तुम मेरे लिए नहीं थे पड़ाव भर
ना ही किसी तृष्णा की तुष्टि का साध्य
फिर क्यों
कुंठाओं की धरती पर बलिदान हुआ हमारा प्रेम
पूछता है मेरे प्रेम का ज़िद्दी राग, मुझसे ही जोर-जोर से
हृदय अब भी चाहता है...
बना रहे राग
पर
रात भर, मंद-मंद कर रिसता है
कानों में
कुहुक नहीं,
कसक बन
काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत
3 comments:
रात भर, मंद-मंद कर रिसता है
कानों में
कुहुक नहीं,
कसक बन
काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत
बहुत सुन्दर कविता. बधाई. कोलाहल थमने की ये इच्छा काश, पूरी हो सकती!!
ओह फ़िर गूंगे चाहत संगीत .........सुनने को उद्दत बैठे हैं हम
काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत
-बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति.
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