कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, July 8, 2009

चंद लम्हे, कुछ अहसास और ढेर सारा प्यार


क्या करूं? कुछ ठोस. देर तक असर करने वाला लिखा ही नहीं जा रहा बहुत दिन से...उश्च्छृंखलता स्वभाव और सृजन पर कितना गहरा असर डाल रही है...कहना मुश्किल है...ख़ैर...इस बीच कुछ-कुछ दो-चार पंक्तियों से ज्यादा नहीं लिख पाया...तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा...की तर्ज पर वही सबकुछ आपके लिए...



ये मुझे है पसंद

बचा इक इरादा है तो बस ये...तुम्हारी राह में हम फूल बनके बिछ जाएं.../ ये इंसान की सूरत भला लेके करेंगे क्या, भला हो काजल बनें और तुम्हारी आंख में रच जाएं...


एक और पसंदीदा पंक्ति
इक बात मेरी तीर सी उतर जाती है ज़िगर में... जान-ए-जां कभी प्यार का मुकम्मल फ़लसफ़ा भी याद करो / सुलगती रात के बाद सुबहा में उलझे गेसू याद करो / करो जो याद तो मेरी इरादा-ए-वफ़ा याद करो / राह-ए-मोहब्बत में कांटों की उलझनें भुला दो साथी / अब मौक़ा है जो हमारे प्यार की ज़ुबां याद करो


कभी गुजरते हुए उम्र के बागबां से....

कभी गुज़रते हुए उम्र के बागबां से, जो यादों का कोई दरख़्त टकरा जाए बांह से, तू रुकना, कुछ हंसना फिर छू लेना उसकी पत्तियां....तुझे कहां है पता, वो तो मैं ही हूं, जो उगा हूं तेरी राह में....यकीं रख, लम्हा भर की उस छुअन के लिए, मैं जीना चाहूंगा हज़ार सदियां...लेना चाहूंगा सौ-सौ जनम...आना...मेरे सुगना...आना.


नगमा और सपना

नींद भर सो लेने के बाद, जाग जाने से पहले मैंने देखा है कई बार सपना... तू गुनगुनाती रही, मैं सुनता रहा, देखते-देखते बन गया नगमा अपना....ज़िंदगी भर क्यों हम बेज़ार होते रहें, आ बढ़ें, संग चलें, देखते-देखते दुश्मन भी हो जाएगा...हां, अपना.


चेहरे-कपड़े-मुखौटे
तुम्हें चेहरे से क्या मतलब / तुम्हें कपड़ों से क्या मतलब / हमें मालूम है तुम्हारे लिए हैं ये सब बहाने भर.../ भला कहते रहो तुम औरतों को मूरख / हमें भी नज़र आता है तुम्हारी नज़र का मतलब....

सांस, दूध और पानी
पानी की बूंदों में घुला दूध का स्वाद, सांसों से फूटी इलायची जैसी ख़ुशबू...तू मिला साथी, गर्म हो गई अहसास की चाय..



इश्क..मर्ज...दवा

इश्क हो मर्ज, तो लब हैं दवा / ग़मों की क्या बिसात, न हो जाएं वो हवा!


तुम्हीं कहो....
कभी कहते हो हमारी ज़िंदगी से रुखसत हो जाओ, कभी इकरार करते हो फर्ज-ए-मोहब्बत का...तुम्हीं में अक्स देखा है हमने सांसों की बुलंदी का, भला अख्तियार क्यों करते हो ये रास्ता अदावत का


बांकपन...
ये माना कि ख़फ़ा है तू, बिना मेरे तेरी रहगुज़र भी तो नहीं....ये ना सोचो कि ग़ुरूर में हूं मैं, मेरी जां तेरे साथ के बिन मेरा भी बसर तो नहीं...


जाम और नाम
हर सांस में तेरा नाम था, धड़कनों में सलाम था.../ जिस डगर पे तेरे पग चले, उसी राह पे पयाम था / हमें मयनशी की आदत कहां, तेरी आंख में ही जाम था / अब तू कहां और हम कहां पर इतनी तो है ज़िद बाकी बची / जब तक जिए, हम संग रहे, प्यार ही अपना काम था


अवधी में प्यार
वही ठइयां ठाड़े रहिबै बालम, जहवां तू हमइं छोड़ि गयेव है....मनवां मां उठत हइ हूक बहुत अब, सोचेव भी नाईं तू हमइं कहां छो़ड़ि गयेव है...देहियां के पीरा कइ नाहीं कउनउ इलाज भवा, करेजवा मां अगिया तू झोंकि गयेव है...अबहिंव तू फिकिर करौ, हमसे तू धाइ मिलव...अंखिया ना मूंदब, खाइब ना पीयब, नाहीं हम जीबै, नाहिन मरबै, वहीं ठइयां ठाड़े रहिबै बालम, जहवां तू हमइं छोड़ि गयेव है...


एक और अवधी रचना...ब-स्टाइल-लोकगीत
हमरे मन की चिरइया उड़ी जाय रे...फगुआ ना गावै, कजरी ना गावै, बहियां से छूटै हमैं तरसावै...यही ठइयां दगाबाज़ी किहां जाय रे...गोदिया बैठाइके भुइयां मां पटकै, मुहंवा लगाइके नैना झटके...नाहीं देखइ की जियरा झरसाइ रे...हमरे मन की चिरइया उड़ी जाय रे...

प्यार बुरा है?
माना ये संसार बुरा है...हम सबका व्यवहार बुरा है...धीरज धर के इतना सोचो...कहां हमारा प्यार बुरा है..


तुझे है वास्ता
तुझे हमसे प्यार का है वास्ता...न खुद से खुद की रक़ीब बन, जो खुद से मोहब्बत ना होगी आपको, तो कहां मिलेगा हमें भी रास्ता


जो अश्क कर पाते...
अश्क बयां कर पाते हाल-ए-दिल, तो चेहरे पे मिरे तेरी तस्वीर बनी होती / यूं न बह-बह के सूख जाने पर मज़बूर रहते, हाथों में मिलन की लकीर बनी होती


गुमां छोड़कर...
उजले जिस्म का ग़ुमां छोड़कर, स्याह आंख का अश्क बनना बेहतर....जो ज़ुदा हों, तो जाएं जान से...राह-ए-गलतफहमी पे भटकने से पेश्तर


ये भी है...अभी बाकी....

मुख़्तसर से तो मिले थे तुम, फौलाद-से जु़ड़ गए / चले थे मंदिर को जानम, क़दम तेरे दर को मुड़ गए


शेर---1
रहमत-ए-इश्क की बारिश जो कर जाओ तुम / यकीं मानों हमें हीरे भी खैरात लगने लगेंगे / और ये कहना ही क्या कि हम इश्क के ग़ुलाम हैं / तमाम सल्तनतों के ताज़ भी हमें आग लगने लगेंगे


शेर---2
सुलगती रही धूप, दिल से धुआं उठने लगा / दूरी ने यूं गाफ़िल किया-रस्ता ज़ुदा लगने लगा / यूं जाया न करो दूर तुम / हमारा आज देखो कल लगने लगा


शेर---3
बारिश हुई, नहाए रास्ते, ओस के संग मैं हूं... / बहुत झुलसा कई दिन तक, आज नशे में हूं.../ रफ़्ता-रफ़्ता दिल पे काबिज़ हुईं थी तनहाइयां / तुम मिलीं, खुशबू खिली और मैं मज़े में हूं..


शेर-4
तुम्हारी याद के नाते...तुम्हारे साथ के किस्से, न होते जो ये, तो हम भी कहां होते...


शेर-5
कहां से आते हैं उदासियों के हवाले, पता हमको नहीं सनम... इतना भर जान लो तुम, जो बिछड़े तो बाकी बचेगा ग़म

शेर-6
सोचते थे ज़ुदा होके भी जी लेंगे हम, आलम ये है कि सांसों में इक क़तरा हवा तक ना बची / जो बिछड़े दो घड़ी के लिए बस यूं ही बेसबब, ज़िंदगी के लिए देखो कोई आरज़ू ही ना बची


शेर-7
हम इतनी मुद्दत बाद मिले...फिर भी क्यों बने मन में गिले...हंसी की खनक से भर जाते सारे जख़्म...पर तू तो साथी अब तक होंठ सिले...


शेर-8
तुझे खुद से ज्यादा ही चाहा है हरदम...कैसे उपजे फिर भी बोलो मन में भरम


शेर-9
खूबसूरत हो तुम, तुम हो नादां बहुत / उड़ती रहो पर संभलकर उड़ो/ ज़िंदगी है कहां आसां बहुत




फ़िलहाल इतना भर....थैंक्स फेसबुक का...जो ये कह-कहकर `क्या है आपके मन' में पूछ-पूछकर कुछ ना कुछ लिखवा ही लेता है...

Monday, June 15, 2009

बिना साहित्यिक महत्व और ख़ूबसूरती के ये पंक्तियां...


लिखने की लय बिगड़-सी गई है...वैसे भी, जब कलम बेचकर रोटी कमानी पड़े, तो अक्सर ऐसा होता है...बस कूड़े-कचरे की तरह कुछ अवशिष्ट इधर-उधर फिंक जाता है...उसकी ही बानगी...



अश्क आंखों में लिए तलाशते हो मेरे चेहरे पे हंसी की खुशबू...यार इतने संगदिल तो तुम पहले ना थे...
हमको रहने दो इंसान होने की कमज़ोरियों के साथ, देवता बनने के तो हम पहले से काबिल न थे

बहुत संभाला है तुझे फ़िक्र की आंधी से...यूं न ज़र्द हो सूखे पत्तों की तरह/
मुश्किलों का दौर बहुत छोटा है / बाकी मौसम की तरह ये भी गुज़र जाएगा


यूं ज़िंदगी की लय बिगड़ गई, क्यों हैं ऐसी उलझनें / न हों चाहतों की राह में अड़चनें, अभी सफ़र में हैं बड़ी मुश्किलें /
जो हर मोड़ पे तेरा साथ है, अपनी सांस भी आबाद है / अब प्यार ही बस प्यार हो / आजा सनम हम गले मिलें

तुम न बिखरा करो यूं तिनकों की तरह...मैं भी अंदर से उधड़ जाऊंगा
हरदम चाहा है तुम्हें समंदर की माफ़िक, मैं भी कतरों में मिल जाऊंगा


वो सितारों की जुस्तजू में थे, कांटों से छिल गए जिनके पांव हैं..

पहली बार ही कुछ ऐसा हुआ सेंध में धरे गए हम, उधर रहजनों की कुर्सियों पर मखमल जड़े जा रहे हैं..

Saturday, May 9, 2009

ऐसा क्यों होता है...

ख़ुदाया क्यों यूं बेखुद हो जाता हूं मैं कि उनकी खुदी भी भुला बैठता हूं /
वो सफ़र पर जाने को पंख फैलाते हैं और मैं सुबकते हुए उनके क़दम थाम बैठता हूं

Thursday, April 9, 2009

डायरेक्ट दिल-से

मेरा दिल है तू, ज़िगर भी तू...तू ही ज़िंदगी की सुबो-शाम है
तू यकीं जो कर तो कहूं ये मैं, मेरे लब पे तेरा ही नाम है
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वो जानते हैं नहीं कि ये आशिकी भी क्या चीज है...
जो दिल मिले, तो तख्त क्या, सारी दुनिया ही नाचीज़ है
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अब आ भी जा, न बन संगदिल...
बग़ैर तिरे सूनी है दिल की महफ़िल
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पत्थर हैं, उनकी हिम्मत है क्या जो आशिकी की राह में रोड़ा बनें...
तू देख हमारी चाहतों की आग के आगे दम उनका निकल जाएगा
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शब-ए-ग़म का बोझ उठाके भी यारों हम जिए जाते हैं ...
जो अश्क मोहब्बत में मिले हैं, उन्हें हंसके पिए जाते हैं
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जो पागल हुए, तो तू कहा...बस तेरी रहगुज़र की आरज़ू
होश आने का सबब नहीं, मन में है इंतज़ार की जुस्तजू
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दीवानगी मुझ पे यूं कहर ढाएगी ये सोचा ना था,
तू मेरी राह से होके गुज़र जाएगी ये सोचा ना था

Saturday, March 28, 2009

तुम ही बताओ...क्या हो गए हम

कभी गुल थे हम, चमन भी खुद / खुद हौसले की ज़ुबान थे / वही बुत बने पत्थर हुए /
तुम ही बताओ क्यों आज, अपने से लगते नहीं, जो कभी दिल के इतने क़रीब थे


तेरी दीद की है आरज़ू / बस सुस्त सी खुद से गुफ्तगू / न उम्मीद के चराग़ हैं / न मोहब्बतों के दीए जले / हम सुस्त-सुस्त से बैठे हैं / बस आह की हैं रवायतें / अब ढल गए तारे सभी / जिन्हें छूने की थीं कभी कोशिशें
यूं ही वक़्त पे हम रो रहे / जैसे दीया बन के जल रहे / जो हालात खुद पैदा किए / उन्हें दफ्न होने तक ढो रहे

यूं आह में ग़ुम हुई चाह है / भटकी जैसे ज़िंदगी की राह है / जो साथ तुम थे रोशनी थी / अब हर पल लगे जैसे स्याह है

राहे जुनून में यूं भटकन है / ये हमको कहां मालूम था / शौक-ए-मोहब्बत की चाह का / ये हस्र कहां मालूम था

Friday, March 27, 2009

शेर के नाम पर कुछ ढेर...

मज़े की बात...
जब ताज़ा-ताज़ा जवान होने लगा था, तब भी हमउम्रों का मज़ाक उड़ाता था--मियां, आजकल इश्क फ़रमा रहे हैं, जल्द ही शायर हो जाएंगे। उम्र ढली, अब तो शक्ल से भी पता चल जाता है कि मियां ढेर हो रहे हैं, अब क्या करें दिल का, जो इस उम्र में शायराना हो रहा है। ख़ैर, इन दिनों शायरी के नाम पर कुछ भी अल्लम-गल्लम तान दे रहा हूं। चूंकि, ब्लॉग पर कितनी भी गुंडागर्दी, अदब का सत्यानाश, काफिए-बहर की दुर्दशा की जा सकती है, इसलिए यहां चेंप भी दे रहा हूं। वैसे, भगवान जिलाए रखे शुभचिंतकों को, वो तो अब भी कह देंगे--कोई बात नहीं म्यां...लिखते रहो, कभी न कभी शायर भी बन जाओगे...वैसे सच्ची-सच्ची बोलूं...मुझे पता है, ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि ग़ज़लें लिखने, शेर गढ़ने में जिस कदर अनुशासन नाम की चीज की ज़रूरत होती है, वो हमारी तबीयत से सिरे से ही गायब है...ख़ैर, जितने ज्यादा शेर के नाम पर ढेर नहीं, उनसे ज्यादा तो भूमिका ही हो गई...अब डायरेक्ट शेर



अब रात भी चुकी तमाम, न सहर का है नामोनिशां...
रुक जाएं अब हों हमक़दम, फिर बन सकें जान-ए-जां



तिरे होंठों पे छाए दर्द का है मुझको भी ग़िला
...चलो हो चुकीं शिकायतें, अब खत्म हो ये सिलसिला


तेरी आंख में जो अश्क हैं, उन्हें तू यूं ही जार-जार बहने दे...
मेरे सीने में भी है आग खूब, ये भी यूं ही तो बुझ पाएगी

जो जख़्म दिए हैं सीने पे, उन्हें सोच के तू ये भूल जा...
मेरी निगाह से खिले थे ग़ुल, जो झुलस गए, तो झुलस गए

Thursday, March 26, 2009

दो और दो लाइनां...

दूरी...
जख्म रूहों से इस क़दर बावस्ता हैं, आंख से अश्क की जगह खूं निकलने लगा
लाख चाहा भुलाना तुम्हें मगर ना हुआ, जब भी आहट सुनी तो मचलने लगा

दूर हमसे तू चला, दूर है तेरा गांव
मन भी बस में नहीं, मिले कहां से छांव



बेगारी...
दफ्तर-दफ्तर, पीसी-पीसी, उफउफउफउफ सीसीसीसी
कहां क्रिएटिविटी, कहां है पैशन, कीबोर्ड पे चटनी पीसी

Monday, March 23, 2009

चंद लाइनें...

इस बीच चौराहा पर नहीं आया...मनःस्थिति ही कुछ ऐसी थी...हालत अब भी वही है, फिर भी बेशर्मी के साथ फेसबुक पर स्टेट्स मैसेज के रूप में कुछ लाइनें ज़रूर लिखता रहा.

वही पेश हैं...सबसे पहले वो, जो मुझे पसंद है...


फ़ाकामस्ती का आलम नहीं देखा हमने /
फिर भी मुफ़लिसी का डर सताता है /
दिल तो बंजारा है /
सुख में भी आवारगी के गीत गाता है...





1.
क़सक यूं दिल पे तारी हुई,
ज़िंदगी महज बेचारी हुई,
आंखें जिनमें पनपता था राग प्यार का,
सुरमई न रहीं, सिर्फ खारी हुईं

2.
आज तनहा हुए हम कुछ इस तरह,
जैसे दिल के सारे तार चटक गए
तुम्हें पाने की आरज़ू में
चले तो संग थे फिर भी राह भटक गए

3.
जब साथ बिन दिल रोता है और मन जलते हैं
महबूब हमारे तब कांच के टुकड़ों पर चलते हैं

4.
दिल की लगी ऐसी बढ़ी चेहरे का नूर छिन गया /
आहों में यूं उदासी बसी सांसों से चंदन छिन गया

5.
वो दिन भी क्या थ, जब कबूतर की चोंच पर टिके रहते थे प्यार के संदेश /
अब फोन पल को नहीं मिलता, तो लगता है छूट गया है देश

6.
दिन गुज़रा उनकी याद में, शाम तनहा ही रही
रात महकी साथ से, ज़िंदगी फिर बढ़ती गई
ये मोहब्बत भी क्या, इल्लत मिली हमको
दिल तो हाथ से गया ही, जान भी जाती रही