कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, February 13, 2011

एक प्रेमी के नोट्स


hum-log04
प्यार ना प्यास है, ना पानी। ना फानी है, ना रूहानी। मिठास है, तो कड़वाहट भी। बेचैनी है तो राहत भी। पहला प्यार अक्सर भोला होता है। भले ही उम्र पंद्रह की हो या फिर पचपन की। कैसे-कैसे अहसास भी तो होते हैं पहले प्यार में। एक प्रेमी के नोट्स पढिए, इस वैधानिक चेतावनी के साथ-इनसे इश्क का इम्तिहान हल नहीं होगा, क्योंकि हर बार नए सवाल पैदा होते हैं-




संयोग के दिन

तुमसे मिलने के बाद पहला जाड़ा
सुबह के चार बजे हैं। बाहर तेज हवा चल रही है, फिर भी खिड़कियों पर टंगे परदे हिल नहीं रहे। थमे हैं। सन्नाटा अक्सर रह-रहकर शोर के आगोश में गुम हो जाता है। तेज हवा का शोर। दरवाजा खटखटाए बिना ठंड कमरे में घुस आई है पर मैं तो गर्म हूं...एक शोर मुझमें भी है। सीना धक-धक के साथ गूंजता है पर रजाई पुरानी पड़ जाने के बाद भी सर्दी नहीं लग रही। कल शाम तुम्हारी हथेलियों में जकड़ा मेरा दाहिना हाथ अब तक तप रहा है, जैसे!

लाल रंग का वो छोटा-सा छाता
सुबह से बारिश हो रही है। मैं भीग रहा हूं एक बस स्टैंड की ओट में खड़े होकर। कपड़े सब सूखे हैं पर अंदर कहीं कुछ बहुत गीला हो चुका है। यकायक घड़ी देखता हूं- तीन बज चुके हैं। तुम जाने वाली होगी। मैं भागता हूं। फिसलता हूं। कीचड़ में गिर गया हूं मैं और अब मिट्टी से लबालब। हाथों से अपना चेहरा पोंछने की नाकामयाब कोशिश करता हूं। मिट्टी महक रही है, तुम्हारे बालों में लगे चमेली के तेल सी। मेरा दौड़ना जारी है और घड़ी की सुइयों का भी। सवा तीन बज चुके हैं। तुम्हारी बस रेंगने लगी है। खिड़की से झांकतीं तुम्हारी लालची आंखें। तुम हाथ बढ़ाती हो और थमा देती हो—एक छोटी-सी लाल रंग की छतरी!

नहीं आता था पतझड़
पेड़ को छोड़ रिस रहा है एक-एक पत्ता-पत्ता। दरख्त ठूंठ बन चुके हैं, लेकिन मैं यकायक लहलहा उठा हूं। घर के सामने एक पीपल का पेड़ है। वो मुझे बुलाता है, उसे मैं छूता हूं और लगता है-तुम्हारी खुरदरी एडियों से एक लता फूटी है और मेरे इर्द-गिर्द लिपट गई है। तुम हंसती हो—बस, तुम यूं ही जड़ बने रहना।

लो मिल लो, ये हैं श्रीमान वसंत...

छोटा-सा स्टूल है और बेशुमार चिट्ठियां  हैं। शायद पांच-सात साल पुरानी। बार-बार पढ़ रहा हूं। एक-एक चिटी लगता है, तुमने ही लिखी है। रात नागफनी का गमला खिड़की के बगल रखा है, उसमें खिल गई है गुलाब की कली।

जाती हुई रात, आ रहे सूरज के घोड़े


गर्मी आ गई है पर दिन भर ही रहती है। रातें उमस भरी ठंडी हैं। भोर के पांच बजे हैं और मैं तुम्हारे घर के पास लगे लैंपपोस्ट के नीचे मौजूद हूं। ना सूरज उगा है, ना चांद ढल सका है। लैंपपोस्ट का बल्ब भी टिमटिमा रहा है। आसमान पर जाती हुई रात की लाल-लाल डोरों वाली आंखें हैं और धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है सूर्य के घोड़ों के चलने की आवाजें। अलसाई आंखों के इशारे से जैसे घर का दरवाजा हटाती हो तुम... कुछ झुंझलाई हुई सी। 

वियोग की रातें...

जाने के बाद का जाड़ा
दोपहर आने को है। सुबह कई महीनों से नहीं देखी। हाथों से सिगरेट के कई बरबाद टोटों की महक आ रही है। नुक्कड़ पर अलाव जल रहा है। सोचता हूं—हाथ सेंक लूं। तुम पूछोगी कि फिर से सिगरेट पी, तो बहाना बनाऊंगा—नहीं, अलाव पर हाथ रखे थे। ... पर तुम तो हो नहीं। यकायक, थरथराने लगा हूं। नसें ज्यूं जम रही हैं। खड़े-खड़े गल जाता हूं।

पिघलती हुई रूह

यह वही शहर है, जहां हम मिले। टिन की छत पर बहुत बड़ी-बड़ी बूंदें गिर रही हैं। बाहर आ जाता हूं, भीगने का मन है। तुम नहीं, तो गम नहीं, अकेले ही भीग लूंगा...पर कर नहीं पाता। बूंदें ज्यादा बड़ी हैं। सिर पर टप-टप गिर रही हैं। कानों में हवा भर रही है। सांस फूल जाती है और मैं भीगा हुआ लबालब घर के अंदर हूं...इस दफा कपड़े भीगे हैं पर मन भभक रहा है, धुआं बहुत ज्यादा नहीं हो गया क्या...और ताजा हवा बिल्कुल नहीं।

पतझड़ और वसंत की दोस्ती

वसंत बहुत दिन से नहीं आया। दगाबाज है। किसकी तरह पता नहीं। शायद हम दोनों जैसा ही साबित हुआ। उसने पतझड़ से दोस्ती कर ली है। तुमने मचलती हुई उंगलियों से धनिया के बीज रोपे थे और नींबू का पौधा लगाया था। खट्टा-खट्टा कितना अच्छा लगता था हम दोनों को। ब्रेड पकौड़े अब भी बनते हैं बुतरू की दुकान पर, लेकिन तुम्हें पता है—हमारे घर के पिछवाड़े की धनिया और नीबू, दोनों सूख चुके हैं।

जल जाऊंगा, थोड़ा-सा पानी है क्या
उमस बहुत है। सांस लेनी भारी लग रही है। लगता है—कोयले की भटी से निकली राख सीने में अटक गई है। कोला में बर्फ डालकर शराबी होने की नाकामयाब कोशि श कर रहा हूं...बेकार है, बेअसर है। गोलगप्पे भी ताजा नहीं कर पा रहे, पुदीना भी नहीं। तुम आओगी क्या...होंठों के एकदम करीब, बस अपनी सांसों से मेरी आंखों में फूंक मार देने के लिए देखो, नाराज ना होना। किचन में फुल क्रीम दूध का पूरा पैकेट पड़ा है और तुम्हारी पसंदीदा लिपटन की चाय भी। हा हा हा। खैर, ना हो तो एक ग्लास पानी ही दे दो। जल रहा हूं।

4 comments:

Digvijay Singh Rathor Azamgarh said...

waha valentine day k samay bahut khoobsurt post liki hai.
aap ko happy valantine dy.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

प्रेम दिवस की शुभकामनाएँ!

Ramesh Saraswat said...

आपके लेख पढ़े काफी पसंद भी आये है शब्द कम पद रहे है आपकी पर्सनल्टी को देखते हुए , मेरी बधाई स्वीकार करे

Nidhi said...

चंडी दत्त ....इन नोट्स में आपके लेखन की छाप ...आपकी शैली साफ़ दिखती है.कोमलता...भावों से परिपूर्ण ...है.
शब्दों का विन्यास ...जिन भावों को व्यक्त करना है उसमें सहायक है.
वो एक शख्स जो मेरे वजूद में शामिल है
मेरे सारे मौसम उसकी मुट्ठी में रहते हैं