कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, July 26, 2009

बड़े भ्रम में होते हैं विवाद खड़ा करने वाले - प्रयाग शुक्ल




(इस साक्षात्कार के साथ प्रकाशित चित्र श्री तनवीर फारूक़ी जी का खींचा हुआ है....इस पर उनका कॉपीराइट है...उनके ब्लॉग से ही ये चित्र साभार लिया गया है...)

रोज बदल रही दुनिया में मैं एकांतवासी की भूमिका में हूं.. कहकर सहसा गंभीर हो गए उस शख्स को आप पलायनवादी न समझें। शीरीं जुबान से आप कैसे हैं? पूछ अपनी मृदुता से मुग्ध कर देने वाले प्रयाग शुक्ल चर्चा में रहने के लिए अपनाए जा रहे हथकंडों से दूर बैठकर भी संतुष्ट हो चुके शख्स हैं..तकरीबन छल-छद्म की दुनिया से अलग-थलग अपने निज के संसार में प्रसन्न सर्जक। दिनमान और नवभारत टाइम्स में महत्वपूर्ण पदों पर कई साल नौकरी कर चुके प्रयाग से रविवार के अलावा हफ्ते भर मंडी हाउस स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में निदेशक के कमरे के ठीक बगल रंग-प्रसंग के दफ्तर में बेझिझक मिला जा सकता है। प्रयाग इन दिनों रानावि की पत्रिका रंग प्रसंग के संपादक हैं और संवेदनशील कवि के रूप में उनकी पहचान तो जग-जाहिर है ही। प्रयाग से हमने जाना साहित्य की दुनिया में हो रही सियासत, युवाओं के मोहभंग और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के बारे में : क्या यह क्रूर सत्य नहीं कि साहित्य समाज के लिए की परिभाषा 21वीं सदी की दहलीज तक आते-आते औंधे मुंह गिर गई है? साहित्य तो बराबर समाज के लिए ही लिखा जाता रहा है। कुछ दिक्कतें जरूर हो सकती हैं। हिंदी में हालात कुछ ऐसे हुए हैं कि लेखक का समाज नहीं बचा है। 20 साल पहले तक शहर से बाहर कहीं जाने पर या फिर अपने आस-पास पाठक समाज के दर्शन हो जाते थे। आज वह कहीं नजर नहीं आता। पाठकों के लिहाज से हम दरिद्र कहां हैं? हिंदी अखबार तो करोड़ से भी ज्यादा पाठकों को संजो रहे हैं? यह एक विचित्र बात है कि एक करोड़ से भी ज्यादा हिंदी अखबार बिक रहे हैं लेकिन किताबें उसी रफ्तार से घटती जा रही हैं। अखबारों को सूचना के लिहाज से तो बढ़त मिल गई है लेकिन मुद्रित साहित्य लुप्त होने की स्थिति तक पहुंच रहा है। आपकी मूल चिंता क्या है? किताबों के प्रति मोहभंग या फिर कुछ और..? हम अपनी विरासत को ही भूलते जा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो क्या है कि लोग प्रेमचंद, सुभद्राकुमारी चौहान, भगवती चरण वर्मा को भी भूल बैठे हैं। जो पीढ़ी अपनी जड़ें भुला देगी, वह खुद कैसे पनपेगी? अखबारों ने तो साहित्य के संरक्षण के लिए काम किया है? अखबारों को साहित्यिक बनाने की जरूरत बिल्कुल नहीं है। कुछ जगह साहित्य के पृष्ठ भी निकाले जा रहे हैं लेकिन अव्यवस्थित ढंग से। इससे बेहतर तो यह है कि धरोहर पर केंद्रित करके बिसरे जा रहे साहित्यकारों की रचनाओं, विचारों को प्रकाशित किया जाए। अब साहित्यिक पृष्ठ तो निकल रहे हैं लेकिन कई अवांछित विज्ञापन साहित्य के उसी पन्ने को जबरिया घेर लेते हैं। इस बात का कभी दुख नहीं होता कि लोग मुझे बहुत बार नहीं पहचान पाते। न पहचानें, लेकिन साहित्य के अमर लोगों को क्योंकर भुला दिया जाता है? लिखने के लिए पहचाने जाने वाले साहित्यकार आज स्कैंडलों के लिए ज्यादा मशहूर क्यों हैं? कुछ साहित्यकार आश्वस्त नहीं हैं कि समाज उनके साथ है, शायद इसीलिए ऐसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। आम तौर पर हिंदी का लेखक समझ नहीं पा रहा है कि समाज बदल रहा है। शहर में शोर मचाकर खुद को छपवाने में लगे लेखक लोगों के बीच जाकर उनकी दिक्कतें समझें, फिर लिखें तो स्वीकार्यता जरूर मिलेगी। एक खास बात यह भी है कि विवादों से कुछ नहीं होने-जाने वाला। ऐसा करने वाले लोग बहुत बड़े भ्रम में हैं। वे इतनी छोटी दुनिया में रह रहे हैं, जहां से बाहर का नजारा उन्हें नजर नहीं आता। औसत प्रतिभा का संक्रमण सचेत साहित्य संसार को दूषित तो नहीं कर रहा? मैं चीजों को किसी एक औसत परिभाषा में बांधने के विरुद्ध हूं। प्रतिभा भी औसत नहीं हो सकती। प्रतिभा की कहीं कमी नहीं है लेकिन उसका उपयोग सही तरीके से नहीं हो रहा है। साहित्य की दुनिया में त्रुटियां यह हुई हैं कि हम युवाओं की नब्ज नहीं पकड़ सके हैं इसीलिए उन्हें हम अपनी ओर नहीं खींच पा रहे हैं। साहित्यिक कार्यक्रम इतने फीके क्यों पड़ गए हैं? फिल्मों, चित्र प्रदर्शनियों, नाटकों, नृत्य के कार्यक्रमों व संगीत जगत के प्रति तो युवा आकर्षित हो रहे हैं लेकिन साहित्यिक गोष्ठियों में अब भी युवा पीढ़ी की भागीदारी के नाम पर सन्नाटा ही नजर आता है। आज का युवा बौद्धिक तौर पर सजग और संभला हुआ है। असल गड़बड़ कई साहित्यिक संस्थाओं की तरफ से हुई है। उनकी नीतियां अस्पष्ट और भ्रामक हैं। युवाओं के लिए वह ऐसा कुछ नहीं दे पा रही हैं, जो नौजवान पीढ़ी चाहती है। समाज बदला है, पीढ़ी बदली है, उनकी आकांक्षाएं बदली हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पा रहे हैं। पहले तो मुद्रित शब्दों के प्रति लोग आस्थावान थे, अब वह प्रतिबद्धता क्यों नहीं रही? पहले समाज में दूसरी कलाएं इतने प्रभावकारी ढंग से उपस्थित नहीं थीं। अब साहित्य के लिए अन्य कलाओं को औजार बनाकर इस्तेमाल करना होगा। कला को औजार की तरह इस्तेमाल करने के संदर्भ में आपकी पहल तो काफी प्रासंगिक बन सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का मंच तो आपके साथ है ही। श्रुति कार्यक्रम इस कोशिश की गवाही है। कहानी-कविता के मंचन के जरिए ऐसा प्रयास हमने किया है। कई अनचीन्हे साहित्यधर्मियों को मंच देने का उपक्रम भी हुआ है। आगे भी हम ऐसा करते रहेंगे। विष्णु खरे ने कहीं कहा है कि आपकी कविताएं उन्हें कविता जैसी नहीं लगतीं? यह उनकी राय है और वे ऐसी सोच रखने के लिए स्वतंत्र हैं। इस पर मैं क्या कहूं और क्यों कहूं? क्या रंग-प्रसंग बहुत बौद्धिक नहीं होता जा रहा है? सूचना-तकनीक की समृद्धता वाले युग में कार्यक्रमों की सूचनाएं छापना बासी थाली परोसने जैसा है। विचारों की पुष्टता सर्वाधिक आवश्यक है। इन दिनों क्या कर रहे हैं? रवींद्रनाथ ठाकुर की 12 कहानियों का अनुवाद मैंने पूरा कर लिया है। स्कॉलॉस्टिक प्रकाशन इस भावानुवाद को प्रकाशित कर रहा है। वैसे, शोर मचाने वालों की दुनिया में मैं एकांतवासी की भूमिका में हूं। मुझे तत्काल लाभ की चिंता के बगैर काम करना अधिक सुख देता है। भविष्य की नींव ऐसे ही खड़ी होती है।

1 comment:

ILLL(DU) said...

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