कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, February 7, 2010

हमारे प्रेम के विरुद्ध…हम…फिर भी ज़िंदा चाहत-संगीत

हर बार उभर आते हैं
मेरे चेहरे पर
तुम्हारे प्रेम के निशान
तब
जब हम मिलते हैं

सूरज मुस्कराता है
और, और तेज़ बहने लगती है नदी
फर्राटा भर-भर हांफ उठती है
धरती

पर 
ये उन्माद नही
ये सब करते हैं
व्यंग्य
हम पर
हम भी 
लगातार निचोड़ते रहे
अपने-अपने हिस्से का प्यार
सोचा
सुखा देंगे सब
देखो 
विधि भी प्रतिकूल है 
और हमारा समय भी
हम खुद हैं
अपने प्रेम के विरुद्ध
पर अफ़सोस…
माफ़ी के साथ कह रहा हूं
सारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
कितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जब, तब 
जैसे-तैसे 
आकर धर दबोचता है
हमारी घृणा को 
और भरने लगता है 
कंठ तक लबालब
चाहत-संगीत

6 comments:

rashmi ravija said...

सारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
कितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जिद्दी ना हो फिर वो प्रेम ही क्या.....बड़ी सच्चाई से अभिव्यक्त किया है,प्रेम को...सुन्दर कविता.

Girish Kumar Billore said...

ise kahate hain atma kee kavita vah

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी रचना बहुत सुन्दर है!
यह चर्चा मंच में भी चर्चित है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_5547.html

डॉ .अनुराग said...

माफ़ी के साथ कह रहा हूं
सारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
कितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जब, तब
जैसे-तैसे
आकर धर दबोचता है
हमारी घृणा को
और भरने लगता है
कंठ तक लबालब
चाहत-संगीत


well said...as always....

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब,

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।