कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, February 15, 2012

मैं माटी का गुड्डा...

- चण्डीदत्त शुक्ल # 8824696345

मिट्टी...! क्या है मिट्टी?
धूल, बालू, पानी का मेल, कुदरत की एक अंगड़ाई... या महज खेल... या फिर करिश्मा है मिट्टी? क्या है इस मिट्टी में, जो इसका नाम सुनने भर से हम झूम उठते हैं। आंखों के सामने उतराने लगते हैं कितने ही खूबसूरत नज़ारे... मिट्टी से खेलना, मिट्टी से बने घरों में रहना, मिट्टी की खुशबू, मिट्टी में रमना और आखिरकार, मिट्टी में मिल जाना... कुछ तो है...। जानना चाहेंगे, क्या है मिट्टी का जादू... मिट्टी और कुछ नहीं... दरअसल, हम खुद हैं मिट्टी। ये तो सब जानते हैं, कोई नई बात नहीं है, बस एक बार फिर दोहरा दूं... पांच तत्वों से बना है हमारा शरीर और इसमें मिट्टी है एक अहम तत्व। तभी तो कहते हैं, मिट्टी का शरीर था, मिट्टी में मिल गया।

हमारे लोक जीवन का एक-एक जर्रा इसी मिट्टी से बना है, बंधा है। मिट्टी की ज़िंदगी से रिश्तेदारी भी अनूठी है, तभी तो एक तरफ पानी बरसता है... मिट्टी गीली होती है... हर तरफ सोंधी महक बिखरती है। एक ओर सूखी धरती की प्यास बुझती है, तो दूसरे किनारे होता है हमारा मन और जैसे सांस के ज़रिए, नस-नस में इसी मिट्टी की खुशबू समा जाती है। मिट्टी की खुशबू कुदरती है। सुबह-सबेरे ओस पड़ते समय कभी मिट्टी से बातें करके देखिएगा। तन-मन और निगाह... सब खिल उठेंगे। सारी दुनिया की सब खुशियां मिट्टी से ही तो जुड़ी हैं। मिट्टी के घर, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी के दीए और मिट्टी वाले खेत... है न मज़ेदार बात।

बचपन के सुनहरे दिन याद आते हैं... आँगन, दालान और छोटे-छोटे कमरों वाले घर में हर जगह मिट्टी नज़र आती थी। तब सीमेंट के फर्श नहीं होते थे। बड़ी-बड़ी टाइल्स वाले छोटे-छोटे, कबूतरों के दड़बों वाले घर... वो दिन कुछ और ही थे, घर भी बड़े-बड़े और आंगन तो कई बार उससे भी बड़ा। पूरे आंगन को मिट्टी से ही लीपते थे सब। बच्चे मिट्टी से सारा बदन रंग लेते। सूखी मिट्टी, गीली मिट्टी। हाथों में और चेहरे पर। कपड़ों में और एक-दूसरे पर मिट्टी का छिड़काव... खेलकूद कर घर लौटते तो मौसम चाहे जाड़े का हो या गरमी का, नहाना ही पड़ता... लेकिन बदन में मिट्टी के निशान और इसकी खुशबू बची ही रह जाती।

दूर तालाब से गीली मिट्टी लाकर कई बार चूल्हा बनाया और घर-गृहस्थी के खेल खेले थे। आंगन के पास कई पौधे रोपे थे। उनमें से कई अब दरख्त बन गए। फल उगा रहे हैं। पीढ़ियों का मुंह मीठा कर रहे हैं। आज मिट्टी की बात करते हुए लोक जीवन के तमाम रंग याद आ रहे हैं। तब कोई संस्कार मिट्टी को मेहमान बनाए बिना पूरा नहीं होता था। शादी-ब्याह में गीली मिट्टी से बनाई गई वेदी और हंसी-ठिठोली के मौके से लेकर होली तक मिट्टी का मेल इतना गहरा था कि उसके रंग अब भी जहन में बाकी हैं। यही दौर था, जब सावन में झूले झूलते हुए हवा से होड़ होती थी और मिट्टी से मिलकर मौसम का हालचाल बताती हुई गांव की मिट्टी बालों में सन जाती थी।

खैर, अब दिन बदल गए हैं। सिनेमा में भी गांव बाकी नहीं बचा है। अब मदर इंडिया के "गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…" जैसे गीत भी सुनने को कहां मिलते हैं। दीवाली में भी मिट्टी के दीए नहीं जलते। मिट्टी में खेलना, उसकी बातें करना असभ्यता की निशानी समझा जाने लगा है। इस सबके बावजूद एक अच्छी खबर है। सुना है, मध्य प्रदेश के खंडवा में मिट्टी से इत्र बनाया जा रहा है। अच्छी खबर है। चलिए, सेंट की बोतल में ही सही, मिट्टी बाकी तो बचेगी। कैसा हो, जो हम अपनी ज़िंदगी मिट्टी की ये महक बनाए रखें। आप करेंगे न ऐसा?

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