कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, April 22, 2010

कर देना फिर मेरी चादर सिंदूरी


आज फिर खोली
जंग लगे ताले से बंधी
पुरानी लोहे वाली संदूक
भरभराकर ढहा वर्तमान
किस तरह कस रहा अतीत
जैसे, फिर आईं तुम 
बांह में जकड़ने को भागी-भागी सी...
लौटी भीगी-भीगी शाम
पहली-पहली बारिश की बूंदें लेकर
उतराई आंख के सामने 
हर रात की तस्वीर
झिलमिलाती हुई सही
भीगी पलक में सिमट नहीं रहे लमहे
शुक्रिया संदूक 
तुमने समेटे रखे
पीले-ज़र्द पड़े कुछ खत
धुंधली-फ़ीकी स्याही और चटख तुम्हारी याद...
सुनो
फिर धड़क रहा दिल धक-धक
उस दोपहर
डाकिया पटक गया था
तुम्हारे नाम के हज़ार बैरंग खत
मेरे घर की चौखट पर
हां, मैंने चुकाए थे पैसे
उन बैरंग खतों की एवज में
और 
भर लिए थे जीवन में रंग हज़ार...
सांझ की चादर पर प्रेम-सिंदूर लगाकर
थक कर सो गया उसे ही सिर तक ओढ़कर
रुनझुन-रुनझुन करतीं तुम आईं फिर
पूछा—क्यों लीं मेरे नाम की चिट्ठियां
बांच भी ली होंगी... 
तब से / अब तक / मेरे पास
बंधी रखी हैं / बिना बांची चिट्ठियां तुम्हारी 
आओ...ले लो 
पढ़ लेना तुम्हीं उन्हें
और कर देना फिर मेरी चादर सिंदूरी

3 comments:

Udan Tashtari said...

वाह! बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति. आनन्द आ गया.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर रचना ही जी!
राम-राम!

संजय भास्‍कर said...

हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.