कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, July 15, 2010

शौर्य की गवाही

एक और पुस्तक समीक्षा...

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की नगरी अयोध्या के बगल बसा है उत्तर प्रदेश का शहर फैजाबाद। यहीं पर 1933 में लेफ्टिनेंट जनरल यशवंत मांडे जन्मे। शिव की नगरी बनारस और सांस्कृतिक नगर गोरखपुर में पढ़ाई-लिखाई हुई। 16 साल के थे, तो राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश मिला। कमीशन के बाद 1962 में चीन के खिलाफ, 65 में पाक के विरुद्ध और 1971 में बांग्लादेश से लड़ाई में हिस्सा लिया। 99 में कारगिल और 2001 में ऑपरेशन पराक्रम का भी मांडे हिस्सा बने।
 नहीं..हम किसी सैन्य अधिकारी का बायोडाटा उलट-पुलटकर नहीं लिख रहे। ये एक लेखक का ही परिचय है। अंतर बस इतना है कि उसके बदन पर खाकी वर्दी है। दिल में देशभक्ति का बारूद है। हां, दिमाग में भावना से सने शब्दों की मस्ती भी भरपूर है। मांडे का फौजी-रूप दरअसल, उनके अंदर के साहित्यकार को भी सहारा देता है। मांडे सेवानिवृत्त हुए, तो कहानियां लिखने लगे। अब इन्हीं कथाओं के अनुवाद हिंदीभाषी पाठकों की अदालत में हाजिर हो रहे हैं। कहानियों का पहला संग्रह श्रेष्ठ सैनिक कहानियां शौर्य-गाथा की गवाही देता है। मांडे का लेखन हमें विवेकी राय की याद ताजा कराता है। विवेकी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है मंगल भवन। उसमें कथानायक मास्टर अपने फौजी शिष्य को लड़ाइयों की कहानियां सुनाता है और उससे भी सुनता है शौर्य-गाथाएं।
  ऐसे ही सूत्रधार हैं मांडे। उनके कथा संकलन की पहली कहानी जाट बलवान : जय भगवान यूं तो जाति विशेष की अलमस्ती और वीरता के ब्योरों से भरपूर है, लेकिन इसका अंत खास संदेश के साथ होता है..मिलके रहने की कोशिश करें, तो मन में बसी खटास भी खत्म हो जाती है। कथा नायक हैं जागे और मांगेराम, जो कृत्रिम अंग केंद्र के कमांडेंट के शब्दों में बड़े जिद्दी, अक्खड़ और मोटे दिमाग के हैं। पहले पहल सीमा पर घायल और अपाहिज होने के बाद अस्पताल आए जागे-मांगे एक-दूसरे से बात तक नहीं करते पर कर्नल सबनिस उनके दिल में मोहब्बत की ऐसी तासीर पैदा करते हैं कि वे नफरत भुलाकर आपस में जुड़ जाते हैं। मांडे सैनिक रहे हैं, इसलिए उनकी कहानियां बनावटी नहीं हैं और बुनियादी सच्चाई सामने लेकर आती हैं। लोंगेवाल, जयसिंह और विक्रांत जैसी कहानियों में लेखक स्वयं को ही दोहराते हैं। वैसे, ज्यादातर कहानियों में देश को लेकर अटूट जज्बा, घर की याद, दुश्मन को खत्म कर देने की ललक स्पष्ट है। देशभक्ति के सकारात्मक संदेश के साथ मांडे ये भी बताते हैं कि कोई लड़ाई कितने घरों, ख्वाबों और मुल्कों को किस कदर निढाल भी कर देती है।



पृष्ठ : 183
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

दैनिक जागरण के स्तंभ चर्चा में किताब में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा

3 comments:

Jandunia said...

शानदार पोस्ट

निर्मला कपिला said...

इस जानकारी के लिये धन्यवाद।

manzil said...

हालांकि इनकी ये पुस्तक मैने नहीं पढ़ी है लेकिन इस जानकारी के लिए शुक्रिया... और शुक्रिया आपके लेखन को भी... आशा है कि आप भविष्य में भी अपने लेखन का प्रभाव बनाए रखेंगे...