कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, February 17, 2012

सिनेमा की इबारत संजोने वाले चंद जिद्दी ख्वाब

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

भास्कर ब्लॉग.


- चण्डीदत्त शुक्ल * 08824696345

ख्वाब भी क्या खूब होते हैं। कुछ बेहद नाजुक और कुछ ऐसे, जो जागी आंखों से देखे गए..। न पूरे हों तो टूट जाते हैं। सिनेमा ख्वाबों की इसी बारात में शामिल होने की तरह है। सपनों की सिनेमाई रील पर सोए रहते हैं कुछ अरमान। बचपन में यही अरमान हौसले के खाद-पानी से लहलहाए रहते थे।

घर से स्कूल और छुट्टी के बाद फुर्र कर चिड़ियों की तरह वापस उड़ आने के दिनों में ये खबर मिलते ही कि रात को वीडियो लगेगा, थकान और नींद काफूर हो जाती थी। सिनेमा और सपनों की जुगलबंदी अब तक मन में जागती है। पलक जो कहीं झपक भी गई तो ख्वाबों में फिल्म चलती रहती है। ऐसी ही हालत उन हजारों लोगों की है, जो सिनेमा से मोहब्बत करते हैं। कुछ महज देखने तक तो कई अपने मन में ऐसे ख्वाब भी पालते हैं, जिनमें फिल्म बनाने की इबारत लिखी होती है।

कई जुनूनी लोगों के लिए फिल्म मेकिंग वैसी ही है, जैसे चित्रकार के लिए कलाकृति या कवि के लिए कविता। अब फिल्म निर्माण सस्ता काम तो है नहीं कि ख्वाब देखे और झट-से बुनकर साकार भी कर दिए। बावजूद इसके हजारों फिल्में बनती हैं। जानते हैं कैसे? महज हौसले की ताकत से। ये वे फिल्में हैं, जो कैमरे से ज्यादा मन में शूट होती हैं। एडिटिंग टेबल से पहले ख्वाबों का हिस्सा बनती हैं और सिनेमाघरों में रिलीज होने से पहले दोस्तों की महफिल में कई बार दिखाई जा चुकी होती हैं।

कुछ अरसा पहले एक फिल्म रिलीज हुई थी 'आई एम'। इसमें 45 देशों के 400 लोगों ने बतौर निर्माता पैसा लगाया और फंड जुटाने का काम फेसबुक के जरिए हुआ। श्याम बेनेगल भी गुजरात के दूध विक्रेताओं की मदद से 'मंथन' बना चुके हैं, लेकिन अपनी फिल्म बुनने का ख्वाब देखने वाले जुनूनी लोग इनसे जरा-से अलग हैं।

मालेगांव का नाम याद कीजिए। क्या आप जानते हैं कि यहां एक छोटा-सा फिल्म उद्योग भी चलता है, जो वीडियो कैमरे से बनाई फिल्मों के लिए मशहूर है? इसी इंडस्ट्री पर आधारित, महज एक लाख रुपए में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'मालेगांव का सुपरमैन' अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोर चुकी है।
मेरठ के आसपास, हरियाणा और बिहार में ऐसे प्रयास खूब होते हैं। लगे हाथ एक और फिल्म याद कर लें 'श्वास'। ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली यह पहली मराठी फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए बाकायदा एक सहकारी संस्था बनाई गई और निर्माता ने कई लोगों से पैसे उधार लिए।

जयपुर में भी कुछ जुनूनी नौजवानों ने सिनेमा रचने का सपना देखा। उन्होंने एक फिल्म बनाई है 'भोभर'। किसान रेवत और उसके परिवार के संघर्षो के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फिल्म के निर्माण की अंतर्कथा सिर्फ और सिर्फ हौसले के जादू-मंतर की कहानी है। गजेंद्र एस. श्रोत्रिय इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं, लेकिन फिल्म बनाने का जुनून इस कदर चढ़ा कि सब कुछ भुलाकर सपना साकार करने में जुट गए। गांव बिरानिया में सेट लगा। दिन-रात शूटिंग हुई। बजट बढ़ न जाए, इसलिए निर्माता से लेखक तक, हर कोई तैयार था कि जरूरत पड़ने पर खुद एक्टिंग कर लेंगे। शूट शुरू होते ही हीरो ने हाथ खड़े कर दिए। आनन-फानन में दूसरा कलाकार तलाशा गया। हीरोइन बनने के लिए जयपुर की रंगमंच कलाकार उत्तरांशी पारीक तैयार हुईं। आखिरकार, फिल्म पूरी हुई और यूनान में इंटरनेशनल प्रीमियर होने के बावजूद वितरण में अड़चन हुई तो खुद ही डिस्ट्रीब्यूशन का जिम्मा संभाला। 'वो तेरे प्यार का गम' जैसे प्रसिद्ध गीत का संगीत देने वाले दिवंगत संगीतकार दान सिंह की धुनों से सजी 'भोभर' आज रिलीज हो रही है।  पहले भी हौसले की मिसाल देती ऐसी फिल्में रिलीज हुई हैं। कुछ चली हैं, कई का नामलेवा भी नहीं बचा। 'भोभर' का भविष्य भी दर्शक तय करेंगे, लेकिन हौसले का जादू-मंतर सिर चढ़कर बोल रहा है। वो बता रहा है 'जुनून' हो तो सब कुछ किया जा सकता है। फिल्म भी बनाई जा सकती है!
 
 

5 comments:

vidya said...

आज सुबह अखबार में पढ़ लिया.....
बधाई सर ..
सार्थक लेखन..

संजय भास्‍कर said...

bahut bahut badhai sir ji

chavannichap said...

बहुत जरूरी योगदान किया आप ने...

Anita Maurya said...

Bahut Bahut Badhai..

लोकेन्द्र सिंह said...

आपका यह आलेख में अख़बार में पढ़ चुका था... बेहतरीन