कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, January 25, 2010

क्लचर की जगह बांध लो...

पलकें खुलते ही / और सुर्ख हो जाते हैं / आंखों के डोरे / याद आती हैं सुबहें / तुम्हारी चाहतों के लाल रंग में रंगी हुई / पता नहीं, कहां से आती है / तुम्हारे हाथ की पकी रोटियों की सोंधी महक/ हर तरफ गूंजती है तुम्हारी हंसी की खनक / बार-बार / तुमने ही क्यों संजोकर रखीं मेरी चिल्लाहटें / मेरी किलकन के कुछ क़तरे / `क्लचर’ की जगह बांध लिए होते जूड़े के साथ / यूं भी तो, दिल अटका ही है / तुम्हारी जुल्फों की जंज़ीरों में…

4 comments:

अबयज़ ख़ान said...

दिल तो अटका है ज़ुल्फों की जंजीरो में... बहुत ही शानदार

डॉ .अनुराग said...

खालिस .............दिल का दरवाजा खटखटाती है बिना रास्ता पूछे ....

shikha varshney said...

`क्लचर’ की जगह बांध लिए होते जूड़े के साथ / यूं भी तो, दिल अटका ही है / तुम्हारी जुल्फों की जंज़ीरों म

oye hoye Gazab....behtareen khayal

rashmi ravija said...

बिलकुल प्यार से सराबोर पंक्तियाँ हैं ये तो...बहुत ही खुशनुमा अहसास लिए