कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, May 3, 2010

सुकून के सुर...येसुदास

हज़ारों मील लंबे रास्ते, गांव, गलियारे, नुक्कड़, चौराहे, अलग-अलग लहजा, तरह-तरह की ज़ुबान...यही तो है अपना हिंदुस्तान...विविधता से भरपूर देश, यहां के लोग अलग, उनके संस्कार अलहदा, लेकिन कहीं का भी, किसी इलाक़े का बाशिंदा क्यों ना हो...जब वो चैन चाहता है, उसका मन तड़पता है सुकून पाने के लिए, तो वो सुनना चाहता है...कोई गाता मैं सो जाता... जैसी धुन। ये कविता रची है हरिवंश राय बच्चन की, फ़िल्म है आलाप और आवाज़ है कट्टासेरी यूसुफ येसुदास की। 10 जनवरी, 1940 को कोच्चि में जन्मे डॉ. के.जे. येसुदास सरगम की ऐसी बारिश हैं, जिसकी बूंदें प्यासे मन को राग-रंग से सराबोर कर देती हैं। अफ़सोस की बात है, तो यही कि हिंदी फ़िल्म जगत ने ऐसे समृद्ध गायक को नहीं पहचाना। ख़ैर, उनका क्या गया, पर तमाम श्रोता महरूम रह गए एक ऐसी आवाज़ से, जिसे बड़े-बड़े फ़नकार कलाकारों का सरताज मानते हैं।

रहमान को ऑस्कर  मिला है...सारी दुनिया उनका लोहा मानती है और वो खुद येसुदास  के मुरीद हैं...मिठास भरी  आवाज़ में रहमान कहते हैं, ` वो मेरे पसंदीदा गायक और दुनिया में 'सबसे खूबसूरत आवाज़’ हैं।‘ संगीतकार रवींद्र जैन की ख़्वाहिश है—कभी मुझे आंखें मिलें, तो जो चेहरा मैं सबसे पहले देखना चाहूंगा, वो येसुदास का होगा। लता दीदी ने भी येसुदास की बात को हमेशा  सिर-माथे लिया। येसुदास ने एक बार कहा कि अब लताजी की आवाज में कंपन आ गया है, उन्हें गाना बंद कर देना चाहिए। तब अच्छा-खासा बवाल खड़ा हो गया था। लेकिन खुद लताजी ने कहा कि यसुदास सही कह रहे हैं।

येसुदास की आवाज़  में पवित्रता का खास अहसास  है...उन्हें सुनते हुए लगता है—कितनी थकान के बाद मखमली बिस्तर मिल गया है...महकती हुई बहार यकायक आ गई है...और चलो अब सो ही जाएं! `संस्रिति के विस्तृत सागर में, सपनों की नौका के अन्दर, दुख-सुख की लहरों में उठ गिर, बहता जाता, मैं सो जाता…कोई गाता मैं सो जाता’ की गुनगुनाहट जैसे मन के सारे पीर हर लेती है। येसुदास ने 40 हज़ार से ज्यादा गीत गाए।

ज़ुबानें भी अलग-अलग...कहना ना होगा, इन भाषाओं में गीत गाने के लिए तलफ्फुज  की मांग भी अलहदा थी और असर  में भी फ़र्क पैदा करना था, लेकिन क़माल है येसुदास, कहीं भी तो ना कांपी आपकी आवाज़...मलयालम, तमिल, हिंदी, कन्नड़, तेलुगु, बंगाली, गुजराती, उड़िया, मराठी, पंजाबी, संस्कृत, तुलु, मलय, रूसी, अरबी, लैटिन और अंग्रेजी...कोई भी भाषा हो-बोली हो, एक मिठास हर दिल पर तारी हुई...अपना रूहानी असर छोड़ गई।

ऐसे ही थोड़े  किसी को सात बार सर्वश्रेष्ठ  गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है! पद्मश्री (2002) और पद्मभूषण (1975) जैसे सम्मान बताते हैं—कितना बड़ा है येसुदास का कद। शास्त्रीय़ संगीत  में माहिर येसुदास का एक और गीत है—सदमा फ़िल्म का। गुलज़ार के बोल, इलैयाराजा की संगीत संरचना और येसुदास का वही जादू फिर से...सुरमई अंखियों में नन्हा-मुन्ना एक सपना दे जा रे, रारी रारी ओ रारी रुम, रारी रारी ओ रारी रुम....। ग़ज़ब का जादू रचते हैं येसुदास...फिर आती है तनहाई में तड़पते मन को छांव देने के लिए जैसे एक गोद। माथा सहलाने को कोमल सुरों की नाज़ुक उंगलियां।

येसुदास ने हर मौक़े के मुताबिक गीत  गाए। उन्होंने `कभी मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है, जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है...’ के बोल अमर कर दिए, जिनसे जीने की राह मिले, तो `जानेमन जानेमन तेरे दो नयन चोरी चोरी लेके गए देखो मेरा मन’ जैसा गुनगुनाने वाला नग्मा भी सुनाया।

एक लैटिन कैथोलिक  परिवार में जन्मे येसुदास ने संगीत का विधिवत प्रशिक्षण हासिल किया। बेहतरीन रंगमंच कलाकार औगेस्टीन जोसफ अपने बेटे येसुदास को बेहतर गायक बनाना चाहते थे। येसुदास ने गरीबी से संघर्ष करते हुए भी अपने पिता का सपना पूरा किया, उन्होंने ताने सुने, आल इंडिया रेडियो, त्रिवेन्द्रम के अफ़सरों से ये भी सुना—तुम्हारी आवाज़ प्रसारण के लिए उपयुक्त नहीं है...लेकिन हिम्मत नहीं हारी।

अफ़सोस ये है कि 2007 में येसुदास को उपेक्षा  झेलनी पड़ी। "दासेएटन" नाम से मशहूर येसुदा चाहते थे कि गुरुवायुर मन्दिर में बैठकर कृष्ण स्तुति करें, लेकिन उन्हें मन्दिर में प्रवेश नहीं दिया गया। अपने मलयालम गीत "गुरुवायुर अम्बला नादयिल.." के ज़रिए येसुदा ने अपनी ये पीड़ा जाहिर की थी।

मलयालम फ़िल्म कालापदुकल से येसुदास ने बतौर गायक अपना कैरियर शुरू किया। 1955 से सुरों की दुनिया को अमीर बना रहे येसुदास की आवाज़ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में सन पचहत्तर में गूंजी। हिंदी फ़िल्म संगीत के दर्शकों का शुक्रिया अदा करना चाहिए संगीतकार सलिल चौधरी का, जिन्होंने येसुदास से 1975 में फिल्म 'छोटी सी बात' का एक गीत गवाया—'जानेमन जानेमन' । इसमें आशा भोसले उनके साथ थीं । 1977 में इनकी आवाज़ फिर सुनाई दी 'आनंद महल' के गीत 'नी सा गा मा पा' में। रवीन्द्र जैन ने 1976 में इनसे 'चितचोर' में गवाया। 1979 में राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्म 'सावन को आने दो' के दो गीत भी मन को लुभाने में सफल रहे। एक—चांद जैसे मुखड़े पर बिंदिया सितारा...और तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो...।

इससे कुछ साल पहले रूसी भी इस सुरीली गुनगुनाहट के तब दीवाने हुए, जब उन्होंने सोवियत संघ के तमाम शहरों में संगीत समारोहों में गीत सुनाए और रेडियो कजाकिस्तान पर भी पेशकश की। येसुदास ने 1980 में त्रिवेन्द्रम में थारंगी स्टूडियो की स्थापना भी की. 1992 में इसका कार्यालय और स्टूडियो चेन्नई में स्थानांतरित किया गया और फिर 1998 में अमेरिका में भी इसकी शाखा शुरू हुई। भारतीय संगीत को ग्लोबल पहचान दिलाने की एक मज़बूत कोशिश ये भी थी। सात समंदर पार तक भारतीय संगीत की तान पहुंचाने वाले येसुदास ने ज़ख्मी दिलों पर मरहम तो लगाए ही, 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच छिड़ी जंग के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए धन भी जुटाया। वतन की हिफाज़त की ख़ातिर अपना चैन भुलाकर जो राहों पर निकल पड़े, वही तो असल फ़नकार है।

हालांकि येसुदास  जंग के हरदम ख़िलाफ़ रहे, यही वजह है कि उन्हें यूनेस्को की तरफ से भी सम्मानित किया गया। वो ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने संगीत को शांति लाने के लिए साधन बनाया और इसमें कामयाब भी रहे। येसुदास की पत्नी हैं प्रभा और तीन बेटे हैं-विनोद, विजय और विशाल। इनमें से विजय येसुदास की परंपरा को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिए 2007 में केरल राज्य फ़िल्म पुरस्कार दिया गया।

क्या आम और क्या ख़ास, येसुदास के मुरीद  हज़ारों लोग हैं। मशहूर  गायिका पी. सुशीला कहती हैं, येसुदास संगीत का सागर हैं। वो अपने व्यवहार से संत  की तरह लगते हैं। ऐसा ही मानते हैं अभिनेता मम्मूटी। वो तो कहते हैं—मैं उनका भक्त हूं। वो जीवित हैं, तो संगीत सांस लेता है। संगीतकार रवींद्रन की राय भी ज़ुदा नहीं है, 'येसुदास परमेश्वर की आवाज हैं।‘

लोगों का इतना प्यार यूं ही नहीं मिलता...हरिहरन जैसे गायकों की मानें, तो येसुदास केरल में लोगों के जीवन का एक हिस्सा हैं। सुबह से देर रात तक चाहे लोरी सुनने के लिए, बसों में चलते हुए, गलियों में-घरों में, होटल-रेस्टोरेंट्स में सुनाई देती है, तो सिर्फ येसुदास की आवाज़।

अन्ना मलाई विश्वविद्यालय से 1989 में डॉक्टरेट, 1992 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1994 में राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय संसद में सदस्यता, दसियों बार राज्य स्तरीय सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक के ख़िताब...येसुदास को इतने ईनाम-इकराम मिले हैं कि सबका उल्लेख किया जाए, तो दो-चार पन्ने भर जाएं...पर अफ़सोस...इतने गुणी व्यक्ति को बॉलीवुड ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। आखिर क्यों? पता नहीं, इस सवाल का जवाब क्या है?

जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख

5 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

इतने विस्तार से जानने को मिला येसुदास के बारे में, मज़ा आ गया।
हिंदी में गाने बहुत ज्यादा नहीं गाये इन्होंने, लेकिन जितने भी गाये हैं, मन क्प छू जाते हैं।
आभार आपका।

वाणी गीत said...

येशुदास ने सिद्ध किया है कि गुणवत्ता का कोई विकल्प नहीं है ...विस्तृत जानकारी के लिए आभार ..

मनोज कुमार said...

बहुत ही अच्छी जानकारी से भरा पोस्ट।

Udan Tashtari said...

आभार इतनी सारी जानकारी का...येसुदास के गीत बहुत सुन्दर हैं.

किरण राजपुरोहित नितिला said...

yehudaas ke baare me padhna sukhad raha .
unke geeto ka kon diwaana nahi hai ?