कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, May 1, 2010

फिर छिड़े बात किताबों की



(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख...चौराहा के पाठकों के लिए)




प्रकाशकों और लेखकों के नज़रिए से मुद्रित किताबों का महत्व और डिजिटल पुस्तकों की चुनौती

पिछली सर्दियों की भोर याद आती है...एक सुबह, यही कोई साढ़े सात भर बजे होंगे. दिल्ली सेंट्रल सेक्रेटेरिएट के पास से गुज़रते हुए लॉन की तरफ नज़र उठी और यकायक खयाल आया—यहीं तो बैठे, सिमटे रहते हैं प्यार करने वाले, तभी फिर सोचा—उफ! मैं भी पागल हूं...कहां, इस वक्त कोई आएगा...धूप जब गुनगुनी होगी, तब कहीं निकलेंगे `कपल्स’...। अभी तो रजाई में मुंह ढांपे, अपने-अपने घरों में नींद ले रहे होंगे. लेकिन ये क्या...सच में दिल तो बच्चा है जी, देखा, एक दरख्त के पास, पत्थर की बेंच पर एक जोड़ा मौजूद था...। उनके क़दमों के पास कुछ गिलहरियां थीं, थोड़ी-सी मूंगफलियां थीं और दोनों कहीं खोए हुए थे। लड़के के हाथ में थमी थी एक क़िताब। वो पन्ने-दर-पन्ने पलटता हुआ कुछ सुनाता जा रहा था और लड़की उसके कांधे से सिर सटाए चुपचाप बैठी थी, आंखें मूंदे हुए, कभी-कभार पलकें उठाती, साथी को एक नज़र देख लेती, फिर बोल पड़ती...`हूं’। ये दोनों वैसे ही थे, जैसे हर प्यार करने वाला जोड़ा होता है...दुनिया से बेख़बर, लेकिन उनके पास एक अनूठी चीज भी थी...एक किताब।
दोनों के दिल जुड़े थे...और ये जोड़ और मज़बूत बना रही थी—पुरानी किताब! फिर कभी वो या वैसा जोड़ा नहीं दिखा...पता नहीं, अगली पीढ़ी में ऐसे प्रेमी होंगे भी या नहीं, जो किताबें पढ़ते हुए अपने प्यार को परवान चढ़ाने की कोशिशें करेंगे!
बात, महज प्रेमियों की नहीं...हर आम-ओ-खास की है...क्या अब भी लोगों को किताबों से मोहब्बत है...क्या हम पुस्तकें खरीदने में, फिर पढ़ने में और उन्हें अगली, और अगली पीढ़ी तक संजोने की कोशिशें करते हैं? आज, जब दिल्ली में लगने वाला विश्व पुस्तक मेला महज एक दिन पहले संपन्न हो गया है, जेहन में तमाम सवाल उभर रहे हैं..., पर सबसे मौजूं बात ये है—क्या किताबों के लगातार डिजिटल होते जाने के दौर में पुस्तकों के मुद्रित स्वरूप के लिए आकर्षण बचा हुआ है? क्या पाठक कम नहीं हो रहे हैं? पुस्तक मेलों का आयोजन आखिरकार, किस क़दर सफल साबित हो रहा है?
कीमतों का रोना हिंदी के पाठक हमेशा रोते रहे हैं! किताबें चाहिए भी और वो सस्ती भी हों, भला क्यों भाई! घी की कीमत कम कैसे हो? और क्यों हो? ख़ैर, इसका हल एक ज़माने में हिंद वालों ने निकाला। वो पॉकेट बुक्स छापने लगे थे, बाद में राजकमल, वाणी और पता नहीं कितने-कितने पब्लिशर पॉकेट बुक लाए। हाल-फ़िलहाल गौरीनाथ का अंतिका प्रकाशन भी इस मामले में आगे आया है, लेकिन पाठकों की शिकायत है कि महंगी वाली किताबें तो पेपरबैक में छापी ही नहीं जातीं।
बात पेपरबैक वाली किताबों की हो, तो एक और बात याद आती है—पहले पढ़ने का शौक खूब हुआ करता था। पल्प लिट्रेचर ने तो कमाल ही किया, लाइब्रेरीज़ गली-गली में खुली थीं, एक-दो रुपये में चौबीस घंटे का मज़ा। मोहल्लों में रीडर्स क्लब भी बने. वैसे—वहां मैगज़ींस की धूम ज्यादा रहती थी।
अच्छी किताबों की चाहत और पहुंच कम नहीं रही। देवकीनंदन खत्री की ऐयारी वाली कहानियों का मज़ा लेने, चंद्रकांता और भूतनाथ पढ़ने के लिए बहुतों ने हिंदी तक सीखी। पेपर बैक में बड़े साहित्यकार भी आए। चाहे मंटो हों या प्रेमचंद...लेकिन ऐसे पेपरबैक ज्यादा चले नहीं....कुछ तो उनकी घटिया प्रिंटिंग क्वालिटी और दूसरे...प्रकाशकों को बस लिट्रेचर पर अहसान करना था, इसलिए छाप दिया, सो कोई प्रमोशन नहीं।
ताज़ा दौर में पुस्तकों की दुनिया पर तमाम तरह के दबाव हैं। लेखकों की सदैव-स्थिर शिकायत है, प्रकाशकों द्वारा शोषण करने की और पब्लिशर्स का शिकवा है—सरकार बढ़ावा नहीं देती। इस बीच पाठकों की संख्या कम होने और पुस्तकों के डिजिटाइजेशन के साथ मुद्रित साहित्य के लिए आकर्षण कम होने जैसे मुद्दे भी उभर रहे हैं। बेशक—इसी रफ्तार में हिंदी के लेखक दरिद्रतम और अंग्रेजी राइटर सेलिब्रिटी बनते जा रहे हैं। खैर, रोना क्या रोएं और क्यों रोएं! मामला मार्केटिंग का भी है और खुद की अहमियत समझने का। फ़िलहाल, बात दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले की ही!
प्रकाशन, पाठक संख्या वगैरह को लेकर उपजी तमाम आशंकाओं को प्रभात प्रकाशन के संचालक डॉ. पीयूष हंसी में उड़ा देते हैं। वो पलटकर एक सवाल खुद ही कर लेते हैं, ` ज़नाब! आपने पुस्तक मेले की भीड़ नहीं देखी क्या? क्या आपको लाइन में लगकर अंदर नहीं आना पड़ा? आपने खुद ही महसूस किया होगा कि कैश काउंटर्स पर कामकाज देख रहे लोग लंच करने के लिए भी नहीं निकल पाते! पांच साल पहले तक ऐसी भीड़ की कल्पना करना भी दिवास्वप्न था, लेकिन अब तो हालात बदल रहे हैं बंधु! लोगों का किताबों पर यकीन और ज्यादा मज़बूत हुआ है।‘
पीयूष ये भी कहते हैं, पुस्तक मेले में 20 रुपये प्रवेश शुल्क लगाया गया। तमाम तकनीकी दिक्कतें और भी थीं, लेकिन भीड़ है कि थमने का नाम नहीं ले रही, तो आप लोगों के उत्साह का अंदाज़ा लगा सकते हैं। वो तर्क देते हैं, आजकल लोगों को मनोरंजन की हर चीज आसानी से मिल जाती है।
इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री खूब विकास कर रही है...यहां तक कि पिछले दिनों थ्री इडिएट्स ने 400 करोड़ का बिज़नेस किया है, लेकिन पुस्तकों का विकल्प कुछ भी नहीं हो सकता। पीयूष के चेहरे की खुशी उन सबको खुश होने की वज़ह दे सकती है, जो किताबों के भविष्य को लेकर ज़रा-सा भी आशंकित हैं।
पेंग्विन बुक्स इंडिया में सीनियर कमिशनिंग एडिटर वैशाली माथुर भी इस आशंका को सिरे से खारिज़ कर देती हैं कि हिंदी के पाठक कम हो रहे हैं। वो कहती हैं, `किताबों के कवर देखकर उनकी तरफ खिंचे चले आते लोगों से पूछिए—पन्ने पलटते हुए उनसे आने वाली सोंधी खुशबू का अहसास, स्याही से उभरे शब्द और हाथ में एक पुस्तक होने की खुशी को किसी तकनीक से तौला नहीं जा सकता।‘
वैशाली ये भी बताती हैं कि पेंग्विन ने पिछले दिनों हिंदी में कई किताबें प्रकाशित कीं, उन सबकी पुस्तक मेले में बेहतरीन बिक्री हुई है। हालत तो ये है कि मांग ज्यादा है और किताबें कम! वो कहती हैं, किताबों के डिजिटल रूप से अभी डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। तकनीकी विकास और ज्यादा हो जाने के बाद ज़रूर प्रकाशन उद्योग को गंभीरता के साथ काम करना पड़ेगा।
सामयिक प्रकाशन के संचालक महेश भारद्वाज कहते हैं—जब तक इंटरनेट घर-घर नहीं पहुंच जाता, मुद्रित किताबों के बाज़ार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। पीसी पर निगाह टिकाए रखकर आप देर तक नहीं पढ़ सकते। वो बताते हैं—साहित्य के पाठकों में कोई कमी नहीं आई है।
हां, कविता को पीछे छोड़कर उपन्यास ज़रूर आगे निकल गया है। महेश मानते हैं कि पुस्तक मेलों का आयोजन दिलचस्पी बनाने और बढ़ाने के लिए बहुत ज़रूरी है। जैसे होली-दीवाली और ईद मनाए जाते हैं, वैसे ही पठन-पाठन संस्कृति का विकास करने के लिए पुस्तक मेले भी होने चाहिए।
युवा लेखक और ब्लॉगर अविनाश वाचस्पति के मुताबिक, डिजिटाइजेशन कितना ही क्यों ना हो जाए, पुस्तकों के मुद्रित स्वरूप के लिए आकर्षण बचा ही रहेगा। किताब तो वो चीज है, जहां चाहो पढ़ो, पढ़ते-पढ़ते थक जाओ, तो सीने पर रखकर सो जाओ। वो दोस्त की तरह हैं...ना किसी डाउनलोड का झंझट है, ना ही अपलोड का। बस खोली और पढ़ ली। अविनाश ये भी बताते हैं कि ब्लॉग्स पर बहुत सारा लेखन हो रहा है, लेकिन शायद ही कोई ब्लॉगर ऐसा हो, जिसके मन में पुस्तक छपवाने की इच्छा ना हो...इससे साफ पता चलता है कि तकनीक की बढ़त के बावज़ूद मुद्रित रूप का जादू सबसे आगे है। वो कहते हैं, पाठक कम नहीं हो रहे हैं, हां—आबादी ज़रूर बढ़ रही है। आप औसत देखिए तो पढ़ने वालों का सदा अधिक ही मिलेगा। पुस्तक मेलों की भीड़ इसका सबसे प्रामाणिक उदाहरण है। वो ये भी सुझाते हैं कि कपड़ों की सेल की तरह पुस्तकों की सेल भी लगाई जाए।
ब्रिटेन के बाथ शहर में बसे भारतीय मूल के हिंदी कवि मोहन राणा तो एक कदम आगे की बात कहते हैं, `डिजिटल होते जाने के दौर में पुस्तकों के मुद्रित स्वरूप के लिए आकर्षण में निखार और प्रसार हुआ है।‘ वो उदाहरण भी देते हैं—हाल में ही मुझे अपने प्रकाशक से ईमेल मिला। मेरी पिछली पुस्तक  "धूप के अँधेरे  में"  की कई प्रतियां पाठकों ने विश्व पुस्तक मेले में खरीदीं. उन्हें मेरी रचना की और मुझे बिक्री की सूचना ऑनलाइन ही तो मिली!  मोहन मानते हैं कि समाज में पुस्तक की मौजूदगी रेखांकित करने के लिए ऐसे आयोजन ज़रूरी हैं। हालांकि उन्हें किताबों की दुकान का पूरक नहीं माना जा सकता।
हिंदी में पाठकों के कम होने की आशंका को वो चिरकालीन बताते हैं—`बरसों से इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। ये सच है कि व्यक्तिगत रूप से पुस्तकों को खरीदने और पढ़ने की संस्कृति और व्यवहार हिंगी समाज में अभी तक विकसित नहीं हो पाया है, लेकिन जो पाठक थे, वो बरकरार हैं।‘
निजामाबाद, आंध्रप्रदेश के वरिष्ठ हिंदी पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव मुद्रित किताबों के लिए आकर्षण बचे रहने के प्रश्न को ज्यादा महत्व नहीं देते। वो पूछते हैं, पहले भी तो न्यूज़ चैनल्स की शुरुआत के समय कहा गया था कि प्रिंट मीडिया पर बहुत असर पड़ेगा...क्या ऐसा हुआ? यही बात, इंटरनेट पर किताबों की उपलब्धता और मुद्रित पुस्तकों के बीच आकर्षण की कमी को लेकर भी लागू होती है। श्रीवास्तव ये ज़रूर मानते हैं कि लोगों में पुस्तकें पढ़ने की ललक कम हुई है, लेकिन वो जोड़ना नहीं भूलते—ऐसा दौर अक्सर आता रहता है और इससे परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है।
चर्चित प्रकाशन किताबघर के संचालक मनोज शर्मा से जब हमने किताबों के मेले और डिजिटाइजेशन को लेकर सवाल किए, तो उन्होंने मुस्कान बिखेरी और कहना शुरू किया...` मेरे पास इस वक्त जो सज्जन बैठे हैं, वो एक बड़े सर्च इंजन के भारतीय पदाधिकारी हैं...वो चाहते हैं कि मैं अपनी किताबों की सामग्री इन्हें मुहैया कराऊं, ताकि इनका डिजिटाइजेशन हो सके। मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई दिक्कत है। ऐसा प्रयोग तो किताबों के प्रति और ज्यादा मोह बढ़ाएगा। खासकर उन देशों में, जहां हिंदी की पुस्तकें नहीं मिल रही हैं, वहां इंटरनेट की मदद से किताबें पहुंच रही हैं, तो ये अच्छा है।‘ बाकी प्रकाशकों और लेखकों की तरह मनोज शर्मा भी पुस्तक मेलों के आयोजन को दीवाली के त्योहार की संज्ञा देते हैं, और एक और नाम भी दे देते हैं—पठन-पाठन का महाकुंभ!
दिल्ली में इस साल लगे किताबों के मेले में सिर्फ पुस्तकें ही नहीं बिकीं, पढ़ने वाली क़लम जैसी तकनीक और ऑडियो-वीडियो सीडी का बाज़ार भी गर्माया रहा। लोग चाहे पिकनिक मनाने आएं हों या सचमुच किताबें खरीदने...वज़ह चाहे जो भी हो, भीड़ बेशुमार रही।
लोगों का रेला और पुस्तकों का मेला...उम्मीदें लेकर आया... तकनीक कितनी ही आगे क्यों ना बढ़ जाए...किताब खोलते ही नाक के ज़रिए दिमाग तक पहुंच जाने वाली सोंधी महक हरदम अपनी ओर खींचती रहेगी और लोग गुनगुनाते रहेंगे...भेजा है इक गुलाब किसी ने किताब में / जी चाहता है भेज दूं मैं दिल जवाब में।

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली