कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, April 27, 2010

हर दिन होली...

हे ऐ ऐ ऐ ऐ ऐ....सररररारा सररररारा जोगीरा सररररारा सररररारा...खूब मचाओ धमाल...ना अंग की सुध रहे...ना कपड़ों की...चाहे जींस पहन रखी हो...चाहे बुशर्ट...टी-शर्ट हो या बरमूडा ही सही...आज तो बस गा लो जोगीरा...अरे भाई...होली है...होली है....बुरा ना मानो आज होली है...ठंडे पानी से भरी बालटी लाए हो! साथ में अबीर है क्या? एक चुटकी अबीर...। फाग क्यों नहीं गा रहे भाई?  नहीं आता...तो `रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ की तान ही छेड़ दो। कोई ना छूटे घर में, ना ही बचे कोई गलियन में...राह किनारे, बगियन में...जहां मिले कोई, पकड़ो...धर लो...रंग दो...और रंग जाओ।
क्या कहा? कैसा बेवकूफाना सवाल है ये?  बिना होली के ही होली मनाने की बात कर रहे हो...। ना जी...होली ही है आज...और आज ही क्यों...कल क्यों नहीं थी...कल क्यों ना होगी...परसों क्यों नहीं...पूरे महीने के 28, 30 या 31 दिन तक क्यों नहीं...सनडे, मनडे...हर डे फ़न डे क्यों ना हो! यानी हर दिन मन किसी का क्यों ना हो ले...और खेले होली!
मन का भी तो संविधान होना चाहिए...दिल का भी तो एक विधान होना चाहिए...विधान बिना किसी बाधा के बस उड़ जाने का...नाचने, गाने और मगन होने का। हर दिन रंगों भरा रहे मन...यही तो हो हमारा संविधान...जिसका हर पन्ना बस दिल लिखे...दिल पढ़े और दिल कहे...राष्ट्रगान हो—आओ खेलें होली...। ऐसी होली, जिसमें हमारा बुरा मन अपने ही चेहरे पर कालिख पोत ले और साथी के चेहरे को कर दे गुलाबी।
कहते हैं—रंग मानव जीवन पर असर डालते हैं...ऐसा असर, जो कभी धूमिल नहीं होता, फिर मन क्यों मैला किए बैठो हो भाई! किसी को नौकरी की चिंता, किसी को छोकरी की फ़िकर...किसी को जायदाद मारे डालती है, तो किसी के मन में हरदम रंज़िश का ज़िकर। ऐसे कैसे मनेगी होली...ऐसे कैसे जिओगे बबुआ।
चलो बात करते हैं मौसम की...सुबह अपने साथ चांदी के तार लेकर आती है...धुंध की चांदी...अब दूसरा रंग...अमीरों, जवानों और नेताओं के लिए गुलाबी ठंड...तो गरीबों के लिए काली है ये।
टीवी पर आजकल एक शो आता है...उसमें सितारे अपना सबसे बड़ा फ़ैन तलाशते हैं...वो फ़ैन अपने सितारों के लिए क्या-क्या नहीं करते...मुझे नहीं पता...ये क्या है और क्यों है...पर इस प्रोग्राम में एक राहत देने वाला पहलू ज़रूर है...वो ये कि कार्यक्रम में किसी ज़रूरतमंद को कुछ लाख रुपये दे दिए जाते हैं...कभी देखी है उस गरीब के चेहरे की लाली!
रंगों की अजब ही ज़ुबान है...हया की लाली अलग है...गुस्से की अलग...ज्यादा पी ली तो आंखें अलग तरह से लाल होती हैं और खूब सोने के बाद अलग...चाहत गाढ़ी हो जाए, तो एक और ही ललछाईं झलक जाती है।
गुस्से का कालापन अलग है और भूख के बाद पलकों के नीचे की ज़मीन का कालापन अलग है...। फले-फूले खेतों का हरापन और पीला रंग देखिए और बंजर पड़ी मिट्टी का पीलापन...। अब कौन-सा रंग चुनेंगे आप?
खुशी हाट-बाज़ार नहीं बिकती...कागज़ों के मोल नहीं मिलती...ये मन से ही उपजती है...होंठों से छलकती है...और आखर में सनकर सब तक पहुंचती है। खुशी, उमंग और जुनून के रंग संजोने का वक्त है...हर दिन उम्मीदों के रंग जुटाने के पल हैं...अच्छा...ज्यादा खिलखिलाकर मैं क्रेडिट क्यों लूं...अपने चेहरे का गुलाबीपना कुछ थामता हूं  और बता देता हूं...ये कॉन्सेप्ट ओशो का है...मेरा नहीं!
तो पक्का मनाएंगे ना आज के दिन से अब हर लम्हा हो-ली...तो लीजिए रेजोल्यूशन और दोहराइए मेरे संग-संग...
पलकें खुलते ही / और सुर्ख हो जाते हैं / आंखों के डोरे /  याद आती हैं सुबहें / तुम्हारी चाहतों के लाल रंग में रंगी हुई / पता नहीं, कहां से आती है / तुम्हारे हाथ की पकी रोटियों की सोंधी महक/ हर तरफ गूंजती है तुम्हारी हंसी की खनक / बार-बार / तुमने ही क्यों संजोकर रखीं मेरी चिल्लाहटें / मेरी किलकन के कुछ क़तरे / `क्लचर’ की जगह बांध लिए होते जूड़े के साथ....
अब ये मत कहिएगा इन पंक्तियों में रंग कहां हैं? तलाशिए...मिल जाएंगे...।
 
जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित
 

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