कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, January 28, 2010

पथभ्रष्ट कबूतरों की चोंच में दबे रह गए खत



जीन-बुशर्ट पहने लड़के-लड़कियां / जब-जब खटखटाते की-पैड / स्क्रीन पर उभरते कुछ हर्फ / 160 कैरेक्टर्स से / क्या बुनते थे वो / नहीं समझ पाया / मैं / जब तक नहीं आया था / तुम्हारा / एक औपचारिक लघु-संदेश / सुबह का सलाम पल्लू में बांधकर / अब जानता हूं / तकनीक के राग में भी / गुनगुनाते हैं / प्रेम के परिंदे / कबूतरों की गुटरगूं के बिना भी / तभी तो / अब जब भी / मैं तुम्हें एसएमएस करता हूं / और जवाब नहीं मिलता / तो लिखता हूं.../ एक रिप्लाई तो बनता है यार / मज़ेदार बात/ फिर भी नहीं मिला रिप्लाई!!!! शायद / कबूतर हो गए पथ-भ्रष्ट / और चोंच में दबाए खत / हो गए / फुर्र.....

6 comments:

@ngel ~ said...

kabutar ho gaye path-bhrashta ... :)
kabutaron per vishvaas karne ki sadi gayi...!!!
Achha likha hai :)!

रंजना said...

WAAH...BAHUT BADHIYA....

SHIRSHAK LAJAWAAB RAKHA HAI AAPNE...

IJHAAR CHAHE SMS SE HO YA KHATON SE...PYAAR TO PYAAR HI HOTA HAI...KABOOTAR YA MOBILE SE KOI BHI FARK NAHI PADTA...

डॉ .अनुराग said...

एक बार फिर खास शुक्ल अंदाज !!!!!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बात तो सही है जी!

अबयज़ ख़ान said...

कबूतर पथभ्रष्ट नहीं हैं.. रफ्तार के इस दौर में वक्त की कमी है.. और इमोशंस तो आप भूल ही जाईये.. बेहतरीन रचना है...

संजय भास्‍कर said...

vey nice,...