कई दिन हुए, चौराहा पर कविता जैसा कुछ नहीं लिखा...। आज कुछ पुराने काग़ज़ मिले...उनमें कबिताई जैसा कुछ दिखा...सोचा आपके लिए यहां उतार दूं...साल 1996-97 से लेकर 2000-01 के बीच की ये कविताएं हैं संभवतः....लीजिए, एक के बाद एक...
होते हैं कुछ और मायने भी प्यार के
तुम्हारा संवरना और मचलकर मेरे कंधे पर हाथ रखना
किसी कवि के लिए श्रृंगार रस का अनुपम उदाहरण हो सकता है
या फिर /
सस्ते कथानकों वाली चवन्नी छाप किताबों के थोक भाव राइटर को मिल सकता है,
इससे `आगे क्या होगा' सोचने का आधार?
लेकिन
निश्चिंत रहो तुम
मैं जानता हूं / तुम कुछ और होने से पहले / हो मेरे लिए एक अबोध शिशु सी
और मैं हूं तुम्हारे लिए
घर के सामने लगे
नीम के पेड़ सा...
आत्महंत्रणी प्यास
गधे की पीठ का मुकाबला करते कंधे
ढोते हैं अभी तक
उसी आदिम तृष्णा का भार
नुचे, घायल पांव
रुलते हैं बाधा दौड़ में
रुकते नहीं फिर भी लगातार झुकते घुटने
इसीलिए खुश हैं वो
जिन्हें तरसाती है, जिनको जुटती नहीं
चटनी-रोटी
मिल जाए उन हाथों को डबलरोटी
तो कितना उछाह होता है मन में
है ना मेरे मीत।
माना कि डबलरोटी
नहीं बन सकती विकल्प
रोटी का / पर / कभी-कभी / गलतफ़हमी में जीना भी
कोई ख़ास नुक्सानदेह तो नहीं?
अपनी कमाई से बंसरी खरीदने के बाद
वो भी बहुत खुश हैं / या कि लबादा ओढ़े हैं / खुशी का
लेकिन
हरदम ओंठ बिसूरे / पनियाई आंखें लिए
रमना भी तो नहीं भाता...
(साल 2000-2001)
(साल 2000-2001)
2 comments:
पुराने चावलों की महक बरकरार है!
bahut sundar...bhaavnatmak kavita
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