती हैं कि रीता सिन्हा का कथा-वितान सीमाओं की जकड़बंदी से मुक्त, विस्तृत, गहन और व्यापक है। ठीक ऐसी ही राय हिंदी आलोचना के प्रख्यात पुरुष नामवर सिंह की है, जो रीता की भाषा को आज के दौर के लिए ज़रूरी बताते हैं। तकरीबन चौदह कहानियों से सजे इस संग्रह की खासियत यह भी है कि यहां पुरुष घृणा का पात्र या असभ्य, असमान्य नहीं है (बहुधा स्त्री-विमर्श में रेखांकित किए जाने की तरह), बल्कि वह स्त्री का साथी है और अपनी संपूर्ण छुद्रताओं-स्वाभाविकता के साथ मौजूद है।



रीता सिन्हा से छह सवाल


- लेखन आपके लिए आश्वस्तिकारक है या फिर महज खुद को रिलीज़ करने का माध्यम?
0 लेखन मुझे आश्वस्ति प्रदान करता है। सिर्फ अपनी भावनाओं को बाहर फेंक देने का काम किसी ज़िम्मेदार लेखक का हो ही नहीं सकता, इसलिए मेरा भी नहीं है।
. एक लेखक के कितने आड़े आता है महानगरीय परिवेश?
0 महानगरीय परिवेश में लोगों की गिव एंड टेक की मानसिकता लेखन के आड़े तो आती है, लेकिन यदि लेखक में अनुभूति की ईमानदारी के लिए प्रतिबद्धता और लेखन के प्रति निष्ठा हो, तो यह मानसिकता या प्रवृत्ति अधिक कुप्रभावित नहीं कर सकती।
- स्त्री-विमर्श की आपकी अपनी परिभाषा क्या है?
0 स्त्री विमर्श दृष्टिकोण, विचार या चिन्तन का कोई एक आयाम नहीं है। यह सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-जीवन का ऐसा मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय और बौद्धिक विश्लेषण है, जिसमें किसी तरह का विशेषाग्रह, पूर्वग्रह या दुराग्रह नहीं हो सकता।

- भाषा के लिहाज से आप नए प्रतिमान गढ़ सकी हैं। यह उपलब्धि है। इसके लिए बधाई के साथ ही यह सवाल भी कि एक लेखिका के लिए भाषा बड़ा टूल है या विचार?
0 लेखन के लिए भाषा बड़ा टूल है। सशक्त भाषा और शिल्प के द्वारा ही लेखक आज की संश्लिष्ट संवेदनाओं, विडंबनाओं और जटिल यथार्थ को अभिव्यक्ति देने में समर्थ हो सकता है।

- बतौर लेखिका आप ऑब्जर्वेशन और इंप्रोवाइजेशन, में से किसे कथा रचना के लिए ज्यादा ज़रूरी समझती हैं?
0 मैं कथा लेखन में ऑब्जर्वेशन को ज्यादा ज़रूरी मानती हूँ।

3 comments:

ZEAL said...

रीता जी के प्रश्न बेहद अहम् हैं । स्त्रीविमर्श महज ऑब्जर्वेशन के स्थान पर इंप्रोवाइजेशन, होना चाहिए ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कथा लेखन में ऑब्जर्वेशन करना बहुत जरूरी है!
रीता जी से मिलकर अच्छा लगा!

योगेन्द्र मौदगिल said...

wah.. behtreen prastuti...