कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, April 25, 2010

सरगम के समंदर में बहती मिठास

सरगम...इन चार अक्षरों में समाया है वैसा ही जादू, जैसा ढाई अक्षर वाले प्यार की नस-नस में बहता है। प्यार करो या संगीत सुनो...एक ही बात है...और संगीत से प्यार हो जाए, तब? फिर तो मज़ा ही कुछ और आता है। साज़ जगे और जाग गई ज़िंदगी...रग-रग में लहू बनकर तैरने लगी आवाज़, उम्मीद से भर गया दिल का खालीपन, बोझ से भारी सांसें हलकी हुईं और बाजों की मिठास पहुंच गई धड़कन-धड़कन तक। सरज़मीन-ए-हिंदुस्तान के लोग इस बात पर नाज़ कर सकते हैं कि उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी संगीत की विरासत मिली है। संगीत भी अनूठा-दैवीय, शांत करने, शांति देने और मस्ताना-दीवाना बना देने वाला। मंदिरों से महफ़िलों तक, मंचों से मूवीज़ तक संगीत ने कितने ही रूप बदले हैं, रंग पाए हैं, लेकिन इसके असर में कमी कभी नहीं आई। संगीत को लेकर भारतवासियों की दीवानगी भी कमाल की है, इसके चलते कई म्यूज़िकल बैंड मशहूर हुए हैं। इनमें से ही एक है—इंडियन ओशन।
फ़र्क बस इतना है कि इंडियन ओशन की शुरुआत दो दशक पहले हुई, जब म्यूज़िकल बैंड का नाम-ओ-निशान तक किसी के जेहन में नहीं था। कहानी दिलचस्प है...हुआ यूं कि 80 के दशक में एक दोस्त के घर पार्टी में दो कलाकार—सुष्मित सेन और अशीम चक्रवर्ती मिले। सुष्मित ने अशीम को गिटार पर कुछ  कंपोजिशन सुनाईं, जो उनको भा गईं। अशीम सात साल की उम्र से ही तबला बजाते थे। मन्ना डे तक के साथ काम कर चुके थे। मन में ख्वाब था, कुछ खास करने का। सुष्मित से मिले, तो लगा—ऐसा ही तो साथी मैं तलाश रहा था। फिर क्या, दोनों साथ ही काम करने लगे। बाद में बैंड भी बना।
बैंड की शुरुआत के समय अशीम विज्ञापन एजेंसी में क्रिएटिव डायरेक्टर थे और सुष्मित मैनेजमेंट की फ़ील्ड में काम करहे थे, लेकिन दोनों को संगीत का नशा ऐसा चढ़ा कि बाकी सारी दुनिया ही बेगानी लगने लगी। 1990 में बैंड की शुरुआत के बाद 1991 में राहुल राम टीम में आए और 1994 में अमित किलम...।
बैंड का अनूठापन ये भी है कि पुराने दिनों में इसकी पेशकश साज़, यानी कंपोजिशन के इर्द-गिर्द ही घूमती थी, बाद में इसमें गायकी शामिल की गई। वैसे, मूल आधार अब भी वाद्य-संरचनाएं ही हैं...। बैंड के फ़नकारों को जब लगता है कि किसी कंपोजिशन के लिए बोल की ज़रूरत है, तभी गीत लिखे जाते हैं। हौले-हौले, सब्र के साथ, सुंदर काम... इंडियन ओशन ने यही मूलमंत्र अपनाया।
बीस साल से भी ज्यादा वक्त और सिर्फ तीस गाने...मतलब साफ है—कुछ भी, अधकचरा पेश कर देने वाले कॉमर्शियल रुझान से ये कलाकार समझौता नहीं करते।
फ़िल्म `ब्लैक फ्राइडे’ का एक गीत बहुत मशहूर हुआ... ' अरे रुक जा रे बंदे,  अरे थम जा रे बंदे'। ये गीत इंडियन ओशन की उपज ही है। पीयूष मिश्रा की पंक्तियां अरसे तक नौजवानों की ज़ुबान पर रची-बसी रहीं!  इंडियन ओशन का संगीत अनूठा है, इतना कह देने भर से काम नहीं चलेगा। धुन और सुर समझने-महसूसने के लिए शब्दों का सहारा लेना नाकाफी होगा। जब मंच पर गीत के बोलों में अल्हड़ भारत की उमंगें मचलती हैं और अनुभवी कलाकार पूरे माहौल को साज़ और आवाज़ से सजा देते हैं, तब वहां जो समां बनता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बयान नहीं!
वैसे तो, इंडियन ओशन का संगीत रॉक फ्लेवर का है, यहां फ्यूज़न का मज़ा भी है, लेकिन असल मायने में पूरे भारत की ज़िंदगी का हर रंग इसके सुरों में सना है, सिमटा है। तरीका अलग है, तेवर अलग हैं पर गिटार, ड्रम और शास्त्रीय आलाप के तालमेल के सहारे बैंड के कलाकार मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ज़िंदगी जैसे ठहर जाती है, कहती है—अब यहां से कहीं नहीं जाना! हर पीर पिघला देने वाले संगीत का असल जादू यहीं पता चलता है, सिर चढ़कर बोलता है।
हाल में इस बैंड के कलाकारों की ज़िंदगी, उनकी जद्दोजहद, सपने, कोशिशें और कामयाबी बयां करने वाली एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म `लीविंग होम— द लाइफ एंड म्युज़िक ऑफ इंडियन ओशन’ रिलीज़ हुई। फ़िल्म के डायरेक्टर जयदीप वर्मा अनोखा रिकॉर्ड बनाने में सफल रहे।
हां! लीविंग होम पहली ऐसी नॉन फ़िक्शन फ़िल्म बन गई, जिसे थिएटर में रिलीज़ किया गया। (हम बता दें कि जुम्मा-चुम्मा इन लंदन और फ़िल्म्स डिवीज़न, पीएसबीटी वगैरह की फ़िल्में इस दायरे में नहीं शामिल की जा सकतीं, क्योंकि उनका कंटेंट अलग होता है और अंतराल भी!)। वैसे, फ़िल्म रिलीज़ होने के लम्हे तक पहुंचने के लिए जयदीप को वर्षों लंबे इंतज़ार से जूझना पड़ा, लोगों को समझाना पड़ा—इंडियन ओशन पर फ़िल्म बनाने की ज़रूरत क्या है और खुद को भी हर वक्त ताज़ा, हौसलामंद और सब्रदार बनाए रखना पड़ा।
फ़िल्म बन जाने से इंडियन ओशन की महानता नहीं बढ़ती, लेकिन इसमें कई ऐसे लम्हे ज़रूर संजोए गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इस संगीत-दल के गठन के पीछे क्या ख्वाब थे और इसकी शुरुआत में सदस्यों के हालात ने कैसा रोल अदा किया। मसलन—अशीम कभी नहीं भूल पाए कि उनके घर से कोई बैंड का कार्यक्रम देखने नहीं आया।
किसी का ज़रा-भी नाम हो जाए, सफलता मिल जाए, तो उसका अगला ठिकाना होता है बॉलीवुड, लेकिन इस अनूठे दल ने मुंबई जाने की जगह मन की बात मानने पर ज्यादा ज़ोर दिया।
कलाकारों ने ब्लैक फ्राइडे को संगीत से सजाया। इसके अलावा, मुंबई कटिंग और भूमि जैसी फ़िल्मों के लिए संगीत रचा, लेकिन बाज़ारू संगीत की बाढ़ नहीं लगाई। इसे भी एक मज़ेदार संयोग ही कहा जाएगा कि फ़िल्में करने के मामले में बेहद चूजी आमिर खान की अगली फ़िल्म के तीन गीतों का संगीत भी इंडियन ओशन के फ़नकार ही दे रहे हैं। इसे कहते हैं—एक जैसी रुचि वालों का साथ आना।
इंडियन ओशन अपने अनूठेपन, अलमस्ती और सीधी, अपनत्व भरी लयात्मक बातचीत के लिए महान है...ज़रूरी है। सुरों के कारवां में बहुत-से लोग जुड़ते रहे, कई बिछड़े भी। बीते साल बैंड के संस्थापक, खास गायक और तबला वादक अशीम चक्रवर्ती भी नहीं रहे...उनसे ज़ुदा होने का दर्द इंडियन ओशन के कलाकारों को हमेशा सालता रहेगा। बावज़ूद इसके सरगम का सफर जारी है। ये फ़नकार जानते हैं—किसी का दर्द मिटाना है, तो अपनी तकलीफ़ भुलानी होगी, हमें अपने गीतों के सहारे सबके होंठों पे मुस्कान सजानी होगी।


जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग http://www.dailynewsnetwork.in/news/18042010/Hum-log/8217.html में प्रकाशित आलेख


1 comment:

sansadjee.com said...

टैम्पलेट सब ब्लैक-ब्लैक। क्या टिप्पणी करें।
ध्यान से पढ़ा तो मन किया आपको खूब धन्यवाद दे दूं। सो धन्यवाद।