इस ठूंठ पर वसंत की तरह लहलहाना...!
एक झटके के साथ रुकती है तुम्हारे शहर से आ रही बस,
उतरता है मुसाफ़िरों का रेला
और
टिक जाती हैं नज़रें फिसलती हुई
आगत से गंतव्य तक की सूचना से
गाड़ी की नंबर प्लेट पर।
महज, ये सोचकर रोमांचित हो उठता हूं मैं,
यहीं कभी तुमने भी देखा होगा।
तुम्हारी पसंद के रंगों की बुशर्ट-पतलून पहनने लगा हूं मैं,
अब, जब भी तुम कभी मिलोगी,
खुशी से लहालोट हो कहोगी न, अरे! मेरा फेवरिट कलर!
ज्यूं,
मैंने पतझड़ के इस मौसम में अपने सब के सब पत्ते त्याग दिए हैं।
ज़िंदें अपनी, मुगालते भी सभी और वहम की खाल...
केंचुलें उतारकर निरीह केंचुए की तरह सर्प बैठा है नई त्वचा की प्रतीक्षा में,
तुम भी इस ठूंठ पर वसंत की तरह लहलहाओ न...!
***
तुम, आ गए प्रेम!
प्रेम,
तुम्हारा पीछे छूटना तय ही था
शायद
तुम्हारे आने से पहले से
तुम फिसल ही जाते हो
दिल की गिरह से जब-तब
बल्कि,
जब, तब तुममें डूबे होते हैं हम।
तब, जब तुम्हारी होती है सबसे ज्यादा ज़रूरत,
तुम होते हो गैरहाज़िर
हमारी ज़िंदगी से।
और,
एक के बाद एक कर गुज़रते दिनों में
तुम हो जाते हो गुजरे दिनों को एक गैरज़रूरी-सा एहसास।
फिर,
ज्यूं ही हम निश्चिंत होकर,
कुछ दर्दभरे गीत सुनते हुए
चंद कविताएं लिखकर
कुछ ज़र्द चिट्ठियां उलटते हुए,
निपटाते रहते हैं घर के ज़रूरी कामकाज,
ऐन उन्हीं के बीच,
गहरी टीस बनकर तुम सिर उठा खड़े हो जाते हो...
क्या, यही याद दिलाने के लिए
हां, तुम मौजूद हो.
कभी नहीं गुजरे,
न ही तुम गैरज़रूरी थे।
सच है, तुम्हारा पीछे छूटना,
छूटना है बचपन की तरह ही,
जो न होकर भी हाज़िर होता है हमारे मन में सदैव।
यूं ही,
तुम भी तो अपनी छायाओं में,
हमारे होंठों और आंखों पर हरदम अट्टहास करते रहते हो,
कभी मुस्कान और आंसू बनकर,
तो कभी कटाक्ष की शक्ल में कहते हुए,
बिना प्रेम के जियोगे? जीकर दिखाओ तो जानें!
***
लम्हा एक, हंसूंगा भरपूर
उदासियों के रंग मेरे दामन पे खूब खिलते हैं.
तुम खिलखिलाना बेहिसाब
एक लम्हा, ही हंस लूंगा मैं भी
मुकम्मल हंसी
बिना किसी टीस की
बगैर रत्ती भर याद के
बस सहज होकर
जैसे, प्रेम से पहले था
अर्थहीन ही सही....
***
दुख में तुम्हारे संग की याद
एक विदा
संकेत है किसी आगमन का
हर बार कोई लौटे ही,
ये ज़रूरी है...
तुम नहीं
तो दुख ही सही।
यूं भी,
दुख में तुम कुछ ज्यादा ही याद आते हो
और तुम्हारे संग बिताया गया सुख भी
लगता है अनमोल।
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!
एक विदा
संकेत है किसी आगमन का
हर बार कोई लौटे ही,
ये ज़रूरी है...
तुम नहीं
तो दुख ही सही।
यूं भी,
दुख में तुम कुछ ज्यादा ही याद आते हो
और तुम्हारे संग बिताया गया सुख भी
लगता है अनमोल।
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!
***
चलते-चलते
मैं खूब मिलता रहा, हर दिन जोर-शोर से
वो चुपचाप मेरी रगों से होके गुज़र गया...
...
तू आया, बोला भी कुछ नहीं, चलता गया
यूं, मेरे साथ था, फिर भी सफर खाली रहा...
....
गर्मजोशियां उसकी बांह में थीं समंदर की तरह
पर दिल किसी सहरा-सा लिए दामन में वो बाकी रहा
एक झटके के साथ रुकती है तुम्हारे शहर से आ रही बस,
उतरता है मुसाफ़िरों का रेला
और
टिक जाती हैं नज़रें फिसलती हुई
आगत से गंतव्य तक की सूचना से
गाड़ी की नंबर प्लेट पर।
महज, ये सोचकर रोमांचित हो उठता हूं मैं,
यहीं कभी तुमने भी देखा होगा।
तुम्हारी पसंद के रंगों की बुशर्ट-पतलून पहनने लगा हूं मैं,
अब, जब भी तुम कभी मिलोगी,
खुशी से लहालोट हो कहोगी न, अरे! मेरा फेवरिट कलर!
ज्यूं,
मैंने पतझड़ के इस मौसम में अपने सब के सब पत्ते त्याग दिए हैं।
ज़िंदें अपनी, मुगालते भी सभी और वहम की खाल...
केंचुलें उतारकर निरीह केंचुए की तरह सर्प बैठा है नई त्वचा की प्रतीक्षा में,
तुम भी इस ठूंठ पर वसंत की तरह लहलहाओ न...!
***
तुम, आ गए प्रेम!
प्रेम,
तुम्हारा पीछे छूटना तय ही था
शायद
तुम्हारे आने से पहले से
तुम फिसल ही जाते हो
दिल की गिरह से जब-तब
बल्कि,
जब, तब तुममें डूबे होते हैं हम।
तब, जब तुम्हारी होती है सबसे ज्यादा ज़रूरत,
तुम होते हो गैरहाज़िर
हमारी ज़िंदगी से।
और,
एक के बाद एक कर गुज़रते दिनों में
तुम हो जाते हो गुजरे दिनों को एक गैरज़रूरी-सा एहसास।
फिर,
ज्यूं ही हम निश्चिंत होकर,
कुछ दर्दभरे गीत सुनते हुए
चंद कविताएं लिखकर
कुछ ज़र्द चिट्ठियां उलटते हुए,
निपटाते रहते हैं घर के ज़रूरी कामकाज,
ऐन उन्हीं के बीच,
गहरी टीस बनकर तुम सिर उठा खड़े हो जाते हो...
क्या, यही याद दिलाने के लिए
हां, तुम मौजूद हो.
कभी नहीं गुजरे,
न ही तुम गैरज़रूरी थे।
सच है, तुम्हारा पीछे छूटना,
छूटना है बचपन की तरह ही,
जो न होकर भी हाज़िर होता है हमारे मन में सदैव।
यूं ही,
तुम भी तो अपनी छायाओं में,
हमारे होंठों और आंखों पर हरदम अट्टहास करते रहते हो,
कभी मुस्कान और आंसू बनकर,
तो कभी कटाक्ष की शक्ल में कहते हुए,
बिना प्रेम के जियोगे? जीकर दिखाओ तो जानें!
***
लम्हा एक, हंसूंगा भरपूर
उदासियों के रंग मेरे दामन पे खूब खिलते हैं.
तुम खिलखिलाना बेहिसाब
एक लम्हा, ही हंस लूंगा मैं भी
मुकम्मल हंसी
बिना किसी टीस की
बगैर रत्ती भर याद के
बस सहज होकर
जैसे, प्रेम से पहले था
अर्थहीन ही सही....
***
दुख में तुम्हारे संग की याद
एक विदा
संकेत है किसी आगमन का
हर बार कोई लौटे ही,
ये ज़रूरी है...
तुम नहीं
तो दुख ही सही।
यूं भी,
दुख में तुम कुछ ज्यादा ही याद आते हो
और तुम्हारे संग बिताया गया सुख भी
लगता है अनमोल।
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!
एक विदा
संकेत है किसी आगमन का
हर बार कोई लौटे ही,
ये ज़रूरी है...
तुम नहीं
तो दुख ही सही।
यूं भी,
दुख में तुम कुछ ज्यादा ही याद आते हो
और तुम्हारे संग बिताया गया सुख भी
लगता है अनमोल।
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!
***
चलते-चलते
मैं खूब मिलता रहा, हर दिन जोर-शोर से
वो चुपचाप मेरी रगों से होके गुज़र गया...
...
तू आया, बोला भी कुछ नहीं, चलता गया
यूं, मेरे साथ था, फिर भी सफर खाली रहा...
....
गर्मजोशियां उसकी बांह में थीं समंदर की तरह
पर दिल किसी सहरा-सा लिए दामन में वो बाकी रहा
1 comment:
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!
kya baat hai sadke!
adig
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