कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, February 4, 2012

कहिए डर को अलविदा...

अहा! ज़िंदगी में प्रकाशित, दैनिक भास्कर से साभार

- लेखक - श्री अमिताभ

ज़िन्दगी क्या है और इसके अर्थ क्या हैं? इस सवाल का जवाब तलाशने के क्रम में बहुत से लोगों की ज़िन्दगियां बीत गई हैं। हर बार कोई न कोई नया और अनूठा अर्थ सामने आया है। जिस तरह हाथ की हर अंगुली जुदा होती है, आकार और उपयोग में, वैसे ही हर शख्स के लिए ज़िन्दगी के मायने अलग होते हैं, लेकिन एक बात पर ज्यादातर लोग सहमत हैं कि जिस जीवन का कोई सार न हो, उसका कोई अर्थ नहीं।

अर्थवान जीवन के लिए जरूरी है कि हम वृहद मानव समाज की बेहतरी के लिए काम करें। बेहतर काम के लिए सुंदर सोच होनी चाहिए, लेकिन बात यहीं मुकममल नहीं होती। हममें लाख गुण हों, हौसला हो, राह सामने हो, फिर भी अच्छाई के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाते। जरूरी है साहस का होना। जो सोचा है, उस पर खरा साबित होने के लिए हिममत का सहारा पास में होना।

यह सही है कि इरादे नेक हों, मानसिकता स्वस्थ हो, फिर भी साहस नहीं है तो कदम हमेशा डगमगाते रहेंगे। साहस के न होने भर से धैर्य जवाब देने लगेगा, हम अपने बचाव के लिए नए-नए रास्ते चुनते रहेंगे और आखिरकार, बेहतरी का इरादा एक खोखले स्वह्रश्वन में बदलकर रह जाएगा।

प्रश्न उठता है — साहस क्या है? क्या इसे संजोने के लिए बाहरी तत्वों से कोई मदद मिलती है? किताबों ग्रंथों महापुरुषों से जो सीख मिलती है, वह पर्याह्रश्वत है या नहीं? जवाब है — साहस बाहर से आने वाली चीज नहीं। यह वह एहसास नहीं, जिसके लिए बाह्य जगत का सहारा लिया जाए या इसे कहीं से आयातित किया जाए। हिम्मत का जज्बा हमारे अंदर है, जरूरत है उसे पहचानने की।

साहस का भाव दरअसल, भय से मुक्ति है। भय भी हरदम किसी अनदेखे, अनजाने संकट का नहीं होता। अगर हम अपनी 'जो जैसा है, वो ठीक है' की मानसिकता में रमे रहना चाहते हैं और एक लीक से हटने की कोशिश नहीं करते तो वह एक किस्म का भय ही है। 'मैं यह करूंगा तो लोग क्या कहेंगे' और 'ऐसा करने से वैसा हो जाएगा' जैसी सोच डर से उपजती है। जैसे ही हम कुछ नया, बेहतर करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं और फिर किसी भी सोच या परिस्थिति में उससे अलग नहीं हटते, तत्क्षण भय से मुक्त हो जाते हैं। मृत्यु का भय, धन हानि का डर, अपयश का संकट जटिल भय हैं। इनका सामना करने के लिए बड़े साहस की जरूरत है, लेकिन इनसे भिड़ने से पहले छोटे-छोटे डरों से मुक्ति हासिल करनी होगी। एक बार साहस जाग गया तो दुनिया का बड़े से बड़ा खतरा भी व्यक्तित्व में शामिल भय को पुन: सिर नहीं उठाने देगा। हर संकट से बड़ा होगा तब हमारा साहस।

 कई बार हम अपने किए कराए पर पानी फेरते नज़र आते हैं, क्योंकि उस समय बड़े लक्ष्य की तरफ ध्यान देने की जगह खुद से लड़ाई लड़ रहे होते हैं। अक्सर अंतर्द्वद्व की यह स्थिति किसी बड़े गोल को हासिल करने के लिए नहीं होती। हम उस समय महज यह आकलन कर रहे होते हैं कि करने से कितना लाभ होगा और उसके बरक्स नुकसान की मात्रा कितनी होगी। कुछ भी नया करते समय सबसे पहले मन के अंदर से डर की आवाज उभरती है। यही मौका है कि उस पर काबिज होना सीख लें। याद कीजिए — बचपन में साइकिल चलाना सीखते समय आप एक-दो बार सीट से जरूर गिरे होंगे। अगर उसी समय आप साइकिल चलाना सीखने से तौबा कर लेते तो अब तक साइकिल की सवारी महज स्वह्रश्वन होती। गिरना और चोट खाना क्या है? बहुत छोटा सा भय.. एक बार इससे मुक्ति पा ली तो इसके आगे आप बाइक और फिर कार की ड्राइविंग सीखना चाहेंगे।

 यकीनन, जिन लोगों ने बड़े लक्ष्यों को साधा है और आप जिन्हें मंत्रमुग्ध भाव से सराहते हैं, देखते हैं, वे सब के सब कभी न कभी अपने-अपने अभयास में असफल हुए होंगे, चोटिल हुए होंगे। वे हारे नहीं, डरे नहीं, इसलिए शीर्ष तक पहुंचे।

साइकिल से गिरना महज एक प्रतीक है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि शारीरिक चोटों सेन घबराना साहस को जगा लेना है। सच तो यह है कि किसी भी तरह की चोट से न डरना ही साहस का आह्वान करना है। जिस्म का जन्म बहुत जल्दी भर जाता है। मन की चोट भरने में वक्त लगता है। एक छोटे भय से दो-दो हाथ करने के बाद मन पर लगी चोटों का सामना करने का अवसर आता है। किसी भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से पहले यह सोचकर बैठ गए कि असफलता की स्थिति में क्या होगा तो यकीन कीजिए — आप सफल हो ही नहीं सकेंगे। फिर तो हरदम डर की गठरी में दुबके बैठे रहना होगा। हां, आपने यह सोच लिया कि परीक्षा और प्रतियोगिता में कुछ लोग सफल होंगे और कुछ असफल तो प्रयास करने की हिममत बढ़ जाएगी। इस मोड़ पर साहस का जो जज्बा आपके साथ होगा, वही मंजिल तक ले जाएगा। जिस्म की चोट से आप उबर गए हैं।

असफलता का डर आपने मन से निकाल दिया है। बारी है अगले चरण की। अब पूरे व्यक्तित्व को डर से मुक्त कीजिए। सोचिए — जो होगा, वह अच्छा होगा और अच्छा न भी हुआ तो फिर प्रयास करेंगे। निश्चित तौर पर तब आपका व्यक्तित्व इस्पात जैसा होगा। आप भयमुक्त बनेंगे और बड़े संकल्प भी साकार हो सकेंगे। राहें खुली खुली, डर से अलग, मंजिल की तरफ साफ देखने वाली बनेंगी.. तो बताइए जरा.. आप कह रहे हैं न डर को अलविदा? एक बार ऐसा कर सके आप तो जीवन को और नजदीक से समझ सकेंगे और ज़िन्दगी का अर्थ भी तलाश कर पाना सुगम हो जाए।

1 comment:

अभिषेक मिश्र said...

वाकई महत्वपूर्ण सन्देश है इस लेख में.