कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, April 23, 2010

मक्खन-सी तुम्हारी याद

नीले-नीले बाल, संतरी रंग का चेहरा, पॉल्का डॉट्स से सजी फ्रॉक...ये लड़की कौन है? कुछ जानी-पहचानी सी है ना! याद आ गया या बता दूं? ये वही तो है—अमूल मक्खन के रैपर पर मुस्कराती, इठलाती किशोरी...जिसकी शक्ल देखते ही दिमाग में कहीं गूंजने लगती है ये लाइन...`अटरली, बटरली, डिलिशस... ‘ और बस मुंह में पानी आ जाता है, लेकिन आज ये लड़की उदास है। इसकी आंख में पानी है...। उदास तो आप भी हो जाएंगे ये जानकर कि मक्खन के खास ब्रैंड के लिए इतनी ख़ूबसूरत और नटखट लड़की की तस्वीर उकेरने वाले ऑस्टेस फर्नांडिस अब इस दुनिया में नहीं रहे...।
फर्नांडिस ने अपने प्रशंसकों को उस दौर में आखिरी सलाम बोला है, जब इस एड कैंपेन को गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में जगह मिलनी तय है। ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि चालीस साल से भी ज्यादा समय पहले इस अभियान की नींव रख दी गई थी। फ़िलहाल, ये भारत में सबसे पुराना और सबसे ज्यादा चलाया गया एड कैंपेन बन चुका है। पता नहीं, ये मक्खन के जायके का कमाल है, या फिर अमूल के विज्ञापनों से सजी होर्डिंग्स पर लिखे वन-लाइनर्स का जादू कि हर सुबह फिगर कॉन्शस लोग भी ताजी-सिंकी ब्रेड पर मक्खन लगाकर खाना नहीं भूलते।
ठीक इसी तरह `मक्खन-गर्ल’ के जनक को भी नहीं भुलाया जा सकता। रेडिएस एडवर्टाइजिंग के डायरेक्टर ऑस्टेस फर्नांडिस ने महज 75 साल की उम्र में दुनिया छोड़ दी है। आज वो नहीं हैं, तब और शिद्दत के साथ उन वन-लाइनर्स की याद आ रही है, जिनका आधार फर्नांडिस ने तैयार किया था। यूं तो, इन विज्ञापनों को दाकुन्हा कम्युनिकेशन के चेयरमैन सेल्वेस्टर दा कुन्हा ने ही मूलरूप में तैयार किया है। वो 1966 से ही अमूल से जुड़े रहे हैं, लेकिन ऑस्टेस और दा कुन्हा की की जोड़ी राजकपूर और मुकेश की तरह है, जैसे—एक ने तस्वीर उकेरी और दूसरे ने रंग भरे!
किसी उत्पाद को कोई क्यों खरीदता है और बार-बार की जाने वाली खरीदारी की क्या वज़ह होती है? ऑस्टेस ये बात जानते थे। वो समझते थे—जब तक आप खरीदार का भरोसा नहीं जीत लेते और उसकी ज़िंदगी में अपने उत्पाद की ज़रूरत स्थापित नहीं कर देते, तब तक वो लगातार वही प्रोडक्ट नहीं खरीदता। यही वजह है कि अमूल गर्ल का स्वरूप तैयार करते समय उन्होंने एकदम पास-पड़ोस जैसी नज़र आने वाली चुलबुली लड़की को दिमाग में रखा।
किसी सुपर कंप्यूटर को भी मात कर देने वाली रफ्तार के मालिक फर्नांडिस पर उम्र कभी कोई असर नहीं डाल सकी। वो जब भी काम करते, तो लोग उनकी स्पीड देखते ही रह जाते। एक नायाब कार्टूनिस्ट और इलस्ट्रेटर के रूप में ऑस्टेस काफी मशहूर हुए। अपने विश्वसनीय सहयोगियों के साथ 1974 में उन्होंने विज्ञापन कंपनी रेडिएस एडवर्टाइजिंग की शुरुआत की। उनकी सहयोगी राधा और ऑस्टेस के नामों के शुरुआती अक्षर मिलाकर ही तो इस कंपनी का नाम रखा गया था, ठीक वैसा ही प्रयोग—जैसा मक्खन विज्ञापन की कैचलाइंस में होता है!
शीतल पेय कंपनी लिम्का के विज्ञापनों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय भी ऑस्टेस को ही जाता है। उन्होंने रंगों और छवियों के तालमेल के साथ शुरुआती दौर में कलाकारों के बिना ऐसे विज्ञापन बनाए, जिन्हें देखते ही कोल्ड ड्रिंक पीने को दिल ललचाने लगे। भारतीय जीवन बीमा निगम की योजनाओं को लोकप्रिय बनाने में भी उनका बड़ा योगदान है। कैसे? जाहिर है—रचनात्मक ढंग से तैयार किए गए विज्ञापनों के ज़रिए!
ऑस्टेस ने व्यवसाय की पारी सफलता के साथ खेली। उनको हंसी का मर्म पता था। वो जानते थे कि एक ग़मज़दा, मुश्किलों के मारे, रोजमर्रा के कामकाज से दबे, घर-दफ्तर की परेशानी से बोझिल इंसान को हंसाकर अपना बनाया जा सकता है। मध्यवर्गीय भारतीयों की इसी सोच को ऑस्टेस ने अपने व्यापार को सफल बनाने के मंत्र के रूप में भी इस्तेमाल किया। हालांकि ये कोशिश भावनात्मक शोषण नहीं थी। ऑस्टेस ने बस वो नब्ज पकड़ ली थी, जिसे छूने भर से आदमी के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। चुभती हुई, गुदगुदाती हुई कुछ लाइनें कानों और आंखों से होकर दिल में उतर जाती हैं और वो गुनगुनाने लगता है...अटरली...बटरली...!

एक लाइन का कमाल
मक्खन के खास ब्रांड `अमूल’ की क्रिएटिव टीम हर बार मस्तमौला अंदाज में समसामयिक विषय पर विज्ञापन तैयार करती रही है। गुजरात में आमिर खान की `फ़ना’ की रिलीज को लेकर दिक्कतें आ रही थीं। हर तरफ गर्मागर्म बहस जारी थी, इसी बीच एक दिन टंग गई एक नई विज्ञापन होर्डिंग...`मना...कभी मना नहीं!’
सौरव गांगुली के ख़राब फॉर्म पर sorrow ganguly  का हास्य हो, या फिर मुगल-ए-आजम रिलीज होते समय फ़िल्म की टाइटिल से तुक मिलाकर लिखी गई लाइन—maskaa-e-aazma...विज्ञापनों की ये शैली अनूठी और यादगार है । ऐसे ही एक वन लाइनर के सहारे महमूद को भी अनूठी श्रद्धांजलि दी गई—हम तेरे तेरे तेरे चाहने वाले हैं।
ओल्ड इज गोल्ड वाले मुंबइया फ़िल्म जगत से लेकर नए दौर के बॉलीवुड तक मक्खन ब्रांड के विज्ञापनों में हर हलचल छाई रही है। नौजवानों की पसंदीदा बनी फ़िल्म दिल चाहता है की रिलीज के मौके पर कैचलाइन थी—डिश चाहता है, तो स्वदेश का स्वागत इस पंक्ति ने किया—स्वाद डिश! महज फ़िल्म जगत की बात नहीं, चर्चा में आया हर विषय मक्खन-विज्ञापन की कैचलाइन के रूप में होर्डिंग्स पर उतर आया है।

जयपुर के हिंदी अख़बार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख





2 comments:

दिलीप said...

Amul ne ek achcha sadhan chuna publicity ka...samyik vishayon ke cartoons ke hordings lagva ke...

http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

डॉ .अनुराग said...

मै तो गुजरात में दस साल रहा हूँ...कोलेज से बाहर निकलते ही एक चौराहे पर हर हफ्ते अमूल का केप्शन चेंज होता था ......इत्ता मजा आता था उसे देखकर ......ओर हाँ इंडिया टुडे के दुसरे पेज पर भी उसका एक कोना होता था ....