कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द
मुसाफ़िर...
Sunday, July 26, 2009
गली-गली में विट्ठल की गूंज---संत तुकाराम
गली-गली में, घर-घर तक विट्ठल नाम की गूंज पहुंचाते लोकगायक और संतकवि तुकाराम का नाम आते ही आंखों के सामने यही चित्र उभरता है। कवि, जिनके होंठों पर है विट्ठल-विट्ठल की गूंज, संत, जो प्रभु के अलावा और कुछ नहीं सोचते।
तुकाराम ऐसे ही हैं, सरल और निश्छल। ईश की राह पर चलना ही था उनका जीवन। तुकाराम, यानी भक्ति का राग छेड़ते, प्रभु की बात करते साधु, लेकिन वे कबीर सरीखे क्रांतिकारी भी हैं। कबीर ने हरदम पाखंड का, जड़ता का, थोथे कर्मकांड का विरोध किया। तुका ने भी यही राह पकड़ी। दोनों का जीवन अंधविश्वास से जूझते हुए बीता।
बहुत-से पुरोहितों ने संत तुका का प्रतिरोध किया, क्योंकि वे अभंग रचनाओं में पाखंड और कर्मकांड का उपहास उड़ाते थे। कुछ ने तुका के अभंग रचनाओं की पोथी नदी में फेंक दी और धमकी दी, तुम्हें जान से मार देंगे। पुरोहितों ने व्यंग्य करते हुए कहा, यदि तुम प्रभु के वास्तविक भक्त हो, तो अभंग की पांडुलिपि नदी से बाहर आ जाएंगी। आहत तुका भूख हड़ताल पर बैठ गए और अनशन के 13वें दिन नदी की धारा के साथ पांडुलिपि तट पर आ गई। आश्चर्य यह कि कोई पृष्ठ गीला भी नहीं था, नष्ट होना तो दूर की बात!
संतकवि तुकाराम पुणे के देहू कस्बे के छोटे-से काराबोरी परिवार में 17वीं सदी में जन्मे थे। उन्होंने ही महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली। उनके जन्मवर्ष के बारे में कई धारणाएं हैं, लेकिन चार विकल्प खासतौर पर प्रचलित हैं-1568, 1577, 1598 और 1608। संत का देहावसान 1650 में हुआ।
तुकाराम ने दो विवाह किए। पहली पत्नी थीं रखुमाबाई। अभावों से जूझते हुए वे पहले रोगग्रस्त हुई, फिर उनका स्वर्गवास हो गया। दूसरी पत्नी थीं जीजाबाई। लोग उन्हें अवली भी कहते। जीजाबाई हरदम उलाहना देतीं, कुछ कमाओगे भी या ईश भजन ही करते रहोगे। तुका की तीन संतानें हुई, संतू (महादेव), विठोबा और नारायण। सबसे छोटे विठोबा भी पिता की तरह भक्त ही थे।
जीवन में दुविधाएं तुकाराम की लगन पर विराम न लगा पाई। भगवत भजन उनके कंठ से अविराम बहते। वे कृष्ण के सम्मान में निशदिन गीत गाते और झूमते। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति भी सुधार ली और अंतत: महाजन बने।
तुका ने एक रात स्वप्न में 13वीं सदी के चर्चित संत नामदेव और स्वयं विट्ठल के दर्शन किए। संत ने तुका को निर्देश दिया, तुम अभंग रचो और लोगों में ईश्वर भक्ति का प्रसार करो।
तुका कई बार अवसाद से भी घिरे। एक क्षण ऐसा आया, जब उन्होंने प्राणोत्सर्ग की ठानी, लेकिन इसी पल उनका ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। वह दिन था और फिर सारा जीवन..तुका कभी नहीं डिगे। उनका दर्शन स्पष्ट था, चुपचाप बैठो और नाम सुमिरन करो। वह अकेला ही तुम्हारे सहारे के लिए काफी है।
ग्रंथ पाठ और कर्मकांड से कहीं दूर तुका प्रेम के जरिए आध्यात्मिकता की खोज को महत्व देते। उन्होंने अनगिनत अभंग लिखे। कविताओं के अंत में लिखा होता, तुका माने, यानी तुका ने कहा..। उनकी राह पर चलकर वर्करी संप्रदाय बना, जिसका लक्ष्य था समाजसेवा और हरिसंकीर्तन मंडल। इसके अनुयायी सदैव प्रभु सुमिरन करते।
तुका का ईश्वर से निरंतर संवाद होता था। देह त्यागने से पहले ही उन्होंने पत्नी को बता दिया था, अब मैं बैकुंठ जाऊंगा। पत्नी को लगा कि एकदम अच्छे-भले तुका ऐसे ही कुछ कह रहे होंगे, लेकिन धीरे-धीरे देहू में यह खबर फैल गई। लोगों ने देखा कि आकाश में ढेरों विमान हैं और तुका उनमें से एक पर चढ़कर सदेह वैकुंठ गमन कर रहे हैं।
तुका ने कितने अभंग लिखे, इनका प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन मराठी भाषा में हजारों अभंग तो लोगों की जुबान पर ही हैं। पहला प्रकाशित रूप 1873 में सामने आया। इस संकलन में 4607 अभंग संकलित किए गए थे। सदेह तुका भले संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके अभंग जन-जन के कंठ में बसे हैं और यह संदेश भी, प्रभु को अपने जीवन का केंद्र बनाओ। प्यार की राह पर चलो। दीनों की सेवा करो और देखोगे कि ईश्वर सब में है।
दैनिक जागरण में प्रकाशित
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2 comments:
very inspirational writup for devotional people. we can find every other news and information in several books and magazines but this is very special writup which we can't find any other place.. I hope writer will give more light on this way...thanks... Anju Sagar Bhandari, Pune
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