मुझे नहीं बनना आदर्श पुरुष,
या फिर देवता...
नहीं चाहिए लेबल
महान होने का
मैं बने रहना चाहता हूं...
सारी दुर्बलताओं से ग्रस्त
एक आम इंसान!
जो बिना झिझक के
आंख को जो अच्छा लगे,
मन को जो शीतल कर दे...
प्राणों को जो झंकृत कर दे...
उसको बिना हिचक-
अपना कह दे!
ऐसी दिव्यता क्या करूं,
कि प्रिय को दर्शनशास्त्र तो पढ़ा लूं,
लेकिन बरबस बन थोथा महान
बांच भी ना सकूं प्यार की इबारत...
क्या मिलेगा उस लेबल से-
इसलिए हे प्रिए!
मुझे बना रहने दो, एक दुर्बल मानव
जिससे मैं, अपनी हर अभिव्यक्ति से पहले...
सारी वर्जनाएं भूल-
हर आम इंसान की तरह गुनगुना सकूं-
मुस्करा सकूं-
और बिना डर तुम्हें निहार सकूं...
गोंडा, 4.40 बजे रात में, 06 सितंबर, 1997
5 comments:
विचारणीय प्रस्तुती / असल महानता तो सत्य पे आधारित आचरण में है /
शायद महान लोग ऐसी घुटन का अनुभव करते हों..उम्दा अभिव्यक्ति!
waah achcha vichaar...aisi mahanta bhi kis kaam ki
बहुत ही सुन्दर रचना!
फ़रिश्ते से बेहतर है इंसान बनना..मगर उसमे लगती है मेहनत ज्यादा
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